पाब्लो नेरुदा को कैंसर होने की जानकारी जब डॉक्टर ने दी (बाद में वे इसी बीमारी से मरे) , तो बताते हैं कि उन्होंने ये कविता लिखी. हालांकि नेरुदा के कुछ आधिकारिक विद्वानों का कहना है कि किसी ने उनके नाम से यह कविता लिखकर प्रचारित कर दी. बहरहाल जो भी हो-एक संबल की तरह ये कविता मुझे मित्र सरीखे बड़े भाई यादवेंद्र जी ने भेजी है- पेश है वह कविता....
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है
कि विलाप करता जाए कोई और किए से कुछ भी न सीखे
कि कोई उठे सुबह एक दिन
और न हो उसकी आंखों में स्वप्न एक भी
कि कोई चिहुंक-चिहुंक जाए
अपनी ही स्मृतियों के डर से...
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है
कि चेहरे से तिरोहित हो जाए मुस्कान मुश्किलों से जूझते हुए
कि उसमें जज्बा न जीवित हो उसके लिए लड़ने का
कि जैसे प्यार करने का दम वह भरे
कि सब कुछ बिसार दिया जाए बारी-बारी से
डर जब समेटने को फैलाने लगे अपनी विकराल बांहें...
या कि बीच में ही छूट जाए किसी का
अपने स्वप्नों के एक दिन साकार होने पर से भरोसा...
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है
कि मान लें हम जरूरत क्या
कि समझें आसपास एक-दूसरे को
कि कम कर दें अपना दखल
साथियों के जीवन में
कि करने लगें अनदेखी
दूसरे के खुश होने के इतर ढंग की....
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है
कि कोशिशें छोड़ दें हम खुशी की
कि मर जाने दें हम आशाएं
कि गुंजाइश विस्मृत कर दें बेहतरी की...
कि मान लें यही अंत में थक-हारकर
दुनिया बेहतर बन जाएगी
हम जैसों के बगैर भी....
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है