शुक्रवार, मार्च 30, 2007

राम नाम को कण-कण में बसाने की परम्परा


राम के नाम पर राजनीति करने वालों के लिए “ कण-कण में बसे हैं राम ” भले एक लच्छेदार नारे के सिवा कोई और महत्व नहीं रखता हो. एक ऐसी संस्कृति, जिसमें राम नाम को कण-कण में बसाने की परम्परा है. इसी परम्परा के तहत इस संप्रदाय से जुड़े लोग अपने पूरे शरीर पर “ राम-राम ” का गुदना अर्थात स्थाई टैटू बनवाते हैं, राम-राम लिखे कपड़े धारण करते हैं, घरों की दीवारों पर राम-राम लिखवाते हैं, आपस में एक दूसरे का अभिवादन राम-राम कह कर करते हैं, यहां तक कि एक-दूसरे को राम-राम के नाम से ही पुकारते भी हैं.
ये और बात है कि इस संप्रदाय की आस्था न तो अयोध्या के राम में है और ना ही मंदिरों में रखी जाने वाली राम की मूर्तियों में. इनका राम हर मनुष्य में, पेड़-पौधों में, जीव-जन्तु में और समस्त प्रकृति में समाया हुआ है.

भक्ति आंदोलन का असर
छत्तीसगढ़ में भक्ति आंदोलन का व्यापक असर रहा है. मंदिरों पर सवर्णों ने धोखे से कब्जा कर लिया और हमें राम से दूर करने की कोशिश की गई. हमने मंदिरों में जाना छोड़ दिया, हमने मूर्तियों को छोड़ दिया. ये मंदिर और ये मूर्तियाँ इन पंडितों को ही मुबारक. किसी समय 'अछूत' मानी जानेवाली जातियों या दलितों के बीच इसका गहरा असर देखा जा सकता है.
छत्तीसगढ़ में ही जन्मे गुरु घासीदास की परम्परा को मानने वाले सतनामी, कबीर की परम्परा वाले कबीरपंथी और रामनामी संप्रदाय से जुड़े ऐसे लोगों की संख्या छत्तीसगढ़ में लाखों में है.
इनमें रामनामी संप्रदाय को माननेवाले आज भी लोगों के लिए कौतुहल के विषय बने हुए हैं.
राज्य के जांजगीर-चांपा के एक छोटे से गांव चारपारा में एक दलित युवक परशुराम द्वारा 1890 के आसपास स्थापित रामनामी संप्रदाय की स्थापना को एक ओर जहां भक्ति आंदोलन से जोड़ा जाता है.

मंदिर चाहिए न मूर्ति
भाजपा के राम मंदिर आंदोलन को अल्पज्ञानियों का आंदोलन मानने वाले मेहत्तरलाल का कहना है कि जिस राम के नाम पर दंगा-फसाद हो, उस राम की ज़रुरत हमें नहीं है.
वे मानते हैं कि अयोध्या की पूरी लड़ायी केवल सत्ता और कुर्सी की है. जिनकी आस्था राम नाम में है, उनके लिए मंदिर और मूर्तियों का कोई महत्व नहीं है. यही कारण है कि रामनामी न तो मंदिर जाते हैं और ना ही मूर्ति पूजा करते हैं.

रामनामी अपनी श्रद्धा के अनुसार शरीर में गोदना गुदवाते हैं
लेकिन निर्गुण संतों की आध्यात्मिक परम्परा में वे रचे-बसे हैं. शुद्ध शाकाहारी व नशा जैसे व्यसनों से दूर, हिंदू समाज की तिलक-दहेज जैसी परम्परा के कट्टर विरोधी इस संप्रदाय के अधिकांश लोग खेती करते हैं और बचे हुए समय में राम भजन का प्रचार.
इस संप्रदाय में किसी भी धर्म, वर्ण, लिंग या जाति का व्यक्ति दीक्षित हो सकता है.
रहन-सहन और बातचीत में राम नाम का अधिकतम उपयोग करने वाले रामनामियों के लिए शरीर पर राम नाम गुदवाना अनिवार्य है.
अपने शरीर के किसी भी हिस्से में राम नाम लिखवाने वालों को रामनामी, माथे पर दो राम नाम अंकित करने वाले को शिरोमणी, पूरे माथे पर राम नाम अंकित करने वाले को सर्वांग रामनामी और शरीर के प्रत्येक हिस्से में राम नाम अंकित कराने वालों को नखशिख रामनामी कहा जाता है.

पहचान का संकट
शरीर के विभिन्न हिस्सों में राम नाम लिखवाने के कारण इस संप्रदाय से जुड़े लोग अलग से ही पहचान में आ जाते हैं. लेकिन सिर से लेकर पैर तक, यहां तक की जीभ व तलवे में भी स्थाई रुप से राम नाम गुदवाने वाले रामनामियों के सामने अब अपनी पहचान का संकट खड़ा हो गया है.
कारण है रामनामियों की नयी पीढ़ी का राम नाम गुदवाने की अपनी परम्परा से दूर होते चले जाना. रामनामी संप्रदाय की नयी पीढ़ी मात्र ललाट या हाथ पर एक या दो बार राम-राम गुदवा कर किसी तरह अपनी परम्परा का निर्वाह कर लेना चाह रही है.
ज़ाहिर है, आधुनिकता के दूसरे आयामों ने भी नई पीढ़ी को प्रभावित किया है.
धर्म-कर्म से ज़्यादा लोग दिखावे में लगे हुए हैं. अब कुछ नहीं किया जा सकता. शायद 5 साल या 10 साल बाद, 120 सालों का रामनामी समाज खत्म हो जाएगा, एक युग खत्म हो जाएगा.
साल में एक बार लगने वाले रामनामी भजन मेले में संप्रदाय के लोग मिलते-बैठते हैं जहाँ नए लोगों को दीक्षित किया जाता है. लेकिन मेले में दीक्षित होने वालों की संख्या धीरे-धीरे लगातार कम होती चली जा रही है. पांच वर्ष की उम्र में अपने माथे और बाद में पूरे शरीर पर राम-राम लिखवाने वाले फिरतराम मानते हैं कि नयी पीढ़ी में राम नाम गुदवाने का आकर्षण कम हो रहा है. रामनामी समाज के रीति रिवाज भी टूट रहे हैं. बच्चे तो अब शरीर पर कुछ लिखवाने में ही डरते हैं. नए सौंदर्यबोध और आधुनिक विषयों के जीवन में प्रवेश ने भी इस संप्रदाय के ढाँचे को तोड़ना शुरु कर दिया है. धर्म-कर्म से ज़्यादा लोग दिखावे में लगे हुए हैं. अब कुछ नहीं किया जा सकता. शायद 5 साल या 10 साल बाद, 120 सालों का रामनामी समाज खत्म हो जाएगा, एक युग खत्म हो जाएगा.

शनिवार, मार्च 24, 2007

औरतों की पत्थर मार मार कर हत्या करने की प्रथा


ईरान के कड़े इस्लामी क़ानूनों के तहत व्यभिचार के आरोप में औरतों की पत्थर मार मार कर हत्या करने की प्रथा रही है.लेकिन इस्लामी क्रांति के 22 साल बाद वहाँ उदारवाद की हवा चलने लगी है और ईरानी जनता का एक हिस्सा कट्टरवादी इस्लाम से मुँह मोड़ने लगा है.ख़ास तौर पर विश्वविद्यालय के छात्रों ने तो सड़कों पर उतर कर हिंसक विरोध प्रदर्शनों के ज़रिए कट्टरवादी मौलवियों के कुछ फ़ैसलों के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर किया है.सुधारवादी सांसद जमीला कादीवर के हवाले से भी कहा गया है कि औरतों को संगसार करने की प्रथा ख़त्म होने वाली है.हालाँकि इस्लामी क़ानून संगसारी की इजाज़त देता है, लेकिन ईरान में इस तरह की सज़ा दिए जाने की घटनाएँ लगातार कम होती जा रही हैं.पिछले साल की पहली छमाही में दो महिलाओं को यह सज़ा सुनाई गई और उसके बाद से अब तक किसी को भी यह सख़्त सज़ा नहीं दी गई है.विरोधईरान में उदारवादियों और महिला संगठनों की ओर से इस क़ानून का लगातार विरोध किया जाता रहा है.यही नहीं पश्चिमी देशों, ख़ास तौर पर यूरोपीय संघ ने भी इन क़ानूनों का कड़ा विरोध किया है.ईरान के सुधारवादी विदेशों में अपने देश की छवि को लेकर ख़ासे चिंतित हैं.ईरानी संसद की महिला सदस्य इस मामले में लंबे अर्से से आंदोलन चलाती आ रही हैं.उनका कहना है कि इसे क़ानून की किताबों से हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि क़ुरआन में इस बारे में साफ़ साफ़ कुछ नहीं कहा गया है.इस अभियान से जुड़ी एक महिला सांसद जमीला कादीवर ने तेहरान के एक अख़बार को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि न्यायपालिका के अध्यक्ष ने एक सर्कुलर जारी करके संगसारी की सज़ा न देने की हिदायत दी है.पिछले साल दो महिलाओं को संगसारी की सज़ा दिए जाने से ऐसा लगा था कि दक्षिणपंथी तत्त्व प्रशासन पर हावी हो गए हैं और वे उदारवादियों को दबाने के लिए ऐसे क़दम उठा रहे हैं.

शनिवार, मार्च 17, 2007

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं

फ़िराक़ की ग़ज़ल में वह भारत जागता हुआ महसूस होता है, जो उनसे पहले, कबीर की शब्दावली में जगमगाता था, गुरू ग्रंथ साहब में मुस्कुराता था, अकबर के दीन-ए-इलाही में झिलमिलाता था या नजीर अकबराबादी के काव्य में. फ़िराक़ ने तहज़ीब की जिस आत्मा से अपनी ग़ज़ल को सजाया था उसके संबंध में खुद उनका शेर है,

सरज़मीने हिंद पर अक़बामे आलम के फ़िराक़
क़ाफिले बसते गए, हिंदोस्ताँ बनता गया
फ़िराक़ साहब सिर्फ शायर नहीं थे. अपने समय के बड़े आलोचक भी थे. शास्त्रीय शायरों पर उनके लेख, साहित्य को नए सिरे से पढ़ने और समझने की कामयाब कोशिशें मानी जाती है.

फ़िराक़ के ज़हन को कई भाषाओं की रौशनियों ने रौशन किया था. इनमें हिंदी, उर्दू, फ़ारसी और संस्कृत के साथ अंग्रेज़ी का भी नाम है. वह महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू, अबुल कलाम आजाद, मौलाना हसरत मोहानी, महाकवि निराला, डॉ राधाकृष्ण आदि के युग की एक बड़ी शख़्सियत थे. क़ुदरत की इस मेहरबानी का उन्हें एहसास भी था.
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअस्रों

जब ये ख्याल आयेगा उनको,तुमने फ़िराक़ को देखा था
शायरी और आलोचना के अलावा उनकी बातचीत करने का तरीक़ा हर बार नया तजुर्बा होता था. वह गुफ़्तगू को हास्य की ज़हानत और व्यंग्य की हसरत से ऐसे मिलाते थे कि सुनने वाले लोट-पोट हो जाते थे.
मैं जब उनसे मिला था तब वह उम्र की उस मंज़िल में दाख़िल हो चुके थे, जब वह कहीं खुद नहीं आते थे लाए जाते थे, जहाँ वह बैठते थे वहाँ बिठाए जाते थे, जहाँ से वह उठना चाहते थे वहाँ से उठाए जाते थे.
लेकिन इस बुज़ुर्गियत के बावजूद, उनके हाथ से सिगरेट, बदन से शेरवानी, गोल गोल घूमती हुई आखों से हैरत, बातचीत से ज़हानत कभी रुख़सत नहीं हुई.

तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
तुम को देखें कि तुम से बात करें

और
कहाँ का वस्ल तनहाई ने शायद भेस बदला है

तेरे दम भर के आ जाने को हम भी क्या समझते हैं



फिराक गोरखपुरी की ग़ज़लें
पहली ग़ज़ल
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मुहब्बत का भरोसा भी नहीं
यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवान-ए-इश्क
मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
मुद्दतें गुजरी तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
ये भी सच है कि मोहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुश्न कुछ ऐसा भी नहीं
दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में
लेकिन इस जल्वागाह-ए-नाज से उठता भी नहीं
बदगुमां होके न मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह मुझसे तो मेरी रंजिश-ऐ-बेजा भी नहीं
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मकाम
कुंज-ए-जिन्दा भी नहीं बौशाते सेहरा भी नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि फिराक
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं
दूसरी ग़ज़ल
ये तो नहीं कि गम नहीं
हाँ मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
अब न खुशी कि है खुशी
गम का भी अब तो गम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से जीस्त कम नहीं
फिराक गोरखपुरी

पहली नज़र में प्यार? क्या वाकई?

पहली नज़र में प्यार?
शायद आपके दिमाग में ये विचार आया हो कि ऐसा तो केवल फ़िल्मों में ही होता है.

अब ये केवल फ़िल्मों की बात नहीं है. वैज्ञानिकों का कहना है कि अब इस बात के सबूत मिले हैं कि वास्तव में ऐसा होता है.
उनका कहना है कि एक-दूसरे को मिलने के बाद कुछ ही मिनटों में लोग ये फ़ैसला कर लेते हैं कि वे एक-दूसरे के साथ किस तरह का रिश्ता चाहते हैं.
'जर्नल ऑफ़ सोशल एंड पर्सनल रिलेशनशिप्स' में छपे ओहायो विश्वविद्यालय के एक शोध से ये जानकारी मिली है.
इस विश्वविद्यालय ने एक ही लिंग के छात्रों के 164 जोड़ों पर ध्यान केंद्रित किया. लेकिन शोधकर्ताओं का मानना है कि ये शोध 'डेटिंग' या मिलन पर भी लागू हो सकता है.
इस शोध करने वालों में से एक प्रोफ़ेसर आर्टिमियो रामिरेज़ कहते हैं, "हम सब किसी भी व्यक्ति को देखते ही सोच लेते हैं कि हम उससे किस तरह का रिश्ता रखना चाहते हैं. इससे पता चलता है कि हम वो रिश्ता बनाने के लिए कितना प्रयास करना चाहते हैं."

यदि मैं आपसे दोस्ती करना चाहता हूँ तो मैं आपसे ज़्यादा बात करुँगा, आपको अपने बारे में ज़्यादा जानकारी दूँगा और ऐसा करुँगा कि अच्छी दोस्ती बन सके

प्रोफ़ेसर रामिरेज़ का कहना है, "यदि मैं आपसे दोस्ती करना चाहता हूँ तो मैं आपसे ज़्यादा बात करुँगा, आपको अपने बारे में ज़्यादा जानकारी दूँगा और ऐसा करुँगा कि अच्छी दोस्ती बन सके. यदि किसी रिश्ते को लेकर मेरा ज़्यादा सकारात्मक रवैया नहीं है तो मैं कम बातचीत कुरुँगा और उसे पनपने नहीं दूँगा. पहले इस पूरी प्रक्रिया के बारे में कुछ और धारणा थी लेकिन अब पता चला है कि ये सब बहुत ही जल्द हो जाता है, यानि कुछ ही मिनटों में हो जाता है. शोध से पता चलता है कि ये सब काफ़ी जल्दी हो जाता है. लोग चुटकी बजाते ही फ़ैसला कर लेते हैं कि कुछ ही क्षण पहले मिले व्यक्ति के साथ वे कैसा रिश्ता चाहते हैं."


इंटरनेट लिंक्स
यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लंदन


शनिवार, मार्च 10, 2007

सआदत हसन मंटो की बहुचर्चित कहानी "टोबा टेक सिंह"


बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़्लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए. मालूम नहीं, यह बात माक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले के लिए एक दिन मुक़र्रर हो गया.
अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए; जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस की हिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए.
उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं.
एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथ “ज़मींदार” पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा: “मौलबी साब, यह पाकिस्तान क्या होता है...?” तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया: “हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं...!” यह जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया.
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा: “सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है... हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती...” दूसरा मुस्कराया; “मुझे तो हिंदुस्तोड़ों की बोली आती है, हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं...”
एक दिन, नहाते-नहाते, एक मुसलमान पागल ने “पाकिस्तान: जिंदाबाद” का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फ़र्श पर फिसलकर गिरा और बेहोश हो गया.
बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे; उनमें अक्सरीयत (बहुतायत) ऐसे क़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को कुछ दे दिलाकर पागलख़ाने भिजवा दिया था कि वह फाँसी के फंदे से बच जाएँ; यह पागल कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्यों तक़्सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है; लेकिन सही वाक़िआत से वह भी बेख़बर थे; अख़बारों से उन्हें कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे, जिनकी गुफ़्तुगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे. उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्नाह है: जिसको क़ायदे-आज़म कहते हैं; उसने मुसलमानों के लिए एक अलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है; यह कहाँ है, इसका महल्ले-वुक़ू (भौगोलिक स्थिति) क्या है, इसके मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे- यही वजह है कि वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था, इस मख़मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में; अगर हिंदुस्तान में है तो पाकिस्तान कहाँ है; अगर पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए हिंदुस्तान में थे.
एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देते वह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियों ने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकाया गया तो उसने कहा: “मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में... मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा...”

एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देते वह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियों ने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकाया गया तो उसने कहा: “मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में... मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा...” बड़ी देर के बाद जब उसका दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिलकर रोने लगा- उस ख्याल से उसका दिल भर आया था कि वह उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएँगे...
एक एमएससी पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग-थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नुमूदार हुई कि उसने अपने तमाम कपड़े उतारकर दफ़ेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना-फिरना शुरू कर दिया.
चियौट के एक मोटे मुसलमान ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुका था और दिन में 15-16 मर्तबा नहाया करता था, यकलख़्त यह आदत तर्क कर दी उसका नाम मुहम्मद अली था, चुनांचे उसने एक दिन अपने जंगल में एलान कर दिया कि वह क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह है; उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंह बन गया- इससे पहले कि ख़ून-ख़राबा हो जाए, दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार देकर अलहदा-अलहदा बंद कर दिया गया.
लाहौर का एक नौजवान हिंदू पकील मुहब्बत में नाकाम होकर पागल हो गया; जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो बहुत दुखी हुआ. अमृतसर की एक हिंदू लड़की से उसे मुहब्बत थी जिसने उसे ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस लड़की को नहीं भूला था-वह उन तमाम हिंदू और मुसलमान लीडरों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए हैं, और उनकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई है और वह पाकिस्तानी…जब तबादले की बात शुरू हुई तो उस वकील को कई पागलों ने समझया कि दिल बुरा न करे… उसे हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा, उसी हिंदुस्तान में जहाँ उसकी महबूबा रहती है- मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था; उसका ख़याल था कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी.
योरोपियन वार्ड मं दो एंग्लो इंडियन पागल थे. उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद करके अंग्रेज़ चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ; वह छुप-छुपकर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तुगू करते रहते कि पागलख़ाने में अब उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी; योरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा; ब्रेक-फ़ास्ट मिला करेगा या नहीं; क्या उन्हें डबल रोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करनी पड़ेगी?
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एक सिख था, जिसे पागलख़ाने में दाख़िल हुए 15 बरस हो चुके थे. हर वक़्त उसकी ज़ुबान से यह अजीबो-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन…” वह दिन को सोता था न रात को.
पहरेदारों का यह कहना था कि 15 बरस के तलीव अर्से में वह लहज़े के लिए भी नहीं सोया था; वह लेटता भी नहीं था, अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ टेक लगा लेता था- हर वक़्त खड़ा रहने से उसके पाँव सूज गए थे और पिंडलियाँ भी फूल गई थीं, मगर जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था.
हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…! ” लेकिन बाद में “आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट ” की जगह “आफ़ दि टोबा सिंह गवर्नमेंट!” ने ले ली

हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…! ” लेकिन बाद में “आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट ” की जगह “आफ़ दि टोबा सिंह गवर्नमेंट!” ने ले ली, और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर दिया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है, जहाँ का वह रहने वाला है. किसी को भी मालूम नहीं था कि टोबा सिंह पाकिस्तान में है... या हिंदुस्तान में; जो बताने की कोशिश करते थे वह ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है. क्या पता है कि लाहौर जो आज पाकिस्तान में है... कल हिंदुस्तान में चला जाए... या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए... और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब ही हो जाएँ...!
इस सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत मुख़्तसर रह गए थे; चूंकि बहुत कम नहाता था, इसलिए दाढ़ी और सिर के बाल आपस में जम गए थे. जिसके बायस उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी; मगर आदमी बे-ज़रर था. 15 बरसों में उसने कभी किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था. पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे, वह उसके मुताल्लिक़ इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं; अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया, उसके रिश्तेदार उसे लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों में बाँधकर लाए और पागलख़ाने में दाख़िल करा गए.
महीने में एक मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियत दरयाफ़्त करके चले जाते थे; एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान, हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उसका आना-जाना बंद हो गया.
उसका नाम बिशन सिंह था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह कहते थे. उसको यह क़त्अन मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुके हैं; लेकिन हर महीने जब उसके अज़ीज़ो-अकारिब उससे मिलने के लिए आने के क़रीब होते तो उसे अपने आप पता चल जाता; उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और बालों में तेल डालकर कंघा करता; अपने वह कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूँ सज-बनकर मिलने वालों के पास जाता. वह उससे कुछ पूछते तो वह ख़ामोश रहता या कभी-कभार “औपड़ दि गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन...” कह देता.
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक ऊँगली बढ़ती-बढ़ती 15 बरसों में जवान हो गई थी. बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था-वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आँखों से आँसू बहते थे.
पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है; जब उसे इत्मीनानबख़्श जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई. अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी; पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उनकी आमद की ख़बर दे दिया करती थी-उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएँ जो उससे हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयाँ और कपड़े लाते थे. वह आएँ तो वह उनके पूछे कि टोबा टेक सिंह कहाँ है... वह उसे यक़ीनन बता देंगे कि टोबा टेक सिंह वहीं से आते हैं जहाँ उसकी ज़मीनें हैं.
पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था. उससे जब एक रोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने हस्बे-आदत क़हक़हा लगाया और कहा : “वह पाकिस्तान में है न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म ही नहीं दिया...!”
बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वह हुक्कम दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर ख़ुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे.
एक दिन तंग आकर बिशन सिंह ख़ुदा पर बरस पड़ा: “ औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ वाहे गुरु जी दा ख़ालसा एंड वाहे गुरु जी दि फ़तह...!” इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो, सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते.
तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह का दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया; मुसलमान दोस्त पहले कभी नहीं आया था. जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापिस जाने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका: “यह तुमसे मिलने आया है...तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है...!”
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा.
बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा : “मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूँ लेकिन फ़ुरसत ही न मिली... तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे... मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की... तुम्हारी बेटी रूपकौर...” वह कहते-कहते रुक गया.
बिशन सिंह कुछ याद करने लगा : “बेटी रूपकौर...”
फ़ज़लदीन ने फिर कहना शुरू किया : उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारी ख़ैर-ख़ैरियत पूछता रहूँ... अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो... भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहन अमृतकौर से भी... भाई बलबीर से कहना कि फ़ज़लदीन राज़ीख़ुशी है...दो भूरी भैसें जो वह छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है... दूसरी के कट्टी हुई थी, पर वह 6 दिन की होके मर गई...और... मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो, कहना, मैं वक़्त तैयार हूँ... और यह तुम्हारे लिए थोड़े-से मरोंडे लाया हूँ...!”
बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा : “टोबा टेक सिंह कहाँ है...”
फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा : “कहाँ है... वहीं है, जहाँ था!”
बिशन सिंह ने फिर पूछा : “पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में...”
“हिंदुस्तान में... नहीं, नहीं पाकिस्तान में...! ” फ़ज़लदीन बौखला-सा गया. बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुर फ़िटे मुँह...! ”
तबादले की तैयारियाँ मुकम्मल हो चुकी थीं, इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की फ़ेहरिस्तें पहुँच चुकी थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था.
सख़्त सर्दियाँ थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी हुई लारियाँ पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई, मुताल्लिक़ा अफ़सर भी हमराह थे. वागह के बौर्डर पर तरफ़ैन के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और इब्तिदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जो रात भर जारी रहा.
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिया : “टोबा टेक सिंह यहाँ है..! ” और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! ”

पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था; बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने पर रज़ामंद होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि उन्हें फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते-कोई गालियाँ बक रहा है... कोई गा रहा है... कुछ आपस में झगड़ रहे हैं... कुछ रो रहे हैं, बिलख रहे हैं-कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी- पागल औरतों का शोरो-ग़ोग़ा अलग था, और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दाँत से दाँत बज रहे थे.
पागलों की अक्सरीयत इस तबादले के हक़ में नहीं थी, इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें अपनी जगह से उख़ाड़कर कहाँ फेंका जा रहा है; वह चंद जो कुछ सोच-समझ सकते थे, “पाकिस्तान : ज़िंदाबाद” और “पाकिस्तान : मुर्दाबाद” के नारे लगा रहे थे ; दो-तीन मर्तबा फ़साद होते-होते बचा, क्योंकि बाज़ मुसलमानों और सिखों को यह नारे सुनकर तैश आ गया था.
जब बिशन सिंह की बारी आई और वागन के उस पार का मुताल्लिक़ अफ़सर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा : “टोबा टेक सिंह कहाँ है... पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में.... ?”
मुताल्लिक़ा अफ़सर हँसा : “पाकिस्तान में...! ”
यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ीमादा साथियों के पास पहुंच गया.
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिया : “टोबा टेक सिंह यहाँ है..! ” और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! ”
उसे बहुत समझाया गया कि देखो, अब टोबा टेक सिंह हिंदुस्तान में चला गया... अगर नहीं गया है तो उसे फ़ौरन वहाँ भेज दिया जाएगा, मगर वह न माना! जब उसको जबर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दरमियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टाँगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त नहीं हिला सकेगी... आदमी चूंकि बे-ज़रर था, इसलिए उससे मज़ीद ज़बर्दस्ती न की गई ; उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया, और तबादले का बाक़ी काम होता रहा.
सूरज निकलने से पहले साकितो-सामित (बिना हिलेडुले खड़े) बिशन सिंह के हलक़ के एक फ़लक शिगाफ़(गगनभेदी) चीख़ निकली.
इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और उन्होंने देखा कि वह आदमी जो 15 बरस तक दिन-रात अपनी दाँगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है-उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ; दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था.

('दस्तावेज़' राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से साभार)

गुरुवार, मार्च 08, 2007

साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने के बाद कवि ज्ञानेंद्रपति का वक्तव्य


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बीसवीं शती के पूर्वार्ध में जब सभ्यता की जटिलता के साथ-साथ कवि-कर्म की कठिनता के बढ़ने की बात कही थी, उन्हें इसका ठीक-ठीक पूर्वानुमान नहीं हो सकता था कि शती के अंत तक आते-आते एक ओर तो सभ्यता अनावरित होकर नृशंसता के नग्न रूप में खड़ी होगी और दूसरी ओर, वह इतनी कुटिल होगी कि अधिसंख्य लोगों के दिमाग को अनुकूलित करने में कामयाब होगी.लेकिन यह ऐसा ही समय है.ऐसे समय में अभिव्यक्ति-स्वातन्त्र्य कविता का जरूरी मोर्चा होता है. अकेला दिखता हुआ भी कवि इस मोर्चे पर अकेले नहीं होता. अभिनव काव्यानुभूति हासिल करने का उसका सृजन संकल्प स्मृति-संपन्नता के बीच उपजता है. आज हिंदी के कवि को आँखिन देखी कहने वाले कबीर से लेकर विश्व-चेतस कवि मुक्तिबोध तक का ही साथ नहीं है, बल्कि अंगऱेजी के व्हिटमैन, रूसी के मायकोव्स्की, जर्मन के ब्रेख्त, स्पेनिश के नेरुदा और तुर्की के नाज़िम हिकमत भी उसके सगे हैं. ये तो चंद नाम हैं. परंपरा के बोध और आधुनिकता की चेतना ने हिंदी कविता को अनूठे सामर्थ्य से संवलित किया है.

खड़ी बोली के खड़े होने और हिंदी में ढलने की संक्रांति-बेला को बमुश्किल शताधिक साल बीते हैं, भाषाओं के इतिहास में जिसे बड़ा वक्फा नहीं कहा जा सकता. लेकिन उन्हीं उथल-पुथल भरे दिनों की देन है कि हिन्दी की हड्डियों में साम्राज्यवाद-विरोध की अस्थि-मज्जा है. औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए छिड़े संग्राम के उन दिनों में जब लोगों को आसेतुहिमाचल एकदेशियता के सूत्र में आबद्ध कर रही थी, कवि निराला ने मुक्तछंद में मुक्ति के स्वप्न और संकल्प संजोये. इस मुक्तछंद का मुक्ति-संग्राम से नाभिनाल-संबंध था,उसकी आनुवंशिकी मुक्त स्वभाव वैदिक मंत्रद्रष्टा ऋषियों तक जाती थी.मुक्ति की यह चाह केवल राजनैतिक मुक्ति तक महदूद न थी, तमाम सामाजिक और आर्थिक विषमताओं से मुक्ति अभीष्ट थी, सकल मानव-जीवन का उन्नत स्तर पर प्रतिष्टापन उद्दिष्ट था. जन-जन तक पहुँचना और उसे सँवारना चाहने वाला मुक्तछंद ही अग्रसर हिन्दी कविता की मुख्यधारा बना. मैं इसी की एक तरंग हूँ, बल्कि वीचि-लघूर्मि नन्हीं-सी लहर.

नव-साम्राज्यवाद के इन रोबीले-सजीले दिनों में हिन्दी कविता के घर में एक तरह की उदासी अटी हुई है. कवि देखता हैः एक आभासी दुनिया की मायावी धूप-छाँह में उसकी भाषा के सकरूण शब्दों के अर्थ निष्करूण अनर्थ में बदले जा रहे हैं,हिन्दी का इस्तेमाल इश्तेहारों का संवाहक बनने में है. बाज़ार से बेज़ार होना हिन्दी कवि को हाशिये पर डालता है.लेकिन यही उसका गौरव है और उसके यहाँ, प्रायःहाशिये की जिंदगी केन्द्रीयता पाती है. मैंने कहा, हिन्दी कविता के घर में एक तरह की उदासी अटी हुई है.उदासी, लेकिन हताशा नहीं. तभी तो घुरबिनिया बच्चों की तरह घूमता रहता हूँ-परित्यक्त सच्चाइयों के बीच भी-जीवंत-ज्वलंत सार्थक की तलाश में.

प्यार होने पर दिमाग़ में क्या बदलाव आता है?

प्रेम में अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ होती हैं

वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगा लिया है कि जब किसी को प्रेम होता है तो उसके दिमाग़ पर क्या असर होता है. उन्होंने ऐसे पुरुषों और महिलाओं की रासायनिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जिनके नए-नए प्रेम संबंध बने हैं. सोसायटी फ़ॉर न्यूरोसाइंस के इस शोध में मस्तिष्क के उन हिस्सों में उथल-पुथल का पता चला है जो ऊर्जा से संबद्ध हैं. स्कैन करने पर महिलाओं के दिमाग़ में भावनात्मक प्रभाव देखा गया और पुरुषों के दिमाग़ में कुछ ऐसी हलचल थी जो यौनोत्तेजना से जुड़ी हुई थी.
शोधकर्ताओं ने 17 युवा लड़कों और लड़कियों के दिमाग़ की स्कैनिंग करके यह देखने का प्रयास किया कि प्यार होने पर उनके दिमाग़ में क्या बदलाव आता है.
उन्हें बारी-बारी ऐसे लोगों के चित्र दिखाए गए जिनसे वे प्रेम करते हैं और वे भी जिनके साथ उनका भावनात्मक जुड़ाव नहीं है.
बीच-बीच में उन्हें ऐसे काम भी बताए गए जिनसे उनका ध्यान बंटता रहे.
रासायनिक बदलाव
पाया गया कि प्रेम होने पर उनके मस्तिष्क में 'डोपामाइन' का स्तर बढ़ा रहता है.
'डोपामाइन' दिमाग़ में बनने वाला एक रसायन है जो संतोष और आनंद की भावनाओं को जन्म देता है.
जब इसका स्तर बढ़ जाता है तो ऊर्जा में वृद्धि हो जाती है और इंसान आमतौर पर उत्साहित महसूस करता है.
लेकिन पुरुषों और महिलाओं में प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग थीं.
अधिकतर महिलाओं में दिमाग़ के उस हिस्से में बदलाव देखा गया जो भावनाओं से संबद्ध है.
लेकिन अधिकतर पुरुषों में उत्तेजना बढ़ाने वाले बदलाव नज़र आए.
शोधकर्ता जल्दी ही उन लोगों के दिमाग़ का अध्ययन करने जा रहे हैं जिन्हें उनके प्रेमी या प्रेमिका ने ठुकरा दिया है.

ईरान की काव्यात्मक राजधानी शीराज़



'मैं पर्शिया का सपना देखा करता था. जहाँ बुलबुल गुलाब से इश्क लड़ाती थी. जहाँ सपनों के बागानों में कवि मदिरा लिए रचनाएँ करते जिनके अर्थ कई परतों में छुपे थे. अब, जब मैं आपके देश पहुँचा हूँ ये सपना हक़ीकत बन गया है और मेरे अनुभवों का हिस्सा बन गया है.'
रवींद्रनाथ ठाकुर ने ईरान पहुँचकर अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए थे.
1932 में वे शीराज़ पहुँचे ख़्वाजाह शम्स उद्दीन मोहम्मद हाफ़िज़ शीराज़ी के मज़ार पर और उन्होंने लिखा, “मैं हाफ़िज़ की आरामगाह के पास बैठा, मुझे उनके स्पर्श का यहाँ के बग़ीचे, यहाँ के खिलते गुलाबों में अहसास हुआ.”
दुनिया में कविताओं को शायद ईरानियों से ज़्यादा कोई पसंद नहीं करता और शीराज़ को तो आप ईरान की काव्यात्मक राजधानी कह सकते हैं.
पार्शियाई कविता के दो दिग्गज 13वीं सदी में शेख़ सादी और 14वीं सदी में हाफ़िज़, दोनों शीराज़ की देन है.
सादी, तुर्की के रास्ते भारत पहुँचे थे वहीं हाफ़िज़ शीराज़ के बाहर बहुत कम निकले. हाफ़िज़ ने एक शहर से दुनिया की तस्वीर खींची तो सादी ने दुनिया को एक शहर में समेट दिया.
अपने जीवन काल में ही हाफ़िज़ भारत में लोकप्रिय हो चुके थे. हैदराबाद के बहमनी राजा ने उन्हें आने का न्यौता भी दिया था पर वे तूफ़ान के चलते बंदर अब्बास तक ही पहुँच पाए.
यहाँ तक कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी हाफ़िज़ ने आकृष्ट किया.
कविताओं की दीवानगी
यहाँ प्रथा है कि आप हाफ़िज़ का दीवान खोलिए. जो पन्ना खुलता है वो कविता आपके बारे में होती है.

पर्शिया के कवियों से टैगोर भी प्रभावित थे
इसे फ़ाल पढ़वाना कहते है और यह वहां की परंपरा बन गई है. आज भी शहर के युवा हाफ़िज़ की कविताओं के क़ायल हैं.
एक युवती सारा सेयरी कहती है,“हाफ़िज़ की हर कविता प्रेम की बात करती है. एक दूसरे तरह का प्रेम, आध्यात्मिक प्रेम. हाफ़िज़ की हर कविता हर व्यक्ति के लिए अलग मतलब रखती है.”
हाफ़िज़ के आध्यात्म को इस्लामी बंदिशों की वजह से युवा पीढ़ी अपने अंदाज़ में, अपनी सहूलियत के हिसाब से आंकती है.
ईश्वर से प्रेम को युवतियाँ प्यार के रुप में देखती है और शायद वे उन्हें आज भी मोहित करते है. एक युवती का कहना था, “हाफ़िज़ आज भी पुराने नहीं पड़े है. उन्हें आप आज भी आधुनिक कह सकते है. वे हमारे लिए वैसे ही है जैसे गांधी आपके लिए.”
हालत ये है उनकी कविताएँ पाप संगीत में भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं.
हाफ़िज़ शायद आज भी जीवित है क्योंकि उनकी सरल भाषा और लोक परंपरा की छाप, मानवता के लिए उनका प्रेम और सूफी अंदाज़ लोगों को आज भी छूता है.


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ईरान

जो जितना सृजनशील होता है उसे उतना ही प्यार मिलता है



कैसानोवा पर आधारित ड्रामा. कैसानोवा 100 से अधिक महिलाओं से संबंध का दावा करता था अगर आपको अपने जीवन में प्यार बढ़ाना है तो शायद आपको स्वयं को सृजनशील बनाना होगा. ब्रिटेन के कुछ शोधकर्ताओं ने पाया है कि व्यक्ति जितना सृजनशील या रचनाशील होता है, उसके प्रेमियों की संख्या भी उतनी ही अधिक होती है. शोधकर्ता कहते हैं कि एक कलाकार या कवि के जीवन में औसतन चार से 10 संगी आते हैं जिनके साथ उनके शारीरिक संबंध बनते हैं. वहीं जो लोग सृजनशील नहीं होते उनके जीवन में तीन संगी आते हैं.
न्यूकासल एंड ओपन विश्वविद्यालय के इन शोधकर्ताओं ने 425 व्यक्तियों पर अध्ययन के बाद अपना निष्कर्ष निकाला है.

शोध
ये बहुत आम बात है कि सृजनशील लोगों के कामुक व्यवहार को लोग झेलते भी हैं, उनके जो संगी होते हैं वो भी इस बात में अधिक भरोसा नहीं रखते कि वह व्यक्ति उसके साथ निष्ठा बनाए रखेगा. शोधकर्ताओं के अनुसार सृजनशील या रचनाशील व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्ष को उभार सकते हैं.
डॉक्टर डेनियल नेटल कहते हैं कि सृजनशील लोग ऐसी जीवनशैली में रहते हैं जो निर्बंध होती है, अनियमित होती है और समाज के सामान्य लोगों से अलग होती है.
डॉक्टर नेटल के अनुसार ऐसे लोग अक्सर साधारण लोगों से कहीं अधिक यौन संबंधों की ओर झुकाव दिखाते हैं जिसमें से कई बार उनका उद्देश्य केवल अनुभव प्राप्त करना होता है.
डॉक्टर नेटल का कहना है,"ये बहुत आम बात है कि उनके इस कामुक व्यवहार को लोग झेलते भी हैं, उनके जो संगी होते हैं वो भी इस बात में अधिक भरोसा नहीं रखते कि वह व्यक्ति उसके साथ निष्ठा बनाए रखेगा".
लेकिन उन्होंने कहा कि इस तरह के व्यवहार के नकारात्मक परिणाम भी हो सकते हैं.
उन्होंने कहा,"इस तरह के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को अवसाद या आत्महत्या की इच्छा जैसे मानसिक रोगों का ख़तरा होता है".
उदाहरण
इस तरह के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को अवसाद या आत्महत्या की इच्छा जैसे मानसिक रोगों का ख़तरा होता है

डॉक्टर डेनियल नेटल
अतीत में ऐसे कई उदाहरण नज़र आते हैं जो अपनी यौन इच्छाओं के लिए कुख्यात रहे हैं तो दूसरी तरफ़ अपनी सृजनशील के लिए विख्यात भी.
ऑन द वाटरफ़्रंट और द गॉडफ़ादर जैसी फ़िल्मों से जाने जानेवाले अभिनेता मार्लन ब्रांडो के कम-से-कम 11 बच्चे थे. उन्होंने तीन बार शादी की थी और उनका अनेक महिलाओं से संबंध था.
वहीं कैसानोवा का दावा था कि उसकी स्मृति में उसके 100 से भी अधिक महिलाओं से संबंध रहे हैं.
उसके संबंध रूस की कैथरीन द ग्रेट से लेकर फ्रांस के दार्शनिक वोल्तेयर तक से थे.
लेकिन वो काफ़ी पहले ही यौन रोग का शिकार हो गए और वेनिस की एक जेल से भागने के बाद निर्वासन में ही उनकी मौत हो गई.

सोमवार, मार्च 05, 2007

पेट की भूख ने इनको कई विदेशी भाषाएं सिखा दी हैं


बच्चे कभी-कभी विदेशी पर्यटकों को रास्ता बताने का काम भी करते हैं
"ओला कोमा एस्तास? तेमेर हांड्रे."
"हेलो, आप कैसे हैं? मुझे कुछ खाना दीजिए." विदेशी जुबान में बोले गए इन वाक्यों को सुनकर बरबस ही उसकी ओर ध्यान चला जाता है.

वह राजू है. जो स्पैनिश बोल लेता है. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में विदेशी सैलानियों के प्रमुख ठिकाने सदर स्ट्रीट में 10 से 16 साल के ऐसे कई बच्चे धड़ल्ले से अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन समेत कई विदेशी भाषाएं बोलते मिल जाएंगे.

इनमें लड़के भी हैं और लड़कियां भी. इनमें से ज्यादातर ने कभी स्कूल का चेहरा नहीं देखा. रहने के लिए न तो सिर पर कोई छत है और न ही दो जून की रोटी का ठिकाना.

लेकिन पेट की भूख ने इनको कई विदेशी भाषाएं सिखा दी हैं. इनका काम है महानगर में आने वाले विदेशी सैलानियों से उनकी भाषा में बात करके भीख मांगना.

पढ़ाई

13 साल की मुन्नी बीते चार-पांच वर्षों से यही करती है. मुन्नी, राजू और उनके जैसे दर्जनों बच्चे कभी-कभी इन विदेशियों के लिए गाइड का भी काम करते हैं.


पैसा माँगने में विदेशी भाषा काम आती है

महानगर में सदर स्ट्रीट स्थित होटल यहां आने वाले विदेशी सैलानियों की पहली पसंद हैं. इसकी वजह यह है कि वहां सस्ते कमरे मिल जाते हैं.

मुन्नी बताती है कि "विदेशियों से उनकी भाषा में बात करने पर भीख के तौर पर ज्यादा पैसे मिलते हैं." वह फ्रेंच के अलावा अंग्रेजी और स्पेनिश में काम चलाने लायक बातचीत कर लेती है.

राजू ने दूसरी कक्षा तक पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी. दूसरे लोगों की देखा-देखी उसने भी विदेशी भाषाएं सीख कर यही काम शुरू कर दिया.

12 साल का जयंत भी दिन भर विदेशियों से कभी जर्मन तो कभी अंग्रेजी में बात कर अपने खाने-पीने का जुगाड़ कर लेता है. वह कहता है कि "काम कठिन जरूर है. लेकिन पेट की आग ने हमें कई भाषाएं सिखा दी हैं."

इस बीच, एक विदेशी जोड़े को देख कर वह उधर लपक लेता है- "हेलो अंकल, हाऊ आर यू डूइंग? आई एम हंगरी. प्लीज गिव मी सम मनी टू ईट."

उनसे पांच का एक नोट मिलने के बाद वह फिर ‘थैंक्यू’ कह कर लौट आता है.

पूरे दिन में कितनी कमाई हो जाती है? इस सवाल पर वह बताता है कि "यह लोगों पर निर्भर है. कभी कोई दरियादिल व्यक्ति मिल जाए तो सौ रुपए तक दे देता है."

राजू कहता है कि "जो जितनी भाषाएँ बोल सकता है, उसकी कमाई भी उतनी ही ज्यादा है. इसके अलावा खरीददारी में मदद करने पर भी कुछ बख्शीश मिल जाती है. कुल मिला कर खाना-पीना चल ही जाता है."

यह कहते हुए वह विदेशियों के एक और ग्रुप की ओर बढ़ जाता है.

इंटरनेट लिंक्स
कोलकाता.कॉम

शुक्रवार, मार्च 02, 2007

इराक़ की बेशक़ीमती निशानियां कहाँ पहुँची?


लूटपाट में सभ्यताओं की बेशक़ीमती निशानियां ग़ायब हो गईं
इराक़ पर अमरीकी और ब्रितानी सेनाओं के हमले के दौरान मची लूटपाट में इराक़ की सभ्यता की निशानियों को सहेजने वाले स्थानों को भी नहीं बख़्शा गया और लूटपाट के साथ साथ कुछ 'समझदार' लोगों ने भी बहती गंगा में हाथ धोना सही समझ लिया.लेकिन अब उन्हें इराक़ की सभ्यता की निशानियों को वहाँ से हटाने का यह क़दम महंगा पड़ा है.ग़ौरतलब है कि इराक़ में अमरीकी और ब्रितानी सेनाओं ने इराक़ की राजधानी बग़दाद और बसरा सहित अन्य शहरों में लूटपाट और अराजकता को रोकने के लिए शुरु में कोई क़दम नहीं उठाए थे.नतीजा यह हुआ था कि बग़दाद में राष्ट्रीय संग्रहालय, विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय पुस्तकालय के साथ साथ महत्वपूर्ण स्थानों पर लूटपाट हुई.ऐसे में जिसके हाथ जो लगा, लेकर चलता बना. बहुत से पत्रकारों और सैनिकों ने भी इस मौक़े का फ़ायदा उठाने की कोशिश की.अमरीका में एक टेलीविज़न चैनल 'फ़ॉक्स टीवी' के एक इंजीनियर को कस्टम अधिकारियों ने इराक़ की कई बेशक़ीमती पेंटिंग और अन्य सामान के साथ रंगे हाथों पकड़ा है.बेन जॉन्सन नाम के इस इंजीनियर पर आरोप लगाया गया है कि उसने इराक़ी की बेशक़ीमती पेटिंग को चुराकर अमरीका में लाने की कोशिश की है.रूपर्ट मर्डोक के टेलीविज़न चैनल 'फ़ॉक्स टीवी' के लिए काम करने वाला यह इंजीनियर इराक़ में लड़ाई के दौरान अमरीकी सैनिकों की फ़िल्में बना रहा था.छोटी सी चोरीअमरीका में जब कस्टम अधिकारियों ने बेन जॉन्सन को रोका तो उसने कहा कि उसके पास सिर्फ़ सिगरेट की कुछ डिब्बियाँ हैं जिनकी क़ीमत बीस डॉलर से ज़्यादा नहीं होगी.लेकिन जब उसके सामान की तलाशी ली गई तो उसमें बारह इराक़ी बेशक़ीमती पेटिंग मिलीं जिन्हें बक़ौल जॉन्सन बग़दाद के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के महलों से चुराया गया था.फ़ॉक्स टेलीविज़न चैनल ने इस इंजीनियर को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया है और उस पर तस्करी करने और पुलिस से ग़लतबयानी करने का आरोप लगाए गए हैं.बेन जॉन्सन के पास जो पेंटिंग थीं अब वे उसी सामान का हिस्सा हैं जिसे अमरीका के कस्टम विभाग ने ज़ब्त करने के बाद प्रदर्शनी के तौर पर रखा है.इस सामान में ख़ूबसूरत चाकू, सोने की पर्त चढ़ी बंदूकें और इराक़ी दीनार के कुछ मियादी बॉन्ड भी शामिल हैं. इराक़ी सभ्यता और इतिहास का बहुमूल्य सामान चुराने के आरोपों में कई अन्य पत्रकारों और सैनिकों से भी पूछताछ की जा रही है.



गुरुवार, मार्च 01, 2007

वरवर राव : संघर्ष के प्रवक्ता और क्राँतिकारी तेलुगू कवि

आंध्रप्रदेश में नक्सलवादी संघर्ष के प्रवक्ता और क्राँतिकारी तेलुगू कवि वरवर राव मानते हैं कि साहित्यकार यदि सत्ता के क़रीब रहेगा तो अच्छा नहीं लिख सकता. वे मानते हैं कि साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना चाहिए.
विकास की बातों पर वे कहते हैं कि जब तक आप लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं दे सकते तब तक विकास की बातें करना बेमानी है.

उनसे बातचीत के कुछ अहम अंश-
वैश्वीकरण और निजीकरण के ख़िलाफ़ शुरु हुए जन-आंदोलनों की आज क्या स्थिति है?

1991 में जब वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण उभरकर सामने आया तो जो क्राँतिकारी सामंतवाद विरोधी संघर्ष चला रहे थे, उन्हें लगा कि इसे तेज़ करने का वक्त आ गया है. और क्योंकि जनवाद का संघर्ष सामंतवाद से ही नहीं होता बल्कि साम्राज्यवाद से भी होता है इसलिए हमने महसूस किया कि इस वैश्वीकरण के विरोध में एक संगठन होना चाहिए. और 1992 में कोलकाता में ऑल रिपब्लिक रेसिसेंटस फोरम शुरू किया गया.
लेकिन 1992 में ही आपने एक और फ्रंट बनाया था फैग (एफएजी)?

भारत में सामंतवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जो विभिन्न शक्तियाँ हैं उन्हें मिलाकर हमने एक संगठन बनाया था ‘फोरम अगेंस्ट ग्लोबल इंपिरियलिज़्म’(फैग). दरअसल हमारा मक़सद भारत में ही बिखरी शक्तियों को एकत्रित करना था ताकि वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ लडाई लड़ी जा सके.
भारत में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को आप कितने हिस्सों में बाँट सकते है?

भारत में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को मैं तीन रूपों में देखता हूँ. एक जो लोग जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में संघर्ष चला रहे हैं. इनका संघर्ष मूल रूप से अपनी अस्मिता और ‘सेल्फ डिटरमिनेशन’ के लिए है. दूसरी फोर्स हमारी है जो आँध्रप्रदेश समेत 14 राज्यों में क्राँतिकारी संघर्ष की अगुवाई कर रही है और तीसरी फोर्स चिपको तथा नर्मदा आंदोलन चला रहे संघर्षकारियों की है जो लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. हमने इन्हीं तीनों फोर्सेस को मिलाकर फैग का गठन किया था.
भारत में नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना कभी नहीं की जा सकती. ख़ासकर इसिलए क्योंकि दोनों देश राजनीतिक रुप से, व्यावहारिक रुप से और दर्शन की दृष्टि से भी बेहद अलग हैं

पीपल्स वारग्रुप और एमसीसी (माओवादी को-ऑर्डिनेशन सेंटर) के बीच जो एकता बनी थी उसका क्या हाल है?
2004 में पीडब्ल्यूजी और एमसीसी में यूनिटी हुई थी वह आज 14 राज्यों में सफलतापूर्वक काम कर रही है. इनमें आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र आदि प्रमुख हैं.
क्या आप भारत में कभी नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना करते हैं? या पीडब्ल्यू और एमसीसी जैसे संगठनों को हमेशा अंडरग्राउंड ही काम करना पड़ेगा?
भारत में नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना कभी नहीं की जा सकती. ख़ासकर इसिलए क्योंकि दोनों देश राजनीतिक रुप से, व्यावहारिक रुप से और दर्शन की दृष्टि से भी बेहद अलग हैं. (हँसते हुए) जहाँ तक पीडब्ल्यू और एमसीसी जैसे संगठनों का अंडरग्राउंड काम करने का सवाल है तो ज़ाहिर है जब तक संपूर्ण क्राँति नहीं हो जाती तब तक तो हम अंडरग्राउंड ही काम करेंगे.
विभिन्न भारतीय भाषाओं के जनसाहित्य में जन संघर्षों को क्या उचित जगह मिल पा रही है?
बांग्ला में और तेलुगू के जन-साहित्य में जनआंदोलनों को हमेशा उचित स्थान मिला है.
क्या हिंदी पर भी यही बात लागू होती है?
इस दौर में तो हिंदी में भी मुक्तिबोध, गोरख पांडे जैसे रचनाकार हुए. उधर पंजाब में पाश हुए.
लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में हिंदी साहित्य की क्या स्थिति आप पाते हैं?
यह सच है कि पिछले कुछ समय में हिंदी में अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है. इसकी वजह तो यह हो सकती है कि हिंदी में वर्ग संघर्ष खत्म हो गया. एक अन्य अहम वजह यह हो सकती है कि दिल्ली सत्ता का गढ़ है और जब साहित्यकार भी सत्ता के करीब रहने की कोशिशें करेंगे तो अच्छा साहित्य कैसे लिखा जाएगा? मेरा मानना है कि साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना पड़ता है. साहित्य के लिए शुरू में होने वाले ढेरों पुरस्कारों ने भी साहित्याकारों की लेखनी को कमजोर किया है. क्योंकि सत्ता अंततः साहित्य की धार कुंद करती है, उसे भ्रष्ट करती है.

भारत पर उदारीकरण और वैश्वीकरण का क्या असर हुआ?

बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने मूल चरित्र-सामंतवाद को कभी नहीं बदलतीं. वास्तव में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के बीच सौहार्द का रिश्ता होता है. और साम्राज्यवाद हमेशा से सामंती मूल्यों और कार्यव्यापार को ही प्रोत्साहित करता है. आप संस्कृति के क्षेत्र में इसे बेहतर तरीके से देख सकते हैं. सेटेलाइट चैनल भारत में क्या परोस रहे हैं? एक ओर प्रतिक्रियावादी दर्शन तो दूसरी ओर भ्रष्ट पश्चिमी संस्कृति. जब तक आप लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं दे सकते तब तक विकास की बातें करना बेमानी है. दिलचस्प रूप से आज चुनावी वादों में नेता टीवी देने की बात करता है. कभी एनटी रामाराव ने दो किलो चावल देने का वादा किया था. तो हम चावल से टीवी पर आ गए हैं. मेरा मानना है कि बाज़ार की ताक़तें सूचना और टेक्नॉलॉजी का भरपूर दुरुपयोग कर रही हैं. और इन्हीं सबके विरोध में हम खड़े हैं.

वरवर की प्रिय कविता

कसाई का बयान
एक
मैं बेचता हूँ माँस
चाहे आप मुझे कसाई कहें
यह आपकी इच्छामैं मारता हूँ
हर रोज़ पशुओं को काटकर उनका माँस बेचता हूँ.
रक्त देखकर मैं नहीं चौंकता
अपने कसाई होने का अर्थ
उस दिन समझा था मैं
बस गया मेरी आँखों में उस मासूम का ख़ून
फँस गई है मेरे गले में उसकी आवाज़
रोज़ करता हूँ इन्हीं हाथों से पशुओं का वध
लेकिन गला नहीं अभी तक मेरे मन पर
ख़ून का दाग़उस दिन सड़क, पर नहीं.
मेरे मन पर फैल गया था उस बच्चे का ख़ून
...क्या तुम इसे धो पाओगे?तुम्हारे इंसानी हाथ.
क्या बोझा हल्का कर पाएँगे मेरे दिल का.
दो

उसके जिस्म परटूट गई थीं छह लाठियाँ
क़ातिल के कांधे से
बरस रहा था उसके जिस्म पर बंदूक का कुंदा
लगातार.नली टकरा रही थी सिपाहियों के जबड़ों से
और वह सड़क पर चित पड़ा था
शव की भाँति.
एक ने कहा-‘यह चाकू मार देगा’
और सुनते ही दूसरे सिपाही ने दाग़ दी गोली
उसके मुठभेड़ में मारे जाने की
ख़बरें छपी थीं दूसरे दिन.

मैं पशुओं से हरता हूँ प्राण
क्रोध और घृणा से नहीं
मैं बेचता हूँ माँस
पर स्वयं को नहीं.

तीन
हज़ार ज़ख्मों से रिस रहा था रक्त
हज़ारों भीगे नेत्र देख रहे थे
मेरे टोहे पर पड़ी बकरी की भाँति.
वह नहीं चीखा थाउसकी आँखों में नहीं थे अश्रु भी जाने क्यों
क्या वह देख रहा था आने वाले कल को.

चार
कल का दृश्य
कल और आज के बीच स्थित वर्षों का दृश्य
15 मई के बंद का दृश्य
कैसे भूल पाऊँगा मैं जीवन भर
मिटेगा किस तरह यह सब मेरे मन पर से
बता सकता हूँ आज तुम्हें
शायद कल नहीं,

आज ही यह कि वह मासूम मेरा पीछा करेगा
उम्र भर लगता है.
इस प्रकार तो हम नहीं मारते हैं साँप को भी.
प्रतिदिन बकरियों को मारने वाला मैं
उस दिन समझा कि
कैसी होती है षडयंत्र से प्राण लेने वाली क्रूरता.

मैं कसाई हूँ.
अपनी आजीविका के लिए
पशुओं को मारने वाला कसाई.
व्यक्ति को मारने पर तो
मिलते हैं पद-पुरस्कार-बैज मंत्री के हाथों.
मंत्री यानी सरकार
किंतु उस दिन जाना मैंने
कि कौन किसकी सरकार
और कैसी रक्षा
असली कसाई कौन है.
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