कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
शुक्रवार, अगस्त 29, 2008
क्या यही तो नहीं वह घड़ी?
गुरुवार, अगस्त 28, 2008
भारत सरकार का रवैया और बिहार में महाप्रलय
शुक्रवार, अगस्त 22, 2008
क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?-महमूद दरवेश
एक सैनिक देखता है सपने में सफेद ट्यूलिप
वह सपने में देखता है सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली
और शाम को खिले-खिले प्रेमिका के वक्ष
उड़ती हुई आती है चिड़िया उसके सपने में
और बताती है वह नींबू के फूलों के बारे में
बौद्धिकों-सा गंभीर नहीं होता वह कभी
सपनों की बातें करते हुए जैसी भी उसे दिखती है चीजें
और लगती है गंध
वह समझ लेता है उन्हें उसी सरलता से
बताया उसने
मातृभूमि उसके लिए है
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस लौट आने की तलब
और यह जमीन है?
कहा उसने-मैं क्या जानूं इस जमीन को...
क्या करूं जब मेरी धमनियों और शरीर में इसकी वैसी अनुभूति नहीं आती
बताई जाती है कविताओं में जैसी
अनायास लगा मुझे जैसे मैं देखता रहा हूं जमीन को वैसे ही
जैसे कोई देखे किराने की दुकान
कोई सड़क
या फिर कोई अखबार
पूछा मैंने
पर क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?
मेरे लिए जमीन तो है एक पिकनिक
शराब का एक गिलास
एक प्रेम-संबंध....
क्या इस जमीन के लिए कुर्बान कर सकते हो अपनी जान?
हरगिज नहीं
इस जमीन से मेरा जुड़ाव आसमान में संक्षिप्त उड़ान भर लेने
या जोशीला भाषण दे देने भर जैसा है बस
बाकी और कुछ नहीं
मुझे पढ़ाया गया कि इससे प्यार करो
पर दिल का नाता जुड़ नहीं पाया
मुझे तो मालूम ही नहीं कहां हैं इसकी जड़े और शाखाएं
या कैसी होती है इस पर उगी हुई दूब की गंध?
और इसके लिए कितना है तुम्हारा प्यार?
क्या वह भी वैसे ही दहकता है
जैसे दहकता है सूरज
और प्रज्ज्वलित होती हैं आकांक्षाएं?
उसने मेरी आंखों में आंखें डालकर देखा और बोलाः
मैं इसे प्यार करता हूं अपनी बंदूक की मार्फत
वैसे ही जैसे मिल जाए अतीत के कचरे के ढेर में कोई असबाब
और प्रकट हो जाए गूंगी-बहरी प्रतिमा उसमें से
पता ही न चल पाए क्या है इसका अभिप्राय और काल?
फिर बताने लगा वह
विदा के पलों के बारे में कि कैसे मुंह बंद किए हुए ही बिलख पड़ी उसकी मां युद्ध में भेजते हुए
कैसे उनकी कातर आवाज ने फिर से जगा दी
उसके तन-बदन में उम्मीद की एक नई किरण
लगा कि युद्ध मंत्रालय के ऊपर
शांति कपोतों के उड़ने के दिन फिर से लौट आएंगे जल्द ही अब
उसे तलब हुई सिगरेट की
कहा जैसे रक्त के कुंड से बचकर निकल आया हो-
मैंने सपने देखे थे सफेद ट्यूलिप के
जैतून की डालियों के
नींबू के पौधे पर भोर को आगोश में लेने को
आतुर बैठी चिड़िया के
बताओ, पर तुमने सचमुच देखा क्या?
क्या देखता? वही तो, जो किया मैंने....
खून से सनी गठरियां रेत में लुढ़कती जाती देखीं
और उन पर दाग दीं दनादन गोलियां-सीने में...पेट में....
कितनों को मारा?
मुश्किल है बताना...पर मेडल मुझे एक ही मिला
सुनकर पीड़ा हुई....पूछा
मैंनेः जिन्हें मारा उनमें से किसी के बारे में बताओ
अपनी सीट से वह थोड़ा हिला-डुला
तहाकर रखे गए अखबार को उलटा-पलटा
फिर बोला....जैसे सुना रहा हो कोई गीतः चट्टानों पर वह धराशायी हो गया था
बिल्कुल जैसे ढह जाता है कोई तंबू
सीने पर न तो था उसके कोई मेडल
न ही लगता था वह कोई प्रशिक्षित योद्धा
संभव है किसान रहा हो या मजदूर
या फिर फेरीवाला ही
बिल्कुल तंबू की तरह वह गिरा जमीन पर
और वहीं हो गया ढेर....
बांहें फैलाए जैसे हो नदी का कोई सूखा पड़ा पाट
मैंने उसकी जेब खंगाली
शायद मिल जाए कहीं नामोनिशान
वहां मिले महज दो फोटो-
एक उसकी बीवी लगती थी
दूसरी बेटी हो शायद
दुःख हुआ तुम्हें?
मैंने जानना चाहा
बीच में ही रोककर वह बोल पड़ाः
महमूद, मेरे दोस्त दुःख तो वैसा ही सफेद कबूतर है जो
लड़ाई के मैदान के आसपास फटकता भी नहीं
सैनिकों के लिए तो पाप है
दुःख की अनुभूति भी...पाप
मेरी मौजूदगी वहां थी
विध्वंस और मौत उगलने वाली मशीन बनकर
जिससे सारे आकाश को घेर लें
काले खौफनाक परिंदे ही परिंदे
फिर उसने बताया अपने पहले प्रेम के बारे में
और फिर सुदूर गलियों के बारे में इस युद्ध पर रेडियो और प्रेस में आती
प्रतिक्रियाओं के बारे में
उसे खांसी आई तो रूमाल से ढांप लिया उसने मुंह-
मैंने फिर पूछाः
क्या फिर हम कभी मिल पाएंगे दोबारा?
क्यों नहीं, पर यहां नहीं
कहीं दूर, किसी और शहर में दोस्त
चौथी बार उसको गिलाल भरते हुए मैंने पूछ लिया मजाक में-
क्या कहीं और खो गए?
अपनी मातृभूमि के बारे में कुछ तो कहो-
मुझे थोड़ी मोहलत दो यार, उसका जवाब आया
मेरे सपने हैं सफेद ट्यूलिप के गीतों से गूंजती
सड़कों के रोशनी से सराबोर घर के....मुझे गोलियां नहीं चाहिए
बल्कि चाहिए निस्सीम करुणा से लबालब एक दिल
मुझे चाहिए एक प्रकाशमान दिन....
बिल्कुल नहीं चाहिए उन्मादी फासिस्ट विजय
मैं ढूंढ रहा हूं कोई बच्चा
जिसके ठहाकों से भर डालूं अपना पूरा दिन
मुझे युद्ध का कोई हथियार नहीं चाहिए
मैं आया था यहां
सूरज का उगना देखने
पर क्या यहां सूरज का उगना देखने पर क्या देख रहा हूं-
महज इसका अवसान
उसने कहा अलविदा
और निकल पड़ा ढूंढने सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली पर बैठकर भोर को स्वागत करने को आतुर पंछी
समझ लेता है वह सभी बातें
बस उन्हें देखकर और सूंघकर
फिर कहा...मातृभूमि है उसके लिए
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस सुरक्षित लौट आने की तलब।
सोमवार, अगस्त 18, 2008
मृत्यु से दस मिनट पहले मैंने डाक्टर को बुलाया-महमूद दरवेश
यह हममें से एक था, हमारा अपना था
बीस सालों से रात की दीवारों पर सुनता रहा हूं यही पदचाप-
दरवाजा खुलता नहीं
पर वे अंदर जाते हैं-तीनों एक साथ
एक कवि, एक हत्यारे और किताबों से घिरा रहनेवाला एक पाठक।
आप थोड़ी-सी शराब पियेंगे, मैं पूछता हूं
हां-उनका जवाब
आप मुझे गोली कब मारनेवाले हैं?
तुम इत्मीनान से अपना काम करते रहो
एक पंक्ति से वे अपने ग्लास रखकर गाने लगते हैं
जनता के लिए एक गीत
बस अभी शुरू करते हैं-पर अपनी आत्मा से पहले
तुमने अपने जूते क्यों उतार रख दिए?
मैंने जवाब दिया- जिससे वे घूम लें सारी धरती पर
पर धरती तो इतनी अंधकारमय है
फिर तुम्हारी कविता प्रकाशमान क्यों रहती हैं?
अब भला तुम्हें फ्रेंच शराब इतनी क्यों भाती है?
अच्छा, तुम कैसी मौत चाहते हो?
नीली-जैसे खिड़की से झर रहे हों तारे-
आप और शराब लेंगे क्या?हां, हम और पियेंगे।
आप इत्मीनान से अपना काम करें-
मैं चाहूंगा कि आप हौले-हौले करें मेरा कत्ल
जिससे मैं रच सकूं अपनी आखिरी कविता
अपने दिल की पत्नी के नाम
अट्टहास करते हुए उन्होंने छीन लिया
खास तौर पर लिखे हुए कुछ शब्द!
पहचान-पत्र
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
और मेरे पहचान-पत्र का नंबर है पचास हजार
आठ बच्चों का बाप हूं और नौवां गर्मियों के बाद आनेवाला है
आपको यह जानकर गुस्सा आया?
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
एक खदान पर अन्य मजदूरों के साथ मजदूरी करता हूं
आठ बच्चों का बाप हूं
इन्हीं पत्थरों से मैं उनके लिए रोटी कपड़े और किताबें कमाता हूं....
आपके दरवाजे पर दान की याचना नहीं करता
न ही अपने आपको
आपकी सीढ़ियों पर धूल चाटने तक गिराता हूं
अब आप बताइये आपको गुस्सा आया?
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
मेरा नाम तो है पर इसके साथ उपनाम नहीं
ऐसे देश में बीमार की तरह पड़ा हूं
जहां लोग-बाग उजाड़े जा रहे हैं
और मेरी जड़ें तो खोद डाली गई थीं
समय की उत्पत्ति से और युगों के प्रारंभ से भी पहले
चीड़ व जैतून के पेड़ों
और घास के उगने से भी पहले
मेरे पिता किसी मशहूर ऊंचे खानदान से नहीं
बल्कि हलवाहों के खानदान के थे
और मेरे दादा...थे एक किसान
न ही उनका खानदान ऊंचा था, न ही परवरिश...
उन्होंने मुझे सिखाया सूरज का स्वाभिमान
पढ़ाने-लिखाने से भी पहले
मेरा घरकिसी चौकीदार की मचान जैसा है
घास-फूस और डंठल से बना हुआ-
आप मेरे रहन-सहन से संतुष्ट हैं क्या?
मेरा नाम तो है इसके साथ पर उपनाम नहीं है
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
आपने मेरे पुरखों के बाग-बगीचे पर कब्जा कर लिया है
और वह जमीन भी जिसे मैं जोतता था
बच्चों के साथ मिलकर
हमारे लिए तो कुछ छोड़ा ही नहीं
सिवा इन चट्टानों के....
तो क्या सरकार उनको भी अपने कब्जे में ले लेगी?
बार-बार जैसी कि घोषणा की जाती रही है?
इसलिए इसे पहले पन्ने पर ही दर्ज करें
मैं किसी से घृणा नहीं करता
न ही किसी का कुछ हथियाता हूं
पर जब भूख लगेगी मुझे
कब्जा करनेवालों का मांस ही होगा मेरा आहार
सावधान हो जाएं....
सावधान....
मेरी भूख से
और मेरे क्रोध से भी!
(अनुवाद- यादवेंद्र)
शुक्रवार, अगस्त 01, 2008
क्या पाकिस्तान के सारे लोग आतंकवादी या आई.एस.आई. के एजेंट होते हैं?
6 साल पहले बेहतर कमाई का सपना लिए महज 40 दिन की एकमात्र बेटी को पाकिस्तान छोड़ मोहम्मद सलीम हिंदुस्तान तो आया, लेकिन उसे अंदाजा नहीं था कि उसके लौटने की राह उतनी आसान नहीं होगी। संसद पर हुए हमले के बाद खुफिया एजंसियों की सक्रियता के चलते वह हिंदुस्तान में ही फंस गया। आईएसआई एजंट के रूप में भारत में जासूसी के आरोप में उसे नोएडा से गिरफ्तार कर लिया गया। गुनाह कबूल कर 6 साल जेल काटने के बाद उसे पाकिस्तान भेजने का कोर्ट ऑर्डर हो गया। पूरे परिवार समेत उसकी वापसी की राह देख रही बेटी अब 8 साल की हो गई है। हालांकि घर वापसी की राह अब भी उसे हवालात की सलाखों के पीछे से उतनी की कठिन दिख रही है, जितनी पहले थी।
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में रहीमयार खां कस्बे का रहने वाला मोहम्मद सलीम हिंदुस्तानी सरबजीत की तरह यूं ही शराब पीकर सीमा पार नहीं कर गया था। अक्टूबर 2001 में अटारी बॉर्डर से होकर ड्राई फ्रूट बेचने वह दिल्ली आया था। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर आतंकवादी हमला हो गया। खुफिया एजंसियों की धरपकड़ अभियान के चलते सलीम पुरानी दिल्ली का होटल छोड़ नोएडा आ गया। यहां वह सेक्टर-37 में एक ढाबे पर काम करने लगा। हालांकि वह ज्यादा दिन तक स्थानीय खुफिया इकाई की नजर से बच नहीं पाया। पुलिस की मदद से टीम ने उसे 22 जून 2002 को गिरफ्तार कर लिया। उस पर अवैध तरीके से भारत में रहने व जासूसी करने का आरोप लगाया गया। कोर्ट की तरफ से सलीम को मुहैया करवाए गए ऐडवोकेट इजलाल अहमद बर्नी ने बताया कि जिस समय उसे गिरफ्तार किया गया था, उस समय उसका वीसा समाप्त होने में एक दिन का समय बाकी था। उसे फंसाने के लिए फर्जी तरीके से दस्तावेज़ तैयार किए गए। बर्नी ने बताया कि अदालती कार्रवाई लंबी खिंचने के कारण जल्द रिहाई के लिए सलीम ने सभी आरोप स्वीकार कर लिए। अदालत ने उसे 6 साल की कैद व 20 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। 2 जुलाई 2008 को सज़ा पूरी होने से पहले 1 जुलाई को उसने जुर्माने की रकम जमा करवा दी। बावजूद इसके पुलिस उसे 7 जुलाई को जेल से रिहा करवा कर बाढ़मेर चेक पोस्ट पर लेकर गई। वहां चेक पोस्ट बंद हो जाने के कारण उसे बाघा बॉर्डर ले जाया गया, लेकिन वहां उनके दस्तावेज स्वीकार नहीं किए गए। पाकिस्तानी चेक पोस्ट ने सलीम को वापस भेजने के दस्तावेज़ लाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिए कहा।