आंध्रप्रदेश में नक्सलवादी संघर्ष के प्रवक्ता और क्राँतिकारी तेलुगू कवि वरवर राव मानते हैं कि साहित्यकार यदि सत्ता के क़रीब रहेगा तो अच्छा नहीं लिख सकता. वे मानते हैं कि साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना चाहिए.
विकास की बातों पर वे कहते हैं कि जब तक आप लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं दे सकते तब तक विकास की बातें करना बेमानी है.
उनसे बातचीत के कुछ अहम अंश-
वैश्वीकरण और निजीकरण के ख़िलाफ़ शुरु हुए जन-आंदोलनों की आज क्या स्थिति है?
1991 में जब वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण उभरकर सामने आया तो जो क्राँतिकारी सामंतवाद विरोधी संघर्ष चला रहे थे, उन्हें लगा कि इसे तेज़ करने का वक्त आ गया है. और क्योंकि जनवाद का संघर्ष सामंतवाद से ही नहीं होता बल्कि साम्राज्यवाद से भी होता है इसलिए हमने महसूस किया कि इस वैश्वीकरण के विरोध में एक संगठन होना चाहिए. और 1992 में कोलकाता में ऑल रिपब्लिक रेसिसेंटस फोरम शुरू किया गया.
लेकिन 1992 में ही आपने एक और फ्रंट बनाया था फैग (एफएजी)?
भारत में सामंतवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जो विभिन्न शक्तियाँ हैं उन्हें मिलाकर हमने एक संगठन बनाया था ‘फोरम अगेंस्ट ग्लोबल इंपिरियलिज़्म’(फैग). दरअसल हमारा मक़सद भारत में ही बिखरी शक्तियों को एकत्रित करना था ताकि वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ लडाई लड़ी जा सके.
भारत में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को आप कितने हिस्सों में बाँट सकते है?
भारत में साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को मैं तीन रूपों में देखता हूँ. एक जो लोग जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में संघर्ष चला रहे हैं. इनका संघर्ष मूल रूप से अपनी अस्मिता और ‘सेल्फ डिटरमिनेशन’ के लिए है. दूसरी फोर्स हमारी है जो आँध्रप्रदेश समेत 14 राज्यों में क्राँतिकारी संघर्ष की अगुवाई कर रही है और तीसरी फोर्स चिपको तथा नर्मदा आंदोलन चला रहे संघर्षकारियों की है जो लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं. हमने इन्हीं तीनों फोर्सेस को मिलाकर फैग का गठन किया था.
भारत में नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना कभी नहीं की जा सकती. ख़ासकर इसिलए क्योंकि दोनों देश राजनीतिक रुप से, व्यावहारिक रुप से और दर्शन की दृष्टि से भी बेहद अलग हैं
पीपल्स वारग्रुप और एमसीसी (माओवादी को-ऑर्डिनेशन सेंटर) के बीच जो एकता बनी थी उसका क्या हाल है?
2004 में पीडब्ल्यूजी और एमसीसी में यूनिटी हुई थी वह आज 14 राज्यों में सफलतापूर्वक काम कर रही है. इनमें आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र आदि प्रमुख हैं.
क्या आप भारत में कभी नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना करते हैं? या पीडब्ल्यू और एमसीसी जैसे संगठनों को हमेशा अंडरग्राउंड ही काम करना पड़ेगा?
भारत में नेपाल जैसी स्थिति की कल्पना कभी नहीं की जा सकती. ख़ासकर इसिलए क्योंकि दोनों देश राजनीतिक रुप से, व्यावहारिक रुप से और दर्शन की दृष्टि से भी बेहद अलग हैं. (हँसते हुए) जहाँ तक पीडब्ल्यू और एमसीसी जैसे संगठनों का अंडरग्राउंड काम करने का सवाल है तो ज़ाहिर है जब तक संपूर्ण क्राँति नहीं हो जाती तब तक तो हम अंडरग्राउंड ही काम करेंगे.
विभिन्न भारतीय भाषाओं के जनसाहित्य में जन संघर्षों को क्या उचित जगह मिल पा रही है?
बांग्ला में और तेलुगू के जन-साहित्य में जनआंदोलनों को हमेशा उचित स्थान मिला है.
क्या हिंदी पर भी यही बात लागू होती है?
इस दौर में तो हिंदी में भी मुक्तिबोध, गोरख पांडे जैसे रचनाकार हुए. उधर पंजाब में पाश हुए.
लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में हिंदी साहित्य की क्या स्थिति आप पाते हैं?
यह सच है कि पिछले कुछ समय में हिंदी में अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा रहा है. इसकी वजह तो यह हो सकती है कि हिंदी में वर्ग संघर्ष खत्म हो गया. एक अन्य अहम वजह यह हो सकती है कि दिल्ली सत्ता का गढ़ है और जब साहित्यकार भी सत्ता के करीब रहने की कोशिशें करेंगे तो अच्छा साहित्य कैसे लिखा जाएगा? मेरा मानना है कि साहित्यकार को हमेशा विपक्षी होना पड़ता है. साहित्य के लिए शुरू में होने वाले ढेरों पुरस्कारों ने भी साहित्याकारों की लेखनी को कमजोर किया है. क्योंकि सत्ता अंततः साहित्य की धार कुंद करती है, उसे भ्रष्ट करती है.
भारत पर उदारीकरण और वैश्वीकरण का क्या असर हुआ?
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने मूल चरित्र-सामंतवाद को कभी नहीं बदलतीं. वास्तव में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के बीच सौहार्द का रिश्ता होता है. और साम्राज्यवाद हमेशा से सामंती मूल्यों और कार्यव्यापार को ही प्रोत्साहित करता है. आप संस्कृति के क्षेत्र में इसे बेहतर तरीके से देख सकते हैं. सेटेलाइट चैनल भारत में क्या परोस रहे हैं? एक ओर प्रतिक्रियावादी दर्शन तो दूसरी ओर भ्रष्ट पश्चिमी संस्कृति. जब तक आप लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएँ नहीं दे सकते तब तक विकास की बातें करना बेमानी है. दिलचस्प रूप से आज चुनावी वादों में नेता टीवी देने की बात करता है. कभी एनटी रामाराव ने दो किलो चावल देने का वादा किया था. तो हम चावल से टीवी पर आ गए हैं. मेरा मानना है कि बाज़ार की ताक़तें सूचना और टेक्नॉलॉजी का भरपूर दुरुपयोग कर रही हैं. और इन्हीं सबके विरोध में हम खड़े हैं.
वरवर की प्रिय कविता
कसाई का बयान
एक
मैं बेचता हूँ माँस
चाहे आप मुझे कसाई कहें
यह आपकी इच्छामैं मारता हूँ
हर रोज़ पशुओं को काटकर उनका माँस बेचता हूँ.
रक्त देखकर मैं नहीं चौंकता
अपने कसाई होने का अर्थ
उस दिन समझा था मैं
बस गया मेरी आँखों में उस मासूम का ख़ून
फँस गई है मेरे गले में उसकी आवाज़
रोज़ करता हूँ इन्हीं हाथों से पशुओं का वध
लेकिन गला नहीं अभी तक मेरे मन पर
ख़ून का दाग़उस दिन सड़क, पर नहीं.
मेरे मन पर फैल गया था उस बच्चे का ख़ून
...क्या तुम इसे धो पाओगे?तुम्हारे इंसानी हाथ.
क्या बोझा हल्का कर पाएँगे मेरे दिल का.
दो
उसके जिस्म परटूट गई थीं छह लाठियाँ
क़ातिल के कांधे से
बरस रहा था उसके जिस्म पर बंदूक का कुंदा
लगातार.नली टकरा रही थी सिपाहियों के जबड़ों से
और वह सड़क पर चित पड़ा था
शव की भाँति.
एक ने कहा-‘यह चाकू मार देगा’
और सुनते ही दूसरे सिपाही ने दाग़ दी गोली
उसके मुठभेड़ में मारे जाने की
ख़बरें छपी थीं दूसरे दिन.
मैं पशुओं से हरता हूँ प्राण
क्रोध और घृणा से नहीं
मैं बेचता हूँ माँस
पर स्वयं को नहीं.
तीन
हज़ार ज़ख्मों से रिस रहा था रक्त
हज़ारों भीगे नेत्र देख रहे थे
मेरे टोहे पर पड़ी बकरी की भाँति.
वह नहीं चीखा थाउसकी आँखों में नहीं थे अश्रु भी जाने क्यों
क्या वह देख रहा था आने वाले कल को.
चार
कल का दृश्य
कल और आज के बीच स्थित वर्षों का दृश्य
15 मई के बंद का दृश्य
कैसे भूल पाऊँगा मैं जीवन भर
मिटेगा किस तरह यह सब मेरे मन पर से
बता सकता हूँ आज तुम्हें
शायद कल नहीं,
आज ही यह कि वह मासूम मेरा पीछा करेगा
उम्र भर लगता है.
इस प्रकार तो हम नहीं मारते हैं साँप को भी.
प्रतिदिन बकरियों को मारने वाला मैं
उस दिन समझा कि
कैसी होती है षडयंत्र से प्राण लेने वाली क्रूरता.
मैं कसाई हूँ.
अपनी आजीविका के लिए
पशुओं को मारने वाला कसाई.
व्यक्ति को मारने पर तो
मिलते हैं पद-पुरस्कार-बैज मंत्री के हाथों.
मंत्री यानी सरकार
किंतु उस दिन जाना मैंने
कि कौन किसकी सरकार
और कैसी रक्षा
असली कसाई कौन है.
*************************************
1 टिप्पणी:
विचित्र है न? वैश्वीकरण के खिलाफ एक क्रान्तिकारी के विचार वैश्वीकरण के सबसे सशक्त औजार - इन्टर्नेट के सौजन्य से.
क्रान्तिकारी लोग प्रसंग खो बैठे हैं. जयप्रकाश नारायण कब लालू यादव में मॉर्फ हो जाते हैं, पता नहीं चलता और देर भी नहीं लगती.
एक टिप्पणी भेजें