गुरुवार, मार्च 08, 2007

ईरान की काव्यात्मक राजधानी शीराज़



'मैं पर्शिया का सपना देखा करता था. जहाँ बुलबुल गुलाब से इश्क लड़ाती थी. जहाँ सपनों के बागानों में कवि मदिरा लिए रचनाएँ करते जिनके अर्थ कई परतों में छुपे थे. अब, जब मैं आपके देश पहुँचा हूँ ये सपना हक़ीकत बन गया है और मेरे अनुभवों का हिस्सा बन गया है.'
रवींद्रनाथ ठाकुर ने ईरान पहुँचकर अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किए थे.
1932 में वे शीराज़ पहुँचे ख़्वाजाह शम्स उद्दीन मोहम्मद हाफ़िज़ शीराज़ी के मज़ार पर और उन्होंने लिखा, “मैं हाफ़िज़ की आरामगाह के पास बैठा, मुझे उनके स्पर्श का यहाँ के बग़ीचे, यहाँ के खिलते गुलाबों में अहसास हुआ.”
दुनिया में कविताओं को शायद ईरानियों से ज़्यादा कोई पसंद नहीं करता और शीराज़ को तो आप ईरान की काव्यात्मक राजधानी कह सकते हैं.
पार्शियाई कविता के दो दिग्गज 13वीं सदी में शेख़ सादी और 14वीं सदी में हाफ़िज़, दोनों शीराज़ की देन है.
सादी, तुर्की के रास्ते भारत पहुँचे थे वहीं हाफ़िज़ शीराज़ के बाहर बहुत कम निकले. हाफ़िज़ ने एक शहर से दुनिया की तस्वीर खींची तो सादी ने दुनिया को एक शहर में समेट दिया.
अपने जीवन काल में ही हाफ़िज़ भारत में लोकप्रिय हो चुके थे. हैदराबाद के बहमनी राजा ने उन्हें आने का न्यौता भी दिया था पर वे तूफ़ान के चलते बंदर अब्बास तक ही पहुँच पाए.
यहाँ तक कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी हाफ़िज़ ने आकृष्ट किया.
कविताओं की दीवानगी
यहाँ प्रथा है कि आप हाफ़िज़ का दीवान खोलिए. जो पन्ना खुलता है वो कविता आपके बारे में होती है.

पर्शिया के कवियों से टैगोर भी प्रभावित थे
इसे फ़ाल पढ़वाना कहते है और यह वहां की परंपरा बन गई है. आज भी शहर के युवा हाफ़िज़ की कविताओं के क़ायल हैं.
एक युवती सारा सेयरी कहती है,“हाफ़िज़ की हर कविता प्रेम की बात करती है. एक दूसरे तरह का प्रेम, आध्यात्मिक प्रेम. हाफ़िज़ की हर कविता हर व्यक्ति के लिए अलग मतलब रखती है.”
हाफ़िज़ के आध्यात्म को इस्लामी बंदिशों की वजह से युवा पीढ़ी अपने अंदाज़ में, अपनी सहूलियत के हिसाब से आंकती है.
ईश्वर से प्रेम को युवतियाँ प्यार के रुप में देखती है और शायद वे उन्हें आज भी मोहित करते है. एक युवती का कहना था, “हाफ़िज़ आज भी पुराने नहीं पड़े है. उन्हें आप आज भी आधुनिक कह सकते है. वे हमारे लिए वैसे ही है जैसे गांधी आपके लिए.”
हालत ये है उनकी कविताएँ पाप संगीत में भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं.
हाफ़िज़ शायद आज भी जीवित है क्योंकि उनकी सरल भाषा और लोक परंपरा की छाप, मानवता के लिए उनका प्रेम और सूफी अंदाज़ लोगों को आज भी छूता है.


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