शनिवार, अक्तूबर 06, 2007

बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही

नीहारिका झा के बारे में कुछ भी कहने से बेहतर यही है बकौल शमशेर बहादुर सिंह-
बात बोलेगी हम नहीं,
भेद खोलेगी बात ही.
पेश है ख्वाब का दर के लिए खास तौर पर भेजी गई उनकी एक कविता.

एक निवाला


तुम तो रोज खाते होगे
कई निवाले,
मैं तो कई सदियों से हूँ भूखा,
अभागा, लाचार, लतियाया हुआ।
रोज गुजरता हूँ तुम्‍हारी देहरी से
आस लिए कि कभी तो पड़ेगी तुम्‍हारी भी नजर,
इसी उम्‍मीद से हर रोज आता हूँ,
फिर भी पहचान क्‍या बताऊँ अपनी,
कभी विदर्भ तो कभी कालाहांडी से छपता हूँ,
गुमनामी की चित्‍कार लिए,
जो नहीं गूँजती इस हो-हंगामे में।

ना नाम माँगता हूँ,
ना ही कोई मुआवजा,
उन अनगिनत निवालों का हिसाब भी नहीं,
विनती है ! केवल इतनी,
मौत का एक निवाला चैन से लेने दो ।


- नीहारिका झा