बुधवार, दिसंबर 31, 2008

अतीत होते साल का विदागीत


समय बीतता चला जाता है और पता ही नहीं चलता कि कब साल पूरा हो गया। पिछले एक साल के घटनाचक्रों पर नजर डालें, तो अहसास होता है कि बीतते हुए वक्त के दरम्यान लम्हा-लम्हा दुनिया बदलती रही और एक नई शक्ल अख्तियार करती गई। 2008 का आज आखिरी दिन है और इस दिन जब हम पूरे साल पर नजर डालते हैं, तो इस साल कई ऐसी घटनाएं हुई, जिनकी अनुगूंज अगले साल तक सुनाई देगी। 2008 का आगाज बेहद उत्साह और उम्मीदों भरा रहा और सेंसेक्स जिस ऊंचाई पर था, डॉलर की तुलना में रुपये की स्थिति मजूबत थी। निजी क्षेत्र में काबिल लोगों के लिए रोजगार के अवसरों की कोई कमी नहीं थी और प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्रों को कैंपस सलेक्शन में लाखों रुपये की नौकरी का ऑफर आराम से मिल रहा था। इक्के-दुक्के घटनाओं को छोड़कर साल के शुरुआती छह महीनों में संयोग से दिल दहला देनेवाली बड़ी आतंकवादी घटनाएं कम हुई।

यह भी एक अजीब संयोग है कि इस साल के आखिरी छह महीने बेहद त्रासद, हौलनाक और वैश्विक स्तर पर हर काफी झटके वाला साबित हुआ। लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के बाद बड़ी सरकारी मदद की घोषणा के बाद भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार हो गई और उसके दुष्प्रभाव का असर पूरी दुनिया के बाजारों और अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा। नवंबर के आखिरी सप्ताह में हुए मुंबई हमले ने देश को झकझोर कर रख दिया और इस हमले के बाद पाकिस्तान के साथ रिश्तों में बेहद तनाव तल्खी पैदा हो गई। मिले-जुले प्रभावों का असर हालांकि साल के आखिरी छह महीनों में भी रहा और इसी कड़ी में इस वर्ष पहला मानवरहित चंद्रयान-1 शुरुआत के साथ ही भारत अंतरिक्ष अनुसंधान की नई पीढ़ी में प्रवेश कर गया। ऐसे कम ही देश हैं जो अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर ऐसी उपलब्धि हासिल कर सके हैं। काफी उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार भारत-अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु करार परवान चढ़ा। साल के उत्तराद्र्ध में ही बिहार में आई बाढ़ की भयंकर विनाशलीला से सोलह जिले बुरी तरह प्रभावित हुए और इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया गया। जबकि जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को चालीस हेक्टेयर जमीन देने के मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि घाटी और जम्मू में कई हफ्तों तक पक्ष-विपक्ष में विरोध प्रदर्शन होते रहे। अगले वर्ष की जीवन-यात्रा में हमारे साथ भूतपूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, माक्र्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत और भारत के लिए कई युद्धों में निर्णायक भूमिका निभाने वाले फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ भी नहीं रहे। यह वर्ष कल से अतीत हो जाएगा और अतीत की सीख हमेशा वर्तमान को बेहतर बनाने में मददगार साबित होती हैं।

मंगलवार, दिसंबर 30, 2008

सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान प्रतिबंधित होने का साल


वर्ष 2008 तंबाकू उत्पादों के खिलाफ जारी मुहिम को मिली सफलता के लिए भी याद किया जाएगा। दो अक्तूबर से देश भर में सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान रोकने संबंधी अधिनियम लागू हो गया। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान को प्रतिबंधित करने संबंधी केंद्र सरकार के इस अधिनियम के विरोध में तंबाकू कंपनियों की ओर से कई याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गई थीं, जिन पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार की अधिसूचना पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। इस वजह से संशोधित सिगरेट और अन्य उत्पाद अधिनियम-2008 के तहत सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान पर पूर्ण प्रतिबंध लागू कर पाना संभव हुआ। इसके तहत सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करते हुए पकड़े जाने पर दो सौ रुपये जुर्माने का प्रावधान है। इस अधिनियम की सफलता के बाद और आगे आते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा कि भविष्य में पुलिस अधिकारियों के अलावा गैर सरकारी संगठनों तथा रेलों में चल टिकट परीक्षकों को भी धूम्रपान करने वालों को जुर्माना करने का अधिकार दे दिया जाएगा.



तंबाकू उत्पादों से होनेवाली बीमारियों के मामले में वैधानिक चेतावनी के साथ खतरे का निशान प्रकाशित करने को लेकर हालांकि अभी तक सफलता नहीं मिली पाई है। तस्वीर के रूप में वैधानिक चेतावनी छपने के बाद धूम्रपान के खतरों से अनजान उन गरीब और अशिक्षित लोगों को फायदा होगा जो तंबाकू उत्पादों पर लिखी चेतावनी नहीं पढ़ सकते। इसके लिए किए जा रहे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के प्रयासों की तारीफ विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करने वालों की वजह से उन लोगों को बहुत परेशानी उठानी पड़ती है, जो धूम्रपान नहीं करते और अकारण धूम्रपान संबंधी बीमारियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। इसलिए तमाम लोगों के बीच केंद्र सरकार का यह अधिनियम इस साल चर्चा के केंद्र में रहा। धूम्रपान भारत में किस तरह एक महामारी का रूप लेता जा रहा है, इसको लेकर जारी एक आकंड़े में बताया गया है कि धूम्रपान की वजह से 2010 तक हर साल लगभग 10 लाख लोगों की मौत होने लगेगी और इसमें आधे गरीब और अशिक्षित लोग होंगे। इस अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि बीमार पड़ने से पहले केवल दो फीसदी लोग ही धूम्रपान छोड़ते हैं। धूम्रपान के विरुद्ध अधिनियम पारित हो जाने की सफलता के बाद इसको लागू करने को लेकर सरकार को अभियान चलाना चाहिए, क्योंकि नियम जब व्यवहारिक स्तर पर लागू नहीं होते तो धीरे-धीरे निरर्थक होने लगते हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदॉस की सक्रियता की वजह से पारित अधिनियम के बाद आगामी समय में अब कार्यपालिका की सक्रियता ही इस अधिनियम को सार्थकता प्रदान कर पाएंगी।

सोमवार, दिसंबर 29, 2008

अलग-अलग रहने वाले अभिशप्त

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के खंडित जनादेश ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार बनाने के लिए मतदाताओं ने किसी एक पार्टी को स्पष्ट जनादेश नहीं दिया है। नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई है, जबकि दूसरे नंबर पर पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी यानी पीडीपी रही। नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उससे इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन सरकार बनने के आसार नजर आ रहे हैं। एनडीए का हिस्सा रही नेशनल कांफ्रेंस, भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने से पहले ही इनकार कर चुकी है। दस सीटें अन्य दलों को मिलने के बाद निर्दलीय विधायक जिस तरह उभरकर आए हैं, उससे सरकार बनाने में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।


अमरनाथ जमीन विवाद को लेकर चले लंबे संघर्ष को हालांकि भाजपा ने जनता का स्व:स्फूर्त संघर्ष बताया था। मगर जम्मू के चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट हो गया कि अमरनाथ कार्ड खेलने से भाजपा को फायदा हुआ। वहीं घाटी में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने जिस नीयत से भावनात्मक मुद्दों को उछाला उसमें काफी हद तक उन्हें सफलता मिली। जम्मू-कश्मीर की जनता नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी तीनों को सत्ता सौंपकर आजमा चुकी है। खंडित जनादेश के बाद राज्य में जो गठबंधन सरकार बनेगी, वह निश्चय ही अपने दम पर सरकार बनाने वाली पार्टी की तरह निरंकुश रवैया अख्तियार नहीं कर पाएंगी। दूसरी ओर अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान के बावजूद रिकॉर्ड संख्या में लगभग 62 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग करके उन्हें कड़ा संदेश दिया है कि व्यापक जनमत की आस्था लोकतांत्रिक राजनीति में है। प्रतिकूल मौसम और अब तक के इतिहास में सबसे लंबी चुनाव प्रक्रिया में सात चरणों में मतदान के कारण इतने बड़े पैमाने पर मतदान की उम्मीद कम थी, लेकिन राज्य की जनता तमाम आशंकाओं को ध्वस्त कर दिया। मुजफ्फराबाद चलो और हमारी मंडी रावलपिंडी का नारा देने वाले अलगाववादियों को जनता ने स्पष्ट संदेश दिया है कि यदि उनकी आस्था लोकतांत्रिक राजनीति में नहीं है, तो मुख्य धारा की राजनीति से बाहर रहने के लिए अभिशप्त होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के मतदाताओंने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जैसा उत्साह और विश्वास व्यक्त किया है, राज्य की गठबंधन सरकार उस पर खरे उतरने का पूरा प्रयत्न करेगी।

शुक्रवार, दिसंबर 26, 2008

आटा के लिए युद्ध लड़ते लोगों की ओर नहीं देखते पाक हुक्काम

मुंबई आतंकी हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आतंकवाद से हटाने के लिए पाकिस्तान कूटनीतिक स्तर पर भारत के आक्रामक रुख के बाद अपनी सीमाओं पर फौज की तैनाती करके युद्ध का उन्माद पैदा करने की कोशिशों में जुट गया है। एक तरफ पाक प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी कहते हैं कि हम भारत के साथ शानदार रिश्ते चाहते हैं, तो दूसरी तरफ सीमा के अहम मोर्चों पर पाक सैनिकों ने मोर्चा जमाना शुरू कर दिया है। लाहौर सेक्टर में पाकिस्तानी सेना की 10 वीं ब्रिगेड का पहुंचना और आमतौर पर रिजर्व में रखी जाने वाली तीसरी आर्म्स ब्रिगेड को झेलम की ओर रवाना करना पाकिस्तान की मंशा और तैयारियों को काफी हद तक स्पष्ट करता है। पाकिस्तानी मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि पाकिस्तान एयर फोर्स लगातार रावलपिंडी, लाहौर और कराची के ऊपर लड़ाकू विमानों के जरिए एयर स्ट्राइक का अभ्यास कर रही है। इसके अलावा सीमा से सटे तीन एयर फील्डों और जंगी जहाजों को बिल्कुल तैयार रहने को कहा गया है।


9/11 के बाद आतंकवाद के खात्मा के मुद्दे पर अमेरिका का सहयोगी बना पाकिस्तान आतंकियों पर ठोस कार्रवाई करने के बजाए तमाम समस्याओं से पाकिस्तानी जनता सहित पूरे विश्व समुदाय का ध्यान युद्ध पर केंद्रित करने की रणनीति पर अमल कर रहा है। इसलिए अंतराराष्ट्रीय समुदाय को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की चिंता सताने लगी है। क्योंकि कहने को तो परमाणु हथियारों की कमान पाकिस्तानी राष्ट्रपति के हाथों में है, लेकिन वास्तविक तौर इसकी कमान पाकिस्तानी थल सेना के हाथों में है। सामरिक विशेषज्ञ यह आशंका जाहिर कर रहे हैं कि भारत पर युद्ध थोपने के बाद पाकिस्तानी सेना का कोई कट्टरपंथी तत्व उन्माद में आकर परमाणु मिसाइल चलाने का फैसला कर ले। हैरत की बात यह है कि अमेरिका सहित पूरे विश्व समुदाय ने आतंकवादी घटनाओं में पाकिस्तान की संलिप्तता के बारे में भारत के सबूतों से इत्तफाक जाहिर किया है, लेकिन बयान बहादुर पाकिस्तानी नेता जले पर नमक छिड़कने की तरह लगातार सबूत-राग अलापते हुए भारत से ठोस सबूतों की मांग कर रहे हैं। इसके बावजूद भारत को दबाव बनाने के सभी कूटनीतिक और राजनैतिक उपायों को टटोलने के बाद ही हमले के विकल्प पर विचार करना चाहिए। क्योंकि पिछले छह दशकों का इतिहास इस बात का गवाह है कि अंतत: युद्ध से समस्याएं हल नहीं होती हैं। अपनी पाकिस्तान यात्रा में मैंने देखा था कि आटे-दाल की भारी किल्लत रावलपिंडी शहर में थी और जनता दुकानों पर दंगे-फसाद पर उतारू थी। क्वेटा, पेशावर, बहावलपुर, हैदराबाद आदि शहरों में शाम ढलते ही लोग घरों में दुबक जाते थे। इसकी चिंता करने की जगह पाकिस्तानी हुक्मरान भारत से लड़ने के लिए ताल ठोंक रहे हैं।

इस मर्ज की दवा क्या है?

उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में लोक निर्माण विभाग के इंजीनियर मनोज कुमार गुप्ता की जिस निर्ममता से की गई, वह बेहद लोमहर्षक है। मृत इंजीनियर के परिजनों ने सत्ताधारी विधायक शेखर तिवारी और उनके समर्थकों पर आरोप लगाया है कि काफी दिनों से उनसे चंदे के रूप में एक मोटी रकम की मांग की जा रही थी, जो पूरी न किए जाने के कारण उनकी जघन्य हत्या की गई। उत्तर प्रदेश के इंजीनियर एसोसिएशन ने सत्ता से जुड़े विधायकों पर डराने-धमकाने और जबरन वसूली करने का जो आरोप लगया है, उसको विपक्षी दल मुखर होकर कह रहे हैं। हालांकि विधायक की गिरफ्तारी और कुछ पुलिसकर्मियों के निलंबन से रा’य सरकार अपनी सक्रियता दिखाने की कोशिश कर रही है, लेकिन ऊपर से नीचे तक चंदे के नाम पर राजनीतिक निरंकुशता का जो भयावह तांडव चल रहा है, उस पर फिलहाल कोई बात नहीं हो रही है।


बेहद क्षोभ की बात है कि सत्ता के नशे में चूर नेताओं की निरंकुश राजनीति की यह शैली कोई नई नहीं है। पिछले ही साल बसपा के एक सांसद ने अपने क्षेत्र में रातोरात कई दुकानों पर बुलडोजर चलवा दिया था और विरोध कर रहे दुकानदारों पर फायरिंग करवाई थी। मुलायम राज में एक पुलिस अधिकारी को राजधानी लखनऊ में कुछ नेता पुत्रों ने जीप के बोनट पर शहर भर में घुमाया था। लगभग डेढ़ दशक पूर्व बिहार के गोपालगंज जिले के तत्कालीन जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या इसी तरह पीट-पीटकर आनंद मोहन के नेतृत्व में की गई थी। दुर्भाग्य से कई-कई हत्याओं का मुकदमा झेल रहे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के राजनीति में आने के बाद से ऐसी ढेरों मिसालें कायम हुई हैं। जो विधायिका कानून बनाने का अधिकार रखती है, उसमें कानून को हाथ में लेने वाले लोगों की बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखकर डेढ़ दशक पहले वोहरा कमिटी की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई थी, लेकिन वह रिपोर्ट आज तक ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है।


दिक्कततलब बात यह है कि आज कमोबेश हर दल में आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद और विधायक हैं। इसलिए वोहरा कमिटी की रिपोर्ट पर दोबारा विचार करने की जरूरत किसी राजनीतिक दल ने आज तक महसूस नहीं की। औरैया की इस घटना के बाद भी यदि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की बढ़ती संख्या पर विचार नहीं करते हैं, तो लोकतंत्र के लिए यह बेहद अशुभ संकेत है।

गुरुवार, दिसंबर 25, 2008

बुर्जुआ की तरह जनता और प्रेस का गला न दबाएं

लगभग डेढ़ दशक तक चली राजनीतिक उथल-पुथल के बाद नेपाल में लोकतांत्रिक सरकार से यह उम्मीद की जा रही थी कि अब वहां मीडिया और नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बेहतर रूप में हासिल होगी। मगर आलोचना को स्वस्थ रूप में लेने और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने की जगह माओवादी सक्रियताविदयों ने अपनी सरकार की आलोचना करने वाली कुछ खबरें छापने की वजह से वहां के एक प्रमुख अखबार के पत्रकारों और दफ्तर पर हमले किए। जिसके विरोधस्वरूप नेपाल के सैकड़ों पत्रकारों ने राजधानी काठमांडू में हमले के विरोध में रैलियां निकालीं और अंग्रेजी और नेपाली के तमाम अखबारों ने संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी। नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दल, संयुक्त राष्ट्र संघ और मीडिया की स्वतंत्रता के हिमायती दलों ने इन हमलों के लिए माओवादियों की तीव्र भर्त्सना की है। अपनी आलोचना से चिढ़कर पहले भी माओवादियों ने प्रकाशन कार्यालयों को आग लगाई थी और वितरण को अवरुद्ध करके अपना गुस्सा जाहिर किया था।


हालांकि माओवादी पार्टी के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड ने इन हमलों में अपनी पार्टी की भूमिका से इनकार किया है और उन लोगों को दोषी बताया है, जो अपने आपको माओवादी बता कर पार्टी को बदनाम कर रहे हैं। इन हमलों की जांच कराने का आश्वासन देते हुए उन्होंने वचन दिया है कि अपराधियों को दंडित किया जाएगा। प्रचंड सरकार बनने से पहले ही नेपाली मीडिया में यह एक गंभीर मुद्दा था कि सैकड़ों माओवादी गुरिल्लों को सेना में शामिल किया जाए या नहीं? दूसरा यह कि यदि उन्हें सेना में शामिल किया गया तो क्या वे अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर निष्पक्ष तरीके से कामकाज कर पाएंगे? अपने निरंकुश कार्यकर्ताओं से माओवादी सरकार क्या निष्पक्ष तरीके से निपटेगी? क्योंकि आंदोलन चलाना उसका नेतृत्व करना एक बात है, जबकि सरकार चलाना बिल्कुल दूसरी बात। इनका एहसास स्वयं प्रधानमंत्री प्रचंड को है और हाल ही में उन्होंने कहा था कि सरकार चलाना आसान काम नहीं है। लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आई माओवादी सरकार यदि अपने कार्यकर्ताओं की ऐसी हरकतों से सख्ती से निपटेगी तो यह नेपाल की स्थिरता और नवजात गणतांत्रिक व्यवस्था, दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।

सोमवार, दिसंबर 22, 2008

मृत्यु के बारे में अख्तरुल ईमान के कुछ शब्द-


बड़े भाई यादवेंद्र जी, जिनसे मुलाकात कब घनिष्ठता में बदल गई यह याद भी नहीं. प्रतिष्ठित संस्थान सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, में उप निदेशक के पद पर कार्य करते हैं, कविता को पढ़ते-गुनते और जीते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि किसी भी तरह के अहंकार की यह हिम्मत नहीं कि उन्हें जरा भी छू ले. बेहद सहज, सरल और मित्रवत्सल हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने यह नज्म मुझे एसएमएस किया था, चाहता हूं कि आप भी इसे पढ़ें।



कौन आया है जरा एक नजर देख तो लो,

क्या खबर वक्त दबे पांव चला आया हो

जलजला, उफ ये धमाका, ये मुसलसल दस्तक

खटखटाता कोई देर से दरवाजे को

उफ ये मजमून फजाओं का अलमनाक सुबूत

कौन आया है जरा एक नजर देख तो लो

तोड़ डालेगा ये कमबख्त मकान की दीवार

और मैं दब के इसी ढेर में रह जाऊंगा.


चयन एवं सौजन्यः यादवेंद्र

रविवार, दिसंबर 21, 2008

क्रिकेट खेल लेने से मुर्दे जी उठेंगे क्या?

मुंबई में हुए आतंकी हमले की आंच के कारण आठ जनवरी से उन्नीस फरवरी तक खेले जाने वाले क्रिकेट सीरीज के लिए टीम इंडिया का पाकिस्तान दौरा रद्द होने से कूटनयिकों को शायद हैरत नहीं हुई होगी। क्योंकि इसकी उम्मीद तभी से धूमिल नजर आने लगी थी, जब खेल मंत्री एमएस गिल ने साफ शब्दों में कहा था कि पाकिस्तान की जमीन का उपयोग जब भारत में आतंक फैलाने के लिए किया जा रहा हो, तब उनके साथ क्रिकेट मैच खेलने का यह सही वक्त नहीं है। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि क्या यह मुमकिन है कि आतंकियों की एक टीम बहुत सारे लोगों को भारत में मारने आए और उसके तुरंत बाद भारतीय क्रिकेट टीम खेलने के लिए वहां का दौरा करे?


भारत सरकार के कड़े रुख के बाद पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड यानी पीसीबी ने इस दौरे को बचाने के लिए पूरा प्रयत्न किया और किसी तीसरे स्थान पर मैच कराने तक का प्रस्ताव रखा, मगर भारत सरकार के बेहद कड़े रुख के बाद बीसीसीआई पाकिस्तान के साथ फिलहाल क्रिकेट संबंध जारी रखने के पक्ष में नहीं है। गौरतलब है कि इस दौरे में भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के बीच तीन टेस्ट मैच, पांच एकदिवसीय मैच और एक ट्वेंटी-20 मैच खेलना था।


आतंकवाद के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ सहित पूरी दुनिया में भारत जिस सक्रियता से पाकिस्तान की करतूतों को लेकर कूटनयिक स्तर पर अभियान चला रहा है, उसके बाद वैसे भी सामान्य संबंध की गुंजाइश नहीं बचती है। क्योंकि यदि भारत खुद पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंध बनाकर रखता है, तो बाकी देशों को वह आखिर किस नजरिये से पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कह पाएगा? इस बीच पीसीबी की पाबंदी झेल रहे इंजमाम-उल-हक ने बीसीसीआई से दौरे रद्द नहीं करने को लेकर आग्रह किया था। बकौल इंजमाम-उल-हक, भारतीय टीम के पाकिस्तान दौरा रद्द होने से इस उप महाद्वीप में क्रिकेट को बहुत बड़ा झटका लगा है। दूसरी ओर बेहद खस्ताहाल पीसीबी को टीम इंडिया का दौरा रद्द होने के कारण लगभग दो करोड़ डॉलर की संभावित आय से हाथ धोना पड़ सकता है।


2004 में 15 साल बाद जब टीम इंडिया ने पाकिस्तान का दौरा किया था, तो पीसीबी को लगभग दो करोड़ डॉलर की आमदनी हुई थी। हैरत की बात है कि पीसीबी और पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी महज अपने लाभ को ध्यान में रखकर तब भी टीम इंडिया से दौरे की बात कर रहे हैं, जब शुरू से ही पाकिस्तान की तमाम सरकारें भारत के साथ सौहार्द और सौजन्य के तमाम दरवाजे बंद करती आई है। आतंकवाद को लेकर भारत सरकार की अपनी चिंताएं हैं और उन चिंताओं में देश का हर नागरिक सरकार के साथ है, चाहे वह जिस भी पेशे से जुड़ा व्यक्ति हो। ऐसे माहौल में टीम इंडिया से दौरे के लिए पीसीबी प्रमुख के इसरार का इसलिए भी कोई मतलब नहीं है, क्योंकि बाकी तमाम मामलों में जब संबंध खराब हों, तो महज क्रिकेट खेलने से देशों के संबंधों में सुधार नहीं आता। अर्थव्यवस्था के स्तर पर बेहद बुरे दौर से गुजर रहे पाकिस्तान के लिए टीम इंडिया का दौरा रद्द होना चिंता का विषय हो सकता है, लेकिन भारत की नहीं। आतंकियों पर कार्रवाई को लेकर जब तक भारत सरकार मुतमईन नहीं होती, पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह के संबंध का कोई खास मतलब नहीं होगा।

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति

यह दुखद है कि जब विपक्ष आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई को लेकर समवेत स्वर में सरकार के साथ होने की बात कर रहा हो, तब सरकार में ही शामिल अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एआर अंतुले ने महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख शहीद हेमंत करकरे की मौत पर ऐसा बयान दिया है, जो राजनीति से बहुत अधिक दुष्प्रेरित प्रतीत होता है। उनका कहना है कि शहीद हेमंत करकरे आतंकवादी घटना के समय होटल ताज या ओबेरॉय न जाकर कामा अस्पताल के पास क्यों गए, जबकि इन होटलों में बड़ी कार्रवाई हुई और कामा अस्पताल का नाम भी किसी ने नहीं सुना था? उन्होंने शहीद करकरे की मौत पर सवालिया निशान लगाते हुए यहां तक कहा कि इसमें संदेह है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने ही उन्हें मारा हो, हो सकता है मालेगांव धमाकों की जांच के मामले में उन्हें मारा गया हो? गौरतलब है कि मालेगांव जांच मामले में कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर शक जाहिर होने और पूछताछ के लिए उन्हें हिरासत में लिए जाने के बाद राजनेताओं ने उनके ऊपर भेदभाव के आरोप लगाए थे। इससे दुखी उनके परिजनों ने मुंबई हमले के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा घोषित एक करोड़ रुपये अनुग्रह राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हालांकि एआर अंतुले के इस बयान से कांग्रेस ने खुद को अलग करने की बात की है और कहा है कि पार्टी उनसे सहमत नहीं है।


आतंकवादी घटनाओं के दौरान और उसके बाद पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों को लेकर की जाने वाली वोट बैंक की राजनीति भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोई नई घटना नहीं है। 13 सितंबर को हुए दिल्ली बम विस्फोट के सिलसिले में बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की मौत को लेकर इसी तरह के विवाद और बयानबाजी के बाद शहीद शर्मा के परिजनों ने समाजवादी पार्टी नेता अमर सिंह की सहायता राशि ठुकरा दी थी। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में या किसी भी कानूनी मामले में जब किसी राजनेता की गर्दन फंसती है, तो वे कहते हैं कि जब तक न्यायालय किसी को दोषी नहीं ठहराता, तब तक उसे दोषी कैसे माना जा सकता है? इसलिए किसी मुठभेड़ के बाद जब तक सब कुछ पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक संदेह और दोषारोपण की राजनीति को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है? क्षोभ की बात यह है कि आतंकवादी को सिर्फ आतंकवादी मानकर मुकाबला करने के बजाए हमारे राजनेता आतंकवादियों को धर्म और धड़ों में बांटकर वर्गीकरण की राजनीति करने लगते हैं।


आतंकवाद का दृढ़ता से मुकाबला करने वाले अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल या किसी भी पश्चिमी देश के राजनीतिज्ञ इस तरह के संवेदनशील मुद्दे पर वर्गीकरणवादी राजनीति नहीं करते, जबकि भारतीय नेताओं को शायद इस तरह की जिम्मेदारी की जरूरत महसूस नहीं होती। अब भी अगर हमारे नेता वगीüकृत मानसिकता से आतंकवाद का मुकाबला करने की बात करते हैं, तो यह न सिर्फ बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति का परिचायक है, बल्कि अक्षम्य भी।

मंगलवार, दिसंबर 16, 2008

क्यों अमेरिकी जनता दुनिया के नफरत की शिकार होती है?

राष्ट्रपति पद से हटने के बाद अपने आखिरी इराकी दौरे में जॉर्ज बुश के सामने तब विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई, जब अति विशिष्ट सुरक्षा व्यवस्था के बीच एक इराकी पत्रकार ने उन पर दो जूते फेंके। इराक के अल बगदादिया टीवी के पत्रकार मुंतजर-अल-जैदी ने पहला जूता फेंकते समय जार्ज बुश से कहा कि यह इराकी लोगों की ओर से आपको आखिरी सलाम है और दूसरा जूता फेंकते समय कहा कि इराक की विधवाओं, अनाथों और मारे गए लोगों की ओर से है। इससे जाहिर होता है कि इराक के लोगों में बुश प्रशासन की नीतियों को लेकर किस हद तक नाराजगी है और लोग अपनी खराब हालात के लिए वे सीधे तौर पर उन्हें जिम्मेवार मानते हैं। इससे पहले भी जार्ज बुश की इराक नीति को लेकर दुनिया भर के लोग विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं, मगर उन्होंने इसकी बहुत अधिक परवाह नहीं की। नतीजतन तकरीबन छह लाख से अधिक मासूम इराकी नागरिक अब तक वहां मारे जा चुके हैं। झड़पों और आए दिन होने वाले बम विस्फोट में रोज लोग मारे जा रहे हैं और इस परिस्थिति के कारण अमेरिका चाहकर भी अपने सैनिकों को वापस नहीं बुला पाया। लंबे समय से घर न लौट पाने के कारण इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों के बीच गहरी निराशा है और जार्ज बुश उनके परेशान परिजनों को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए। इराक मामले में बुश प्रशासन कई मोर्चे के साथ-साथ इस मोर्चे पर भी विफल रहा कि दूसरे देशों को वे वहां अपनी सेना भेजने के लिए राजी नहीं कर पाए, जिससे अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता साफ नहीं हो पाया। दूसरी ओर इराक पर हमले के लिए पेंटागन ने जो-जो कारण गिनवाए, वे एक-एक करके तथ्यहीन साबित होते चले गए। इराक पहुंचकर जार्ज बुश ने बयान दिया है कि इराक में युद्ध अभी भी खत्म नहीं हुआ है और संघर्ष अभी भी जारी रहेगा। अहम बात यह है कि जार्ज बुश की यात्रा और ताजा बयान ऐसे समय में आया है जब उनकी इराक यात्रा से एक दिन पहले अमेरिका के रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स, जो नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा के मंत्रिमंडल में भी रक्षा मंत्री बने रहेंगे, ने कहा था कि अमेरिकी सैनिकों का इराकी मिशन अपने आखिरी चरण में है। इससे अमेरिका की इराक नीति को लेकर बदलाव के संकेत मिले थे, मगर बुश के बयानों से स्पष्ट हुआ कि वे अपने पुराने रुख पर ही अड़े हुए हैं। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री की इस राय से असहमत होना असंभव है कि जार्ज डब्ल्यू. बुश के शासन में दुनिया में अमेरिका की छवि जितनी धूमिल हुई, उतनी किसी भी दौर में नहीं हुई और इतिहास के किसी दौर में शायद ही कभी लोगों ने अमेरिका को इतना इतना नापसंद किया हो। याद रहे कि 2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण के समय जब ज्यादातर अमेरिकी नेता लोगों का सामना करने से बच रहे थे, तब बराक ओबामा ने सार्वजनिक मंचों पर जोरदार तरीके से इसकी निंदा की थी। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि बराक ओबामा, बुश प्रशासन की इराक नीति की समीक्षा करेगा, जिससे दुनिया के सामने अमेरिकी की अलग छवि जाएगी।

सोमवार, दिसंबर 15, 2008

शहीदों के प्रति संवदेनहीनता की हद

दो दिन पहले इस जन गण के भाग्य विधाता आतंक के खिलाफ संसद में एकजुटता की बात कर रहे थे, मगर अगली सुबह संसद पर आतंकवादी हमले में शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए उंगलियों पर गिनने लायक सांसद भी नहीं पहुंचे। हैरानी की बात यह है कि इस मौके पर प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, सोमनाथ चटर्जी-जैसे कुछ बड़े नेता ही मौजूद थे, बाकी सरकार के तमाम मंत्री, सांसद और विपक्ष के बड़े नेता नदारद थे। बड़े राष्ट्रीय दलों में से एक ने इसे अक्षम्य माना और दूसरे इसका कारण सप्ताहांत के अवकाश को माना। इस वक्त पूरे देश में शहीदों के प्रति लोग भावुक हैं और उनके बलिदान के कारण नत हैं, मगर जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले मंत्रियों-सांसदों ने इस जन भावना का आदर नहीं किया। संसद की बैठकों, बहसों में बेहद कम भागीदारी सांसदों के लिए अब आम बात हो चुकी है, लेकिन मुंबई हमले के बाद शहीदों के प्रति राजनेताओं की ऐसी संवेदहीनता बेहद क्षोभ का विषय है। आतंकवादियों ने जितनी तैयारी के साथ संसद पर हमला किया था, वे अगर मुंबई के ताज और ओबेरॉय होटल की तरह संसद के भीतर जाने में कामयाब हो जाते, तो उस भयंकर तबाही का शायद हम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि क्या हो जाता! अपर्याप्त और निम्न स्तरीय संसाधनों के बावजूद लोकतंत्र की अस्मिता की रक्षा करने वाले बहादुर जवानों के प्रति जन प्रतिनिधियों की गैर मौजूदगी से लोगों के बीच ऐसा संदेश गया कि उनके मन में शायद उन जाबांज जवानों के प्रति आदर की कमी है। दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में हुई मुठभेड़ को बहुत अरसा नहीं बीता है, मगर उस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिस के बहादुर इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के परिवार वालों की मानें, तो उनके विभाग और सरकार दोनों के मन में वैसी भावना का अभाव अब साफ झलकती है, जो उसने शुरू में िदिखाई थी। शायद इन्हीं वजहों से आतंकवादी हमलों के तत्काल बाद शहीद जवानों के घरवालों के लिए अनेक तरह की घोषणाएं करने वाले नेताओं पर से आम जनता का भरोसा कम हो रहा है। मुंबई हमले के बाद देश भर के लोगों ने जिस तरह अपना दुख और आक्रोश जाहिर किया, उसके बाद क्या हमारे नेताओं के मन में शहीद जवानों के प्रति जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ है? ऐसा लगता है कि राजनेताओं ने देश के वीर जवानों को बेहद अपर्याप्त संसाधनों और विषम परिस्थितियों के बीच अपने कत्र्तव्य का निर्वहन के लिए छोड़ दिया है। यदि ऐसा न होता तो सियाचिन की जानलेवा ठंड में सीमा पर तैनात जवानों को पुराने और फटे-चिथड़े कपड़े की जगह नये और बेहतर कपड़े दिये जाते, मुंबई हमले में शहीद होने वाले जवानों को बेहतर बुलेटप्रूफ जैकेट और हथियार दिये जाते। बेहतर होता कि सरकार आतंक से लड़ने के उपायों की घोषणा करते समय इन बातों पर भी गौर करती कि यदि कोई जवान आतंकी हमलों में शहीद हुआ, तो कृतज्ञ राष्ट्र उनके परिवार को किसी भी तरह से असहाय नहीं महसूस करने देगी।

रविवार, दिसंबर 14, 2008

दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम बनाने के उस्ताद


जमात-उद-दावा पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध से साफ है कि दुनिया ने भारत के इस तर्क पर अपनी मुहर लगा दी है कि इस संगठन और लश्कर-ए-तय्यबा की जड़ एक ही है। इससे पहले इन आतंकियों सहित जमात-उद-दावा को आंतकवादी संगठनों की सूची में शामिल कराने की तीन बार कोशिश की गई, लेकिन चीन ने विरोध किया था। अहम बात यह है कि इस बार भारत और अमेरिका ने इस संगठन के खिलाफ जो ठोस सबूत पेश किए उसके बाद चीन को अपना तेवर और रणनीति दोनों बदलने को मजबूर होना पड़ा। पाकिस्तान सरकार इन संगठनों पर कार्रवाई के मामले में अब तक कैसी और कितनी गंभीरता बरतती रही है, इसका पता इस बात से लग जाता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध लगाए जाने के बाद जमात-उद-दावा के प्रमुख ने इसे पाकिस्तान को बदनाम करने की साजिश बताकर अपनी गतिविधियां पूर्ववत जारी रखने का ऐलान किया। गौरतलब है कि इससे पहले भी पाकिस्तान में आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध की नूरा-कुश्ती की वजह से थोड़े समय के बाद ही उनके नेता नजरबंद से बाहर आ जाते रहे हैं और प्रतिबंध बिल्कुल अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि अनुभव बताता है कि कंधार विमान अपहरण और भारतीय संसद पर हमले के बाद पाकिस्तानी हुकूमत ने çदखावटी कारüवाई करके अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी साख बचाई थी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पाबंदियों के बाद इन लोगों और संगठनों पर जो पाबंदियां लागू होंगी उनमें यात्रा करने पर पाबंदी, वित्तीय मदद इकट्ठा करने पर रोक, संपçत्तयों की कुर्की जैसे प्रावधान हैं। मगर इसमें पेच यह है कि प्रतिबंधों और पाकिस्तान सरकार की सख्ती के बाद इस तरह के संगठन नाम और जगह बदलकर फिर अपनी गतिविधियां शुरू कर देते हैं, जिससे थोड़े समय के लिए मामला ठंडा पड़ जाता है। जमात-उद-दावा लगातार दावा कर रहा है कि उसका संगठन लश्कर-ए-तय्यबा से अलग है और यह बात बात पाकिस्तान में न्यायालय भी मान चुका है। पाकिस्तान सरकार भले आतंकी संगठनों की इन दलीलों को मान ले, लेकिन दुनिया अब यह मानने को तैयार नहीं है। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने कहा है कि मुंबई हमलों के बाद हालात बेहद खतरनाक हैं और पाकिस्तान को कड़े कदम उठाने की जरूरत है। यह सच है कि इस पूरे मामले में बुश प्रशासन की सक्रियता के कारण भी अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत के पक्षों और तथ्यों को गंभीरता से लिया गया। प्रतिबंधों के बाद अब जरूरत इस बात की है कि वहां आतंकियों को प्रशिक्षित करने के लिए जो शिविर चलाए जाते हैं और चैरिटी के नाम पर मदरसों में पूरी दुनिया को दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम बनाने जो शिक्षा दी जाती है उसको असलियत में रोकने की कार्रवाई की जाए।

शुक्रवार, दिसंबर 12, 2008

कफन बेचने वाले से जिंदा छोड़ देने की अपील

कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) ने विश्व भर में व्याप्त भुखमरी के बारे में जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों के कारण दुनिया में करीब एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं। दुनिया इस वक्त एक तरफ आर्थिक मंदी से जूझ रही है, तो दूसरी तरफ घटती आमदनी और खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों के कारण विकासशील देशों की एक बड़ी आबादी भुखमरी की समस्या से जूझ रही है। चावल और दालों की कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी की वजह से इसी साल 11 करोड़, 90 लाख लोग भुखमरी की स्थिति में आ गए हैं। हेती, फिलीपींस और इथियोपिया जैसे देशों में खाने-पीने की चीजों की आसमान छूती कीमतों की वजह से दंगे हुए हैं। भारत ने बढ़ती कीमतों की मार से गरीब जनता को बचाने के लिए निर्यातों पर कुछ हद तक प्रतिबंध लगाए, इसके कारण आयातक देशों में कीमतें बढ़ने लगीं। ये सच है कि संकट की मुख्य वजह मांग और आपूर्ति में बढ़ता फासला है, लेकिन सवाल यह है कि पिछले तीस सालों में खाने-पीने की चीजों के दाम इतनी ऊंचाई पर कभी क्यों नहीं पहुंचे? जब आर्थिक उन्नति के दिन थे, तब तो सहायता जुटाना कठिन होता था, लेकिन अब तो दुनिया बेहद कठिन दौर से गुजर रही है। गरीबों की अब कौन सुने, जब अमीरों की हालत खुद ही खराब है. स्थिति यह है कि दानदाता देश आर्थिक संकट का हवाला देकर अब गरीब देशों को आगे सहायता देने में असमर्थता जाहिर कर सकते हैं। जिससे गरीबी और भुखमरी से पहले से ही काफी परेशान लोगों के आगे और अधिक उपेक्षित होने की आशंका गहराती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी पर गौर करें, तो वर्तमान आर्थिक संकट से गरीब देश सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं और लगभग 50 ऐसे देशों के लिए खतरा सबसे अधिक है, जो केवल कुछ उत्पादों के निर्यात पर निर्भर रहते हैं। गौरतलब है कि अभी दुनिया में दो किस्म के गरीब देश हैं-एक वे जिनके पास तेल और गैस है और एक वैसे देश जिनके पास तेल-गैस नहीं है। गरीब देशों में इधर विकास भी हुआ, लेकिन ये विकास लगभग पूरी तरह केंद्रित रही केवल तेल और खनिज के निर्यात करने वाले देशों के लिए जिनमें अंगोला, सूडान और इक्वेटोरियल गिनी जैसे देश आते हैं। मगर दूसरे कमजोर देशों में इस बात का खतरा अधिक है कि अगर ऊर्जा के स्रोत और खाद्यान्न महंगे होत चले गए तो और संकट में घिर जाएंगे। गरीब देशों की स्थिति में व्यापक सुधार न होने की एक अहम वजह यह भी है कि विदेशों से जो सहायता दी जाती है, वह सहायता मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तनों के लिए दी जा रही है, न कि गरीब देशों के संरचनात्मक बदलावों के लिए या ऐसे कामों के लिए जिससे उनकी उत्पादन क्षमता और आमदनी बढ़ सके। इसलिए दुनिया इस वक्त जिस भयंकर मंदी के दौर से गुजर रही है उसमें भुखमरी जैसी समस्या से निपटने के लिए व्यापक मानवीय दृष्टि के साथ-साथ धैर्य से वैकल्पिक विकास नीति की ओर अग्रसर होने की जरूरत अब पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है।बकौल साहिर लुधियानवी, कफन बेचने वालों से हम जान की भीख मांग रहे हैं, जिन्होंने दुनिया में यह हालत पैदा की है।

रविवार, दिसंबर 07, 2008

इंसानियत के बौने पड़ते जाने का बराबर डर बना रहा

छह दिसंबर एक उदास और नजरअंदाज कर दिये जाने लायक आम तारीख की तरह बीत गया, जो एक बड़ी राहत की बात है। देश-विदेश के अधिकांश आम जनों के लिए हर तारीख की तरह महज एक आम तारीख, मगर इतिहास की स्मृतियों और अस्मिता के घावों को बार-बार खरोंचने की सियासत करने वालों के लिए खास तारीख। आतंकवाद के बढ़ते संजाल के कारण देश इस वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर एक गंभीर मंथन के दौर से गुजर रहा है, मगर ऐसे दौर में भी क्षेत्रीय, जातीय और धार्मिक संरचनाओं को तार-तार करने वाली वाचाल राजनीति लिहाजों से बिल्कुल परे जाकर निजी स्वार्थों को तरजीह दे रही है। अयोध्या के पूरे घटनाक्रम को लेकर सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं, अपना-अपना पक्ष है और उनके पक्ष-विपक्ष के बीच फंसा हुआ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र निरुपाय-सा लगता है।


नारों, जुलूसों और अतिवादी-अस्मितावादी राजनीति के कारण जब भी दंगे-फसाद होते हैं, आतंकी हमले होते हैं, तो सियासत से मजहब से कोसों दूर देश के दिहाड़ी मजदूर, गरीब कामकाजी वर्ग के लोग ही इसकी बलि चढ़ते हैं। पिछले कुछ समय से विजय और दुख व्यक्त करने वालों के पाटन में पिछले एक-डेढ़ दशक से पिसने वाली गरीब जनता कल भी रोटी के लिए जीवन-संघर्ष करने निकलेगी, मगर मजहब की सियासत के कारण इंसानियत के बौने पड़ते जाने का बराबर डर बना रहा। ताजा जनगणना रिपोर्ट को देखें तो इस देश में स्कूल और अस्पतालों की संख्या से ज्यादा धार्मिक स्थल हैं, मगर और-और धार्मिक स्थलों के निर्माण की अनंत कड़ी अनवरत जारी है। वह सामाजिक ताना-बाना, जिसमें एक के बगैर दूसरे का बिल्कुल काम नहीं चलता था, अब इतिहास बनता जा रहा है। वर्तमान राजनीति का यह सबसे डरावना पक्ष है कि जब अदालतों में लाखों मुकदमे लंबित हैं और सालों से लोग न्याय की बाट जोहते रहते हैं, तब अदालतों और संवैधानिक प्रक्रिया से बाहर सियासत के खुदमुख्तार काजी अपनी शैली में इंसाफ करने में मुब्तिला हैं। छह दिसबंर, 1992 के बाद से आज तक देश के अनेक भागों में, अनेक तरीकों से वे अपने-अपने हिसाब से इंसाफ कर रहे हैं। उनके इंसाफों से घायल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र डिगते आत्मविश्वास और हिलती हुई बुनियाद के कारण संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।


विभाजनकारी राजनीति के कारण पहले देश टुकड़ों में बंटा, पांच लाख लोग तब सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुए थे और तकरीबन दस लाख लोग बेघरबार हुए थे। जिसका घाव अब भी बुजुर्गों के सीने में हरा हो जाता है। वक्त का तकाजा यह है कि विजय और दुख व्यक्त करने वालों और उनसे अलग अपनी कथित प्रतिबद्धताओं के कारण उनकी आलोचनाओं में मुब्तिला लोगों को अब भी उस देश के बारे में सोचना चाहिए, जिसमें प्रत्येक नागरिक को निर्भीक, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक तरीके से जीने का हक हो. पता नहीं यह सपना कब सपना से हकीकत में बदलेगा?

बुधवार, दिसंबर 03, 2008

वे हक्का-बक्का कर देना चाहते हैं सबको


ब्रिटेन में रहनेवाली नाईजीरियन मूल के अश्वेत कवि बेन ओकरी 1959 नाईजीरिया में पैदा हुए। बचपन लंदन में बीता, फिर नाईजीरिया लौट गए। थोड़े समय बाद ही स्कालरशिप लेकर ब्रिटेन पढ़ने के लिए आ गए...और फिर यहीं बस गए। ब्रिटेन के अनेक विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि, एक उपन्यास के लिए 1991 में बुकर पुरस्कार, 2001 ब्रिटिश सरकार के ओबीई से सम्मानित। इनके अलावा और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार।
अंग्रेजी में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध लेखन। अनेक पुस्तकें प्रकाशित। नाईजीरिया के गृहयुद्ध को विषय बनाकर कई उपन्यास लिखे। हाल में उनके लिखे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव संबंधी संस्मरण (संदर्भ-बराक ओबामा) खास चर्चित रहे। इन दिनों ब्रिटेन में रहते हैं।
हमारे अग्रज आदरणीय यादवेंद्र जी ने इसे उपलब्ध कराया है और ख्वाब का दर के लिए हिंदी में अनूदित किया है।

स्वप्न की संतानें

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बेन ओकरी
(अगस्त, २००३ में द गार्जियन में प्रकाशित यह कविता मार्टिन लूथर किंग के प्रसिद्ध भाषण आइ हैव ड्रीम की चालीसवीं सालगिरह पर लिखी यह कविता उन्हें ही समर्पित है। )

उन्हें होगा नहीं अब सब्र

जब तक और ज्यादा न दिया जाए उन्हें

क्योंकि ये संतानें हैं स्वप्न की


ये स्वप्नदर्शी बच्चे

सूरज के सभी रंगों के पहने हैं परिधान

श्वेत और अश्वेत

और वर्णक्रम के सभी रंगों के बच्चे

और स्वप्न के सभी रंगों के बच्चेउ

न्हें होगा नहीं अब सब्र

जब तक और ज्यादा न दिया जाए उन्हें


पर और ज्यादा आखिर चाहते क्या हैं वे?

वे चाहते हैं यह धरती और सितारे

और लुभावना स्वर्ग भी
वे चाहते हैं आजाद होना

और वे तमाम संभावनाएं भी

जिसे जिसे आजादी देती है जन्म

और साथ ही आजादी की रौब

और अंधेरे खतरे भी


वे चाहते हैं उन्मादी ढंग से प्यार करना
वे नहीं चाहते बंध जाना किसी परिभाषा की गिरफ्त में

वे नहीं चाहते खींच दी जाए कोई सीमा रेखा उनके सामने

वे नहीं चाहते याचना करें

मानवीय विस्तार के रास्ते
वे चाहते हैं पूरा-पूरा हक सर्जना का

पृथक दिखने का अप्रत्याशित, उद्दाम या असाधारण होने का

और सीमाओं को जब चाहें लांघ आने का
वे नहीं चाहते अनुकंपा या बंधना सोच के किसी चौखट में

वे मुखालफत करना चाहते हैं

खुद अपने खिलाफ भी

वे चाहते हैं खुशी से झूमें, नाचें-गाएं

उन सबके लिए जो खुश नहीं हुए कभी

इस धरती पर आगमन से उनके


वे चाहते हैं सृष्टि के सर्वोत्तम धनों को प्यार करना

संगीत में, कला में और स्वप्न में भी
वे आजादी से हासिल

सबसे ऊंची मंजिल प्राप्त करना चाहते हैं

बगैर किसी बहस-मुबाहिसे के

वे अचानक प्रकट होकर विस्मित कर देना चाहते हैं

जैसे कर देता है कोई देवदूत


वे हक्का-बक्का कर देना चाहते हैं सबको

चुटकी बजाते ही जैसे कर देते कई बार असाधारण जन
वे चाहते हैं पराजित हो जाना हिम्मत हारे बगैर

जैसे खोजियों को स्वीकार करनी पड़ती है कई बार नियति


वे चाहते हैं तलाश करना कुछ नया

पूरी सदाशयता से जैसे करते हैं धुनी तीर्थयात्री


उनके लिए होता है न तो बहुत ज्यादा कुछ

और न ही बहुत कम-

सपने देखना यदि यह संभव हो सके मनुष्य से

और पूरा करना उस निस्सीम जीवन के अथाह जादू वाले स्वप्न

इसीलिए तो वे छोड़ देते हैं निर्बिंध आजादी को

कि गाए हर दिन अपने बदलाव का गीत


वे ही हैं इस सृष्टि के नए योद्धा और अधिपति

अब तक के समय की पीड़ा से

और इतिहास के प्रणय से उद्भूत सर्वश्रेष्ठ उत्साह हैं वे-
वे संतानें हैं स्वप्न की

और मन या फौलाद की नहीं है बनी ऐसी कोई कारा

जो थामकर नियंत्रित कर सके

अब उन सबके वेग को


धक्के मार कर धराशायी कर दिए हैं उन्होंने लौह कपाट

वे सब के सब

संतानें हैं स्वप्न की।

-हिंदी अनुवाद - यादवेंद्र

सोमवार, दिसंबर 01, 2008

सरकार इस जनता को भंग करके दूसरी जनता चुन ले


मुंबई में देश के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद वहां की आम लोग जहां एनएसजी कमांडो और सुरक्षा बलों की हर कामयाबी पर भारत माता के नारा लगा रहे थे, वहीं जन गण के भाग्य विधाता बने हुए अधिनायकों के प्रति बेहद गम-ओ-गुस्से का इजहार कर रहे थे। देश के जिन पहरुओं पर आतंककारी ताकतों के खिलाफ हरसंभव कड़ी कार्रवाई करने की महती जिम्मेदारी है, वे इसकी जगह प्रत्येक आतंकी हमले के बाद अनुग्रह राशियों की राजनीति करने शहीदों के घर पहुंचकर किसी भी स्थिति को वोट बैंक बनाने के लिए पहुंच जाते हैं। बेहद क्षोभ की बात यह है कि पिछले कुछ सालों से ऐसी राजनीति से तंग आ चुकी जनता में इन दिनों नेताओं को लेकर जितना गुस्सा और आक्रोश है, वह इससे पहले शायद कभी नहीं देखा गया। इस वजह से देश की राजनीति में हड़कंप ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं आई। जब सैकड़ों लोगों की जान चली गई, हजारों अनाथ हो गए, तब जाकर भारत के भाग्य विधाताओं की अंतरात्मा ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए उत्प्रेरित किया। वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकारों ने जिस तरह जनता के आक्रोश पर प्रतिक्रिया जाहिर की है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।


राजनीति के इस विकृत रूप का ही परिणाम है कि मुंबई की घटना में अपने इकलौते पुत्र को खो चुके शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से मिलने से इनकार कर दिया और शहीद हेमंत करकरे की विधवा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सहायता राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में नेताओं के प्रति इतना अधिक गुस्सा है कि कई और नेता जनता के गुस्से का शिकार हो चुके हैं। मगर धैर्यपूर्वक जनता की भावनाओं को समझने की जगह नेतागण बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया में इसे कुछ मुट्ठी भर लोगों की पश्चिमपरस्ती और अराजकतावादी कदम ठहरा रहे हैं। जबकि मीडिया में आम लोगों की प्रतिक्रियाएं जिस तादाद में आ रही हैं, उससे स्पष्ट है कि देशभर की जनता सीधे-सीधे कड़ी और गंभीर कार्रवाई चाहती है, न कि अनंत काल तक इसके लिए सिर्फ आश्वासन। इस वक्त देश की जो स्थिति है, उसको बेहद अहम तरीके से जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता अभिव्यक्त करती है :


अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है


एक रास्ता और है
कि सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए दूसरी जनता चुन ले।