शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

दिल खुश हुआ है मस्जिदे-वीराँ को देखकर


दिल खुश हुआ है मस्जिदे-वीराँ को देखकर
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है

ख़ुदा तो खैर मुसलमाँ था उससे शिकवा क्या
मेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया

कहते हैं कि आता है मुसीबत में ख़ुदा याद
हम पर तो पड़ी वह कि ख़ुदा भी न रहा याद

आबादी के इधर से उधर और उधर से इधर होने का इतिहास इतना ही पुराना है जितना यह ज़माना है. आदमी के द्वारा आदमी के शोषण की रोकथाम के लिए हर युग में, विभिन्न धर्मों में नए-नए आदर्श बनाए, नर्क-स्वर्ग के नक्शे दिखाए, मगर आदमी में छिपे जानवर फिर भी बाज़ न आए. पाकिस्तान से हिंदुस्तान आने वाले शायरों के तीन शेर उन दिनों हर जगह सुनाई देते थे. इन तीनों शेरों के शायरों के नामों को भले ही वक़्त की धूल ने धुंध ला दिया हो मगर इनमें छुपा दर्द आज भी सर्द नहीं हो पाया...काव्य में प्रभाव उस तनाव से जागता है जिससे कलाकार गुज़रता है. अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को अपनी आँखों से देखने वाले मीर तक़ी मीर थे, अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह कहा था-

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने

दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

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