गुरुवार, जून 12, 2008

हिंदुस्तान में पाकिस्तानी और पाकिस्तान में हिंदुस्तानी क़ैदियों की लाशों से प्यार है

मैंने अपने पोस्ट में भारतीय अधिकारियों के रवैये के बारे में जो कुछ लिखा है उसके बारे में पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ता जनाब अंसार बर्नी के अनुभव से भी पुष्टि होती है और यह भी पता चलता है कि वे कौन तत्व हैं जो चाहते हैं कि दोनों देशों के दरम्यान कभी अच्छे रिश्ते न हों। यहां पेश है जनाब अंसार बर्नी का इंटरव्यू, "तहलका" से बहुत-बहुत आभार सहित.
पंकज पराशर

नई दिल्ली हवाई अड्डे से बैरंग दुबई लौटा दिए गए पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ता अंसार बर्नी 'तहलका' संवाददाता शोभिता नैथानी से बातचीत में काफी खिन्न नज़र आए। उनके मुताबिक दोनों देशों के नेता लाशों पर राजनीति करते हैं।


आपको 16 साल पहले जारी हुए एक "लुकआउट नोटिस" (वांछित) के आधार पर वापस भेज दिया गया। आप को क्या लगता है, भारत सरकार ने ऐसा व्यवहार क्यों किया?
मुझे नहीं पता मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। ये भारत सरकार की ग़लती है न कि हिंदुस्तानी जनता या मीडिया की, वो तो मुझे बहुत प्यार करते हैं।

क्या आप इसके लिए दोनों देशों की सरकारों को जिम्मेदार मानते हैं क्योंकि दोनों ही क़ैदियों के मुद्दे पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं?
अगर दोनों देशों की जेलों में क़ैदी 35-40 सालों से सलाखों के पीछे हैं तो दोनों देशों की सरकारें उनके लिए क्या कर रही हैं? अगर अंसार बर्नी अवैध रूप से जेलों में क़ैद बंदियों के लिए कुछ अच्छा कर रहा है, तो इसमें हर्ज़ ही क्या है? मैं सरबजीत सिंह का साथ इसलिए नहीं दे रहा हूं कि वो आतंकवादी है, बल्कि इसलिए क्योंकि उसकी केस फाइल से मुझे पता चला कि वो निर्दोष है।

आपको नहीं लगता कि आपकी अति सक्रियता से दोनों देशों की सरकारें असुविधा महसूस कर रही हैं, इसलिए ऐसा किया गया?
मैंने अपने कुछ हिंदुस्तानी पत्रकार मित्रों से सुना है कि पाकिस्तान भी इसमें शामिल था, और अब मैं इस पर यकीन से 'हां' कह सकता हूं क्योंकि पिछले चार दिनों में मैंने उनकी तरफ से कुछ नहीं सुना है। मुझे ये बात कहने का अफसोस है कि दोनों सरकारें इंसानियत में यकीन नहीं करतीं। उन्हें हिंदुस्तान में पाकिस्तानी और पाकिस्तान में हिंदुस्तानी क़ैदियों की लाशों से प्यार है क्योंकि वो इन्हीं लाशों पर राजनीति खेलना पसंद करते हैं।

आपने कश्मीर सिंह की रिहाई में अहम भूमिका निभाई, और अब सरबजीत की माफी के लिए प्रयास कर रहे हैं। क्या आप भारत सरकार की ओर से छला हुआ महसूस करते हैं?
मेरे ख्याल से ये भारत सरकार में मौजूद कुछ लोगों की ग़लती है जो दोनों देशों के बीच बेहतर रिश्ते नहीं चाहते। इसलिए जब भी लोग मुझसे कहते हैं कि पाकिस्तान इसमें शामिल था और भारत उसके इशारे पर चल रहा था, तो मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि अगर ऐसा है तो दोनों देश एक दूसरे के बंदियों को रिहा क्यों नहीं कर देते? इससे सिर्फ यही बात साबित होती है कि ये सब नौटंकी है और वो लोग अपने नागरिकों को बेवकूफ बना रहे हैं। अगर भारत सरकार पाकिस्तान की इतनी सुन रही है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुकसान किसका हो रहा है। भारत का।

गृह मंत्रालय ने बयान जारी किया है जिसमें कहा गया है कि आपको वापस नहीं भेजा गया बल्कि अपूर्ण दस्तावेजों के चलते आपको "प्रवेश देने से इनकार" कर दिया गया। ये अधूरे दस्तावेज क्या थे?
सात हफ्ते पहले जब मैं भारत आया था तब भी मेरे पास यही कागजात थे। क्योंकि वो ये नहीं कह सकते थे कि पाकिस्तान ने हमसे बर्नी को वापस भेजने के लिए कहा, इसलिए उन्हें कुछ और तो कहना ही था।

मंत्रालय द्वारा तथाकथित "असुविधा" के लिए माफी मांग लेने के बाद क्या अब सब कुछ ठीक हो गया है?
बिल्कुल नहीं.. ये माफी नहीं है। अगर वो कह रहे हैं कि मेरे कागजात अधूरे थे तो फिर वो माफी क्यों मांग रहे हैं? मैं एक वकील हूं। मैंने पूरी दुनिया की यात्रा की है। क्या मैं इतना बड़ा मूर्ख हूं कि बिना दस्तावेज के ही भारत आउंगा?

क्या आप इस तिरस्कार का बदला लेना चाहते हैं? भारत सरकार से अब आप क्या चाहते हैं?
उन्हें मुझे मुआवजा देना चाहिए। मेरे टिकट की कीमत करीब दो लाख रूपए थी। मैं चाहता हूं कि भारत सरकार इस रकम को भारतीय जेलों में बंद क़ैदियों के बीच बांट दे, ताकि वो अपना जुर्माना भर सकें। अगर वो ये पैसा नहीं देना चाहते हैं तो उन्हें बंदियों की सज़ा दो महीने कम कर देनी चाहिए। पाकिस्तानी अख़बार मुझे भारत का एजेंट कहते हैं। ये देखते हुए तो भारत को मुझे और भी इज्जत देनी चाहिए थी।

क्या आप पाकिस्तान की जेलों में बंद भारतीयों के मामलों को उठाना जारी रखेंगे?
बिल्कुल, कोई भी मुझे रोक नहीं सकता, इसमें उनकी क्या ग़लती है?

(इस पोस्ट के बाद मेरे पाकिस्तान के संस्मरण जारी रहेंगे...)

मेरा जाना भारत के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी भी नहीं रोक सकते











दिल्ली-लाहौर-लाहौर बस सेवा के लिए शायद भारत और पाकिस्तान दोनों देश की सरकारों ने पिपली, सरहिंद और करतारपुर में जलपान और भोजन के लिए बस का ठहराव तय किया है। बेहद दुखी करनेवाली बात यह है कि दोनों देशों की सरकारों की नजर में बस से जानेवाली गरीब जनता की क्या इज्जत है वह इन स्थानों पर मिलनेवाले भोजन की गुणवत्ता से ही साफ समझ में आ जाता है। नकचढ़े शरीफों के जुमलों को उधार लेकर कहूं तो इतना घटिया खाना होता है कि बस मुझसे एक निवाला तक न निगला गया. बस के ड्राइवरों (ड्राइवर दो होते हैं) और सर्विस ब्याय के लिए इन होटलों के मालिक भोजन की व्यवस्था अलग केबिन में करते हैं। उस पर तुर्रा ये कि बस जहां भी रुकती है, वहां बस को चारों ओर से पुलिस के जवान घेर लेते हैं। यानी बस में चढ़ने के बाद बेहद संगीन जुर्म में गिरफ्तार कैदियों जैसी हालत हो जाती है यात्रियों की। वे न अपनी मर्जी का कुछ खा सकते हैं, न अपने घर का खाना, पानी, बिस्किट आदि बस के अंदर ले जा सकते हैं। मतलब ये कि आपको बस रूपी जेल में जो कुछ दिया जाएगा, वही खाने को अभिशप्त होंगे और तथाकथित सुरक्षा के नाम पर अगर आप की मुट्ठी बंधी हो, अगर आप बस में झुककर बैठे हों तो पंजाब पुलिस के बदतमीज पुलिसवाले मिनट-मिनट पर इस तरह आपकी जांच करेंगे मानो आप किसी आतंकवादी संगठन के कारकून हों, या बेहद खतरनाक आतंकवादी योजना बना रहे हों। इस रवैये की वजह से मेरे साथ बैठे एक पाकिस्तानी जैंटलमैन तो भड़क ही गए थे। मैंने किसी तरह उन्हें शांत किया, तब जाकर उनका गुस्सा शांत हुआ। जब तक भारत की सीमा से पाकिस्तान में प्रवेश नहीं कर गया तब तक अपने वतन में ही कैदी बने रहे, सुरक्षा के नाम पर बदतमीजियां सहते रहे और एक बार फिर लगा कि पाकिस्तान जाने का मेरा फैसला सही नहीं था।

अटारी बोर्डर पर पहुंचते बस रूकी. यहां कस्टम चैकिंग, वीजा-पासपोर्ट चैकिंग वगैरह के लिए रूकना था। भारतीय रूपये को पाकिस्तानी रुपये में एक्सचेंज करवाना था। यहां कई काउंटर्स बने हुए थे। सबको एक-एक फार्म दिया गया, जिसमें तमाम निजी जानकारियां भरकर संबंधित अधिकारी को देनी थी। फार्म देते समय फिर वही सवाल कि आप क्यों पाकिस्तान जा रहे हैं? बार-बार दिये जानेवाले जबाव को एक बार फिर मैंने दोहरा दिया कि यूं ही। तुरंत उस अधिकारी ने कहा कि नहीं आप नहीं जा सकते। मैंने पूछा क्यों? तो मेरे क्यों के जवाब में उसने फिर अपना जवाब एक बार दोहरा दिया। तब मैंने बेहद गुस्से में कहा कि मेरा जाना भारत के विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी भी नहीं रोक सकते, तुम किस खेत की मूली हो? बताओ मुझे किसके आर्डर से तुम मुझे जाने से रोक सकते हो? तब फार्म चैक कर रहे दूसरे अधिकारी मेरे प्रोफेशनवाले कालम में जर्नलिस्ट देखकर कहा कि छोड़िये, जनाब इनकी बातों को। आप जाइये। बहरहाल मेरे उलझने का तात्कालिक असर यह हुआ कि बिना कोई कठिनाई पैदा किये उन्होंने क्लीयरेंस दे दिया। फिर मैंने भारतीय स्टेट बैंक के काउंटर से मुद्रा चैंज करवाया। जिसमें मुझे एक्सचैंज रेट की सही सूचना न होने के कारण तकरीबन हजार रूपये का चूना लगाया। बस भारत से बाहर निकली और नो मैंस लैंड पर गई तो मैंने देखा लोगों और पत्रकारों की भारी भीड़ है। वजह जानने की कोशिश की तो पता चला पाकिस्तान सौहार्द दिखाते हुए ९६ भारतीय मछुआरों को रिहा कर रहा था। भीड़ वहां उन्हीं मछुआरों की थी और इसी को कवर करने के लिए तमाम पत्रकार इकट्ठे थे। पाकिस्तान पहुंचकर पता चला कि बदले में सौहार्द दिखाते हुए भारत ने सिर्फ १२ पाकिस्तानी मछुआरों को रिहा किया और कोढ़ में खाज यह कि पांच पाकिस्तानियों को जिंदा नहीं, उनकी लाशें पाकिस्तानी अधिकारियों को सौंपी. वापस पहुंचकर पता चला कि यह खबर भारत में प्रसारित नहीं हुई।


(जारी....)

बुधवार, जून 11, 2008

आखिरकार मैंने क्यों वहां जाने के बारे में सोचा?


नींद आ नहीं रही थी और बिस्तर पर लेटे-लेटे ऊब होने लगी थी. रात के तकरीबन डेढ़ बज रहे थे यानी घर से साढ़े तीन तक हर हाल में बस टर्मिनल के लिए मुझे रवाना हो जाना था. कुल एक-डेढ़ घंटे का ही वक्त मेरे पास था. सोचा कुछ पढ़ा जाए या कल कोरियर से एक पाकिस्तानी मित्र उज्मान अली ने जो कैसेट भेजी है वही सुनूं. छोटे से म्यूजिक सिस्टम में बेगम आबिदा परवीन की सी.डी. लगाकर बाथरूम के रैक पर रख दिया और अंदर से बाथरूम बंद कर लिया ताकि मेरी वजह किसी को असुविधा न हो. आबिदा परवीन की इस सी.डी. में सिर्फ मिर्ज़ा ग़ालिब की गजलें हैं जिसे उन्होंने अपने मलंग सूफियाना अंदाज में गाया है. बहरहाल, आबिदा को सुनते हुए मैंने ब्रश किया, स्नान किया, तैयार हुआ, पैकिंग की और साहब इतना कुछ करते-करते बस टर्मिनल रवानगी का वक्त हो गया.

ठीक चार बजे मैं बस टर्मिनल पहुंच चुका था. अभूतपूर्व सुरक्षा इंतजाम के बीच दिल्ली पुलिस के जवानों ने हमारी चैकिंग शुरू की. पहले बैग में रखी एक-एक चीज का मुआयना किया, मेटल डिटेक्टर से शरीर की तलाशी ली, फिर पासपोर्ट-वीजा चैक किया, सामान का वजन किया, उस पर स्टिकर लगाया और साहब इतने तरह के सवाल इतने लोगों ने इतनी जगह पूछा वहां जाने के अपने फैसले को लेकर मुझे पश्चाताप होने लगा। मुझे लगा कि आखिरकार मैंने क्यों वहां जाने के बारे में सोचा? मुझे लगता है सुरक्षा अधिकारियों का आम मासूम यात्रियों के साथ जैसा रवैया रहता है उसकी वजह से उनके मन में भी यह खीज जरूर उठी होगी कि क्यों उन्होंने भारत या पाकिस्तान में अपने रिश्तेदारों से मिलने की जहमत मोल ले ली. तत्क्षण जो बात मुझे समझ में आई कि दोनों देशों के ब्यूरोक्रेट्स दिल से यह नहीं चाहते कि दोनों मुल्कों के दरम्यान रिश्ते सुधरे और दोनों देशों के लोग एक-दूसरे के यहां आएं-जाएं. मेरे ख्याल से उनका ज्यादा-से-ज्यादा जोर इस पर रहता है कि लोगों को इतना हतोत्साह करो कि जो एक बार आ जाए वह दोबारा आने-जाने की हिम्मत न जुटा सकें.


खैर साहब, हमारी बस चल पड़ी. बेहद खराब माइक, जिससे की गई उदघोषणा का कोई-कोई शब्द ही हमारे पल्ले पड़ रहा था. खबातीनो-हजरात...और लाहौर...के अलावा कोई शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा था. बस जब चली तो बस के आगे-आगे दिल्ली पुलिस की एक गाड़ी रोड क्लियर कराने के लिए सायरन देती हुई आगे चल रही थी और दूसरी पीछे. सिंधु बोर्डर से बस जैसे ही हरियाणा में घुसी तो दिल्ली पुलिस के जवानों की गाड़ी पीछे छूट गई और पहले से इस बस के इंतजार में तैयार खड़ी हरियाणा पुलिस की गाड़ी प्रोटेक्शन के लिए इस बस के साथ हो गई. थाने बदलते जाते थे और गाड़ियां बदलती जाती थी. कुरुक्षेत्र जिले की सीमा में जब बस घुसी तो एक अनपढ़, बेहद दुबला-पतला और पुलिस की खौफ से शायद अनजान मिनी ट्रक के ड्राइवर ने साइड देने में देर की तो ताकत के नशे में चूर पाकिस्तान के ड्राइवर ने बस से उस मिनी ट्र को ओवरटेक किया और उस ड्राइवर को बुरा-भला कहना शुरू किया. ड्राइवर का इतना कहना था कि आगे-पीछे लगी पुलिस की गाड़ियों से सारे पुलिसवाले उतर आए और उसके ट्रक का शीशा तोड़ दिया. ड्राइवर बेचारा सहमकर माई-बाप कहने लगा और माफी मांगने लगा मगर पुलिस के जवानों ने कोई दया दिखाये बगैर उसको पीट-पीटकर अधमरा कर दिया और जब उन्हें लगा कि पुलिसिया ताकत का सही रौब गालिब हो गया होगा तब कहा-चलो. बस फिर चल पड़ी.
(जारी.....)

मंगलवार, जून 10, 2008

आप तो पाकिस्तान जा ही नहीं सकते


दिल्ली गेट के पास लाहौर के लिए दिल्ली परिवहन निगम की बस चलती है-दिल्ली-लाहौर-दिल्ली और उधर पाकिस्तान पर्यटन विकास निगम की बस चलती है लाहौर-दिल्ली-लाहौर. इसे महज एक अच्छा संयोग कहा जा सकता है कि मुझे जाने और आने दोनों तरफ का टिकट पाकिस्तान पर्यटन विकास निगम की बस में जगह मिली. मैं बेहद खुश था और मन में थोड़ा डर भी था कि पता नहीं वहां कैसा माहौल हो और पता नहीं किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़े? पर टिकट लेने के बाद शुरुआत में ही गड़बड़ हो गई. वीज़ा देते समय मैंने देखा कि वीजा की अवधि तो बीत चुकी है. मैंने इस ओर जब संबंधित अधिकारी का ध्यान दिलाया तो उन्होंने कहा कि नहीं...नहीं कुछ नहीं होगा. सब ठीक है. मैं मुतमइन हो गया कि चलो जब वीज़ा अफसर कह रहा है तो ठीक ही होगा. इसकी तस्दीक भी तब हो गई जब वहां के लिए टिकट लेते समय वीजा और पासपोर्ट की जांच करते समय भारतीय अधिकारियों ने कहा कि ठीक है.

जिस दिन तड़के जाना था उसके एक दिन पहले शाम बस टर्मिनल से फोन आया कि आपका वीजा तो समाप्त है और आप तो कल पाकिस्तान जा ही नहीं सकते? "आप तो पाकिस्तान जा ही नहीं सकते" यह जुमला इतनी जगह और इतनी बार सुना था कि मूड झल्ला गया. मैंने कहा वीजा जारी हुआ और जारी होने के साथ एक्सपायर्ड भी हो गया? मैंने तुरंत पाकिस्तान के दूतावास में संबंधित अधिकारी को फोन किया कि यह कैसा वीजा दिया आपने? मैं आपको उसी वक्त कह रहा था कि इसमें टेक्नीकल ऐरर है. अधिकारी ने गलती स्वीकार करते हुए मुझसे कहा कि मैं तुरंत पासपोर्ट लेकर आ जाऊं. मुझे चूंकि अगली सुबह की वहां के लिए रवाना होना था, सो मैं तुरंत पासपोर्ट लेकर पाकिस्तानी उच्चायोग पहुंच गया. इत्तफाक से तुरंत उन लोगों ने एक महीने का अतिरिक्त वीजा दे दिया. सुबह छह बजे बस चलती है इसलिए बस चलने से दो घंटे पहले वहां जाकर रिपोर्ट करना पड़ता है। सो घर से सुबह तीन-सवा तीन बजे ही निकलना था. यह सोचकर कि कहीं मैं सोता ही न रह जाऊं, रात भर नहीं ही नहीं आई....और अधमुंदी आंखों बार-बार चचा ग़ालिब यह शेर सुनाते रहे...मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.....(जारी....)

गुरुवार, जून 05, 2008

पाकिस्तान को तो मंजूर था मगर भारत सरकार को ही मंजूर नहीं था।

वीज़ा के लिए जब मैंने पाकिस्तान उच्चायोग में फोन किया तो बिना कुछ जाने फोन अटेंड करनेवाले अधिकारी ने कहा कि घूमने के लिए आपको पाकिस्तान का वीजा नहीं मिल सकता। फिर मैंने कहा कि मेरी बात तो सुन लीजिये, लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार न थे। बहरहाल, भारत में पाकिस्तान के उच्चायोग जनाब शाहिद मलिक से इस बारे में हुई अपनी बात का हवाला दिया तब काफी तफ्तीश के बाद वीजा फार्म भरने को दिया और मेरा पासपोर्ट रख लिया. बीस-पच्चीस दिन गुजर गये, मेरी बेकरारी बढ़ती ही जा रही थी और वे लोग थे कि मुझे इत्मीनान रखने के लिए कहते थे। खैर, वीजा मिल गया।

पहले मैंने सोचा था कि यहां से अमृतसर जाऊंगा और वहां से अटारी बोर्डर पार करके लाहौर चला जाऊंगा। लेकिन यह पाकिस्तान को तो मंजूर था मगर भारत सरकार को ही मंजूर नहीं था। पता चला कि अगर इस तरह जाना है तो विदेश मंत्रालय से इसके लिए लिखित अनुमति लेनी पड़ेगी। यह मुझे बहुत झंझट का काम लगा, सो इस इरादे को ही मुल्तवी कर दिया कि विदेश मंत्रालय जाऊं और वहां का चक्कर काटूं। भारत ने पाकिस्तानी नागरिकों के लिए और पाकिस्तान ने भारतीय नागरिकों के लिए यह कानून बनाया है कि वीजा में आपको मोड आफ ट्रेवल भी लिखना पड़ेगा-रेल, बस या हवाई जहाज। इन तीनों में से किसी एक का चयन करने के बाद आप किसी और साधन से नहीं आ-जा सकते। मान लीजिये आपने वीजा फार्म में बस भर दिया है, तो लौटते समय आप प्लेन से चाहें तो नहीं लौट सकते। बी.बी.सी. हिंदी सेवा के मेरे दोस्त शुभ्रांशु चौधरी के साथ यही हुआ था। वे प्लेन से गये थे और चाहते थे कि पैदल सीमा पार करके अमृतसर आ जाएं। उनके इस अनुरोध को पाकिस्तान ने तो मान लिया था मगर भारत ने स्वीकार नहीं किया और उन्हें दोबारा पाकिस्तान लौटकर प्लेन से भारत वापस आना पड़ा। मुझे समझ में नहीं आता है कि प्लेन से गया हुआ आदमी यदि बस से वापस आ गया तो इसमें गजब क्या हो जाएगा? दोनों देशों की ब्यूरोक्रेसी ही शायद इस बात को बेहतर जानती होंगी। मगर आम अवाम को यह जानने की लालसा है कि आने-जाने के लिए जब वैध दस्तावेज हो तब नागरिक किसी भी मोड से जाए तो इससे किस तरह का खतरा पैदा हो सकता है? खैर, मेरी दिक्कत इसी वजह से शुरू हुई कि मैं लाहौर से वापस पैदल सीमा पार करना चाहता था, मगर इसी कानून की वजह से यह संभव नहीं हो सका।

(जारी...)

बुधवार, जून 04, 2008

मैंने लाहौर देखा और इस दुनिया में पैदा भी हुआ




जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या ही नई


दोस्तो,

पाकिस्तान का वीजा जब मुझे मिला तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देश के दोस्तों को एक आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई। आश्चर्य की वजह ये कि दोनों देशों के बीच लिखित रूप से जितनी दीवारें खींची गई हैं उससे ज्यादा अलिखित कानूनी दीवार हैं। बिना कारण बताये जितना कुछ होता है, जितने फैसले किये जाते हैं, उससे कम फैसले लिखित कानून और जरूरी कारण बताकर किये जाते हैं।


लाहौर के अनारकली बाजार में घूमते हुए ऐसा लगा जैसे दिल्ली के चांदनी चौक, चावड़ी बाजार, बाजार सीताराम या कह लें हिंदुस्तान के किसी भी शहर के पुराने व्यस्ततम बाजार में घूम रहे हैं। वही बोली, वही भाषा, वही खान-पान की आदतें, हर चीज वही...नई बस ये कि लाहौर से सिर्फ बीस किलोमीटर दूर शहर अमृतसर हिंदुस्तान हो जाता है...एक अलग मुल्क...कथित रूप से अंतरराष्ट्रीय...जहां तक पहुंचने के लिए पासपोर्ट, वीजा, पचास डालर या इसके बराबर रुपये, जाने की यकीनी वजह और दोनों मुल्कों की ब्यूरोक्रेसी को मुतमइन करने लायक सवालों के जवाब और असीम धैर्य चाहिए. सरहद बना दी गई है, कांटेदार बाड़ लग गए हैं...लोग एक-दूसरे के यहां आ-जा नहीं सकते...कथित रूप से वे मेरे दुश्मन हैं और हम उनके दुश्मन हैं...सभ्य हुए, संस्कारवान हुए और इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए।

(जारी...)