वे सस्ते में देश बेचते हैं, सस्ते में ईमान बेचते हैं और न जाने सस्ते में क्या-क्या नहीं बेच डालते हैं. मगर कोई गरीब अगर अपना अंग बेचता है तो सरकार हाय-तौबा मचाने लगती है। आत्महत्या करना जुर्म है लेकिन भूखे पेट सोना और तिल-तिल करके मरना जुर्म नहीं है। संविधान का अनुच्छेद २१-ए हमारे जीन के अधिकारों की हिफाजत करने का दावा करता है। मगर क्या वाकई? बनारस के गरीब बुनकरों की बड़ी फौज अपने बाल-बच्चों का पेट भरने के लिए खून बेच-बेचकर घर चलाया और जब खून भी न बचा तो मर गए। यहां खून बेचना वैध है, गुर्दा बेचना वैध है और अफसोस कि इस हालत तक पहुंचाने वाले लोगों के सभी कृत्य भी वैध हैं। कुछ दिनों पहले खबर आई थी कि बांग्लादेश में ग़रीबी से बदहाल एक महिला ने रोज़ी-रोटी चलाने के लिए अपनी आँख बेचने के लिए विज्ञापन दिया है. बांगलादेश में किसी भी अंग को बेचना ग़ैरकानूनी है. लेकिन क्या कोई यह सोचता है कि किसी भी देश में भूखे पेट सोना गैरकानूनी क्यों नहीं होता?
कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
सोमवार, फ़रवरी 25, 2008
शनिवार, फ़रवरी 23, 2008
उमा खुराना के कपड़े फाड़े और इज्जत भी मगर चुप हैं सब
होली आ रही है। मगर दिल्ली के वे लोग, जो अपनी बच्चियों को कथित रूप से अनैतिक होने से बचाना चाहते थे-ने भीड़ में मौका पाकर उमा खुराना को पतित करने में जरा भी देर नहीं लगाई। घोर नैतिक लोग मौके ढूंढते रहते हैं कैसे रंग लगाने के बहाने किसी नाजुक अंग पर हाथ साफ करने और रंग जमाने का मौका मिल जाए। इस डर से कई बार भौजाइयां दरवाजा ही बंद कर लेती हैं। मगर बिचारी उमा खुराना किसी तरह भी अपने कोमल अंगों को दबा-दबाकर मजा लेनेवाले भीड़ रणबांकुरों से अपना बचाव नहीं कर पाई। मामला फर्जी है या असली है इसे जाने बगैर जनता ने अपना इनसाफ करना शुरू कर दिया। उमा खुराना भीड़ के हत्थे चढ़ गईं और भीड़ ने कपड़े फाड़कर किस तरह समाज को अनैतिक होने से बचाया इसको बार-बार टी.वी. के वीरों ने दिखाया।
बाद में मामला सारा फर्जी साबित हुआ। उमा के मामले को लेकर जांच शुरू हुई और वह निर्दोष करार दी गई। मगर सरकार ने कहा कि हम बहाल नहीं करेंगे। क्यों भई। इस पर सब चुप। वक्त मगर बीतता रहा और इधर खबर आई है कि उमा की बहाली का आदेश निकल गया है। कई लोग समाज और मीडिया के नैतिक पुलिस द्वारा पहले ही दोषी करार दे दिये जाते हैं और जिंदगी भर के अपने मोहल्ले और अपने विभाग में मजाक का एक सामान भर बनकर रह जाते हैं।
भंवरी देवी का क्या हुआ? क्या हुआ दो-दो शौहर के पाट में पिसकर मर जानेवाली गुडि़या का? सरे बाजार इज्जत को नीलाम करने वाले नैतिकता के सारे सिपाही चुप हैं-समाज के, धर्म के और परम उत्साही मीडिया के लोग भी।
बुधवार, फ़रवरी 20, 2008
साला सब हंसकर निकल जाता है अपुन को अकेला चीखता छोड़कर
ये कायकू कैता है मेरे कू बोलने का नइ
अपुन नइ बोलेंगा तो और कोन बोलगा मेरे वास्ते
तू इदरीच आके मेरे कू जास्ती बोलने से रोकता है भिडु
कि ये साला भाई लोग जरूर खल्लास करेगा मेरे को किसी दिन
ये साले भंडुवे ठुल्ले रोज आकर वसूलते हैं अपना हिस्सा
और फिर भी दांत दिखाके कैसा एहसान दिखाता है नेता के माफिक
भाई तो कभी भी आ जाता है हफ्ता वसूलने पूरे लश्कर के साथ
अपुन कैसा चूतिया के माफिक खाली देखता रह जाता है,
ये भड़ुंवागिरी तो भिडु मरवाने से भी बुरा है
मगर सेठ लोग जो साला मार-मार के लोगों को माल बनाता है
और कमाठीपुरा में अपुन लोगों पर धौंस दिखाता है
कभी पोलिस का तो कभी नोटों के बंडल का ताबड़तोड़
ये जो पेज थ्री पार्टियों में डीलिंग करते हैं बड़े-बड़े धंधों का
हार्लिक्सी नस्ल की लौंडियों को पेश करके रोशनी के भीतर के अंधरे में
सेठ लोग ये साला बड़ी-बड़ी फैक्ट्री चलाता, पैसा बनाता और इज्जतदार हो जाता है
भंडुवागिरी करके वह साला समाज और सरकार दोनों का बाप बन जाता है
अब तो हमारा यह सरकारी और सामाजिक बाप
कमाठीपुरा को उजाड़ने का ले आया है आर्डर
चलाएगा बुलडोजर और साफ करके खेत बना डालेगा हमारी खोली को
जहां बननेवाले बड़े-बड़े मॉल में आएंगी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
बड़े-बड़े सेठों के घर में सप्लाई की जानेवाली हाई क्लास की सोशलाइटें
हमारा काम ताबड़तोड़ करेंगे सेठ लोग बिल्कुल पेशेवर की माफिक
दस पेटी, बीस पेटी माल इधर से उधर होगा मिनटों में
अपुन गटर के कीड़े की माफिक कुलबुलाते हुए जीने के लिए भी
गिड़गिड़ाता रह जाएगा और आक्खा मुंबई से बुहारकर फेंक दिया जाएगा
हमारा कौन-सा देश है भिडु
साला तुम भी नहीं बोलता कुछ
वह देश ढूंढकर ला दे मेरे कू सारे जहां से अच्छा गाता है
बच्चा लोग म्यूनिस्पेलिटी के स्कूल में
अपुन को न कोई जीते जी जीने देता न मरने पर श्मशान में जगह देता
जिंदगी भर साला हरामी, आवारा सुन-सुनकर लात खाते हुए जीना....
मैं पूछता हूं सेठों, भाई लोगों से और दांत निकाले नेता लोगों से
कहां है मेरा देश, कौन है मेरे जीने के अधिकारों का पहरूआ?
बोलता कोई नहीं, साला सब हंसकर निकल जाता है
अपुन को अकेला चीखता छोड़कर
अपुन नइ बोलेंगा तो और कोन बोलगा मेरे वास्ते
तू इदरीच आके मेरे कू जास्ती बोलने से रोकता है भिडु
कि ये साला भाई लोग जरूर खल्लास करेगा मेरे को किसी दिन
ये साले भंडुवे ठुल्ले रोज आकर वसूलते हैं अपना हिस्सा
और फिर भी दांत दिखाके कैसा एहसान दिखाता है नेता के माफिक
भाई तो कभी भी आ जाता है हफ्ता वसूलने पूरे लश्कर के साथ
अपुन कैसा चूतिया के माफिक खाली देखता रह जाता है,
ये भड़ुंवागिरी तो भिडु मरवाने से भी बुरा है
मगर सेठ लोग जो साला मार-मार के लोगों को माल बनाता है
और कमाठीपुरा में अपुन लोगों पर धौंस दिखाता है
कभी पोलिस का तो कभी नोटों के बंडल का ताबड़तोड़
ये जो पेज थ्री पार्टियों में डीलिंग करते हैं बड़े-बड़े धंधों का
हार्लिक्सी नस्ल की लौंडियों को पेश करके रोशनी के भीतर के अंधरे में
सेठ लोग ये साला बड़ी-बड़ी फैक्ट्री चलाता, पैसा बनाता और इज्जतदार हो जाता है
भंडुवागिरी करके वह साला समाज और सरकार दोनों का बाप बन जाता है
अब तो हमारा यह सरकारी और सामाजिक बाप
कमाठीपुरा को उजाड़ने का ले आया है आर्डर
चलाएगा बुलडोजर और साफ करके खेत बना डालेगा हमारी खोली को
जहां बननेवाले बड़े-बड़े मॉल में आएंगी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
बड़े-बड़े सेठों के घर में सप्लाई की जानेवाली हाई क्लास की सोशलाइटें
हमारा काम ताबड़तोड़ करेंगे सेठ लोग बिल्कुल पेशेवर की माफिक
दस पेटी, बीस पेटी माल इधर से उधर होगा मिनटों में
अपुन गटर के कीड़े की माफिक कुलबुलाते हुए जीने के लिए भी
गिड़गिड़ाता रह जाएगा और आक्खा मुंबई से बुहारकर फेंक दिया जाएगा
हमारा कौन-सा देश है भिडु
साला तुम भी नहीं बोलता कुछ
वह देश ढूंढकर ला दे मेरे कू सारे जहां से अच्छा गाता है
बच्चा लोग म्यूनिस्पेलिटी के स्कूल में
अपुन को न कोई जीते जी जीने देता न मरने पर श्मशान में जगह देता
जिंदगी भर साला हरामी, आवारा सुन-सुनकर लात खाते हुए जीना....
मैं पूछता हूं सेठों, भाई लोगों से और दांत निकाले नेता लोगों से
कहां है मेरा देश, कौन है मेरे जीने के अधिकारों का पहरूआ?
बोलता कोई नहीं, साला सब हंसकर निकल जाता है
अपुन को अकेला चीखता छोड़कर
मंगलवार, फ़रवरी 19, 2008
संवेदनशीलों को कैसे पागल करती है मुंबई?
बोधिसत्व को यह वहमी दुख है कि वे अकेले पड़ते जा रहे हैं और उन्हें चाहनेवालों की संख्या तेजी से घटती जा रही है। मैं सोचता हूं मुंबई की उस सांप्रदायिक प्रवृत्ति के बारे में जो कैसे दोस्तों को दोस्तों से अलगाकर पागल बनाती है और सागर की पछाड़ खाती लहरों की तरह हंस-हंसकर दुहरी होती है यह नगरी।अभी मराठी और गैर मराठीवाद के स्वयंभू नेता बनने की अश्लील कोशिश में मुब्तिला राज ठाकरे के अभियान राम प्रसाद और भीखू पाटिल नामक दो जिगड़ी दोस्त को अचानक मराठावादी राजनीति के लपेटे में ले लिया और यकबयक दोनों एक-दूसरे की संस्कृतियों की मां-बहन पर पिल पड़े. इस तरह के संग और मिलन का क्या करेंगे भाईजान?
याद करिये मरहूम मंटो साहिब की किताब मीनाबाजार में अभिनेता श्याम के बहाने मुंबई के दंगों का मंजर और विभाजन के बाद के हालात का बयान। श्याम ने पाकिस्तान से लुट-पिटकर मुंबई पहुंचे एक सरदार से वहां की घटना के बारे में सुनने के बाद मंटो से कहा कि वह एक हिंदू होने के कारण तैश में आकर उस वक्त मंटो का कत्ल भी कर सकते थे। मंटो इससे हतप्रभ रह गये यह मजहब और हालात का दोस्ती पर कब्जा। वे टूट गए। एक फिल्म में एक पागल सैनिक अफसर की भूमिका निभानेवाले मंटो खुद अपने जीवन में दो बार पागल हुए।
तो भैया यह है हालात का दखल लोगों के जीवन में। सब लोग अपनी-अपनी ही गाने-बजाने में लगे हैं और शायद इसी का परिणाम है तेजी से अकेलेपन की बीमारी।
शुक्रवार, फ़रवरी 15, 2008
जानते हैं सेतु पारिख को कैसे पागल करार दिया है इस समाज ने?
उस पर समाज के तथाकथित ठेकेदारों ने आरोप लगाया कि वह न सिर्फ पागल है बल्कि वह लोगों पर काला जादू भी करती है। यह आरोप लगाकर लोगों ने उसे तरह-तरह से परेशान करना शुरू किया और अपने दम पर इस बहादुर लड़की ने ऐसे लोगों से मुकाबला किया तो हाई कोर्ट में उसके खिलाफ इसी बात को आधार बनाकर मुकदमा कर दिया। हाई कोर्ट इस मामले की कल यानी 14. 02. 2008 को सुनवाई भी की है, पर सुनवाई के बाद कोर्ट कहा क्या यह अभी तक पता नहीं चल सका है।
समाज के ठेकेदारों ने उसके ऊपर जो आरोप लगाये हैं उसके उलट सचाई यह है कि सेतु पारिख ने हाल ही में बंबई विश्वविद्यालय की एम.ए. के इम्तहान में फिलासफी विषय में न सिर्फ प्रथम श्रेणी प्राप्त की बल्कि पूरे विश्वविद्यालय में टॉप किया है। क्या कोई पागल इम्तहान में टॉप कर सकता है? जरा सोचिये? उसकी इसी उपलब्धि के लिए हाल में संपन्न हुए भारतीय समाज विज्ञान कांग्रेस ने उसे आमंत्रित किया था। इस आयोजन में देश के अनेक विश्वविद्यालय के कुलपति भी उपस्थित थे। बंबई विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में सेतु पारिख को इस उपलब्धि के लिए हालांकि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार ने दो गोल्ड मेडल से सम्मानित भी किया लेकिन उसी कोर्ट में उसे पागल करार देने के लिए उस पर मुकदमा भी चल रहा है।
एक बातचीत में सेतु ने कहा कि एम.ए. की इम्तहान की तैयारियों के समय वह कोर्ट में मुकदमा भी लड़ रही थी। हर दिन उसे लगता कि कहीं वह इम्तहान देने से वंचित न रह जाए। उन दिनों को याद करते हुए सेतु पारिख ने बताया कि वह उन दिनों को भूली नहीं है जब लोग उस पर पागल होने के साथ काला जादू करने और वेश्यावृत्ति का धंधा चलाने तक का आरोप लगाते थे। अगर कोई मजबूत इरादे की स्त्री न होती वह वास्तव में पागल हो जाती और उसके बाद शायद खुदकुशी भी कर सकती थी।
समाज के ठेकेदारों ने उसके ऊपर जो आरोप लगाये हैं उसके उलट सचाई यह है कि सेतु पारिख ने हाल ही में बंबई विश्वविद्यालय की एम.ए. के इम्तहान में फिलासफी विषय में न सिर्फ प्रथम श्रेणी प्राप्त की बल्कि पूरे विश्वविद्यालय में टॉप किया है। क्या कोई पागल इम्तहान में टॉप कर सकता है? जरा सोचिये? उसकी इसी उपलब्धि के लिए हाल में संपन्न हुए भारतीय समाज विज्ञान कांग्रेस ने उसे आमंत्रित किया था। इस आयोजन में देश के अनेक विश्वविद्यालय के कुलपति भी उपस्थित थे। बंबई विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में सेतु पारिख को इस उपलब्धि के लिए हालांकि हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार ने दो गोल्ड मेडल से सम्मानित भी किया लेकिन उसी कोर्ट में उसे पागल करार देने के लिए उस पर मुकदमा भी चल रहा है।
एक बातचीत में सेतु ने कहा कि एम.ए. की इम्तहान की तैयारियों के समय वह कोर्ट में मुकदमा भी लड़ रही थी। हर दिन उसे लगता कि कहीं वह इम्तहान देने से वंचित न रह जाए। उन दिनों को याद करते हुए सेतु पारिख ने बताया कि वह उन दिनों को भूली नहीं है जब लोग उस पर पागल होने के साथ काला जादू करने और वेश्यावृत्ति का धंधा चलाने तक का आरोप लगाते थे। अगर कोई मजबूत इरादे की स्त्री न होती वह वास्तव में पागल हो जाती और उसके बाद शायद खुदकुशी भी कर सकती थी।
गुरुवार, फ़रवरी 14, 2008
पागल को पागल कौन बनाता है हुजूर?
क्या आपने किसी पागल को सांप हाथ से पकड़ते देखा है? क्या आपने किसी पागल को किसी ट्रक के नीचे आते देखा है? आग में हाथ डालते देखा है? कोई पागल किसी माल नहीं हड़पता है साहब, किसी की जेब नहीं काटता है जनाब? किसी की चुगली नहीं करता है, किसी के चरित्र हनन के लिए अफवाहें नहीं फैलाता है। तब ऐसा क्या है जो सामान्य लोगों की कथित दुनिया के सामान्य मनुष्य को पागल नामक फ्रेम में फिट करके खुश होती है और ताली पीट-पीटकर सामान्य होने के अपने अहं को तुष्ट करके खुद का मनोरंजन करती है?
फ्रेंच विचारक मिशेल फूको ने अपनी किताब मैडनेस एंड सिविलाइजेशन में कई सवाल उठाये हैं और दुनिया से पूछा है कि कोई भी पैदा एक पागल के रूप में नहीं होता? अत्यंत संवेदनशील मनुष्य ही पागल होता है और हमारा कथित सभ्य समाज किस तरह एक तेज दिमाग को बर्दाश्त नहीं कर पाता, इसकी मिसालें दुनिया भर में मौजूद आधुनिक मानसिक अस्पताल।
मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि हमारे समय के सर्वाधिक ओजस्वी कवि निराला क्यों पागल हो गए। बर्तोल्त ब्रेख्त क्यों पागल हो गए? काजी नजरूल इस्लाम क्यों पागल हो गए? क्यों भुवनेश्वर जैसा प्रचंड प्रतिभा वाला नाटककार पागल हो गया? स्टीफन ज्विग, वाल्टर बेंजामिन, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, सिल्विया प्लाथ, गोरख पांडेय आदि लेखकों ने क्यों आत्महत्या कर लिया? बहुत सारे सवाल मेरे जेहन में हैं। क्यों बताए कि क्यों इन तमाम ओजस्वी लेखकों की यह गति हुई?
शनिवार, फ़रवरी 09, 2008
आलो-आंधारि बनाम पेंग्विन से छपी 'ए लाइफ लेस ऑरडिनरी'
द अदर साइड आफ साइलेंस पुस्तक की मशहूर लेखिका उर्वशी बुटालिया ने बेबी हालदार की किताब आलो-आंधारि का हिंदी से अंगरेजी में अनुवाद किया है-ए लाइफ लेस ऑरडिनरी शीर्षक से। यह पेंग्विन से छपी भारत, अमेरिका और आस्टेलिया तीनों देशों में एक साथ। पुस्तक के पीछे के कवर पर बेबी हालदार का परिचय कुछ यों है-Baby Halder was born and grew up largely in Murshidabad, in West Bengal. She was abandoned by her mother when she was 7. Her father would vanish and reappear at random intervals. She was married off at 12, and pregnant soon after. She had two more children, and then her husband attacked her with a rock for speaking to another man. With remarkable determination, she walked out and took a train to Delhi with her children, where she started work as a household cleaner. Her employers were largely abusive, one forcing her to lock her children the attic, another demanding never-ending chores and massages. She worked in the home of a retired academic who noticed her interest in his books. He gave her a notebook and pen, and encouraged her to write herself. At night, after her work was done and the children asleep, she poured out her life story into the notebook. This resulted in her memoir A Life Less Ordinary. She wrote in Bengali, and the book has been translated into several languages including English.
The autobiography is the raw story of one person, but powerfully illustrates the lives of domestic servants in India, who are often abused and illtreated.
Baby Halder lives and works in a house in Delhi, and is writing her second book. इस परिचय के कारण बेबी की दूसरी किताब के बारे में लोगों को उत्सुकता है. यह दूसरी किताब ईषत रूपांतर शीर्षक पहले बांग्ला में, उसके बाद हिंदी में आएगी. बेबी की पहली किताब आलो-आंधारि का अब तक अंगरेजी सहित फ्रेंच, इतालवी, चीनी, कोरियन, स्वीडिश, तमिल, मलयालम, तेलुगु, उड़िया, बांग्ला इत्यादि भाषाओं सहित तीस से अधिक भाषाओं में आ चुका है। आलो-आंधारि का परिचय सुप्रसिद्ध लेखिका उर्वशी बुटालिया जी ने कुछ यों दिया है-A Life Less OrdinaryPenguin, India. 2006 The autobiography of a young woman and a domestic worker in a home in Gurgaon. Baby wrote this book in Bengali some years ago when, encouraged by her employer Dr Prabodh Kumar she began to read afresh, and then to write. Baby's life story is, in many ways, an "ordinary" one. From her difficult childhood, spent moving from place to place, coping with domestic responsibilities thrust upon her by an absentee father and a mother who abandoned the family when Baby was just a small child, to her marriage -- at the age of 13 to a man nearly twice her age -- and becoming a mother when she was still just a child herself. However it is "less ordinary" in that she battled against the odds, left her violent and abusive husband, and determined to build a better life for herself and her children in an unknown city. Baby's search for work led her finally to the home of Dr Prabodh Kumar, a retired professor and grandson of Premchand, the well-known Hindi and Urdu writer. With his encouragement and support she wrote her life story, which was published in Hindi and Bengali as Aalo Aandhari, and became a bestseller in both languages.
The autobiography is the raw story of one person, but powerfully illustrates the lives of domestic servants in India, who are often abused and illtreated.
Baby Halder lives and works in a house in Delhi, and is writing her second book. इस परिचय के कारण बेबी की दूसरी किताब के बारे में लोगों को उत्सुकता है. यह दूसरी किताब ईषत रूपांतर शीर्षक पहले बांग्ला में, उसके बाद हिंदी में आएगी. बेबी की पहली किताब आलो-आंधारि का अब तक अंगरेजी सहित फ्रेंच, इतालवी, चीनी, कोरियन, स्वीडिश, तमिल, मलयालम, तेलुगु, उड़िया, बांग्ला इत्यादि भाषाओं सहित तीस से अधिक भाषाओं में आ चुका है। आलो-आंधारि का परिचय सुप्रसिद्ध लेखिका उर्वशी बुटालिया जी ने कुछ यों दिया है-A Life Less OrdinaryPenguin, India. 2006 The autobiography of a young woman and a domestic worker in a home in Gurgaon. Baby wrote this book in Bengali some years ago when, encouraged by her employer Dr Prabodh Kumar she began to read afresh, and then to write. Baby's life story is, in many ways, an "ordinary" one. From her difficult childhood, spent moving from place to place, coping with domestic responsibilities thrust upon her by an absentee father and a mother who abandoned the family when Baby was just a small child, to her marriage -- at the age of 13 to a man nearly twice her age -- and becoming a mother when she was still just a child herself. However it is "less ordinary" in that she battled against the odds, left her violent and abusive husband, and determined to build a better life for herself and her children in an unknown city. Baby's search for work led her finally to the home of Dr Prabodh Kumar, a retired professor and grandson of Premchand, the well-known Hindi and Urdu writer. With his encouragement and support she wrote her life story, which was published in Hindi and Bengali as Aalo Aandhari, and became a bestseller in both languages.
बेबी की अगली कहानी ईषत रुपांतर से शीघ्र ही हम यहां लाएंगे. वैसे जो पाठक उनकी पहली किताब आलो-आंधारि खरीदना चाहेंगे वे दिल्ली में इन दिनों चल रहे पुस्तक मेले से खरीद सकते हैं अथवा इस चिट्ठाकार से भी संपर्क कर सकते हैं.
गुरुवार, फ़रवरी 07, 2008
बेबी हालदार जब पेरिस पहुंची
बेबी हालदार जब पेरिस पहुंची तो काफी लोगों को उनसे मिलने की उत्सुकता थी. लोग जानना चाहते थे कि एक कामवाली औरत कैसे आत्महत्या और हत्या से बचे जीवन में इतनी ताकतवर हो सकी? फ्रांस के लोग सांस्कृतिक रुप से कितने संपन्न है इसका अनुमान सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूरोपीय लेखकों के बीच यह धारणा प्रचलित है कि जिसको पेरिस में मान्यता नहीं मिली उसको समझो कहीं मान्यता नहीं मिली. शायद यही कारण है कि रायनेर मारिया रिल्के, स्टीफन ज्विग, सार्त्र, सिमोन सबने पेरिस को अपना ठिकाना बनाया. ऐसे पाठकों के बीच बेबी हालदार एक सप्ताह तक रही। रोज कहीं भाषण देना होता, कहीं पाठकों के सवालों का जवाब देना होता, कहीं आटोग्राफ देना होता और अक्सर फ्रेंच महिलाओं के साथ देर तक बैठकर उनके सवालों का जवाब देना पड़ता। यह सब होता एक दुभाषिया के माध्यम से। वहां के लोग बेबी के सवालों से चमत्कृत होते। हैरत की बात यह है कि फैशन के नये-नये रुप प्रचलित करनेवाले शहर पेरिस की फैशन पत्रिकाओं ने अपने आवरण पर बेबी को छापा, इंटरव्यू लिये।
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