परसों फोन पर वह मुझसे नौकरी मांग रही थी....और मैं कुछ इस तरह हां...हां किए जा रहा था जैसे नौकरी मेरी जेब में रहती है और उसके दिल्ली आते ही वह नौकरी मैं उसे तत्काल जेब से निकालकर दे दूंगा्...बाल-विधवा उस निरक्षर महिला की आकुलता और आगत जीवन की चिंता में इतना डूबता चला गया मैं. उसके दिल्ली की और नौकरी की असली स्थिति बताकर उसे और हताश करना मुझे अपराध-सा लगने लगा था...
बिहार से मजदूरों का पलायन हो रहा है- यह एक तथ्य है. और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि बिहार के गांवों में मेहनत-मजदूरी का काम गैर ब्राह्मण वर्ग की स्त्रियां करती हैं...शुरू से करती रही हैं और आज भी करती हैं. मगर गरीब रिक्शाचालक ब्राह्मण की बीवी कोई मेहनत मजदूरी का काम नहीं कर सकती. इस मामले में और गांवों की क्या स्थिति है यह तो मैं नहीं जानता, मगर अपने जिले के अनेक गांवों में यही तथ्य आज ही यथावत देखखर लौटा हूं-ब्राह्मण की पत्नी जनेऊ बनाकर, चरखा कातकर धनोपार्जन करती है, मगर गांव के अन्य जातियों की महिलाओं की तरह मेहनत-मजदूरी करने की उन्हें सामाजिक इजाजत नहीं है.
उस विधवा ने मुझसे कहा कि यदि दिन भर मैं भी खेतों में काम कर सकती हूं, मेहनत-मजदूरी कर सकती हूं और देखिये न अब तो इसमें अपने यहां भी सौ-सवा सौ रोज की मजदूरी गांव में ही मिलती है. मगर नहीं, यह सब करने से हमारे समाज के ब्राह्मणों का पाग (खास मैथिल टोपी) गिरता है.
उस महिला को यदि गांव में ही मजदूरी करने दी जाए तो दिल्ली स्लम होने से बचेगी...गांव उजड़ने से बचेगा...हम उसके अथाह दुख के सागर में डूबने और झूठ बोलने से बचेंगे और श्रम से अर्जित धन की शक्ति से उस विधवा महिला का जीवन भी उतना दुखमय नहीं रहेगा, फिलहाल जितना है.