लुधियाना से दिल्ली आ रहा था. बिहार की तरफ जाने वाली एक ट्रेन अमृतसर से आकर प्लेटफार्म पर खड़ी हुई। गरीब-मजलूम जनता गिरती-पड़ती जनरल बोगी की ओर भागी. आम तौर पर लंबी दूरी की गाड़ियों में जेनरल बोगी के दो ही डिब्बे होते हैं. भारी भीड़ की उम्मीद इन्हीं डिब्बों पर टिकी होती है. डिब्बे के पास जाकर लोगों ने देखा सेना के जवान किसी को घुसने नहीं दे रहे हैं. कोई अगर घुसने की गुस्ताखी करे तो लात-घूंसों से मार-मार कर भगा देते. दोनों डिब्बे पर फौजियों ने कब्जा कर लिया और वे मजलूम लोग लात-घूंसे खाकर भी घर नहीं जा पाए.
कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
गुरुवार, दिसंबर 31, 2009
क्या भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना जैसी बन रही है?
लुधियाना से दिल्ली आ रहा था. बिहार की तरफ जाने वाली एक ट्रेन अमृतसर से आकर प्लेटफार्म पर खड़ी हुई। गरीब-मजलूम जनता गिरती-पड़ती जनरल बोगी की ओर भागी. आम तौर पर लंबी दूरी की गाड़ियों में जेनरल बोगी के दो ही डिब्बे होते हैं. भारी भीड़ की उम्मीद इन्हीं डिब्बों पर टिकी होती है. डिब्बे के पास जाकर लोगों ने देखा सेना के जवान किसी को घुसने नहीं दे रहे हैं. कोई अगर घुसने की गुस्ताखी करे तो लात-घूंसों से मार-मार कर भगा देते. दोनों डिब्बे पर फौजियों ने कब्जा कर लिया और वे मजलूम लोग लात-घूंसे खाकर भी घर नहीं जा पाए.
मंगलवार, दिसंबर 29, 2009
बलात्कारी महासंघ के माननीय सदस्यों के नाम...
शनिवार, दिसंबर 26, 2009
हम सब डटे रहेंगे यहीं इसी धरती पर साथी
टूटे सितारों की संतान
साथी, तुम अपने विश्वासों को
इस तरह पालते-पोसते रहे
जैसे हों वे तुम्हारी अपनी ही संतानें-
साथी, तुमने अनवरत जलाये रखी
लौ अपने जख्मों की
जैसे हों वे लम्बी बत्ती वाली प्रकाशमान ढिबरियां
साथी, तुम सहलाते रहे अपने जख्म
अपनी जीभ से ही निरंतर
और सीख लिया कैसे रहा जाता है
जीवित काल से परे जा कर भी...
साथी, तुमने उधेड़ ली अपनी चमड़ी
धारदार कर ली अपनी हड्डियाँ
नुकीली सुइयों-सी
और इनसे ही सिल लिए अपने लिए
सही नाप के सुन्दर लुभावने परिधान...
साथी, ठहरो मेरे साथी
संवारना जितना मुमकिन हो पाए
इस धरती की ठेसों और जख्मों को
जिस पर टूट-टूट कर गिरते रहते हैं अनगिन तारे
पर साथी, हम सब डटे रहेंगे इसी धरती पर...
आगे बढ़ो साथी
हम अपनी अपनी हथेलियों से ढांपे, रोके रखेंगे
धरती के अंदर का ताप
जिस पर कितने भी क्रुद्ध होकर
क्यों न चलते रहें अनेकों सूर्य
अपने-अपने कोप के बाण
पर साथी, हम सब डटे रहेंगे यहीं इसी धरती पर...
पहले कदम तुम बढ़ो साथी
निर्मित करो विषय-सूची वाला पहला पृष्ठ
कि तुम्हारे गीत ही प्रवहमान हों
धरती के शोकाकुल ग्रामोफोन के गर्भ से...
साथी, हम सब डटे हुए हैं यहीं इसी धरती पर...
साथी, तुम आगे बढ़ते जाओ अपने दृढ़ कदम
जब मयूरध्वज* सिर उठाकर फहराएगा
लहराएगा फिर से आसमान में
हमारे विश्वविद्यालयों के उन्नत परकोटों पर...
हम सब डटे रहेंगे यहीं इसी धरती पर साथी...
*मयूर ध्वज बर्मा के राष्ट्रीय सम्मान का पारंपरिक प्रतीक है।
1988 के क्रांतिकारियों की कविताओं की वेबसाइट से साभार, जिसमे सुरक्षा कारणों से कवि का नाम उजागर नहीं किया गया है...
तुम किस से करते हो प्यार?
सैनिकों
तुम पैदा हुए थे
अपनी माँ के कोख से
या फिर तानाशाह के गर्भ से???
सैनिकों
तुम्हे सचमुच कौन करता है प्यार?
तुम्हारी माँ?
या वो तानाशाह?
किसी को चाहिए सौंदर्य
किसी को चाहिए दौलत
किसी को चाहिए सत्ता...
तुम दे दो यदि सत्ता पूरी तरह
खुद में सिमटे हुए एक इंसान के हाथ
क्या ये होगा ठीक और मुनासिब?
यदि तानाशाह फरमान जारी कर दे
तो क्या तुम बोलने लगोगे?
क्या तुम लिखने लगोगे?
क्या तुम काम करने लगोगे?
क्या तुम चलाने लगोगे गोलियां अंधाधुंध?
भेड़ें चल देती हैं सामने जाती भेड़ों के पीछे-पीछे
बगैर जाने कि जाना कहाँ हैं..
क्या सेना भी चल पड़ेगी भेंड चाल से
पीछे पीछे तानाशाह के
बंद किये किये अपनी दोनों आँखें?
या सोच-समझ कर तार्किक ढंग से
बनाएगी अपना रास्ता?
झमाझम बरसते पानी में
एक लड़की प्रवेश करती है कैम्पस में
पहने हुए लाल..रक्त की तरह दमकता हुआ लाल
पर नहीं दिख पा रही है उसकी पूरी-पूरी शक्ल
बहुत जल्दी जल्दी वो चलती जा रही है
तेज कदमों से...
अब, वो दिख रही है कुछ पास
पहनावा भी दिख रहा है साफ़-साफ़
लाल रंग उसे पसंद ही नहीं है
बल्कि वो लिपटी हुई है लाल रक्त से
और जुलाई की मूसलाधार बारिश भी धो नहीं पा रही है
उसका लाल रंग...
वो दौड़ने लगी अब
किसी को ढूंदती हुई जैसे
शायद किसी प्रेमी को
जुलाई की बारिश और निष्ठुर हो कर गिरने लगी
आखिर कहाँ जाए वो इस बारिश से बचने?
सोचा उसने और भाग कर आ गयी
जहाँ उसने बातें की थी अपने प्रेमी से
जहाँ उसने दोस्तों के साथ पढाई की थी
जहाँ उसने आजादी के लिए लड़ीं थी लड़ाइयाँ
वही अंत में मिल गया उसे उसका प्यार..
बरसता जा रहा है निष्ठुर पानी
एक लड़की भाग कर घुस गयी इस इमारत में
बदन पर पहने हुए रक्त..सुर्ख लाल रक्त
पर अब वो अकेली नहीं दिख रही
उसके साथ दिख रहे हैं उसके ढेर सारे साथी
और उसका प्रेमी भी
ये सब वो हैं जो मरे नहीं कभी
जुलाई की बारिश भी
उन्हें कभी धो मिटा नहीं पाई
बार बार अपना जोर आजमाती रही फिर भी नहीं
उनका रक्त यूँ ही बर्बाद होता रहा हर बार
पर न तो आजादी की दीवानगी चुकी कभी
और न ही इन्तजार ख़त्म हुआ
कभी आजादी के दिन का...
सोमवार, दिसंबर 21, 2009
क्या अब भी कोई मुझे नहीं पहुंचाएगा अपने घर?
1991 में जब उन्हें फौजी शासन ने गिरफ्तार किया तो पुलिसकर्मियों के घर से स्त्रियों ने अपने प्रिय कवि को खाना बनाकर भेजना शुरू किया. चार वर्ष की जेल के दौरान उनके आश्चर्य की सीमा न रही, जब उन्होंने जेल की दीवार पर कोयले से लिखी अपनी ही बहुचर्चित कविता पढ़ी. सिगार बुझ चुका है ...सूरज धूसर पड़ गया है. क्या अब भी कोई मुझे नहीं पहुंचाएगा अपने घर?
देश का सर्वोच्च सम्मान जिस कवि को दिया गया था, उसी ने जेल से बाहर आने के बाद सैनिक तानाशाही की प्रताड़ना से तंग आकर विदेश चले जाने का फैसला किया. अपने जीवन के आखरी बारह वर्ष इस अनूठे कवि ने अमेरिका में बिताए और अपनी आखिरी साँस भी वही ली. उनके साहित्य पर अब भी बर्मा में पाबंदी लगी हुई है. अनेक बर्मी कवियों की तरह ही तिन मोये ने भी प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात कही.
अपने प्रिय देश को वे कैसे याद करते हैं इसकी एक मिसाल इस कविता में देखी जा सकती है. हमेशा की तरह हमारे लिए इस महत्वपूर्ण कवि की कविता का अनुवाद बड़े भाई यादवेन्द्र जी ने किया है. जिनका वादा है कि उनकी और महत्वपूर्ण कविताओं के साथ मैं जल्दी ही फिर हाजिर होऊंगा.
बंद दरवाजा
मेरा मन करता है
इतरा कर उडू पंछी बन कर
अपने प्रिय के आगे-पीछे
पर अफ़सोस करूँ क्या
बहेलिया निकल पड़ा है
परिंदों का शिकार करने....
मेरा मन करता है
लह-लह खिल पडूं
रंग-बिरंगा पुष्प बन कर
अपने प्रिय के आस-पास
पर अफ़सोस करूँ क्या
शातिर भौंरा निकल पड़ा है
उन्हें तहस-नहस करने
मेरा मन करता है
फिरकुं नयी पत्ती बन कर
अपने प्रिय की आँखों के सामने
पर अफ़सोस
करूँ क्या तेज अंधड़ पिल पड़ी है
सब कुछ रोंद डालने को...
मेरा मन करता है डुबो दूँ
प्रखर चाँद बन कर
चांदनी में अपने प्रिय को
पर अफ़सोस करूँ क्या
आज निष्ठुर धरती लगाने लगी है
उसी पर ग्रहण ...
पर कुछ भी जुगत करके
यदि पहुँच भी जाऊं अपने प्रिय के दर
अफ़सोस उढ़का हुआ है उसका दरवाजा
और नदारद है रौशनी भी वहां से...
शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009
यारब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं
हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं
किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लाल-ओ-ज़ुमरूद-ओ-ज़र-ओ-गौहर नहीं हूँ मैं
रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यूं दरेग़
रुतबे में महव-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं
करते हो मुझको मना-ए-क़दमबोस किस लिए
क्या आस्माँ के भी बराबर नहीं हूँ मैं
'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख्वार हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे, नौकर नहीं हूं मैं
गुरुवार, दिसंबर 17, 2009
आप कितना जानते हैं पंजाब और पंजाबियों को?
दोनों पंजाब की भाषा एक है, संस्कृति एक है, खान-पान एक है मगर धर्म, मुल्ला-मौलवी और ज्ञानियों ने ऐसी दीवार खड़ी कर दी है कि पता नहीं कब पंजाब को पंजाबीपन का संपूर्णता में एहसास होगा. पाकिस्तानी पंजाब में यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई कि देश विभाजन और धर्म परिवर्तन के बावजूद वहां के मुसलमान बिना किसी हिचक के अपना जो सरनेम लगाते हैं, वह जानकर आप एक पल को हैरत में पड़ जाएंगे।
पाकिस्तानी पंजाब के मुसलमानों का जो सरनेम मैंने सुना उनमें से कुछ सरनेम देखिए- रंधावा, साही, दुग्गल, सेठी, सूरी- बाजवा, सहगल, बग्गा, भट्टी, संधू, टिवाणा, वाही, पुरी, वोहरा, कोहली, बख्शी, मथारू, भोगल, विर्क, विर्दी, हांडा, सिद्धू, ग्रेवाल, चीमा, देओल, ओबेराय, टंडन, मल्होत्रा, मेहरा, गुजराल, सरना, चोपड़ा, खन्ना.
यानी शायद ही कोई सरनेम बचा हो जो आपने भारत में सुना हो वह यहां न मिले। अंतर बस इतना है कि इस सरनेम से पहले नाम किसी इमरान, इरफान या सलमान होता है.
लाहौर में जितनी पंजाबियत बची है वह शायद भारतीय पंजाब के किसी भी शहर में नहीं. लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में शेरे-पंजाब कुश्ती के दंगल में जितनी भारी भीड़ मैंने देखी वह कुश्ती के प्रति पंजाब की स्वाभाविक पारंपरिक उत्साह को साफ बयान कर रहा था. भारतीय पंजाब में यह परंपरा अब धीरे-धीरे मिट रही है. इधर के अधिकांश गांवों के लोग कनाडा और अमेरिकी चले गए हैं और उनकी पत्नियां उनकी राह देखती रहती हैं. किसी-किसी गांव में आप जवान लड़के देखने को तरस जाएंगे- जहां तक नजर जाएगी सिर्फ औरतें ही औरतें नजर आएंगी. यह जानकर दुख हुआ कि पाकिस्तानी पंजाब के गांवों की हालत भी बहुत कुछ इसी तरह की है. लड़के लाहौर, इस्लामाबाद भाग जाते हैं या सऊदी अरब. रह जाती हैं बस औरतें.
यह भी अजीब है कि सबसे ज्यादा भारत विरोधी भावनाएं पाकिस्तान के पंजाबियों में ही है, सबसे अधिक मांसाहारी, शराब के शौकीन और कट्टर पंजाबी मुसलामान ही है. इसके बावजूद वे बेहद यारबाश, सरल और पंजाबियत के प्रेमी हैं. हालांकि सेना और आईएसआई में पचहत्तर फीसदी लोग पंजाब सूबे से ही हैं.
काश, कभी वो दिन आता जब दोनों एक-दूसरे को उसी तरह देखते-सुनते और सुख-दुख में शरीक होते जैसे एकीकृत पंजाब में होते थे।
बुधवार, दिसंबर 16, 2009
बोधिवृक्ष पर वीर्यपात करता हुआ...बिहार
कुछ तथ्यों पर गौर फरमाने से सुशासन बाबू के बिहार के विकास की असलियत सामने आ जाती है।
वर्ष-2004—2005—4.47 प्रतिशत इकोनोमी ग्रोथ कृषि के क्षेत्र में था। जबकि 2005-2006—3.66प्रतिशत। 2006—2007 में यह गिरकर 1.62 प्रतिशत रह गया है।
सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक पिछले चार सालों में सुशासन बाबू की सरकार ने पचास करोड़ रूपये का प्रिंट मीडिया को और तीन करोड़ रूपये का इलेक्ट्रानिक मीडिया को विज्ञापन जारी किया है। अन्य माध्यमों को जारी किए गए विज्ञापनों को जोड़ दें, तो लगभग सौ करोड़ रूपये सरकार के उपलब्धियों की चर्चा के लिए घोषित तौर पर विज्ञापन पर खर्च किए गए हैं. अघोषित तौर पर मीडिया मैनेजमैंट के लिए जो-जो धतकरम किए जा रहे हैं, उसकी तो खैर यहां चर्चा ही नहीं की गई है।
सोचने की बात यह है कि जिस प्रदेश की आधी से अधिक आबादी की औसत आमदानी रोजाना बीस रुपये से कम है, वहां सरकार प्रचार-प्रसार पर सौ करोड़ रुपये खर्च करती है। ...और अभी तो चुनाव को एक साल बाकी है और बाकी है चुनाव से पहले जारी होने वाले विज्ञापनों की लंबी कड़ी।
कृष्णमोहन झा की एक कविता, जिसका शीर्षक है बिहार, आप गौर फरमाएं-
गंगा की जीभ पर
लगातार गिरता हुआ
न्याय का मवाद
बोधिवृक्ष पर वीर्यपात करता हुआ...
(आंकड़े तूती की आवाज ब्लाग से साभार)
शुक्रवार, दिसंबर 11, 2009
भक्तिकाल या अनंतकाल वाया उत्तरकाल
यह कोई लोकसभा नहीं है जहां प्रश्नकाल होता हो और प्रश्नकाल जब फलप्रद-काल न हो तो वह अनुपस्थित-काल में बदल जाए। अजीब बात है कि साहित्यिक इतिहासों में भक्तिकाल को इतिहास के मध्यकाल से जोड़कर देखा जाता है, जबकि यह ऐसा काल है जो आज पहले से कहीं अधिक प्रतिबद्धता और निष्ठा से जारी है। सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी की तरह यदि आप ऐसे ही गीत गाते रहे तो रियल लाइफ में जीना मुहाल हो जाएगा। क्योंकि जीने के लिए चाहिए होती है भक्ति-प्रदर्शन और इसी के प्रदर्शन से मिलती से जीवन में शुभ-लाभ। भक्ति से पत्नी से लेकर बॉस तक प्रसन्न रहते हैं और शुभ-लाभ, योग-क्षेम मिलती रहती है। भक्ति से ही शक्ति मिलती है और शक्ति के अनुपात से आदर मिलता है। सो, शक्ति कुछ लोग भक्ति से तो कुछ लोग छीनकर प्राप्त करते हैं।
न जाने क्यों मुझे जीवन के हर कदम पर, हर दिन बार-बार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आते हैं। उनकी लिखी पंक्तियां याद आती हैं और याद आता है कुटज जो सिर उठाकर जीता है...पर भगवान को उठा हुआ सिर पसंद है? भक्तिकाल के आराधकों को शायद पता हो।
गुरुवार, दिसंबर 10, 2009
बुधवार, दिसंबर 09, 2009
कभी इस नज़र से देखिये पाकिस्तान को
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका
वसुधा के ताज़ा अंक में उर्दू के मशहूर शायर शहरयार द्वारा चुनी गईं कुछ पाकिस्तानी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। यहां पेश है मेरे मित्र काशिफ़ हुसैन ग़ायर की दो ग़ज़लें। वे पाकिस्तान के जाने-माने शायर हैं और भारत के प्रति उनके मन में गहरा सम्मान है।
एक
वो रात जा चुकी वो सितारा भी जा चुका
आया नहीं जो दिन वो गुज़ारा भी जा चुका
इस पार हम खड़े हैं अभी तक और उस तरफ़
लहरों के साथ-साथ किनारा भी जा चुका
दुख है मलाल है वही पहला सा हाल है
जाने को उस गली में दुबारा भी जा चुका
क्या जाते किस ख्याल में उम्रे खाँ गई
हाथों से जिंदगी का खि़सारा भी जा चुका
काशिफ हुसैन छोडिय़े अब जिन्दगी का खेल
जीता भी जा चुका इसे हारा भी जा चुका
दो
हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूँ कोई साया न करे
मैं भी आखिर हूँ इसी दश्त का रहने वाला
कैसे मजनूं से कहूं खाक उड़ाया न करे
आईना मेरे शबो रोज़ से वाकिफ़ ही नहीं
कौन हूँ, क्या हूँ? मुझे याद दिलाया न करे
ऐन मुमकिन है चली जाय समाअत मेरी
दिल से कहिये कि बहुत शोर मचाया न करे
मुझ से रस्तों का बिछडऩा नहीं देखा जाता
मुझसे मिलने वो किसी मोड़ पे आया न करे
शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009
कुछ पता चला बापजी और भैनजी का?
कल मेरे दफ्तर की एक सुंदर-सी कन्या संवाददाता को इस बात से बड़ी कोफ्त हुई कि कुछ मनचले लड़के, जो रास्ते चलती लड़कियों को छेड़ रहे थे, उन पर फब्तियां कस रहे थे, वे मनचले लड़के उन्हें देखते ही बोले, “यार ये तो आंटी हैं।“ ... और ये कहकर ल़ड़के आगे बढ़ गए। यह बात उस कन्या संवाददाता को बेहद नागवार गुजरी। उन्हें लगा कि क्या वे आंटी दिखती हैं? अरे वे तो अभी महज उन्नीस की हैं (आप जानते हैं शरीफ लोग लड़कियों से उम्र नहीं पूछते)। अरे, अब वे छेड़नीय भी नहीं रहीं? वे तो बाकायदा प्रियदर्शनी हैं, सो दर्शनीय तो हैं ही (उन्हें लगता है)। वे ऐसी अछेड़नीय तो खैर नहीं ही हैं। वे इसी बात से दुखी हो गईं कि लड़कों ने उन्हें छेड़ने के लायक भी नहीं समझा। अजीब है भई, लड़की को कोई छेड़ दे तो पुलिस और अभिभावक दुखी हो जाते हैं और न छेड़े तो लड़की दुखी हो जाती हैं।
कभी-कभी मुझे लगता है कि हरिशंकर परसाई को अभी कुछ दिनों तक जीना चाहिए था और वह भी अंतकाल दिल्ली में जरूर गुजारना चाहिए था. क्या पता कोई छेड़ेच्छुक युवती उन्हें पसंद कर लेतीं। सबसे बड़ी बात यह कि यहां की उर्वरा भूमि में उनकी व्यंग्य-फसल ज्यादा लहलहातीं और वे लहक-लहक कर हिंदी साहित्य को नए-नए मुद्दों पर लहकाने का कमाल दिखाते। ऐसा कमाल कि श्रीराम सेना, बजरंग दल वगैरह को कभी खाली नहीं बैठना पड़ता। तख्ती वालों की कितनी तख्तियां बिकतीं, कितना शाकाहारी विरोध प्रदर्शन होता और दिल्ली की जनता को एक लेखक की रचना के प्रताप से इस जाड़े में बहुत ताप मिलता। पर हाय अकेला छोड़ गए, बिल्कुल अकेले-अकेले।
एक बात आपके कान में मैं धीरे से कहता हूं, किसी से कहिएगा नहीं। पिछले दिनों मुझे पता चला है कि मैं वयोवृद्ध हूं। मैंने अपने कुंवारे दोस्तो को कहा, हठधर्मियों रहो कुंवारे। तुम अभी तक कुंवारे के कुंवारे ही रहे और इधर मैं वयोवृद्ध तक बन बैठा। अब ये मत कहिए कि आपकी उम्र तो अभी बत्तीस साल है। आप कैसे वयोवृद्ध हो गए? तो जनाब, बात यह है कि मुझसे दस-बारह साल उम्र में बड़े कंडक्टर और आटोरिक्शा वाले क्वीन विक्टोरिया की तरह नाइटहुट देने के अंदाज में मुझे अंकल का खिताब देते हैं। मैं इसे बखुशी ग्रहण करता हूं। पता नहीं वे अंकल शब्द का मतलब कितना जानते हैं, पर वे चतुर-सुजान इतना तो जरूर जानते हैं कि अंकल कहो तो साहब लोगों की बांछें खिल जाती हैं। हालांकि ये और बात है कि मुझे आज तक नहीं पता चला कि बांछें होती कहां हैं औऱ कैसे खिलती हैं या खिलखिलाती हैं। तो साहब, आटोवाले बड़े प्यार से मेरा अंकलीकरण संस्कार कर चुके हैं-कुछ-कुछ नामकरण संस्कार की तरह। यकीन मानिए, मुझे बड़ा मजा आता है अंकल सुन-सुनकर। भोपाल में तो तमाम लोग मुझे कुछ इस तरह अंकल कहते थे जैसे मैं पैदाइशी अंकल हूं। जब अंकली सूरत ही हो तो कोई क्या करे-यह कहकर इस नश्वर शरीर में वास कर रहे हृदय को मैं विदारक स्थिति में जाने से बचा लेता हूं। इस भतीजामय में संसार में यदि केशवदास रहते तो शायद वे भी चंद्रवदनियों के बाबा कहि-कहि जाने पर नाराज न होते। क्योंकि नहीं छेड़े जाने की वजह से मृगलोचनियां तो पहले से परेशान चल रही हैं।
पहले-पहल जब मैं दिल्ली आया था, तो अक्सर कानों में भैणजी की कर्णप्रिय आवाज जाती थी। एक मित्र ने बताया कि ये कहना तो चाहते हैं बहन जी, पर मातृभाषिक चाशनी में पगी जीभ से बहन जी, भैणजी बनकर स्वर-ग्रंथि से बाहर आती हैं। पर अब उदारीकरण के बाद से तो भैया जब भैणजी को भैणजी कहो तो वे एकदम से गुस्सा हो जाती हैं। उन्हें अब भैणजी नहीं, भाभी जी कहलाने में गर्वानुभूति होती है। दिल्ली के इस विकास-काल में भैणजी को भाभी जी बनते देखना कितना सुखद है। यकीन न हो तो आप नए उम्र के किसी सब्जी वाले, आटो वाले से पूछकर देख लें। ज्यादा टैम न हो तो गली के नुक्कड़ वाले परचूनिए से ही पूछ लें।
इस सर्व-भाभी युग में बेटों से मुझे ग्यारह हजार वोल्ट का झटका लगा। सरोजिनी नगर मार्केट गया था, स्वेटर खरीदने। बीस-बाइस साल का लड़का मालिक की गद्दी पर बैठा था। मैंने जब स्वेटर मांगा तो उसने पचास साल के सेल्समैन से कहा, बेटे सर को फटाफट स्वेटर दिखा। अरे बेटे, ये वाली नहीं, वो जो कल माल आया है उसमें से दिखा। मैं स्वेटर देखने की जगह उजबक की तरह एक बार काउंटर पर बैठे लड़के को देखूं, तो दूसरी बार उस पचास साला सेल्समैन को। अजीब झटका लगा मुझे। यह लड़का कितने सहज भाव से बाप की उम्र के आदमी को बेटा कह रहा है और वह आदमी भी कितनी सहजता से उसको बाप की उम्र का मान रहा है। मैंने सैल्समैन की ओर इशारा करके उस बाप जी से कहा, भाई साहब, क्या आपके बच्चे इन्हीं के उम्र के हैं? अरे वाह, आपकी तो उम्र का पता ही नहीं चलता है? बहुत करीने से आपने अपनी उम्र छिपाया है। लड़का मुझे उजबक की तरह देखने लगा। उसे लगा कि मैं शायद अभी-अभी चिड़ियाघर से सीधे सरोजिनी नगर में गिरा हूं। उसका बेटा, स्वेटरों की पहाड़ निकाल कर रख चुका था। मैंने खोदकर एक चुहिया जैसा स्वेटर निकाला और जल्दी-जल्दी पैसे चुकाकर भागा।
बुधवार, दिसंबर 02, 2009
जोश साहिब अपनी बीवी से बहुत डरते थे
एक बार जोश साहिब की वह महबूबा, जिसे समंदर में डूबने से बचाने के लिए तैरना नहीं जानते हुए भी मुंबई में जोश साहिब पानी में कूद पड़े थे, दिल्ली आई। जोश साहिब ने चार-पांच दिन उसके साथ गुज़ारने का प्रोग्राम बना लिया। दोस्तों ने उनके लिए शाहदरा में रहने की व्यवस्था कर दी तथा घूमने के लिए एक मोटरकार की भी। जोश साहिब ने अपनी बीवी से दो-एक मुशायरों में जाने का बहाना किया और घर से शाहदरा अपनी महबूबा के पास आ गए। एक शाम वह अपनी महबूबा को लेकर नई दिल्ली में घूम रहे थे कि उनकी बेग़म ने उन्हें देख लिया।
वह रुके नहीं, गाड़ी भगाकर ले गए। कुछ देर बाद वह अपने दोस्त कुंवर महिन्दर सिंह बेदी के पास पहुंचे, उन्हें सारी बात बताई और कहा, ‘जैसे भी हो, मुझे बचाओ वरना बेग़म मुझे ज़िंदा ही दीवार में चिनवा देगी।’ बेदी साहिब अगली सुबह ही जोश साहिब के घर गए, तो बेगम जोश ने कहा, ‘वह मरदूर मुझसे मुशायरे का बहाना करके गया है, लेकिन उस मुंबई वाली चुड़ेल को लेकर यहीं दिल्ली में घूम रहा है। कल कनाट प्लेस में अपनी आंखों से मैंने उन्हें देखा है।’ बेदी साहिब ने कहा, ‘भाभी मेरी तरह आप को भी धोखा हुआ है।
कल मैंने भी उन्हें कनाट प्लेस में देखा था, लेकिन क़रीब जाने पर पता चला कि वह जोश साहिब की शक्ल से मिलता-जुलता कोई दूसरा व्यक्ति है।’ बेगम जोश को कई तरह की बातों से बेदी साहिब ने विश्वास दिलाने की कोशिश की। वह शांत तो हो गईं, लेकिन उनका शक़ दूर नहीं हुआ। लौटकर बेदी साहिब ने जोश साहिब को सारी कहानी सुनाई तथा कहा कि बेगम साहिबा की पूरी तस्सली के लिए कोई और ड्रामा भी खेलना पड़ेगा। एक यह कि जिन दो मुशायरों में जोश साहिब ने जाना था, उनमें से एक कैंसिल हो गया है तथा वह कल दिल्ली लौट रहे हैं।
ऐसी झूठी तार बेगम जोश को भिजवा दी गई। दूसरे दीवान सिंह म़फ्तून साहिब अपने अख़बार रियासत की साठ-सत्तर प्रतियां एक बड़े रेशमी रूमाल में लपेटकर बेगम जोश से मिलेंगे और कहेंगे कि मैं आपका शक़ दूर करने के लिए धार्मिक पुस्तक साथ लाया हूं। मैं इस पवित्र पुस्तक की क़सम खाकर कहता हूं कि जोश साहिब अपनी किसी महबूबा के साथ दिल्ली में नहीं हैं, बल्कि मुशायरें में गए हैं। इस स्कीम के तहत म़फ्तून ने बेगम जोश के सामने ठीक ऐसा ही किया। झूठी क़सम खाई और अपने दोस्त को उसकी बेगम के कहर से बचाया।
सौजन्यः डॉ.केवल धीर