शुक्रवार, जून 15, 2007

नया ज्ञानोदय की परिचय पच्चीसी


कुमार मुकुल की कविता एक तरह से मजबूरी में "नया ज्ञानोदय" को छापनी पड़ी. कविता छापने के बाद भी चूंकि मुद्दा गंभीर था इसलिए उन्होंने लिखकर विरोध जताने के लिए "हंस" को यह लेख दिया लेकिन इस लेख के मुआमले में असहमति के सारे साहस चूक गए. "हंस" ने नहीं छापा. मुकुल जी हर हाल में यह बताना चाहते थे कि वे भी मुंह में जबान रखते हैं और उन्हीं की जुबानी पेश है यह लेख.



कुमार मुकुल

2005 के वागर्थ के युवा पीढ़ी विशेषांक में रवींद्र कालिया ने स्वगत में लिखा था- बगैर तोड़फोड़ के किसी भी विधा का विकास संभव नहीं होता... वह (कुणाल सिंह) शब्दों से फुटबाल की तरह खेलते हुए कहानी खड़ी कर लेता है... अब जाकर 2007 में आये नया ज्ञानोदय के मई-जून विशेषांकों में संपादन के स्तर पर घोषित तोड़फोड़ और शब्दों का खेल सामने आया है।शब्दों के जादूगर संपादकद्वय द्वारा नवोदितों के दिये गये परिचय के नमूने देखें- 'दुबली-पतली और सुंदर कथाकार', 'अविवाहित कथाकार... बट गर्ल्स फादर मस्ट हैव हिज ओन बार', 'हर मंगलवार को मंदिर और शनिवार को हंस के कार्यालय में जाती हैं', 'बैलों की खरीदफरोख्त का अच्छा अनुभव', 'बालिवुडिय शब्दावली में कहें तो राजुला शाह स्टार घराने से हैं', '...आग्रह करने पर नहीं लिखते... धमकाने पर भी नहीं... दो कहानियां और अब तक दो बार अस्पताल की हवा खा चुके हैं। हाल में ही तीसरी बार अस्पताल से बाहर आये और यहां यह तीसरी कहानी...', 'करीब आधा दर्जन प्रेम और इतनी ही कहानियां। अभी तक न कोई किताब, न ही कोई पुरस्कार', 'सात-आठ कहानियां। छह-सात भाषाओं में अनुवाद। तीन-चार पुरस्कार... प्रेम संबंध एक ही और एक ही किताब। शादी अभी एक भी नहीं', 'जी खोलकर हंसती हैं और धुंआधार लिखती हैं... युवा लेखिकाओं से फोन पर बात करने का चस्का। यह चित्र 10 अप्रैल की सुबह का', 'सैंतीस साल की उम्र में 'सत्ताइस साल की लड़की' लिखी, जो हिट रही', 'पेशेवर अध्यापक... प्रेमिका से ही शादी कर ली... यह कहानी संपादक के उकसाने पर लिखी', 'बहुत गुजारिश के बाद यह छोटी कहानी', 'बीबी-बच्चों के साथ ताजमहल में फोटो खिंचवा चुके हैं', 'इन दिनों ताजमहल के साये में गुजर-बसर कर रही हैं', 'पच्चीस पृष्ठीय पहली कहानी संपादकों की क्रूरता का शिकार होते-होते अब छह-सात पृष्ठ की रह गयी। उम्मीद है, भविष्य में लंबी कहानी लिखने से कतराएंगे। एक ताजी सचमुच की छुटकी कहानी का इंतजार', 'कंधों से नीचे जाते खुले-लंबे सीधे बाल- गोल चेहरा- चमकती हुई आंखें- चेहरे से टपकता बौद्धिक उजास और विश्वास- सारिका (1977-78-79 का कोई अंक रहा होगा) में छपा चित्र। नाम- नासिरा शर्मा (इस अंक में नासिरा शर्मा की पांच तस्वीरें और एक स्केच छपे हैं।)', 'अंजली काजल की... अंतिम कहानी। इसके बाद वे अंजली गौतम के नाम से लिखेंगी... दो तीन महीने पहले ही शादी हुई और शादी के बाद यह पहली कहानी'।'सनातन बाबू का दाम्पत्य' कहानी में कहानी के झूठ होने की घोषणा करता कहानीकार (कुणाल सिंह) कहता है- 'क्या हम सच से उकता कर थोड़ी देर के लिए जान-बूझ कर झूठ नहीं जीने लगते? उदाहरण के लिए 'माना सूरज पश्चिम से उगता है... कितना भोला और जिंदादिल झूठ जिस पर सौ सच्चाइयां कुर्बान।'उपरोक्त संदर्भों में देखें तो 'विधा के विकास के नाम पर तोड़फोड़, एक झूठ पर सौ सच कुर्बान करने की कातिलाना अदा, बालिवुडीय हिट-फ्लॉप शब्दावली का घोषित तौर पर प्रयोग संपादकद्वय के निजी फितूरों को ज्यादा सार्वजनिक कर रहे हैं। युवा रचनाकारों की बाबत वे कुछ खास नहीं बता पा रहे हैं, सिवा उनकी अक्षमताएं उजागर करने के। जैसे पच्चीस पृष्ठ की कहानी को घोषित संपादकीय क्रूरता में कतर कर छह पेज का कर देने का क्या तर्क है? ऐसी कहानियों में संपादकद्वय अपना नाम जोड़ देते तो बेहतर होता। बजाय अपनी क्रूरता के उद्-घाटन के। इस क्रूरता के शिकार युवा कथाकार उमाशंकर चौधरी से जब उनकी पच्चीस पेज की कहानी को कतर कर छह पेज की कर देने के बारे में मैसेज कर पूछा तो उनका एसएमएस आया- 'ये कहानी दो पेज एडिट हुई है, वो भी मेरे द्वारा, परिचय में जो लिखा गया है, वो अगर मजाक है तो बहुत ही खराब मजाक है, मैं एक पत्र लिखूंगा।'इसी तरह नासिरा जी की आधा दर्जन तस्वीरें छापने और नख-शिख वर्णन का कोई अलग से मानी नहीं निकलता। सिवा सुमुखियों के प्रति अपने गुप्त अनुराग के प्राकट्य के। किसी रचनाकार की तस्वीर किस दिन और कितने बजे खींची गयी, यह तक बताया गया है परिचय में।कुणाल शब्दों के फुटबालर हैं और खूब खेल किया है उन्होंने। सैकड़ों सच्चाइयां कुर्बान कर दी हैं एक-एक झूठ को स्थापित करने में। बालिवुडीय शब्दावली का प्रयोग जो आरंभ कर चुके हैं वो- तो आगे क्या युवा रचनाशीलता का जासूसी अंक या मॉडलिंग अंक निकालने की योजना है। होली पर अश्लील मसखरेबाजी से पूर्ण अंक निकालने की पुरानी सामंती परंपरा को पुनर्जीवित करने का इरादा तो नहीं।परिचय में 'दुबली-पतली सुंदर कहानीकार' लिख कर क्या बताना चाहते हैं संपादक? इस 'नयनसुख' संपादकीय के नमूने वागर्थ 2004 के अक्टूबर अंक में भी देखे जा सकते हैं, जिसमें पाठकीय कॉलम में छपे पचास पत्रों में मात्र एक आरती झा की तस्वीर छपी है, जबकि उसी अंक में आरती की एक लघुकथा भी प्रकाशित है। तस्वीर वहां लग सकती थी, पर कृपा प्रदर्शन फिर कैसे होता! छुपाछुपी का यह खेल वागर्थ के उस अंक में कुणाल के परिचय में भी देखा जा सकता है, लिखा है- 'एक राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिका में सहायक संपादक, जबकि इसी अंक में सहायक संपादक में उनका नाम छपा है। सहायक संपादक के युवकोचित राग-द्वेष की झलक तमाम परिचयों में मिल जाती है। राकेश मिश्र के परिचय के साथ कुणाल का परिचय का मिलान करें, पता चल जाएगा। राकेश के बारे में बताया गया है कि आधी दर्जन कहानियां, पर कोई पुरस्कार नहीं। जबकि कुणाल के परिचय में राकेश को मुंह चिढ़ाते हुए लिखा गया है- सात-आठ कहानियां, तीन-चार पुरस्कार। यहां प्रेम संबंधों की गिनती और उससे उपजी कुंठा के दर्शन भी होते हैं। राकेश मिश्र के आधा दर्जन प्रेम हैं, पर कुणाल का एक प्रेम संबंध है और शादी तो बेचारे की एक भी नहीं है, लगता है शादी का ठेका देने का इरादा है।कहानीकार कविता के पति राकेश बिहारी मिले, तो उन्होंने परिचय पर आपत्ति जताते कहा- मेरी मां दुखी रहती हैं कि कैसी बहू है कि पूजा-पाठ नहीं करती। शशिभूषण के परिचय पर विस्फारित आंखों से देखतीं कवयित्री अनामिका ने कहा- यह तो चरित्र हनन है। वरिष्ठ कवि विष्णु नागर ने कहा कि पहले एक हंस ही चर्चा में आने के लिए तमाशा करता था, ज्ञानोदय उससे आगे निकलने को है। राजीव रंजन गिरी ने भी परिचय को बीभत्स बताया।2005 के वागर्थ के संपादकीय में रवींद्र कालिया ने दलित विमर्श और नारी विमर्श को तथाकथित बताते हुए कुछ संभ्रांत नागरिकों द्वारा दैहिकता और यौनाचार करने का आरोप लगाया था। उपरोक्त परिचय आखिर इससे भिन्न किस दूसरी मानसिकता का खुलासा करते हैं?कई परिचयों में उकसा कर, आग्रह कर, धमका कर कहानियां लिखवाने की बात की गयी है। रचनाकार न हुए गाय-भैंस हुए। दूध नहीं उतर रहा तो इंजेक्शन से दूध उतार दिया। अपनी समझदारी थोपने का दुराग्रह ऐसा कि इस रौ में वे कई ग़लतियां कर जा रहे हैं। जैसे, राजीव कुमार के परिचय में पहली पंक्ति में लिखते हैं- 'अब तक दो बार अस्पताल की हवा खा चुके हैं, लगे हाथ दूसरी पंक्ति में लिखते हैं- तीसरी बार अस्पताल से बाहर आए...'। सारा ध्यान सुमुखियों पर लगा देने पर ऐसी ग़लतियां होंगी ही। अंजली काजल ने शादी के बाद जब उसी नाम से कहानी लिखी और छपवायी, तो अंजली गौतम हो जाने का स्त्री-अस्मिता विरोधी मत उन पर थोपने के क्या मानी? हमारे युवा मित्र व जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने जब अंजली काजल से इस बाबत पूछा तो उनका मैसेज आया कि मैं अंजली गौतम हूं या अंजली काजल- कुछ समझ नहीं आ रहा। सुधीर सुमन ने ही बताया कि ज्ञानोदय में छपे इस अंक के एक रचनाकार के परिचय के दौरान स्टिंग आपरेशन के तर्ज पर छद्म नाम से रचनाएं करने के राज़ का पर्दाफाश कर उनके लिए वैधानिक संकट खड़ा कर दिया गया है। संपादकीय नैतिकता के लिहाज़ से इसे एक भद्दा और क्रूर खेल माना जाएगा। अब तो यही बाकी रह गया है कि वह रचनाकार इसके विरुद्ध किसी कोर्ट में जाए और कहे कि वह छद्म नाम उसका नहीं है और साहित्यिक स्टिंग पत्रकारिता के ज्ञानोदयी संपादक वहां सबूत पेश करें कि नहीं यह नाम उसी का है। यह तो अपना मत और अपनी आधी-अधूरी, सड़ी-गली सूचनाएं पाठकों पर थोपने कोशिश ही कही जाएगी। इस तरह की गॉसिप को क्या कहा जाए? क्या हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता में यह स्टारडस्ट इरा की शुरुआत है? क्या अब हिंदी साहित्य को ज्ञानोदय की इसी परंपरा पर चलाया जाएगा?नया ज्ञानोदय के मई अंक के संपादकीय में इसी तरह अपना मत जबरदस्ती विजयमोहन सिंह के मत्थे मढ़ने की कोशिश की गयी है। विजय कुमार की हजामत इस आधार पर बनायी गयी है कि वे कविता में युवा पीढ़ी को तवज्जो नहीं दे रहे और इसके लिए बचाव में खड़ा किया गया है विजयमोहन सिंह को, जबकि पत्रिका के 'प्रारंभ' में ही विजयमोहन सिंह लिखते हैं- '...कुछ चतुर और 'शॉप लिफ्टर' कविताएं अपनी असली पहचान छिपा कर पत्रिकाओं तथा अखबारों के साप्ताहिक संस्करणों में प्रवेश पा जाती हैं। इधर की कविताओं में असली रचना की पहचान इसीलिए थोड़ी धूमिल हुई है।' अलबत्ता कविताएं चतुर भी होती हैं, मेरी समझ में यह नहीं आया। हां, उनके निहितार्थ समझ में आये और वे विजय कुमार के कथन को पुष्ट ही करते हैं। मैनेजर पांडेय के अनुसार भी- 'हिंदी में कुछ कवि ऐसे हैं, जिनके लिए कविता लिखना शतरंज खेलने जैसा है... एक और जमात ऐसे कवियों की है, जो कविता का प्रयोग मदारी के बंदरिया की तरह करते हैं और उससे पैसा बटोरते हैं... कविता भले ही चेतन मनुष्य की मानस कृति हो, आज के अधिकांश स्वनामधन्य कवियों के लिए वो बुद्धिविलास है।'

मंगलवार, जून 12, 2007

वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है

दिल्ली में गर्मी के मारे लोगों का बुरा हाल है...इनसान बाहरी और भीतरी दोनों तपिश से इस कदर परेशान है कि तरावट पाने की उसकी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं. पानी कुछ पल तक तो गले को तर कर देता है लेकिन आंखों का जो पानी सूख गया है उसको कैसे तर करोगे मेरे भाई? रहीम ने कहा था आवत हिय हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह...तो साहब नैनन में सनेह का जो पानी हुआ करता था वह कहां चला गया? हम क्यों नहीं बचा पाते हैं उस पानी को? मुझे लगता है गर्मी का एक यह भी कारण हो सकता है.

जे.एन.यू. के मेरे वे मित्र जो आज आई.ए.एस. हैं, बड़े अधिकारी हैं और ज्यादातर वातानुकूलित कक्ष से निकलने वाले लोगों की जमात में वे पाए जाते हैं उन्हें शायद याद हो कि जे.एन.यू. की पहाड़ियों से निकलती तपिश हालांकि दिल्ली की गर्मी से दो-तीन डिग्री ज्यादा ही हुआ करती थी लेकिन बावजूद इसके गंगा ढाबा के पास गर्म पत्थर पर बैठकर आहिस्ते-आहिस्ते गहराती हुई वह शाम जो हमारी जिंदगी में शबो-रोज आया करती थी वह पता नहीं अब याद हो कि न याद हो. नैनन में सनेह का आलम यह था कि अगर कोई मित्र बीमार हो जाए तो तीमारदारों की लाइन लगी रहती थी...पैसा हो या न हो...मेस बिल, दवा-दारु किसी चीज की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. आज सबकी अपनी अलग-अलग दुनिया है और एक ही दुनिया की अलग-अलग दुनियाओं में हम इस गर्मी में ठंडी हवा की एक छुअन को भी तरस-तरस जा रहे हैं.
हम अखिलेश की कहानी चिट्ठी के नायकों की तरह सुखी होने बाद एक-दूसरे को चिट्ठी लिखकर सूचना नहीं दे पाए हैं कि हम वाकई आज सुखी(!) हो गए हैं और अपनी-अपनी दुनिया में वही तरावट ढूंढ़ रहे हैं.

शाम आज भी हमारे जीवन में आती है लेकिन वो गर्म पत्थर और वो बातें हमारे जीवन में नहीं रह गई हैं, व्यावहारिकता का तकाजा भी शायद यही है कि सब दिन वह सब कुछ हमारे जीवन में रह भी नहीं सकता था. लेकिन जो मन है हमारे पास वह तो वही रह ही सकता था? वह नहीं रख सके हम बचाकर और गर्मी से परेशान हैं. सीने में जलन और आंखों में तूफान-सा जो कुछ दिखाई दे जाता वह एक शायर की हैरानी को बहुत अधिक बढ़ाता है... इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है के रुप में.अब कौन दे इसका जवाब जनाब शहरयार साहब को जो खुद इन दिनों अलीगढ़ ही गर्मी से बेहद परेशान से चल रहे हैं.गर्मियां तो यूं ही आती-जाती रहेंगी लेकिन चाकरी के अपनी व्यस्ततम समय में भी क्या हम अपने नैनन के सनेह को बचा नहीं सकते? इस वक्त जो शामें हमारी जिंदगी में आती हैं हम उसे तो कम-अज-कम अजीब होने से तो बचा ही सकते हैं!

शनिवार, जून 09, 2007

'इंडियन लिटरेचर' का अंक-238

मित्रो, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली अपनी दो सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं हिन्दी में 'समकालीन भारतीय साहित्य' और अंगरेजी में 'इंडियन लिटरेटर' के नाम से प्रकाशित दो पत्रिकाओं के माध्यम से विभिन्न भाषाओं की रचनाओं को हिन्दी और अंगरेजी में पेश करती है। अभी-अभी 'इंडियन लिटरेचर' के अंक-238 में मेरी पांच मैथिली कविताओं का अंगरेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. आप भी उन कविताओं का आनंद ले सकते हैं.

MAITHILI POEMS



ABBOT
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PANKAJ PARASHAR

Panting and panting
Short of breath
Speeding her way
Clutching closely her new born of six
At last stood she at the door
Of a Buddha-Vihar
Hopefully, Knocking

She stood knocking and knocking
Hoping and knocking in vain

How many doors
How many days
How many nights
How many times
Had She knocked, knocked, knocked
Only in vain

Stood a woman
Facing an inquisition
Answering questions
Fired by a battery of Bikshus
Scandalized, Scared tirelessly
Proving time and again
Her chastity her purity

In the endless cycle of life
Between life and death
Between murder and suicide
She passes through
Test numberless
Of ice and Fire
Like a Commodity
She is for sale
Sold from one hand to another
In the market place

From the slave trader Partul
To Bhudhar Sharma and the priest Chakradhar
Slave Divya
Like a mute animal
Is sold everyday
Passing from hand to hand


How ironic it does seem
What bitter constraints
Though a human, yet not considered so

To protect her child
Breathless and panting
She reaches for refuge
At the Buddha-Vihar
Only to be refused

Abbot
One who has lost her partner in life?
And her father too
With a babe of six
Who will she seek
For refuge
Or to Slave away
Her life

ABBOT oh Abbot
How funny it sounds
She thinks she is one of them
But the world think she is not
One of them
She is not part, but apart from them

* * *

Translated from Maithili by- Poet



MAHAPATRA
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PANKAJ PARAHAR


UNTOUCHABLE
WOMEN
DELIVERS
MASSAGES
V. I. P.
ALL SIX DAYS,

SEVENTH
DRIVEN OUT
UNTOUCHABLE
ONCE AGAIN.
***

Translated from Maithili by- Poet



BODH GAYA
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PANKAJ PARASHAR

On his way from Sarnath
Lord Buddha crossed the Ganga
Whispered the boatman
No more ‘BODH’ in Bodhgaya

In Gaya passed away Gayasur
Ajatshatru in Magadh
His eternal foe
Surrounds him still
Doubt and suspicion
Suspicion and doubt,
Mock him still

Change a prefix or a suffix
The word change, world change
Read Him forward he is a ‘God’
Read Him backward makes Him a ‘Dog’
But the truth still Stares
The fact remains
No more Bodh in Bodhgaya.
***

Translated from Maithili by- Poet



TIME: The Denominator
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PANKAJ PARASHAAR

Nothing is visible
In the darkness
I quietly scan
Again and again

Swarms of code words
Swarm around me
Keeping a vigil
A watch over me

One fine day
The words in my diary
Suddenly change, so
Do their meaning

Where stood the writing pad
Now stood the ‘phallus’-’Shaligram’

Later one day
Vanish my creations
My complete and incomplete
Poetic outpouring
The living witness of my innocent feeling

Since several nights
Come wafting a cry
RAM NAM SATYA HAI
RAM NAM SATYA HAI
God Alone is Truth
Truth alone is God
In the tone of a lullaby
A chorus is sung

The last rites mantras
Are called didactic ditties
In a chorus resounds
A Prey
A Prey

In the darkness
Masked men inn medieval wears
With modern weapon
Demolish the image of Buddha

I see
The earthquakes in horror
Deferent men of different ‘isms’
Hurl abuse in different tongues
Keep shouting
Democracy, Democracy

I see
I hear

How Strange
How amusing
In an age of blank verse
In an age of unheeding
Come slogans in
Rhymes and alliteration.
***

Translated from Maithili by- Poet


BAG ON THE PEG
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PANKAJ PARASHAR

Father
From wherever he came from
Hung his bag on the peg
Went to the well
To wash away
His thirst, hunger and fatigue
And dust

The bag on the peg
Disturbs him again and again
Makes him restless again and again
Gets him ready again and again
Forces him out again and again

The bag on the peg
Used as a napkin
To wipe away his sweat
Is turned into an air bag
To stuff his clothes
Towel and snacks
When he travels afar

The bag on the peg
When he holds in the hands
Radiates a festive gay
In the wrinkled face of my father
On the day mother is busy,
Grinding ‘masala’
Sister is busy cooking rice
Grandma with her laughter
Sounds sweet as the flower
A crowd of birds
Keep hoping in the yard.

The bag on the peg
Was a mystery unsolved?
We stood on tiptoes
On the narrow stairs
On each others shoulders
We stood
-To peep and pry
See and find
Inside the bag on the peg

The bag on the peg
Had a hundred wholes in it
Like the innumerable cracks on his feet
Things in the bag could be seen
In and out
Like father watching the time

The bag on the peg
Perhaps it reminded him
Of the birds that left their nests
For their little offspring’s
To return in the evenings
Of going to bed early
Rising and leaving
Before day break

Bag on the peg
Denoted father’s presence
Which made children silent
Women talk in Whispers
And sister humming
Only Vidyapati instead of film
Thus in this beg democracy or ours
The beg gentrified the big boss

The bag on the peg
Still is on the peg
In the same place
In the same room
But the’ Nehru’s and ‘Jinnah’s of the house
Did not pay need
To the father (of the nation)
As was expected
The houses stood divided

Father was shaken like Gandhi

The bag on the peg
Still hangs there
It is now treated
Not even as a ‘Saint in Letters’
Nor even as Gods of the ‘Pariahs’

My wife put her foot down
I’ll use the bag
To dry the dishes my wife said
To dust the cycle my son said
To make a soft bed my daughter said
For my doll
But I stood firm never allowed the bag
To leave its peg

The bag in the peg
And me on the bed
Cried and Cried
All nightlong
Like a new bride
Leaving her home

Thank God no one
Raises the issue of the bag now
The bag is on the peg
Reminding of father
Swinging and reminding
Of his presence everywhere.
****

Translated from Maithili by- Poet




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मंगलवार, जून 05, 2007

घर में क्या था कि तिरा गम उसे गारत करता

घर में क्या था कि तिरा गम उसे गारत करता
रखते थे एक हसरत-ए-तामीर, सो है
मुझे ऐसा लगता है कि चचा ग़ालिब ने बेहद दुखी और नाउम्मीद होकर ही शायद इस शेर में खुद को व्यक्त किया होगा. वक्त गवाह है कि अपने समय के हर बड़े शायर को जमाने भर के गम को तो झेलना ही पड़ा उससे भी कहीं ज्यादा शायद लोगों ने उन्हें अपने तईं परेशान करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी. मिर्जा के बेहद करीबी शागिर्द मौलाना मुसद्दस खां हाली ने लिखा है कि बुढ़ापे में भी उनकी शायरी, उनकी प्रतिभा से जलने वाले लोग गालियों से भरे खत उन्हें भेजते थे. मिर्जा इससे इतना परेशान हो गए थे कि लिफाफा खोलने से पहले ही उनका हाथ कांपने लगता था. हाली ने लिखा है कि ऐसे एक दोपहर को जब वे मिर्जा के पास बैठे थे तो डाकिये ने खत लाकर दिया. हाली यह जानते थे कि आजकल मिर्जा के पास कैसे-कैसे खत आते हैं. मिर्जा ने उन्हें लिफाफा खोलने को कहा. एक बार तो वे सहमे लेकिन मिर्जा ने जब दोबारा कहा तो उन्होंने लिफाफा खोला. खत में बहुत खराब-खराब गालियां थी. मिर्जा ने पूछा कि क्या लिखा है? तो इसका जवाब देने में हाली को अटपटा लगा. मिर्जा हाली के हाथ से खत लेकर खुद ही पढ़ने लगे. खत पूरा पढ़ने के बाद ठहाका लगाकर हंसे. हाली ने हैरत से उन्हें देखा कि अरे ये तो हंस रहे हैं? मिर्जा ने कहा कि कमबख्त मुझे इस उम्र में मां की गालियां देता है. देखिये हाली साहब कमबख्त को गाली देने का भी शऊर नहीं है. अरे, इनसान जब बच्चा होता है तब वह सबसे ज्याद करीब अपनी वालिदा के होता है, जवानी में बीवी के- तो उस वक्त जब उसे गाली अपने सबसे करीबी से जोड़कर दी जाए तो उसे गुस्सा आता है. बुढ़ापे में अगर मुझे बेटी की गाली देता तो एक बात थी लेकिन कमबख्त गाली दे रहा मुझे मां की. यह कहने के बाद मिर्जा और जोर-जोर से ठहाके लगाने लगे. तो साहिबो, ऐसे जिंदादिल शायर चचा ग़ालिब.
जब तवक्को ही उठ गई ग़ालिब
क्या किसी का गिला करे कोई