गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

आज के हालत-ए-हाजरा पर यादवेन्द्र का नजरिया

वह समय अभी अच्छी तरह से बीता हुआ भी नहीं माना जा सकता जब मिस्र की सड़कों पर...मुख्य तौर पर दिल्ली के जंतर मंतर या रामलीला मैदान की तरह ही राजधानी काहिरा के तहरीर चौक पर... लाखों लोगों का गैर राजनैतिक समूह (कहा जाता है कि इसमें नौजवान सबसे ज्यादा थे) कई दिनों तक देश की तीन दशकों से ज्यादा वक्त से काबिज राजनैतिक सत्ता को गद्दी छोड़ने की चुनौती देता रहा और बगैर ज्यादा खून खराबे के अंततः अपने फौरी मकसद में कामयाब भी हुआ. तब दुनिया भर में इसको एक अद्भुत क्रांति ( अरबी बसंत नाम से याद किया जाता है)के प्रतीक के तौर पर हाथों हाथ लपका गया.भारत में अनेक गैर राजनैतिक बुद्धिजीवी,अन्ना हजारे और रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसे हिंदूवादी राजनीति का पानी नाप रहे आध्यात्मिक गुरु बार बार इसकी दुहाई देकर व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं...अब इस साल के अंतिम दिनों में दिल्ली या मुंबई में इसी तरह का गैर राजनैतिक कहा जाने वाला जन आन्दोलन लोकपाल के मुद्दे पर आयोजित किया जायेगा इसकी घोषणा महीनों से ताल ठोंक ठोंक कर की जा रही है.

इस टिप्पणीकार का अरबी बसंत के अद्भुत उदाहरण को छोटा करके दिखाने का कतई कोई आग्रह नहीं है पर बार बार गैर राजनैतिक कहे जाने वाले आन्दोलन का अंततः क्या हस्र होता है इसके लिए हमें अपने आस पास की उभर रही वास्तविकताओं से आँखें मिला कर बातें करनी होंगी...मिस्र और ट्यूनीशिया की बात ही करें तो आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले लगभग धर्म निरपेक्ष जन आंदोलनों के बाद दशकों से काबिज निरंकुश शासक तो हट गए पर चुनाव के बाद जो नया सत्ता वर्ग उभरा वह इस्लामी कट्टरवादी चेहरे पर झीना सा पर्दा डाल कर सहिष्णु दिखने वाला धुर इस्लामी कट्टरपंथी राजनैतिक वर्ग ही निकला..और शुरूआती चुनाव परिणाम आते ही आर्थिक संसाधन और संगठन के मामले में बेहद ताकतवर इन कट्टर पंथियों नें मुगदर भांजने शुरू भी कर दिए...इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण उनके भविष्य में समाज में स्त्रियों की भूमिका को लेकर दिए गए वक्तव्य हैं जिसमें बार बार शरीया कानून का हवाला दिया जा रहा है.धर्म को राजनीति का हथियार बनाने का विरोध करने वाली नयी पार्टियाँ इन चुनावों के दो दौर में दस फीसदी से भी कम वोट हासिल कर पायीं.और तो और मिस्र के चुनाव में बीस फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर लेने वाली दूसरी सबसे बड़ी इस्लामी सलाही पार्टी के प्रवक्ता ने जब मिस्र ही क्या पूरे अरब विश्व के सबसे बड़े कथाकार नगीब महफूज ( 1988 में साहित्य का नोबेल जीतने वाले)के साहित्य को उनके शताब्दी वर्ष में घिनौनी वेश्या जैसा संबोधन दे डाला तब आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाले बुद्धिजीवियों का माथा भी ठनका.अपने दीर्घ जीवन में महफूज ने बेहद साहस के साथ कट्टर पंथी मजहबी सोच और सत्ता का विरोध किया.उनकी किताबों पर प्रतिबन्ध लगे,उनसे लम्बी पुलिस पूछ ताछ हुई और यहाँ तक कि मृत्यु से कुछ वर्ष पहले एक कट्टरपंथी नौजवान ने उनपर चाकू से हमला किया और उनके दाहिने हाथ को इतना जख्मी कर दिया कि उस से लिखना मुमकिन न हो..कई आलोचक तो उनके साहित्य में मिस्र के हालिया सत्ता परिवर्तन की चिंगारी भी देखते हैं.महफूज की एक आत्मकथात्मक कृति में बचपन के अंग्रेजों के खिलाफ मिस्री विद्रोह की चर्चा है जिसमें अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए महफूज कहते हैं कि हम खुदा से दुआ करते थे कि इस बगावत के कारण हमारा स्कूल हमेशा बंद ही रहे...बाद के लेखन में भी महफूज सामाजिक और राजनैतिक बदलाव की निरंतरता की वकालत करते रहे. इतना ही नहीं,इन कट्टरपंथी पार्टियों ने संसद में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व की बात को गुनाह का संबोधन दिया..विश्व प्रसिद्ध पिरामिडों को देखने वालों को मूर्तिपूजा जैसे गैर इस्लामी काम अंजाम देने वाला बताया...यहाँ तक कि जिन चुनावों की बदौलत उन्हें अपनी ताकत दिखाने का मौका मिला है उसे ही वे अनुचित बता रहे हैं.

मिस्र के प्रमुख स्तंभकार अब्देल मोनिम सईद ने अल अहरम वीकली में लिखते हुए अरब बुद्धिजीवियों के इस मोहभंग की तुलना ग्रीक पुराकथाओं के चरित्र आईकारस से की जो बार बार आसमान में परिंदों की तरह उड़ने की जिद करता था और जब उसके पिता दीदेलस ने मोम से उसके कन्धों पर पंखों को चिपका दिया और इस चेतावनी के साथ उड़ने को कहा कि सूरज के पास मत जाना नहीं तो पंखों को शरीर से चिपकाने वाला मोम पिघल जायेगा...पर युवा जिद अपनी जगह. आईकारस सूरज तक जा पहुंचा और जैसा होना था वही हुआ...इधर मोम पिघला और उधर आईकारस की शामत आई. इस कथा से और कुछ मिले न मिले यह सीख जरुर मिलती है कि अधूरी तैयारी और भावनात्मक उत्साह और भावुकता के साथ शुरू किये गए अभियान अपने लक्ष्य तक पहुँचने मुश्किल होते हैं.और राजनैतिक सत्ता को उखाड़ने के लिए गैर राजनैतिक आन्दोलन का शस्त्र ज्यादा कारगर नहीं हो सकता...और राजनैतिक लड़ाई का नेतृत्व संगठित विचारों और कार्यक्रमों के साथ ही किया जा सकता है...बिखरी हुई रूमानियत और संकल्पहीनता के साथ छेड़ी गयी लड़ाई भले ही तात्कालिक स्तर पर सफल होती दिखाई दे पर इसकी दूरगामी और स्थायी परिणति होना बहुत मुश्किल है...कम से कम हालिया इतिहास में इसकी मिसाल नहीं मिलेगी. गुजरात,असम और बिहार के सामाजिक परिवर्तन के तमाम नायक अपने अपने प्रान्तों के मुख्य मंत्री भले ही बन गए पर उनमें से बिरले ही ऐसे हुए जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और शुचिता के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये.इसी लिए कोई आश्चर्य नहीं कि अन्ना हजारे और उनके साथियों की वाणी में विनम्रता और दूसरों के विवेक को स्वीकार करने का घनघोर अभाव है...और उनके जन आन्दोलन का मुखर विरोध करने के लिए इक्का दुक्का मौकों को छोड़ दें तो कांग्रेस अबतक जिस भड़काऊ भाषा का प्रयोग का इस्तेमाल करने से बचती रही है उसका जयप्रकाश के परिवर्तनकारी आन्दोलन के कई पुरोधा( लालू प्रसाद और शिवानन्द तिवारी जैसे लोग) खुल कर प्रयोग कर रहे हैं. ऐसे समय में हमें ठहर कर पूरी संजीदगी के साथ यह विचार करना होगा कि यथा स्थिति से बगावत करने के लिए तैयार बैठे समाज ( इसका बहुत बड़ा हिस्सा युवा है,यदि हम वोट पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात करें तो) की इच्छा और ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने के लिए गैर राजनैतिक मंच कितना प्रभावी होगा और खुद को दूसरा राष्ट्रपिता समझने वाले व्यक्ति के आसपास केन्द्रित ट्विटर और फेसबुक की ताकत से संचालित मंच से राजनैतिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ना सचमुच क्या संभव भी होगा?हमें याद रखना होगा कि इतिहास से सबक नहीं सिखने वालों का हस्र कभी भी अच्छा नहीं हुआ है.
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बुधवार, दिसंबर 14, 2011

अचूक अवसरवादियों का 'नया दौर'

यह अचूक अवसरवादियों का नया दौर है. जिसमें विचारधाराएं, जीवन मूल्य, बड़प्पन जैसे शब्द मूल अर्थक्षरित हुए. यह कुछ पा लेने का दौर है. जो पा लेने में सफल होता है वह महानता का चलता फिरता आत्मविज्ञापन लगता है.

शनिवार, दिसंबर 10, 2011


48 वर्षीय नसरीन सतूदेह इरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और कार्यकर्ता हैं जो अपने कट्टर पंथी शासन विरोधी विचारों के लिए सरकार की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं.अपने छात्र जीवन में खूब अच्छे नंबरों से पास होने के बाद उन्होंने कानून की पढाई की पर वकालत करने के लाइसेंस के लिए उन्हें आठ साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा.उन्होंने सरकारी महकमों और बैंक में भी नौकरी की पर इरान के पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आततायी पिताओं के सताए हुए बच्चों और शासन के बर्बर कोप का भाजन बने राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए क़ानूनी सहायता प्रदान करने के कारण उन्हें दुनिया भर में खूब सम्मान मिला.पिछले राष्ट्रपति चुनाव की कथित धांधलियों में उन्होंने खुल कर विरोधी पक्ष का साथ दिया...नतीजा सितम्बर 2010 में उनकी गिरफ़्तारी और अंततः जनवरी 2011 में ग्यारह साल की एकाकी जेल की सजा...जेल में रहते हुए उन्हें अपने परिवार से भी नहीं मिलने दिया जाता था इसलिए कई बार उन्होंने विरोध स्वरुप अन्न जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया...उनकी सेहत निरंतर बिगडती जा रही है.दुनिया में मानव अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अनेक लोगों और संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की है.जेल की अपनी एकाकी कोठरी से उन्होंने अपनी बेटी के लिए जो चिट्ठी लिखी,उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है:

मेरी सबसे दुलारी मेहरावे...मेरी बेटी..मेरी शान...मेरी ख़ुशी,

एविन जेल के वार्ड न.209 से में तुम्हें सलाम भेजती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि तुम्हारा समय ठीक से बीत रहा होगा.मैं तुमसे बगैर किसी चिंता,उदासी और आँसू के मुखातिब होना चाहती हूँ..बल्कि तुम्हारे लिए और तुम्हारे छोटे भाई के लिए प्यार और दुआओं से भरे दिल के साथ तुमलोगों को सलाम करती हूँ.

मुझे अपने प्यारे बच्चों से दूर हुए छह महीने हो गए.इन छह महीनों में ले दे के ऐसे मौके बिरले ही आए हैं जब हम एक दूसरे को आमने सामने देख पाए हैं...वो भी सिक्योरिटी गार्ड की मौजूदगी में ही.मुझे इस बीच में तुम्हें ख़त लिखने की इजाज़त कभी नहीं दी गयी...ना ही तुम्हारी कोई फोटो मुझतक पहुँचने दी गयी...न हमें बगैर किसी की मौजूदगी के मिलने ही दिया गया. मेरी प्यारी मेहरावे,कोई और क्या समझेगा मेरे दिल का दर्द जितना तुम समझ सकती हो..जिन हालातों में हम एक दूसरे के साथ मिल पाए,इसका भी तुम्हें पता है.हर बार...तुमलोगों से मिलने के बाद हर बार और यहाँ तक कि यहाँ रहते हुए हर रोज मैं अपने आपसे ये सवाल पूछती हूँ कि दुनिया जहान के काम करते हुए मैंने कहीं अपने बच्चों के हक़ को इज्जत और अहमियत देनी बंद तो नहीं कर दी.मेरी बच्ची,तुम्हारी समझदारी का खूब भरोसा करते हुए भी किसी और बात से ज्यादा मुझे इस बात की फ़िक्र रहती है कि तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आना चाहिए कि मैंने अपने ही बच्चों के हक़ न्योछावर कर दिए.

मेरी सबसे प्यारी मेहरावे, अपनी गिरफ़्तारी के बाद पहले दिन से ही मैं तुम्हारे और तुम्हारे भाई के अधिकारों के ऊपर गौर करती रही हूँ..तुम्हारी उम्र का ध्यान करते हुए मुझे तुम्हारी चिंता ज्यादा रहती है...कि तुम मुश्किल हालातों में कितना खुद को ढाल पाओगी...कि कितनी गहराई से उनको समझ पाओगी...तुम्हारी हिम्मत और सहनशक्ति...सबसे ज्यादा इस बात से परेशान रहती हूँ कि मेरी गिरफ़्तारी और सजा को लेकर स्कूल में तुम्हारे दोस्त कहीं तुमसे मिलने जुलने और बोलने से तो परहेज नहीं करने लगेंगे. हाँलाकि मेरे मन के अंदेशों को धराशायी होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा...अब मैं...या ये कहना बेहतर होगा कि हम...अपनी मान्यताओं और विश्वासों के प्रति ज्यादा मजबूती के साथ खड़े हुए हैं.

तुम्हारी ताकत और सहनशक्ति मुझसे कमतर कतई नहीं है मेरी बेटी.एक बार मैंने तुमसे कहा था: ऐसा कभी मत सोचना मेरे बच्चे कि मुझे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है...या कि मैंने कोई ऐसा गलत काम किया जिस से मुझे ऐसी सजा दी जाये... मैंने जो कुछ भी किया देश के कानून के अंदर किया...गैर क़ानूनी कुछ भी नहीं किया...मुझे खूब अच्छी तरह याद है कि इस पर तुमने अपनी नन्हीं हथेलियों से मेरा चेहरा सहलाते हुए जवाब दिया था: ममी,मुझे सब मालूम है...जानती हूँ मैं...उस दिन जिस भरोसे से तुमने ये शब्द बोले थे उससे मैं अपनी बच्ची की गुनहगार बनाने की आशंकाओं से सदा के लिए उबर गयी थी.

मेरी बच्ची,स्कूल में साथ पढने वाले बच्चों के बर्ताव के बारे में भी मेरी तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं...जाहिर है,इस पीढ़ी के बच्चे पिछली पीढ़ी से ज्यादा समझदार और सयाने हैं. यही कारण है कि यहाँ मैं किसी चिंता के बोझ से मुक्त हूँ, अपनी विश्वासों पर पक्की खड़ी हूँ...दर असल मुझमें यह शक्ति तुम्हारी और तुम्हारे पिता की वजह से आई.

प्यारी प्यारी मेहरावे, मुझे हमारी साथ साथ बितायी हुई खुशनुमा यादें बार बार जेहन में आ रही हैं.यहाँ जेल में रात में जब मैं सोने जाती हूँ तो याद आते हैं वो पल जब मैं घर रहते हुए तुम्हें सुलाया करती थी.मैं तुम्हें तरह तरह की लोरियां और गीत सुनाया करती थी,पर तुम्हें सबसे ज्यादा पसंद थी वो परियों वाली लोरी.कोई रात ऐसी नहीं बिताती थी जब तुम उसको सुनने की जिद न करो...और मैं शुरू हो जाती थी:

मेरी प्यारी बच्ची,बच्चों के हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए मेरा सबसे बड़ा संबल और प्रेरणा तुम ही थीं.उस समय भी मैं सोचती थी..और अब भी भरोसा है कि बच्चों के हक़ कि लड़ाई में मिली कामयाबी का सबसे बड़ा फायदा मेरे अपने बच्चों को मिलेगा.जब भी मैं बर्बरता से जूझते किसी मासूम का केस लड़ कर कोर्ट से घर लौटती तो सबसे पहले तुम दोनों को बांहों में भींच लेती और देर तक इस आत्मीय गिरफ्त से छूटने से बचती रहती.अब आज यहाँ रहते हुए मैं इस बर्ताव के बारे में बार बार सोचती हूँ...शायद देर तक तुम दोनों के साथ ऐसे लिपटने से मैं जुल्मों के सताए बच्चों को कुछ दिलासा दे पाती होऊं.

मुझे याद है एक बार तुमने बड़ी संजीदगी से कहा था कि तुम नहीं चाहती कि कभी भी 18 साल की हो जाओ.मेरे पूछने पर तुमने टपक से जवाब दिया था कि इस उम्र में पहुँचते ही तुम्हें बचपने को अलविदा कहना पड़ेगा...तुम बचपने को मिलती ख़ास तवज्जो से कभी महरूम नहीं होना चाहती.मैं इस जवाब से मिली ख़ुशी को कभी शब्दों में बयान नहीं कर सकी मेरी बेटी...मुझे खूब याद है कि तुम कोई ऐसा मौका नहीं छोड़तीं जब मेरे या तुम्हारे पिता के सामने ये साबित करना हो कि तुम अब भी बच्ची ही हो,18 साल की सयानी नहीं हुई...और हमारे लिए तुम्हारे बचपने की हिफाजत करना..और उसको सम्मान देना कितना जरुरी था.

मेरी प्यारी बच्ची, जैसे मैंने तुम्हारे बाल अधिकारों को भरपूर सुरक्षा और सम्मान देने की पूरी कोशिश की वैसे ही अपने तमाम मुवक्किलों के साथ भी बर्ताव किया...उनके हकों की अनदेखी मैंने कभी नहीं की. जब जब मेरे मुवक्किल मुश्किल में पड़े या उनको सलाखों के पीछे धकेला गया,मैंने अपना दिन रात नहीं देखा और उनकी हिफाजत के लिए मौके पर डटी रही.जिन्होंने मुझे अपनी मदद के लिए बुलाया है उनको बीच मंज्धार में छोड़ कर मैं कैसे जा सकती हूँ? कभी नहीं..मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती.

अब ख़त को पूरा करने से पहले एक बार मैं तुमसे कहना चाहती हूँ कि तुमलोगों के और तुम्हारी तरह के दूसरे बच्चों के बाल अधिकारों की हिफाजत को ध्यान में रख कर और तुमलोगों के बेहतर भविष्य की सोच कर ही मैंने यह पेशा अपनाया था.और मुझे पूरा पूरा भरोसा है कि मेरे और मेरी तरह के हालातों में रह रहे बहुतेरे परिवारों की तकलीफ व्यर्थ नहीं जाएगी...दर असल इन्साफ तभी प्रकट होता है जब चारों ओर घनघोर निराशा छाने लगती है...हम इन्साफ की उम्मीद करना भी छोड़ देते हैं.मुझे अपने कहे पर पूरा भरोसा है.तुम्हारे लिए मेरी दुआ सिर्फ भरपूर ख़ुशी और सुख भरे बचपने की है.

प्यारी प्यारी मेहरावे,मुझसे जिरह करने वालों और जजों के लिए इस वजह से गुस्सा नहीं पालना की वे मेरे साथ ऐसा सुलूक कर रहे हैं...बल्कि अपनी बाल सुलभ मुलायमियत और खूबसूरती के साथ उनसे पेश आन...उनके लिए अमन और चैन की दुआएं माँगना...ऐसा करोगी तो उनके साथ साथ हमें भी खुदा ऐसे ही अमन और चैन के आशीर्वाद देगा.

यहाँ रहते हुए कोई ऐसा पल नहीं आता की तुम्हें याद न करती होऊं...तुम्हारे लिए सैकड़ों चुम्बन...

-तुम्हारी माँ नसरीन

-चयन एवं अनुवाद- यादवेन्द्र