tag:blogger.com,1999:blog-3231542331208500538.post3792085434422659568..comments2023-10-28T13:48:43.907+05:30Comments on ख्वाब का दर: चुप रहने में कितनी समझदारी हैPankaj Parasharhttp://www.blogger.com/profile/06831190515181164649noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-3231542331208500538.post-47879712538881514622009-11-24T18:34:09.263+05:302009-11-24T18:34:09.263+05:30हिंदी साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि वह यह...हिंदी साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि वह यहां सिर्फ़ कला के लिए कला की धारणा कभी प्रतिष्ठित नहीं रही है. इसलिए इसे साहित्य से अलग मानने का सवाल ही नहीं उठता. ख़ास कर ऐसे समय में जबकि मीडिया सिर्फ़ मुनाफ़े के सौदे में व्यस्त हो, यह ज़िम्मेदारी साहित्य को ही उठानी होगी.इष्ट देव सांकृत्यायनhttps://www.blogger.com/profile/06412773574863134437noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3231542331208500538.post-11083908475783404372009-11-24T07:23:17.994+05:302009-11-24T07:23:17.994+05:30बढ़िया विचारणीय उम्दा आलेख...बढ़िया विचारणीय उम्दा आलेख...Udan Tashtarihttps://www.blogger.com/profile/06057252073193171933noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3231542331208500538.post-2495908572751742542009-11-24T00:27:48.063+05:302009-11-24T00:27:48.063+05:30बढ़िया आलेख ! आपने सच कहा, "मीडिया को आज इस ख...बढ़िया आलेख ! आपने सच कहा, "मीडिया को आज इस खबर के फॉलो अप की कोई जरूरत महसूस नहीं होती|" <br />जब नेता और जनता दोनों की यादाश्त कमज़ोर हो तो मीडिया कब तक याद रखे बातो को ?शिवम् मिश्राhttps://www.blogger.com/profile/07241309587790633372noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3231542331208500538.post-7483554785693701032009-11-23T20:35:24.268+05:302009-11-23T20:35:24.268+05:30"जब देश की राजनीति शातिर ढंग से चीजों को गड्ड..."जब देश की राजनीति शातिर ढंग से चीजों को गड्ड-मड्ड करने और कथित निश्छलता से देश की जनता के सामने सच नहीं आने देने के प्रति एकजुट हो, तब चुप रहना और कविता-कहानी करते रहना मुझे बेमानी ही नहीं, लगभग अश्लील लगता है।" <br /><br />मित्र हिन्दी साहित्य का संसार इन सवालों से टकराते हुए अपनी भूमिका को विश्वसनीय क्यों नहीं बना पा रहा है या, उतने विश्वसनीय ढंग से क्यों नहीं उठा पा रहा है (?) आपकी बातें ऎसे कई सवाल छेड़ रही है। ये जरूरी बातं हैं, तरूरी है कि समकालीन रचनाओं की आलोचना ऎसे सवालों के दायरे में की ही जाए। मुझे लगता है फ़िर सजगता से भरा रचनात्मक कदम शायद अश्लील न लगे।विजय गौड़https://www.blogger.com/profile/01260101554265134489noreply@blogger.com