बुधवार, फ़रवरी 28, 2007

भोपाल की पटिया संस्कृति


नवाबी तहज़ीब से पहचाने जाने वाले शहर भोपाल में सड़कों और गलियों के किनारे पत्थर और सीमेंट की बनी पटियों ने यहाँ के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन में एक अहम भूमिका निभाई है लेकिन पटिया की यह तहज़ीब अब धीरे धीरे समाप्त हो रही है. तेज़ी से फैलते लेकिन तंग होते भोपाल के बीच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते पुराने शहर में शाम होते ही चंद महफ़िलें आज भी सजती हैं.
पतली सड़कों और सकरी गलियों के किनारे लगे पत्थरों या फिर सीमेंट की स्लैब पर पुरानी दरियाँ, चाँदनी या फटी हुई कालीनें बिछ जाती हैं और शुरु हो जाते हैं शतरंज, साँप-सीढ़ी, कैरम बोर्ड या चाय की गर्म प्यालियों के साथ गपशप के दौर.
पटरियों पर बिछाने को कुछ न भी मिले तो कोई ग़म नहीं.
पुरानी यादें
इकबाल मैदान का नुक्कड़ हो या चौक के पास सर्राफा बाज़ार की बैठकें या जहाँशीराबाद के जमावड़े – सब देर रात तक गुलज़ार रहते हैं. रातगुज़ारी के साथ साथ एक तहज़ीब को ज़िदा रखे हुए.
सदर मंज़िल की सीढ़ियों के किनारे लगे पटिए पर शतराज की बिसात बिछाए जावेद अनवर कहते हैं कि वो बचपन से ही बैठकें लगा रहे है. और यहाँ एक ज़माने में मज़दूर वामपंथी नेता शाकिर अली खाँ और भारत के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जैसे सरीखे लोग भी आते थे.
जावेद अनवर की उम्र 70 के आस पास की होगी.
आटोमोबाइल इंजीनियर रिज़वानुदीन अंसारी को तो पटियों की याद यूरोप में अपनी पढ़ाई के दिनों में भी आई.
भोपालियों को पटियों से लगाव शायद इसलिए भी है कि सैकड़ों सालों से शहर में इन पर होने वाली बैठकें बीते वक्त के साथ यहाँ की ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गई.
बेरोज़गारी भी वजह
भोपाल में पटिया संस्कृति की शुरुआत की बात करते हुए साहित्यकार अफ़ाक़ अहमद कहते है, “भोपाल में उस ज़माने में क़बाईली इलाकों में प्रचलित छोटे छोटे मक़ान होते थे. अमीरों के घर में तो मर्दानखाने और जनानखाने होते थे लेकिन आम लोगों के घर में आज जिसे ड्राइंग रुम कहते है का कोई था फिर पर्दा प्रथा भी काफी सख़्त था तो मर्दों ने अपनी बैठकों के लिए घर के बाहर पटिये डालने शुरु कर दिए."

अब लोगों की रुचि कम होती जा रही है पटिया संस्कृति में
उर्दू साहित्य से जुड़े और भोपाल की संस्कृति पर शोध पर चुके अज़ीज़ अंसारी का कहना है कि रियासत के आख़िरी नवाब हमीदुल्लाह खाँ के ज़माने में तो यह फले फूले.
उनके अनुसार नवाब साहब जब अलीगढ़ से अपनी शिक्षा पूरी कर भोपाल वापस आए तो अपने दोस्त यारों को भी साथ लेते आए और उन्हें रियासत के आला ओहदों पर नौकरी दे दी.
इन लोगों ने बाहर से अपने रिश्तेदारों को बुलाकर यहाँ नौकरियों में भरना शुरु कर दिया. ज़ाहिर है कि भोपालनिवासियों के लिए नौकरियाँ कम होती गई तो उनके पास गप्पे मारने और महफ़िले सजाने के अलावा चारा क्या था.
इस स्थिति में पहाड़ी क्षेत्र में बसे गर्म मौसम वाले भोपाल में पत्थर की इन पटियों ने मेहमानखाने की शक्ल अख्तयार कर ली – एक तरह से ओपन एयर ड्रांइग रुम.
लेकिन साथ ही उसी संस्कृति को लिए हुए जो कोलकता के अड्डों, यूरोप के पुराने काफ़ी घरों या चीन के चायखानों में प्रचलित थी.
विशेषताओं वाले पटिए
अफ़ाक अहमद का कहना है कि कुछ पटिए तो विशेष व्यक्तियों या विचारधारा के नाम से भी जानी जाती थी.
वामपंथी नेता शाकिर अली खाँ एक पटिये पर राजनीतिक चर्चा छेड़ते थे और नवाबी दौर में ही नज्जन दादा का पटिया नवाबी हुकुमत के खात्मे के लिए होने वाली चर्चाओं के लिए मशहूर था

अफ़ाक अहमद
जहाँगीराबाद में एक होटल के सामने लगे पटिए पर साहित्यक लोग जमा होते थे.
वामपंथी नेता शाकिर अली खाँ एक पटिये पर राजनीतिक चर्चा छेड़ते थे और नवाबी दौर में ही नज्जन दादा का पटिया नवाबी हुकुमत के खात्मे के लिए होने वाली चर्चाओं के लिए मशहूर था.
अफ़ाक अहमद का कहना है कि नज्जन दादा को इसकी क़ीमत अपनी जान खोकर चुकानी पड़ी.
कहा जाता है कि भारत की आज़ादी के बाद भोपाल में ज़ोर शोर से चले विलय आंदोलन की रुपरेखाएँ और रणनीतियाँ इन्ही पर तैयार की गई थीं.
भारत के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और 1952 के आम चुनावों के बाद यहाँ के पहले मुख्यमंत्री बने.
नए राज्य की क़ीमत
1956 में भारत के मध्य में फँसे कई राज्यों को मिलाकर जब मध्य प्रदेश बना तो भोपाल उसकी राजधानी बनाई गई. उस समय शहर की आबादी मात्र 70 हज़ार थी. फिर शुरु हुआ बड़ी संख्या में लोगों का पलायन.
और चौड़ी सड़कों तथा नए तर्ज के मकानों की मांग की क़ीमत इन्हीं पत्थर के पटियों को चुकानी पड़ी थी.
लकड़ी के दरवाज़ों की जगह जो शहर वाली दुकानें बनने लगी तो दुकानों के आगे पटियों की जगह ही नहीं बची.
बाकी रही सही कमी पूरी कर दी नए दौर में ज़िंदगी की नई तर्ज़ ने.
दिल को पटिये जो अपने याद आएँकिसके पटियों पे दिल को बहलाएँमहफ़िले अब कहाँ जमें अपनीकैसे दाद-ए-सुख़नवरी पाएँ

नासिर कमाल की पैरोडी
अज़ीज़ अंसारी कहते हैं, "आज की व्यस्त ज़िदगी में लोगों की ज़िंदगी का दायरा इतना सीमित हो गया है, उलझने इस क़दर बढ़ गई हैं कि पटियों पर जाकर बैठने की अब फ़ुर्सत ही कहाँ है?शाम को अगर कुछ मनोरंजन चाहिए तो कल्ब, सिनेमा या होटलों में चले जाते है."
ज़ाहिर है यह पटियों की समाप्ति का दौर है. पत्रकार और शायर नासिर कमाल ने तो इसका मर्सिया भी लिख डाला है, एक पैरोडी की शक्ल में –
"दिल को पटिये जो अपने याद आएँकिसके पटियों पे दिल को बहलायेंमहफ़िले अब कहाँ जमे अपनीकैसे दादे सुखनवरी पायें"
मुस्तफ़ा अली ताज ने भी लिखा है कि वही पटिया संस्कृति है जिसका ज़िक्र गुलाबी उर्दू के जन्मदाता कहे जाने वाले मुल्ला रामूजी के लेखों और कहानियों का हिस्सा रही है.
नासिर कमाल शायद ठीक ही कहते हैं कि सैकड़ों साल से भोपाल की ज़िदगी का हिस्सा रहे यह पटिये शायद आगे भी इक्का दुक्का तादाद में बच जाएँ लेकिन उस तहज़ीब के बग़ैर जो इसने इस शहर को दी थी.


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मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007

साइकिल संस्कृति का शहर


पांडिचेरी के लोग अपनी साइकिलों पर शान से सवारी करते हैं
बेशक आपकी कार आपके लिए शान और आराम की सवारी हो पर पांडिचेरी के आलोक घोष अपनी साइकिल को किसी महंगी कार से कम नहीं समझते और शहर में जहाँ भी उन्हें जाना होता है, वो अपनी साइकिल पर ही चलते हैं.
ऐसा नहीं है कि वो कार ख़रीदने की हैसियत नहीं रखते. साइकिल उनकी मजबूरी नहीं, शौक है और पांडिचेरी ऐसे ही साइकिल शौकीनों का शहर है.
यह पांडिचेरी की ख़ास साइकिल संस्कृति है जो लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से लेकर पर्यटन तक अपनी ख़ास जगह रखती है.
यूँ तो पांडिचेरी का जिक्र करते ही अरविंदो आश्रम या बोट-क्लब ध्यान आते हैं पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर पांडिचेरी शहर की रौनक और ख़ूबसूरती का लुफ़्त उठाना है तो कार के शीशों के अंदर से नहीं, एकबार साइकिल पर बैठकर देखिए.
अब साइकिल कहाँ से लाएँगे, ये सोचकर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है.
लगभग सभी मुख्य सड़कों पर और ख़ासकर अरविंदो आश्रम के पास कई ऐसी दुकानें हैं जो किराए पर साइकिल देती हैं, वो भी महज तीन रूपए प्रति घंटा के हिसाब से.
पर्यटकों की पसंद
किराए पर साइकिल देने वाले विनायकम ने बताया, "यहाँ के लोग साइकिल ख़ूब चलाते हैं, साथ ही पर्यटक भी यहाँ बड़ी तादाद में साइकिल किराए पर लेते हैं."

साइकिल चलाने में महिलाओं को भी कोई परेशानी नहीं होती
इससे उन्हें रोज़ करीब दो सौ रूपये तक की आमदनी हो जाती है
विनायकम 1990 से इस काम में हैं. उन्होंने तब तीन साइकिलों से यह काम शुरू किया था और आज उनके पास 35 साइकिलें और छह मोटर साइकिलें हैं.
कोलकाता से पांडिचेरी घूमने आए सुबोध सेन कहते हैं, "अगर दिनभर ऑटो या रिक्शे पर घूमना हो तो 150-200 रूपए तक खर्च हो जाते हैं, वहीं कुल 15-20 रूपए में साइकिल पर शहर देखने का मज़ा लिया जा सकता है और फिर यह शहर ही ऐसा है, जिसे साइकिल पर ज़्यादा मज़े लेकर देख सकते हैं."
इतना ही नहीं, जहाँ बड़े महानगरों में अब साइकिल ठीक करने वाले ढूँढने पर भी नहीं मिलते, वहीं यहाँ के साइकिल मरम्मत करनेवाले भी खुश हैं. जोसफ कहते हैं, "दिन में 90-100 तक की आमदनी हो जाती है और बच्चों का पेट पल जाता है."
फ़ायदेमंद सवारी
पांडिचेरी की निवासी माही पाटिल कहती हैं, "पांडिचेरी शहर इतना बड़ा नहीं है कि तमाम प्रमुख जगहों पर साइकिल से न जाया जा सके. यही वजह है कि शहर के 20 प्रतिशत लोग साइकिल पर ही चलते हैं. इसे चलाना आसान है. न तेल का झंझट, न बेमतलब का धुँआ और प्रदूषण."
इस शहर को फ़्राँसीसियों ने बसाया है. इसकी सुंदरता में उनकी वास्तुकला और नगर संरचना का बड़ा योगदान है जो आने वाले समय में बदलते माहौल से प्रभावित हो सकता है

जी दुरई, स्थानीय व्यक्ति
पर क्या महिलाओं के लिए साइकिल पर चलना भी आसान है, यह पूछने पर वो बताती हैं, "यह दिल्ली नहीं है और न ही यहाँ का माहौल इतना ख़राब है. लोगों के लिए यह कोई नई चीज़ नहीं है, सो साइकिल छेड़छाड़ की वजह नहीं बनती."
अब पर्यटक हों या स्कूलों के बच्चे, पुस्तकालय जाने वाले बुजुर्ग हों या ख़रीददारी करने निकली महिलाएँ और या फिर कामकाजी पुरुष, साइकिल सबके लिए शान की सवारी है.
हालांकि अब लोग शहर की बढ़ती आबादी से भी चिंतित हैं और मानते हैं कि आबादी के साथ-साथ शहर की सीमाएँ ही बढ़ेंगी जिससे लोग बड़े वाहन खरीदेंगे और इस तरह शहर में प्रदूषण बढ़ेगा.
शहर के पुराने वासी जी दुरई कहते हैं, "इस शहर को फ़्राँसीसियों ने बसाया है. इसकी सुंदरता में उनकी वास्तुकला और नगर संरचना का बड़ा योगदान है जो आने वाले समय में बदलते माहौल से प्रभावित हो सकता है."
कुछ भी हो, साइकिल इस शहर की सड़कों की रानी है. जब भी "भारत के पेरिस" माने जाने वाले इस शहर में आपका जाना हो, यहाँ की शान की सवारी, साइकिल का मज़ा ज़रूर लें.


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पांडिचेरी

मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ?


मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? यह 'क्यों कर' मेरी समझ में नहीं आया. 'क्यों कर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह?
अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ. यह बड़ी उलझन की बात है. अगर में “किस तरह” को पेशनज़र रखूं को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाता हूँ. कागज़-कलम पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके अफ़साना लिखना शुरू कर देता हूँ. मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं. मैं उनसे बातें भी करता हूँ. उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए “सलाद” भी तैयार करता हूँ. अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर अफ़साना लिखे जाता हूँ.
अब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ.
अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना 'क्यों' लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है.
मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़साना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है.
मैं अफ़साना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.
मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ. यूँ तो मैने 20 से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुकद्दमे चलते रहते हैं.
जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूँ जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी.
अफ़साना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती. मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफ़साना निकल आए. कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूंकता रहता हूँ मगर अफ़साना दिमाग से बाहर नहीं निकलता है. आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ.
अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका हूँ. इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है. करवटें बदलता हूँ. उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ. बच्चों का झूला झुलाता हूँ. घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ. जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ. मगर कम्बख़्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ.
जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता.
सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है. मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता. लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ.
मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ. उन पर कोई जादू कर रहा हूँ.
माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया. किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफसाना क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ.
अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई उसने मुझसे यह कहा है, “आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए.”
मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई अफसाना उछलकर बाहर आ जाता है.
मैं खुद को इस दृष्टि से कहानीकार, नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?
-सआदत हसन मंटो

सआदत हसन मंटो का जीवन



मंटो की पाँच कहानियों पर मुक़दमे चले थे
मंटो का जन्म 11 मई 1912 को अमृतसर के एक पुश्तैनी बेरिस्टर परिवार में हुआ था.
सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उसे मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी 'तमाशा' आई. यह मंटो की पहली कहानी थी. धीरे-धीरे मंटो का रूझान रूसी साहित्य की ओर बढ़ने लगा. जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है.
उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे 'द लास्ट डेज़ ऑफ ए कंडेम्ड' का उर्दू अनुवाद किया जो “सरगुजश्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ.
इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड के ड्रामे 'वेरा' का अनुवाद किया. दो ड्रामे अनुवाद करने के बाद मंटो ने रूसी कहानियों का अनुवाद किया जो 'रूसी अफ़साने' शीर्षक से प्रकाशित हुआ.
साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ मंटो ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखनी चाही जिसके तहत उन्होंने 1934 में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. मंटो उस समय 22 साल के थे.
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही मंटो की मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई. यहाँ प्रगतिशील माहौल ने मंटो की रचनात्मकता को और पैना किया और यहीं उन्होंने अपनी दूसरी कहानी 'इंकलाब पसंद' लिखी जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई.
लिखने का सिलसिला शुरू हो चुका था. 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ शीर्षक था 'आतिशपारे.'
अलीगढ़ में मंटो ज़्यादा टिक नहीं सके. वह अमृतसर और फिर लाहौर आ गए. जहाँ उन्होंने कुछ दिन 'पारस' नाम के अख़बार में काम किया और 'मुसव्विर' नामक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन भी.
यहाँ भी मंटो की बेचैन रूह ने ज़्यादा दिन रहना गवारा नहीं किया और वे मुंबई आ गए. यहाँ उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का संपादन और फ़िल्मों का लेखन जारी रखा. मंटो मुंबई में चार साल रहे.
जनवरी 1941 में मंटो दिल्ली आ गए और उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू कर दिया. इस दौरान उनके रेडियो नाटक के चार संग्रह प्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें' और विवादास्पद कहानियों का संग्रह 'धुआँ' और समसामयिक विषयों पर लिखे लेखों का संग्रह 'मंटो के मज़ामीन' भी दिल्ली प्रवास के दौरान प्रकाशित हुआ.
जुलाई 1942 को मंटो दोबारा मुंबई आ गए और जनवरी 1948 तक रहे. इस दौरान उनका महत्वपूर्ण संग्रह 'चुगद' प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी बेहद चर्चित कहानी 'बाबू गोपीनाथ' भी शामिल है.
मुंबई के अपने पहले और दूसरे प्रवास में मंटो ने साहित्यिक लेखन के अलावा फ़िल्मी पत्रकारिता की और फ़िल्मों के लिए कहानियाँ और पटकथा लिखी जिसमें 'अपनी नगरिया', 'आठ दिन' और मिर्ज़ा गालिब विशेष रूप से चर्चित रही.
1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए. जहाँ उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं. इन कहानियों में 'सियाह हाशिए', 'नंगी आवाज़ें', 'लाइसेंस', 'खोल दो', 'टेटवाल का कुत्ता', 'मम्मी', 'टोबा टेक सिंह,' 'फुंदने', 'बिजली पहलवान', 'बू', 'ठंडा गोश्त', 'काली शलवार' और 'हतक' जैसी तमाम चर्चित कहानियाँ शामिल हैं.
जिनमें कहानी 'बू', 'काली शलवार','ऊपर-नीचे', 'दरमियाँ', 'ठंडा गोश्त', 'धुआँ' पर लंबे मुकदमे चले. हालाँकि इन मुकदमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे.
इन्हीं मुकदमो से संबंधित एक दिलचस्प घटना इस तरह है कि एक व्यक्ति ने मंटो से कहा 'भाई मंटो साहब आपकी कहानी 'बू' तो बड़ी बदबू फैला रही है. मंटो का जवाब था तो आप 'फिनाइल' लिख दें.
मंटो सिर्फ़ 42 साल जिए, लेकिन उनके 19 साल के साहित्यिक जीवन से हमें 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख मिले.
तमाम ज़िल्लतें और परेशानियाँ उठाने के बाद, 18 जनवरी 1955 में मंटो ने अपने उन्हीं तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

पाब्लो नेरुदा की जन्मशती


सही मायने में जनकवि शायद वही होता है जो प्यार को क्रांति और क्रांति को प्यार मानता है, उन्हें अलग नहीं बल्कि एक ही नदी की दो लहरों की तरह देखता है- जो बहती है जन जन में. लातिन अमरीकी समाज ही नहीं बल्कि कविता से प्रेम करने वाले लाखों दिलों को यूंही सहलाती दुलारती गई है पाब्लो नेरुदा की कविता.
चिली के मशहूर कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरूदा ऐसे ही कवियों में से थे जो दुनिया की ख़ूबसूरती को अभिव्यक्ति का चोला पहना कर उसमें चार चाँद लगाते हैं.
12 जुलाई 1904 को जन्मे पाबलो नेरूदा की जन्मशती दुनिया के कई हिस्सों में मनाई जा रही है.
दुनिया के चहेते कवि पाब्लो नेरूदा को श्रद्धाँजलि देने के लिए 12 जुलाई को विश्व कविता दिवस मनाया गया.
इस महान कवि का पहला काव्य संग्रह 'ट्वेंटी लव पोयम्स एंड ए सॉंग ऑफ़ डिस्पेयर' बीस साल की उम्र में ही प्रकाशित हो गया था.
पाब्लो नेरुदा ने लिखा है,
मुझे प्यार है उस प्यार से जिसे बांटा जाए चुंबनों में, तलहटी पर और रोटी के साथ.प्यार जो शाश्वत हो सके और हो सके संक्षिप्तप्यार जो अपने को मुक्त करना चाहे फिर प्यार करने के लिएदैविक प्यार जो एक दूसरे को क़रीब लाता हैदैविक प्यार जो दूर चला जाता है.
नेरूदा को विश्व साहित्य के शिखर पर विराजमान करने में योगदान सिर्फ उनकी कविताओं का ही नहीं बल्कि उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का भी था.
वो सिर्फ़ एक कवि ही नहीं बल्कि राजनेता और कूटनीतिज्ञ भी थे. और लगता है वो जब भी क़दम उठाते थे रोमांच से भरी कोई गली कोई सड़क सामने होती थी.
चिली के तानाशाहों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के बाद उन्हें अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़ना पड़ा. इटली में जहां शरण ली वहां भी प्रशासन के साथ आंख मिचौली खेलनी पड़ी.
प्यार और क्रांति का समन्वय
अच्छी शराब, ख़ूबसूरत औरतों और सताए हुए लोगों से प्यार करने वाले इस कवि कि पंक्तियां पिछले पचास सालों में हज़ारों प्रेमियों के लिए अपने प्यार का इज़हार करने का जऱिया रही हैं.
नेरूदा की कविता
उनकी कविताओं में प्रेम और क्रांति का अद्भुत समन्वय है. उन्होंने दोनों विरोधाभासी माने जाने वाली चीज़ों को संगुफित करके नया काव्यशास्त्र रच दिया

अशोक वाजपेयी
ऐसा आख़िर क्या था पाब्लो नेरुदा की कविता में जो लोगों को अपने जादू की ग़िरफ़्त में बांधता चला जाता था- हिंदी के मशहूर कवि और समीक्षक अशोक वाजपेयी कहते हैं, "इसका बड़ा कारण थी उनकी कविता की स्थानीयता. उनकी कविता सार्वभौमिक होते हुए भी बहुत ठोस रुप से, बहुत पदार्थमय रुप से और बहुत ऐंद्रिक रुप से लातिनी अमरीकी कविता थी."
अशोक वाजपेयी कहते हैं, "उनकी कविताओं में प्रेम और क्रांति का अद्भुत समन्वय है. उन्होंने दोनों विरोधाभासी माने जाने वाली चीज़ों को संगुफित करके नया काव्यशास्त्र रच दिया."
साम्यवादी विचारधारा के पाब्लो नेरूदा की रचनाओँ में ज़हां प्रेम ने कई नई परिभाषाएँ पाईं वहीं व्यक्त हुआ लातिन अमरीका की शोषित जनता का आक्रांत स्वर. स्पेनिश नाटककार और नेरूदा के मित्र लॉर्का ने कहा था कि नेरूदा की कविता स्याही के नहीं बल्कि ख़ून के करीब है.
नेरूदा की विश्व प्रसिद्ध रचनाएँ 'माच्चु पिच्चु के शिखर' और 'कैंटो जनरल' ने विश्व के कई कवियों को प्रभावित किया और अशोक वाजपेयी मानते हैं कि उन्होंने पचास और साठ के दशक में भारतीय कवियों की सोच पर अपनी गहरी छाप छोड़ी थी.
त्रासद अंतिम दिन
एकजुट लोगों को कोई ताक़त नहीं हरा सकती... यह गीत नेरूदा के आख़री सालों की याद दिलाता है जो उनकी ज़िंदगी के सबसे नाटकीय वर्ष भी थे.

उन्हें अपनी विचारधारा के कारण परेशानियाँ भी बहुत उठानी पड़ीं
1970 में चिली में सैलवाडॉर अलेंदे ने साम्यवादी सरकार बनाई जो विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई साम्यवादी सरकार थी. अलेंदे ने 1971 में नेरूदा को फ़्रांस में चिली का राजदूत नियुक्त किया. और इसी वर्ष उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला.
1973 में चिली के सैनिक जनरल ऑगस्टो पिनोचे ने अलेंदे सरकार का तख्ता पलट दिया. इसी कार्रवाई में राष्ट्रपति अलेंदे की मौत होगई और आने वाले दिनों में अलेंदे समर्थक हज़ारों आम लोगों को सेना ने मौत के घाट उतार दिया.
कैंसर से बीमार नेरूदा चिली में अपने घर में बंद इस जनसंहार के ख़त्म होने की प्रार्थना करते रहे. लेकिन अलेंदे की मौत के 12 दिन बाद ही नेरूदा ने दम तोड़ दिया.
सेना ने उनके घर तक को नहीं बख़्शा और वहां की हर चीज़ को तोड़ फोड़ कर एक कर दिया.
खंडहर में तब्दील इस घर से नेरूदा का जनाज़ा लेकर निकले चंद दोस्त. लेकिन सैनिक कर्फ़्यू के बावजूद हर सड़क के मोड़ पर आतंक और शोषण के ख़िलाफ़ लड़नेवाले इस सेनानी के हज़ारों चाहने वाले काफ़िले से जुड़ते चले गए.
और रुंधे हुए गलों से एक बार फिर उमड़ पड़ा साम्यवादी शक्ति का वो गीत जो नेरूदा ने कई बार इन लोगों के साथ मिल कर गाया था.


इंटरनेट लिंक्स
पाब्लो नेरुदा का परिचय
पाब्लो नेरुदा की कविताएँ

मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है

मैं क़तरा होकर भी तूफ़ाँ से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है.
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है.
वसीम बरेलवी

मैंने पूछा था सबब, पेड़ के गिर जाने का
उठके माली ने कहा इसकी क़लम बाक़ी है
निदा फ़ाज़ली
कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हम को किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता
शहरयार
मैं दुनिया के मेयार पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पे पूरी नहीं उतरी.
मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ,
हैरत है कि सर मेरा क़लम क्यों नहीं होता.
मुनव्वर राना
इक अमीर शख़्स ने हाथ जोड़ के पूछा एक ग़रीब से
कहीं नींद हो तो बता मुझे कहीं ख़्वाब हों तो उधार दे.
आग़ा सरोश

दिल खुश हुआ है मस्जिदे-वीराँ को देखकर


दिल खुश हुआ है मस्जिदे-वीराँ को देखकर
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है

ख़ुदा तो खैर मुसलमाँ था उससे शिकवा क्या
मेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया

कहते हैं कि आता है मुसीबत में ख़ुदा याद
हम पर तो पड़ी वह कि ख़ुदा भी न रहा याद

आबादी के इधर से उधर और उधर से इधर होने का इतिहास इतना ही पुराना है जितना यह ज़माना है. आदमी के द्वारा आदमी के शोषण की रोकथाम के लिए हर युग में, विभिन्न धर्मों में नए-नए आदर्श बनाए, नर्क-स्वर्ग के नक्शे दिखाए, मगर आदमी में छिपे जानवर फिर भी बाज़ न आए. पाकिस्तान से हिंदुस्तान आने वाले शायरों के तीन शेर उन दिनों हर जगह सुनाई देते थे. इन तीनों शेरों के शायरों के नामों को भले ही वक़्त की धूल ने धुंध ला दिया हो मगर इनमें छुपा दर्द आज भी सर्द नहीं हो पाया...काव्य में प्रभाव उस तनाव से जागता है जिससे कलाकार गुज़रता है. अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को अपनी आँखों से देखने वाले मीर तक़ी मीर थे, अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह कहा था-

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने

दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

पुरखों के पदचिन्ह पर चलने वालों


पंकज पराशर की कविताएँ
हस्त चिन्ह
(बनारस के घाटों को देखते हुए)

पुरखों के पदचिन्ह पर चलने वालों
कभी उनके हस्तचिन्हों को देखकर चलो तो समझ सकोगे
हाथ दुनिया को कितना सुंदर बना सकते हैं

ख़ैबर दर्रा से आए धनझपटू हाथ
जब मचा रहे थे तबाही
वे बना रहे थे मुलायम सीढ़ियाँ
सुंदर-सुंदर घाट और मिला रहे थे गंगा की निर्मलता को
मन की कोमलता से

तलवारें टूट गईं
मिट्टी में मिल गए ख़ून सने हाथ
कोई जानता तक नहीं उन हाथों को
जिसके मलबे के नीचे सदियों तक दबी रही दुनिया

याद करो उन हाथों को जिन्होंने बनाए ताजमहल
बड़े-बड़े राजमहल
और पूरे बनारस में इतने सारे घाट
आज किसे है याद?

ढूँढ़ सको तो ढूँढ़ो इतिहास में उन हाथों को
जिन्होंने बेघर होकर बनाए लोगों के घर
लेकिन अफसोस! वहाँ दीखते हैं वही हाथ
जिन्होंने चंद सिक्के देकर ख़रीदे ग़रीब मजूरों के
अमीर हाथ

जान की परवाह किए बग़ैर जो उकेरते रहे
राजाओं के नाम और जूझते रहे सालों
छेनी-हथौड़ी लिए पत्थरों से
उन हाथों की लकीर किस हर्फ़ में दबी है
ज़रा उसे ढँढ़ो तो अपने मुल्क के इतिहास में?

वे जो इन सीढ़ियों से पहुँचते हैं
विद्युत अभिमंत्रित सरकाऊ सीढ़ियों तक
क्या बना सकते हैं कोई एक ऐसा घाट
जहाँ पी सकें पानी एक साथ
बकरी और बाघ?

* * * * * *

बऊ बाज़ार


यहाँ आई तो थी किसी एक की बनकर ही
लेकिन बऊ बाज़ार में अब किसी एक की बऊ नहीं रही मैं

ओ माँ!
अब तो उसकी भी नहीं जिसने सबके सामने
कुबूल, कुबूल,कुबूल कहकर कुबूल किया था निकाह
और दस सहस्र टका मेहर भी भरी महफिल में

उसने कितने सब्ज़बाग दिखाए थे तुम्हें
बाबा को गाड़ी और तुम्हें असली तंतु की साड़ी
माछ के लिए छोटा पोखर और धान के लिए खेत
जिसकी स्वप्निल हरियाली कैसे फैल गई थी तुम्हारी आँखों में
और...न जाने कहाँ खो गई थी तुम माँ!

यह जानकर तुम्हारी छाती फट जाएगी
कि जब लाठी और लात से नहीं बन सकी पालतू
तो भूख से हराया गया तुम्हारी बेटी को
जिससे हारते हुए मैंने तुम्हें बचपन से देखा है

रात के तीसरे पहर के निविड़ अंधकार में
सोचती हूँ कैसे बचे होंगे
इस बार की वृष्टि में पिसी माँ की बाड़ी
और चिंदी-चिंदी तुम्हारी साड़ी

मैं तो कुछ भी नहीं जान पाती यहाँ
कि छुटकी के रजस्वला होते ही
बाबा ने क्या उसे भी ब्याह दिया या क़िस्मत की धनी
वह अब तक है कुँआरी?

तुम्हें तो रतौंधी है माँ यह याद है मुझे
कि तुम देख नहीं सकती कुछ भी साँझ घिरते ही

चलो यह अच्छा ही हुआ कि तुम
देख नहीं सकती शाम को जो हर रोज़ उतरती है
मेरी ज़िंदगी में और-और स्याह बनकर

कभी पान खाकर कभी इलायची चबाकर
दारू की गंध को छिपाने की कोशिश करता हुआ
मेरा खरीददार खींच-खींचकर अलग करता है
मेरी देह से एक-एक कपड़ा

जैसे रोहू माछ की देह से उतार रहा हो एक-एक छिलका
छोटे-छोटे टुकड़ों में तलकर परोसने के लिए
आदमजात की थाली में.

* * * * * *

रात्रि से रात्रि तक

सूरज ढलते ही लपकती है
सिंगारदान की ओर
और घंटी बजते ही खोलकर दरवाज़ा
मधुशालीन पति का करती है स्वागत
व्योमबालाई हँसी के साथ
जल्दी-जल्दी थमाकर चाय का प्याला
घुस जाती है रसोई में
खाना बनाते बच्चों से बतियाते होमवर्क कराते हुए
खिलाकर बच्चों को पति को
फड़फड़ाती है रात भर कक्ष-कफ़स में तन-मन से घायल

जल्दी उठकर तड़के नाश्ता बनाती बच्चों को उठाती
स्कूल भेजकर पहुँचाती है पति के कक्ष में चाय
फ़ोन उठाती सब्जी चलाती हुई भागती है दरवाज़े तक
दूधवाले की पुकार पर

हर पुकार पर लौटती है स्त्री खामोश कहीं खोई हुई

जब तक सहेजती हुई सब कुछ लौटती है पति तक
हाथ में थाली लिए जलपान की

पति भूखे ही जा चुके होते हैं दफ़्तर
एक और दिन उसके जीवन में बन जाता है पहाड़

रोती जाती है काम करती जाती है पति के आने तक
मकान को घर बनाती हुई स्त्री
सूरज ढलते ही करने लगती है पुनः स्वयं को तैयार
व्योमबालाई हँसी के लिए

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मंगलवार, फ़रवरी 20, 2007

बकौल चचा गालिब:
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती....क्योंकि कितने मासूम लोग मारे गये हैं "समझौता" नामक गाडी में!!!!
कितना खून बहा है इनसानियत का! किशोर कुमार के गाए गीत की तरह अब इस तरह जीना होगा...समझौता गमों से कर लो.....

आदमी से अब देखिए अब डर रहा है आदमी
मारता है आदमी और मर रहा है आदमी
समझ में आता नहीं कि क्या कर रहा है आदमी
कौन जाने आदमी को खा गई किसकी नज़र
आदमी से दूर होता जा रहा है आदमी

शनिवार, फ़रवरी 17, 2007

मरण जल
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पंकज पराशर

रात एक नदी की तरह बहती जा रही है

अंधेरों की बाढ बढती ही चली जा रही है
लगता है गांव में झींगुरों के अलावा और कोई नहीं,

उससे पूछो कि वह कौन है जो मेरे घर पर बुलडोजर चलवाता है
और अपने महल के हम्माम में पानी भरने के लिये वहां बांध बनवाता है?

रात की इस नदी में बार-बार गूंज उठती है
उस आदेवासी औरत की आवाज
जिसके मुंह में जब आवाज आई तो कहने के लिए
और कुछ भी न बचा उसके पास जो कुछ भी था वह
देश की जम्हूरियत की नजर हो गया था

जिसका देश शहर नहीं जंगल है और सरकार कुदरत है

तुमने नगर में उसे जगह नहीं दी और जंगल भी उससे छीन ली
और बन बैठे उसके माई-बाप,
उसकी सरकार जिसकी उसे इत्तला तक नहीं दी कभी

-फिर किसने तुम्हें ये हक दिया कि तुम मुझे सभ्य बनाओ
मुझे जीना सिखाओ जैसे कि तुम हो सभ्यता की साबुन
और तहज़ीब के अलंबरदार मेरे वजीर-ए-आजम
सियार से भी गये बीते

तुम जो मेरे रहनुमा हो मेरे आका हो
और आज भी हो मेरे माई-बाप मुझे बताओ
कि वह कौन है जिसका नाम तक बताने में तुम्हारी ज़बान
इस कदर लडखडाती है? और तुम्हारी त्यौरियां चढ जाती है
हमलोगों के ऊपर ही?

मेरा बेटा जब मरा तो उसके हाथ में तुम्हारा ही झंडा था
मेरे बाप को जो फांसी हुई वह जुर्म तुमने किया था
और मैं विधवा आज इसलिए हूं कि मेरे पति ने
तुम्हारा ज़रखरीद गुलाम बनने से साफ इनकार कर दिया था

तुम्हीं बताओ तुम्हारे लोकतन्त्र को और क्या-क्या चाहिए मेरा?

मेरी आंखें, मेरा गुरदा, मेरे स्तन, मेरी जांघें बताओ?
एक जंगल की औरत पूछ रही है तुमसे
तुम्हारे नगर के नागरिकों और जम्हूरियत के नये काजियों से
मेरे पूरे वजूद में सिवाए मरण जल के अब कुछ भी नहीं
१७.०२.२००७