शुक्रवार, दिसंबर 28, 2007

क्या आपको सरदार मलिक और असरारुल हक 'मजाज' याद हैं?

आज के पापुलर संगीतकार अन्नू मलिक को लोग जानते हैं. चैनल वाले भी जानते हैं. जनता उनके गीत गाती-गुनगुनाती है. मगर उनके पिता सरदार मलिक साहब को लोगों ने करीब-करीब भुला दिया है. इंतकाल से पहले एक रेडियो चैनल को दिये इंटरव्यू में सरदार साहब ने कहा कि उर्दू के बागी और इन्कलाबी शायर असरारुल हक 'मजाज' से वो एक गीत लिखवाना चाहते थे.इसलिए उन्होंने मजाज साहब को बंबई बुलाया. अपने घर पर रखकर खातिरदारी की. अपनी ख्वाहिश से उनको अवगत कराया. 'मजाज' साहब पीते बहुत थे. दिन-रात का भी ख्याल नहीं करते थे.इश्क़ और फिर शराबनोशी. इन दो ने मजाज़ पर कुछ ऐसा क़ब्ज़ा किया कि उनकी पूरी दुनिया जैसे यहीं तक सिमट कर रह गई.जिसे चाहा वह मिली नहीं और फिर शराब के ज़रिए ग़म भुलाते-भुलाते मजाज़ ने अपने आप को खो दिया.


एक हफ्ता जब गुजर गया तब उन्होंने सरदार साहब को बुलाया. सरदार साहब ने देखा कि वे तो लड़खड़ाते हुए बैठ गए और कहा कि सरदार लिखो. सरदार साहब लिखने लगे. वह गीत जब पूरा हो गया तो सरदार साहब ने उसकी जो धुन बनाई वह उस गीत की तरह ही लाजवाब बनी. मजाज साहब के लिखे इस अमर गीत को सरदार मलिक ने १९५३ में बनी फिल्म ठोकर लिया.यह गीत मजाज साहब के दर्द, उनके जेनरेशन की मुश्किलें और अपने समय के हालात की साफगोई के साथ बयान किया गया एक सच्ची दास्तान है.

इस गीत की तलाश मैं कुछ दिनों से कर रहा था. भाई यशवंत सिंह के प्रति आभार सहित पेश मजाज साहब का वह अमर गीत.

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सडकों पे आवारा फिरूं
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-बदर मारा फिरूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर दहकी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

ये रुपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तस्व्वुर जैसे आशिक़ का ख़्याल
आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आई ये मोती की लड़ी
हूक-सी सीने में उट्ठी, चोट-सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

रात हंस हंसके ये कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी शाहनाज़े-लाला-रुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

हर तरफ़ है बिखरी हुई रंगीनियां रानाइयां
हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगडाइयां
बढ रही है गोद फैलाए हुए रुसवाइयां
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं
लौटकर वापस चला जाउं मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाए ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

मुन्तज़िर है एक तूफ़ाने-बला मेरे लिए
अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए
पर मुसीबत है मेरा अहदे-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

जी में आता है अब अहदे-वफ़ा भी तोड़ दूं
उनको पा सकता हूं मैं, ये आसरा भी छोड़ दूं
हां मुनासिब है, ये ज़ंजीरे-हवा भी तोड़ दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

दिल में इक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूं
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूं
ज़ख्‍म सीने में महक उठा है, आख़िर क्या करूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकडों चंगेज़ो नादिर हैं नज़र के सामने
सैकडों सुलतानो जाबिर हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

बढ के इस इन्द्रसभा का साज़ ओ सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं उसका शबिस्तां फूंक दूं
तखते सुलतान क्या मैं सारा क़स्र ए सुलतान फूंक दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
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मायने - नाशादो-नाकारा-उदास और बेकार, क़ुमक़ुम- बिजली की बत्ती, शमशीर- तलवार, तसव्वुर- अनुध्यान, मैखाना- मधुशाला, शहनाज़े लाला रुख़- लाल फूल जैसे मुखड़े वाली, काशाने- मकान, इशरत- सुखभोग, फ़ितरत- स्वभाव या प्रकृति, हमनवा- साथी, तूफ़ाने-बला- विपत्तियों का तूफ़ान, वा- खुले हुए, अहदे-वफ़ा- प्रेम निभाने की प्रतिज्ञा, माहताब-चांद, अमामा- पगड़ी, मुफ़लिस- ग़रीब, शबाब- यौवन, मज़ाहिर- दृश्य, सुल्ताने जाबिर- अत्याचारी बादशाह, शबिस्तां- शयनागार, क़स्रे सुल्तान- शाही महल

गुरुवार, दिसंबर 27, 2007

आज मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती है साहिबो

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और
अंदाजे-बयां के इस मुमताज शायर की आज जयंती है. ब्लाग की दुनिया में संयोग से आज इसकी कोई हलचल नहीं दिखी.आज २७ दिसंबर है. आज ही के दिन २७ दिसंबर १७९७ को आगरा में चचा ग़ालिब पैदा हुए थे. यह साल आजादी की पहली लड़ाई यानी गदर के डेढ़ सौवीं जयंती का भी है. जिसके बारे में विस्तार से चचा ग़ालिब ने अपनी फारसी में लिखी अपनी डायरी दस्तंबू में याद किया है.
भारतीय कविता के महान शायर मिर्ज़ा असद्दुल्ला खाँ ग़ालिब को नमन.

शनिवार, दिसंबर 22, 2007

मन फाटे नहीं ठौर...

रात आधी से अधिक बीत चुकी है... चारों तरफ है गहन अंधकार और इस अंधकार में मैं एक लंबे अरसे से कैद हूं। चचा मीर की तरह मेरे लिए भी सुबह होती है, शाम होती है... और यह जिंदगी शायद यूं ही तमाम होती जा रही है... नींद के बगैर बेमानी...। सुबह होने में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है... और यह लो, एक और रात फिर बीती नींद के बगैर! आंखों में तेज दर्द होने लगा है। न किसी से बातें करने को जी चाहता है, न किसी की हंसी अच्छी लगती है... न जाने मैं क्या-से-क्या होता जा रहा हूं? किसी भी बात की खुशी कभी महसूस नहीं होती। क्या मुझे अपना पूरा जीवन इसी तरह जीना होगा? एक चिड़चड़े आदमी में बदलता जा रहा हूं... या खुदा! और कितना वक्त लगेगा नींद को मुझ तक पहुंचने में? क्या वह मेरे घर का रास्ता भूल गई है? या वह मुझसे रूठ गई? क्या कयामत तक मुझे नींद का इसी तरह इंतजार करना पड़ेगा? जिस नंींद के लिए ÷ट्राइका' टेबलेट की एक गोली खाने के बाद लोग दोपहर तक घोड़े बेचकर सोते हैं उस ÷ट्राइका' का भी मेरे ऊपर कोई असर नहीं हो रहा। खीझ के मारे चार-चार टिकिया एक साथ निगल लेता हूं फिर भी कोई असर नहीं! डॉक्टर हैरान हैं और शायद उसी हैरानी की वजह से उन्होंने नींद की एक बेहद ताकतवर दवा ÷नाइट्रोसन-10' लिख दी है। खुशी हुई कि अब तो निंदिया रानी को आना ही पड़ेगा क्योंकि आज तो उसे लिवाने के लिए खुद ÷नाइट्रोसन-10' महाराज जाएंगे! इत्तफाक से उस दिन काफी खुशी हुई। एक गोली खाकर सोने की कोशिश करता हूं लेकिन कोई असर नहीं... गुस्से में दो खा लेता हूं तो सिर में जोरों से चक्कर आने लगता है और पैदल चलने में दिक्कत-सी महसूस होने लगती है। बाहर से आकर फिर बिस्तर पर लेट जाता हूं... झींगुरों की सनन... सनन की आवाजें आ रही हैं...मगर नींद है कि आ नहीं रही है। खीझते हुए सोचता हूं, आखिकार नींद क्यों रात भर नहीं आती... जबकि चचा गालिब की तरह मुझे भी अच्छी तरह पता है कि मौत का एक दिन मुअय्‌यन है। सब दिन इस धरती पर तो कोई जिंदा रहा नहीं है और न हम रहेंगे। हकीकत यह है कि मुझे मौेत का बिलकुल डर नहीं लगता। मरने का मेरे मन में जरा खौफ नहींबकौल चेखव, मौत तो बस एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने जैसा है... क्या नींद और क्या रात... क्या जीवन और क्या मौत! सोचना नहीं चाहता हूं, चाहता हूं कि नींद आए और अपने आगोश में मुझे ले ले... बड़ी पुरानी ख्वाहिश है... मगर सोच की चरखी जो घूमती है तो बस घूमती ही चली जाती है।
...तो इस नींद की कहानी काफी पुरानी है। सन्‌ 1982 में जब मैं सिर्फ छह साल का था इसकी शुरुआत हो गई थी। पहली जमात का छमाही इम्तहान कुछ हफ्ते पहले ही खतम हुआ था और सालाना इम्तहान में अभी कुछ महीने की देर थी। मौसम-ए-गरमा बीत रहा था और झमाझम बारिशों का मौसम आ चुका था। गांव के मेरी उम्र के बच्चे देर तक बारिश में नहाने लगे थेजैसे इस बुढ़ापे में आज भी मुंबई में जब पहली बारिश होती है तो सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा उसमें देर तक भीगते हैं। बारिश में जो लोग कभी नहीं भीगते, उनका मन भी शायद कभी किसी बात पर गीला नहीं होता।
किसी कवि ने कहा है कि जो रो सकता है वह मन से काम करता है और पूरे मन से दोस्तों का साथ निभाता है। जो किसी भी सूरत में रो नहीं सकता वह आसानी से किसी को धोखा दे सकता है
... किसी को कुचलकर आगे जा सकता है और जीवन में उसकी कामयाबी का पलड़ा हमेशा भारी होता है। पता नहीं क्यों ऐसे कामयाब लोगों से मुझे बहुत डर लगता है और यकायक बाबा नागार्जुन याद आ जाते हैं : जो नहीं हो सके पूर्णकाम/मैं करता हूं उनको प्रणाम... रोज बनती-बिगड़ती आज की इस दुनिया में सफल लोगों के लिए असफल लोग हंसने का सामान भर होते हैं। तुम हंसे ऐसे कि उसकी कड़वाहट साफ-साफ दीखने लगी... हंसो क्योंकि तुम रो नहीं सकते और जब किसी को कुचलकर, उसकी पीठ पर लात रखकर आगे बढ़ना तब भी तुम इसी तरह हंसते रहना... क्योंकि तुम हंसने के लिए अभिशप्त हो मेरे समय के आकाओं... और हम जैसे लोग रोने के लिए!
तो, बात शुरू वहां से हुई थी जब मेरी पहली जमात का इम्तहान खतम हो गया था और बारिशों का मौसम आ चुका था। रोज झमाझम वर्षा होने लगी थी। अक्सर मेरे आंगन में खपरैल छप्पर से गिरते पानी की तेज धार के नीचे मेरे दोस्त खड़े हो जाते और दूर से जब उनके सिर पर पानी की तेज धार गिरती तो हल्की सी चोट का एहसास होतागोया सिर थपथपाकर हौले-हौले कोई मालिश कर रहा हो। वे लोग मुझे ललचाते रहते। उन्हें पता था कि मेरी मां मुझे उन लोगों के साथ नहाने की इजाजत नहीं देंगी। मेरा मन मचलता रहता। मैं अंदर-ही-अंदर कटकर रह जाता। कभी अगर पिताजी खुश होते तो घमौरियां मिटाने के लिए बारिश में नहाने की इजाजत दे देते।
चूंकि मैं तीन बहनों के बाद पैदा हुआ था इसलिए आम बच्चों की तरह मुझे बारिश में नहाने, पोखर में देर तक तैरने और तेज धूप में टिकोरे चुनने की आजादी नहीं थी और न दोस्तों के साथ खुलकर मौज-मस्तियों में डूबने का। शुरू में अत्यधिक सुरक्षा बोध के कारण जहां एक तरफ मैं बचपन की मस्तियों से वंचित हो गया था वहीं दूसरी तरफ बड़ा आदमी बनाने की मां-बाप की जिद ने न केवल मुझसे मेरा बचपन छीन लिया बल्कि मेरे कोमल बचपन को बहुत हौलनाक और त्राासद बना दिया।
गांव में मेरी उम्र के बच्चे चांदनी रात में छुपम-छुपाई या गुल्ली-डंडा खेलते लेकिन मैं अभागे की तरह चुपचाप सबको हसरत भरी निगाहों से देखता रहता और अंदर-ही-अंदर उन लोगों के साथ खेलने के लिए मचलता रहता। यदि मैं उन बच्चों के साथ खेलने की जिद करता तो मेरी पिटाई होती। उस वक्त खुद पर इतनी कोफ्त होती कि लगता मेरी स्थिति गुलामों से भी बदतर है। यानी माता-पिता के कहे को जरा भी अनसुना किया कि दे दनादन... थप्पड़ .. छड़ी, जो तत्काल हाथ में आ जाता उसी से शुरू हो जाते। कोई बूढ़ी और दयालु महिला अगर मुझे बचाने के लिए मेरे पास आतीं तो मां उन लोगों को गालियां देने लगतीं। मां कहती कि अपने बच्चे को मैं पीटूं चाहे जो मर्जी करूं, इसमें लोगों का क्या जाता है? अपने बच्चे-बीवी को पीटूं या काट डालूं तो इसमें लोगों की... क्यों फटती है? गलती से कभी यदि कोई दयालु महिला या बुजुर्ग बेरहमी से होती हमारी पिटाई देखकर बचाने के लिए आ जाते / जातीें तो मेरी मां ऐसी खरी-खोटी सुनाती कि लोग दोबारा कभी बचाने नहीं आते। आखिर सबके भीतर एक आन तो होती ही है। गाली और दुर्वचन सुनने को कोई क्योंकर आए? आज आलम यह है कि मेरे गांव में अब कोई बड़ों की मारपीट में भी बीच-बचाव करने नहीं जाता। यानी जो प्रवृत्ति हमारे बचपन में आम नहीं थी वह अब करीब-करीब रिवाज में बदल गई है। लोग अपने घर में मरें-कटें या अपनी पत्नी की पीट-पीटकर जान ही क्यों न ले लें, अब कोई बचाने नहीं जाता। शहरों की तरह गांव के लोग भी अब अपने दरवाजे के रामझरोखे पर बैठे-बैठे ही जग का मुजरा लेते रहते हैं। कोई मरनी-हरनी हो या शादी-ब्याह हो तभी कोई किसी के यहां जाता है और वह भी निमंत्राण मिले तभी, नहीं तो नहीं।
गांव में कुछ ऐसे धनी और महत्त्वाकांक्षी लोग भी थे जिनके बच्चे कुछ गिने-चुने बच्चों के साथ ही खेलते और वह भी घर के लोगों की इजाजत मिलने के बाद। खेल में मस्त बच्चों को उस वक्त अपने माता-पिता पर जबरदस्त गुस्सा आता जब खेल के बीच में ही फरमान सुनाई पड़ता - बंद करो यह खेल-तामाशा और लालटेन जलाकर फौरन पढ़ने बैठो। उसके बाद किसी बच्चे ने यदि तुरंत अनुमति का पालन नहीं किया तो फिर वही थप्पड़ और छड़ी की बरसात... छोटी-से-छोटी बात पर भी मार...। गांव के हर बच्चे की तकरीबन वही कहानी... मार और पीठ पर छड़ियों की वही निशानी! घर के लोगों के लिए अनुशासन का मतलब थाबात-बात पर पिटाई और वह भी ऐसी कि बच्चों के मिट्टी जैसे कोमल मन पर इन चीजों का क्या असर पड़ता है इससे कोई लेना-देना नहीं... और स्कूल में गुरुजी की जो मार पड़ती थी उसकी तो खैर एक अलग ही कहानी है।
पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे -कूदोगे बनोगे खराबजैसे फिकरे गांव की फिजां में कदम-कदम पर सुनाई देते। जो बच्चा हमेशा किताबों में अपनी आंखें गड़ाये रखता उसकी गांव में बात-बात पर मिसाल दी जाती और उस वक्त लगता कि वाकई हमसे नाकारा इस दुनिया में और कोई नहीं। हम किसी काम के नहीं। हम बार-बार अच्छे बच्चे बनने की कोशिश करते और नाकामयाब हो जाते। क्योंकि पढ़ने के अलावा हमें खेलने में भी बहुत मजा आता था। इसलिए हम उतनी देर तक पढ़ नहीं पाते थे... और इस वजह से लाख प्रयत्न करके भी अच्छे बच्चे नहीं हो पाते थे। हर बात में उन किताबी कीड़ों से हम जैसे बच्चों की तुलना की जाती और उसी मेयार पर यह तय किया जाता कि हम गंदे बच्चे हैं या अच्छे। मुुझे लगता है कि शायद यह भी एक कारण है कि मुझे ठीक से कोई खेल खेलना नहीं आता... और मेरे गांव में मेरी उम्र का कोई भी बच्चा किसी खेल में माहिर नहीं हो पाया।
स्कूल में तो और भी बुरा हाल था। शायद वहां पढ़ाई कम और पिटाई ज्यादा का नियम लागू था। कभी शनिचरा के लिए तो कभी अनुपस्थिति-दंड के रूप में तीन आने पैसे नहीं देने के कारण गुरु जी हम जैसे लक्ष्मीविहीन पिता के बच्चों की निर्ममता से पिटाई करते। लगता कि उनके ऊपर हैवानियत सवार हो चुकी है और वे जान लिए बिना मानेंगे नहीं। मेरे अधिकांश साथियों ने गुुरुजी की पिटाई के डर से पढ़ाई से ही तौबा कर ली। मेरी उम्र के बच्चों ने पिता की मार भले सह ली लेकिन लौटकर दोबारा स्कूल कभी नहीं गए। आजकल मेरे बचपन के वे दोस्त पुरानी दिल्ली की गलियों में अपने सीने में टी.बी. लिए रिक्शा खींचते हैं। फावड़े से खुदाई करते-करते मेरे चार लंगोटिया यारों की टी.बी. से मौत हो गई। उनकी बीवियां आजकल कहां हैं और हैं तो कैसे और किन हालात में, बस पुरानी यादें और उसके साथ ही आंसुओं की मुसलसल बारिश...। अब यदि मेहरबां होकर मैें बचपन के उस वक्त को बुलाना भी चाहूं तो वह अब कभी लौटकर नहीं आएगा। वह गया वक्त है और गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता... भले कोई लाख मेहरबां होकर बुला ले। वह तो तावारीख हो जाता है। मेहरबां होकर बुलाने पर चचा गालिब भले तवारीख से लौटकर आ जाते हों लेकिन जो वक्त चला जाता है वह कभी लौटकर नहीं आता...।
मेरे पिताजी गांव में नहीं रहते थे। तत्कालीन मुंगेर जिले के मानसी में बिजली महकमे में वे सरकारी नौकर थे। सप्ताहांत में शनिवार की शाम को आते और सोमवार की सुबह चले जाते। रविवार के दिन उन्हें इतने काम होते कि एक पल की भी फुर्सत उन्हें नसीब नहीं होती। वे आते तो जमाने भर के गम और परिवार की दिक्कतों के बारे में राय-मशविरा करते, खेती-बारी की चिंता करते। बच्चों की दिक्कतों को सुनने का उनके पास बिलकुल वक्त नहीं था और सारी बातें उनसे कह पाने की मेरी हिम्मत नहीं होती। इस डर से भी कि इसका पता चलने पर कहीं जीजाजी मेरी और बुरी गत न बनाएं। मेरी मां उषा प्रियंवदा की कहानी ÷वापसी' की गजाधर बाबू की पत्नी की तरह घी-चीनी के बोइयामों और मुझसे तीन साल छोटे भाई की परिचर्या में ही इस कदर मगन रहती कि उसके पास मेरे लिए बिलकुल वक्त नहीं होता। मां ने कभी यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि मेरा यह बच्चा इतना एकाकी और मौन स्वभाव का क्यों होता जा रहा है? क्यों यह अपने हमउम्र बच्चों से भी इतना अलग-थलग रहता है? खेलने-कूदने के बदले बगीचे में या गांव में किसी मचान पर अकेला और चुपचाप क्यों यह देर तक बैठा रहता है? मेरे जीजा और मां कहतीं कि यह एकदम मतिशून्य है। उन लोगों द्वारा दिए गए विशेषणों को यदि मैथिली में याद करके कहें तो अक्सर वे लोग ÷अकरकान', ÷आकाशकांकोड़' और ÷मतरसुन्न' कहा करते। मेरी मां और पिता दोनों घी, दूध और मिठाइयों को ही प्यार और स्नेह का पर्याय समझते थे और अच्छी चीजें मुझे सबसे पहले और बहनों से ज्यादा मिलती हैं यह जान कर संतुष्ट रहते थे। बेटा-बेटी का फर्क घर में साफ दिखाई देता था और यह फर्क अमूमन गांव में हर घर में दिखाई देता था, यह आज भी खत्म नहीं हुआ है। इधर इन चीजों के बावजूद मैं अपने ही घर में अवांछित और अकेला होता जा रहा थाहर तरफ बेशुमार आदमियों की मौजूदगी के बीच भी तन्हाइयों का शिकार।
उस वक्त (कमोबेश आज भी) मिथिला में जिस लड़के की शादी हो जाती वह एक तरह से ससुराल का ही स्थायी निवासी हो जाता। क्योंकि हमारे यहां गौना शादी के तुरंत बाद नहीं होता है। उसमें दो-चार साल का वक्त लगता है और जब तक गौना न हो जाए तब तक दूल्हा हफ्तों ससुराल में डेरा डाले रहता है। उम्दा भोजन और मनपसंद चीजें सिर्फ एक बोल पर हाजिर। 1982 में मेरी बड़ी बहन की शादी के बाद जीजाजी महीने में बमुश्किल एक-आध दिन ही अपने गांव में रहते। पांच साल तक, जब तक बहन का गौना नहीं हो गया, तब तक उनका स्थायी पता मेरा गांव ही रहा। परिपाटी हमारे यहां है कि दामाद को दस तरह की तरकारी, मछली, खीर, दही यानी छप्पन प्रकार का पकवान हर समय और हर हाल में चाहिएइंतजाम चाहे जैसे हो, जहां से हो। गांव की महिलाएं आज भी मौके-बेमौके कहा करती हैं कि अमीरों का हाथी और गरीबों का दामाद एक समान होता है। अर्थात्‌ अमीरों को जितना खर्च एक हाथी के भोजन में उठाना पड़ता है उतना ही गरीबों को एक दामाद के आने पर। जीजाजी चूंकि घर के स्थायी साकिन हो चुके थे इसलिए घर की आर्थिक स्थिति जर्जर होती जा रही थी। कमानेवाले घर में एक ही शख्स मेरे पिता थे और खानेवाले आठ-दस लोग। खाना अगर मोटा-झोटा चलता तो भी एक बात थी लेकिन दामाद को तो मोटा-झोटा खाना देने की कोई सोच भी नहीं सकता था! वह तो कहिए कि खेती का सहारा था, सो घर किसी तरह चल जाता था वरना एक आदमी की कमाई से क्या होता है? हां, यह जरूर है कि उन दिनों चीजें सस्ती थीं लेकिन आमदनी भी तो बहुत कम थी। मुझे याद है कि पिताजी को तब मात्रा साढ़े सात सौ रुपये मिलते थे और उसका एक हिस्सा तो वहीं मानसी में खर्च हो जाता था।
अच्छी चीजें घर में उतनी ही बनतीं जितने में जीजाजी का भोजन हो जाए। बाकी लोग उस तरह के भोजन के लिए तरसते रहते। उनके हिस्से में वैसा भोजन शायद ही कभी आता। विडम्बना यह थी कि हमारे ही घर में बनी चीजें हमें नहीं मिल पातीं। मिथिला की परिपाटी के अनुपालन में हमारी ही इच्छाओं का हमारे घर में ही कोई मोल नहीं थाआंखें बरसती रहीं और हम तरसते रहे। इन्हीं स्थितियों के बीच जीते हुए हम मानसिक रूप से पहले और शारीरिक रूप से शायद बाद में बड़े हुए। मन का घाव तन के बढ़ाव को स्वीकार ही नहीं कर पाता है। कबीर ने बिल्कुल आंखिन देखी और अनभै सांच कहा है, ÷धरती फाटे मेघ जल, कपड़ा फाटे डोर। तन फाटे की औखदी, मन फाटे नहीं ठौर।' ÷मैला आंचल' के मनफटे गांधीवादी बावनदास को ठीक उसी दिन कांग्रेसी नेता सेठ दुलारचंद कापरा ने मौत के घाट उतारा था जिस दिन उसके ÷गन्ही महतमा' का श्राद्ध था। बावनदास को जीवन बोझ लगने लगा था और मुझे भी।
हम रोज-रोज की पिटाई से नरक बन चुकी अपनी जिंदगी से तंग आकर मौत मांग रहे थे, मगर हमें मौत भी नहीं मिल रही थी। मौत के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए हमने। कई बार तालाब में डूबने की कोशिश की लेकिन हम तैरना जानते थे इसलिए अथाह पानी में जाकर तीन-चार घूंट पानी पीने के बाद ही जिंदगी का लोभ हो जाता और तैरकर बाहर आ जाते। उसके बाद आसान मौत के लिए कनेर के फूल का बीज भी पीसकर कई बार पिया लेकिन नहीं मरे। जिस दौर में लंबी जिंदगी के लिए लोग मन्नतें मांगते थे, तरह-तरह की दवाईयों का सेवन करते थेमैं मौत के लिए दिन-रात तरकीबें सोचता रहता था। आसान और शर्तिया मौत के लिए हमेशा कुछ-न-कुछ जुगाड़ करने में लगा रहता। एक बार एक लड़के को कहा कि तुम मेरा गला दबाकर मार डालो। उसे मैंने जैसा बताया था उसने पूरी ईमानदारी से उसका जब पालन करना शुरू किया तो कुछ ही देर के बाद मैं बिलबिलाने लगा। मेरी घिघियाहट और मुंह से निकलते झाग को देखकर उसने मेरा गला दबाना बंद कर दिया और बदकिस्मती ऐसी कि मैं एक बार फिर बच गया। कितनी कोशिशें की मगर सब बेकार। किसी भी तरीके से मैं मरता ही नहीं था। जिंदगी बोझ बनती जा रही थीऔर...और पिटाई सहने के लिए शायद।
जब थोड़े बड़े हुए यानी आठ साल केतभी गांव में बाढ़ आई। हमारे गांव में कभी बाढ़ नहीं आई - न 1984 से पहले, न कभी उसके बाद। 1960 से पहले जब कोशी नदी नहीं बंधी थी तब भी गांव में कभी बाढ़ नहीं आई थी, सो बुजुर्गों को भी यकीन नहीं हो रहा था कि हमारे गांव में भी कभी बाढ़ आ सकती है और कोशिकन्हा की ही तरह भीषण तबाही मचा सकती है। हमारे गांव से पश्चिम जितने गांव थे उन गांवों के लोग जल्दी-जल्दी में जो हाथ आया सो अपना माल-असबाब समेटकर भाग रहे थे। गांव के लोग उन लोगों से पूछ-पूछकर खतरे का अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे और दुर्भाग्य यह कि फिर भी सतर्क नहीं हो रहे थे। जिसे भी देखिए उसी की जुबां पर पानी का किस्सा मौजूद था लेकिन दिमाग में पानी का कोई खौफ नहीं था! गोया बाढ़ से कोई ऐसा इकरारनामा हुआ हो कि वह अपना वादा जरूर निभाएगी और मेरे गांव की ओर रुख नहीं करेगी।
मेरे गांव के बीचोबीच एक नहर है जिसके एक तरफ लोग बसे हुए हैं और दूसरी तरफ लोगों के खेत हैं। जब तक नहर नहीं बनी थी तब तक कोई सुअन्न यानी अच्छा अनाज-धान, गेहूं, दालें नहीं उपजता था। मोटा अनाज जैसे मडुआ, कुरथी, अल्हुआ (शकरकंदी) की ही उपज संभव हो पाती थी। इसके कारण उन गांवों के लोग हमारे गांव में बेटी नहीं ब्याहते जिनके यहां धान, गेहूं, मूंग और मक्के की अच्छी पैदावार होती थी। आलम यह था कि जिनके यहां धान की फसल नहीं होती उन्हें अपने बेटे के ब्याह में लड़कीवाले को दहेज देना पड़ता था। इसके बगैर बेटे का ब्याह होना ही मुमकिन नहीं था। मेरे पिता के ब्याह में दादाजी को जमीन गिरवी रखकर नानाजी को मोटा दहेज देना पड़ा था तब जाकर कहीं पिताजी की शादी हो पाई थी।
दादाजी बेहद गरीब तो थे ही, शायद बहुत बदनसीब भी थे। मेरे पिता जब छह-सात साल के रहे होंगे तभी मेरी दादी ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। छोटी बुआ तब सिर्फ डेढ़ साल की थी। पिताजी से आठ-साल बड़ी मेरी बड़ी बुआ ने बहुत मुश्किलों के बीच छोटी बुआ को पाला, बिखरते हुए घर को संभाला। बहुत गरीबी में जी रहे थे दादाजी। गरीबी ऐसी कि उसके कारण बालावस्था में ही दादाजी ने छोटी बुआ को उनसे तिगुने उम्र के फूफाजी के साथ ब्याह दिया। बड़े फूफा ने बड़ी बुआ को इतनी आजादी दी थी कि वे ससुराल छोड़कर मायके में काफी दिनों तक रहीं और अपने पिता के बिखर चुके परिवार को नए सिरे से खड़ा किया। बड़े फूफा ने ऐसे-ऐसे वक्तों में दादाजी की आर्थिक सहायता की, जब जमीन बेचने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। एक लंबे अरसे के बाद जब उनकी बड़ी बेटी यानी मेरी बुआ ससुराल जा रही थीजहां से अब साल-छह मास के बाद ही आना संभव हो सकता था। दोबारा बस चुके दादाजी के घर से बड़ी बुआ ससुराल जा रही थी, जिसने मां की मौत के बाद एक बिलट चुके परिवार को फिर से बसा दिया था...और अब जब दादाजी का परिवार संभल गया था तब उनके लिए ही उस परिवार में कोई जगह नहीं बची थी। बड़ी चाची का आगमन हो चुका था और घर में बड़ी बुआ की उपस्थिति अब महत्त्वहीन और खटकनेवाली होती जा रही थी। ÷चोखेरबाली' यानी आंखों की किरकिरी और वह भी उस घर में जिसे उन्होंने बहुत जतन से बसाया था। दादाजी ने जब यह किस्सा मुझे सुनाया था तब वर्षों बाद भी उनकी आंखों में वही बाढ़ आई थी जो शायद मेरे जन्म के पैंतालीस-पचास बरस पहले आई होगी...और दादाजी न जाने कितनी दूर तक बहते चले गये थे...और कितना कुछ बह गया था उनका कि हमें कुछ और बताने के लिए उनके पास कोई शब्द तक नहीं बचा था।
1984 का वह साल जब मेरे गांव का इतिहास और भूगोल दोनों बदल गए - धान की रोपाई हो चुकी थी। लोग निश्चिंत होकर अगहन महीने का इंतजार कर रहे थे कि अचानक कोशी बांध टूटने की खबर पूरे इलाके में फैल गई। बाढ़ तो खैर बाद में आई, अफवाह काफी पहले आ गई। जितने मुंह उतनी बातें। बातों में कितना सच होता और कितना झूठ, यह तय करना मुश्किल था। अफवाहों का बाजार गर्म था। गांव में तुलसीदास की पोथी ÷कवितावली' की यह पंक्ति, ÷कहैं लोग एक-एकन सों, कहां जाइ का करी' की बेचैनी छाई हुई थी। जिन लोगों को यह बिल्कुल यकीन नहीं होता था कि हमारे गांव में भी कभी बाढ़ आ सकती है वही सबसे ज्यादा बदहवास थे और अफरा-तफरी मचा रहे थे। आंखों में बाढ़ कैसे आती है यह तो मेरे अनुभव का हिस्सा था लेकिन गांव में बाढ़ कैसे आती है यह हमने तब तक नहीं जाना था। गांव की स्त्रिायों की आंखों में बाढ़ तो तकरीबन रोज देखता था लेकिन पुरुषों की बदहवास आंखों में भी बाढ़ मैंने उससे पहले कभी नहीं देखी। पड़ोसी गांव की एक बुढ़िया छाती पीटती हुई मेरे गांव से जा रही थीबप्पा रे बप्पा सब कुछ भस गया...तबाह हो गया सब कुछ...घरबार सब चौपट हो गया। एक भी बाल-बच्चा जिंदा नहीं बचा...। उस बुढ़िया के रुदन से पृथ्वी दलमलित होने लगी थी। उसकी करुण-कहानी मेरे गांव के आलसी और बतकुच्चन लोगों को सक्रिय करने के लिए काफी थी।
नहर के उस पार मेरी उमर के बच्चे आम के बगीचे तक गए कि वहां से बाढ़ देखेंगे। बाढ़ के बारे में उस वक्त हमें पता ही नहीं था कि यह होती क्या चीज है? बाढ़ आने से होनेवाले नुकसान का हमें कोई तर्जुबा नहीं था। गांव में अफवाह यह थी कि बाढ़ एकदम घोड़े की तरह दौड़ती आती है...फिर उसके बाद पूरी पृथ्वी जलमग्न। बाढ़ में पानी के साथ-साथ जलकुंभियों, मछलियों, सांपों, मरे हुए जानवरों और मृत लोगों की भी बाढ़ आती है। सो, मेरे बालमन में बाढ़ की चिंता से ज्यादा बाढ़ देखने की हुलस थी। हमलोग जब नहर के उस पार आम की गाछी तक पहुंचे कि भयंकर बारिश शुरू हो गई। ऐसी मूसलाधार कि लगा वास्तव में प्रलयकाल आ गया है। नानी बताती थी कि धरती पर जब बहुत पाप बढ़ जाता है तब पूरी धरती जलमग्न हो जाती है। नानी इसी जलमग्न होने को प्रलयकाल कहती थीं और हमें लगा कि वह आ चुका है। जब तक हम घर पहुंचे तब तक सारे लोग पूरी तरह भीग चुके थे। मैं भीग जाने के कारण कांपने लगा था लेकिन वैसे समय में भी मां ने मुझे कई थप्पड़ रसीद किए और फिर सामान समेटने में जुट गई। मुझे बाढ़ से ज्यादा मां की मार का खौफ सताने लगा और मैं कोशिश में रहने लगा कि यथासंभव उसकी नजर से दूर रहूं। क्या पता कब किस बात पर पिटाई हो जाए।
बाढ़ का पानी वाकई घोड़े की तरह दौड़ता हुआ आया और नहर तक आकर जमने लगा। हालत यह हो गई थी कि किसी भी क्षण कई जगहों से नहर का वजूद खत्म हो सकता था। नहर की हालत ऐसी हो गई थी कि अब टूटा। भागो...भागो... दौड़ो...जल्दी बक्सा-पेटी समेटो...भागो... भागो...की आवाज से हाहाकार मचा हुआ था। कोई किसी की बात नहीं सुन रहा था। जिसकी जो समझ में आ रहा था वही कर रहा था। बाढ़ का पानी नहर के ऊपर से बहने लगा था और तेजी से गांव की तरफ सरेसा घोड़े की तरह फर्दबाल दौड़ने लगा था।...मेरी मां ने बहनों से कहा कि घर में जितना आटा बचा है, सारा गूंथकर जल्दी-जल्दी रोटियां बना लो और जितनी तरकारी घर में बची हुई है, सारी बना लो। जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ...जल्दी-जल्दी...एकदम जल्दी। मां बहनों को निर्देश देती हुई जल्दी-जल्दी सामान समेटने में लग गई थीइतनी तेज गति से जैसे मौत आने से पहले जितनी दूर तक संभव हो भाग लिया जाए। मां अनुभवी थीं। क्योंकि जिस गांव से मां आई थी वहां बाढ़ का खतरा आज भी मेरे गांव के मुकाबले ज्यादा रहता है। वहां पहले बाढ़ बहुत आती थी इसलिए भी वह बाढ़ की विभीषिका से अच्छी तरह वाकिफ थीं लेकिन पिता बिल्कुल अनजान थे। पिता को बाढ़ का कोई इल्म नहीं था।
तब टोले में करीब-करीब सबके घर मिट्टी के ही बने थे, सो पानी के भयंकर वेग के आगे घंटे-दो-घंटे में ही धराशायी हो गए। ऊपर भयंकर मूसलाधार बारिश और नीचे लगातार बढ़ता हुआ बाढ़ का पानी..और उससे कहीं ज्यादा मेरे पिता की आंखों से गिरता हुआ। नानी शायद ठीक कहती थीं कि प्रलय इसी तरह आती है...चारों तरफ पानी-ही-पानी और हैरान-परेशान इंसान, बचने को ठौर ढूंढ़ता हुआ एकदम बदहवास। पानी का तेज वेग भीत को काटता जा रहा था। पिता को शायद अपने शरीर का वह पानी याद आने लगा था जो भीत बनाने में गिरता रहा था...तेज धूप में गीली मिट्टी के छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर खड़ी की गई भीत यानी मिट्टी की दीवार...और उस कच्ची दीवार पर बूंद-बूंद टपकता हुआ पिता की देह का गर्म...खारा पानी...। उस पानी को पसीना कहते हैं, यह मैंने तभी जाना था। उससे पहले यह जानने का कोई मौका ही नहीं आया था कि उस पानी को क्या कहते हैं। आंखों से गिरनेवाले पानी को आंसू कहते हैंयह पिता ने तब तक हमें बताया नहीं था। किस पानी को पसीना कहते हैं और किस पानी को आंसू, इसके बारे में मैंने किससे और कैसे इतना कुछ जाना यह अब ठीक से याद नहीं। जो बह गया सो बह गया...अब उसका क्या गम चाहे वह आंसू हो या पसीना।
गिरते हुए घर को पिता लाचारगी से देखते रहे। मेहनत से बनाया गया उनका घर उन्हीं आंखों के आगे नेस्तनाबूद होता रहा और वे निस्सहाय अपनी बरबादी का नजारा देखते रहे। इस दृश्य को बाद में हमने पिता की आंखों से ही देखा। क्योंकि हमलोगों को पिता ने दूसरे टोले में एक पक्के मकान में पनाह दिलवा दी थी। आठ साल की उम्र में मैंने तभी जाना कि घर से बेघर होना किसे कहते हैं? खैर, बेघर तो हम हो ही चुके थे और बेआवाज भी। हमारे पास जो भाषा थी उसमें किसी बेघर को कैसे बार-बार बेघर होना पड़ता है इसे बयान करने के लायक शब्दावली शायद नहीं थी। बार-बार मुझे अपना बक्सा और आलमारीवाला कमरा आज भी बहुत याद आता है। गांव में तब यही रिवाज था कि जो सामान जिस कमरे में रखा हो उस कमरे को उसी नाम से पुकारा जाता था। अब न आलमारी थी, न बक्सा। सारी चीजें दृश्यवत थींं उन्हें पहचान पाना बहुत मुश्किल था। छप्पर के ऊपर से पानी बह रहा था और जहां बक्सावाला कमरा हुआ करता था वहां अब जलकुंभियों पर फन काढ़े सांप बैठा हुआ था। गांव में जिसका भी घर मिट्टी का थाकिसी का घर गिरने से नहीं बच सका। बेघरबार लोग आब-ओ-दाना की खोज में भटकने लगे थे। मचान बनाने के मामले में बिल्कुल अनाड़ी मेरे पिता ने हड़बड़ी में जैसा मचान बनाया था वह बेहद कमजोर था। मचान से एक-एक करके पानी में गिरते हुए अनाज के बोरे को वे देखते रहे। दो दिनों के बाद जब हमारी रोटियां खत्म हो गईं तो मां ने ईंट जोड़कर चूल्हा बनाया और आम के सूखे पत्तों को जलाकर भात पकाया। मगर समस्या यह थी कि हमारे पास दाल-सब्जी तो क्या नमक भी नहीं था। जो नमक था वह पिछले दो दिनों से लगातार आंखों से बह रहा था-जिसे सहेजना वक्त के लिए भी मुमकिन नहीं था वैसे तो पानी हमारे चारों ओर फैला हुआ था लेकिन वह पीने के लायक नहीं था। आंखों का पानी पी-पीकर आखिर हम कब तक काम चलाते? जो पानी चारों ओर फैला था वह बेघर करने के लायक तो था लेकिन पीने के लायक नहीं। ÷पानी बिच मीन पियासी' शायद इन्हीं स्थितियों के लिए कहा जाता है।
तब सैंतीस साल की मेरी मां दो दिन में ही जैसे सत्तर साल की बुढ़िया हो गई थी। वामन भगवान की तरह जो तीन कदमों में घर और खेत के बीच की दूरी नापती थी वह बमुश्किल किसी तरह चलकर एक दुकान में नमक खरीदने गई। अभ्यस्त हाथ ने पैसे के लिए जब आंचल की खूंट को देखा और खोलना चाहा तो खूंट में हमेशा बंधा रहनेवाला सौ का नोट खूंट में तो था लेकिन होने के बावजूद उसके होने का कोई मूल्य नहीं रह गया था। बेपरवाह मां छाती भर पानी में टूटे हुए घर को देखने के लिए इतनी बार गई थी कि नोट आंचल में ही गलकर लुगदी बन चुका था। सन्‌ 1984 में सौ रुपये की एक कीमत थी और नोट की जो हालत हो गई थी उसके कारण उसकी अब कोई कीमत नहीं रह गई थी। घर में जो था वह पहले ही नष्ट हो चुका था और साथ में जो था वह साथ नहीं दे पा रहा था। मां वहीं दहाड़ें मारकर रोने लगी। उसकी रुलाई ऐसी थी जैसे आसमान फट पड़ा हो...कलेजा मुंह को आ गया हो...और साहिबो, जब मां रोने लगती है तब फिर बच्चा भी कहां चुप रहता है! हम दोनों मां-बेटे रो रहे थे और आसपास जो लोग खड़े थे वे माजरा समझने की कोशिश कर रहे थे। थोड़ी देर में दुकानदार को जब बात समझ में आई तो उसने लगभग किलो भर नमक हमें यों ही मुफ्त में दे दिया लेकिन मां ने लिया नहीं। उसने अपने जीवन में लोगों से पैंचा-उधार तो मांगा था मगर भीख के बारे में तो वह सोच भी नहीं सकती थी।
÷रसप्रिया' का पंचकौड़ी मिरदंगिया दसदुआरी होकर भी जब भीख के नाम से फुफकार उठा था तो वह तो एक किसान की बेटी थी और नौकरीपेशा आदमी की पत्नी। सबसे बड़ी बात यह कि वह खुद श्रमशील थी। किसान की बेटी हाथों का इस्तेमाल खेतों, जांता पीसने, धान कूटने, मसाला पीसने और यों कहें कि घर के कामों में करती है, भीख मांगने में नहीं। दुकानदार के लाख कहने के बावजूद मां ने नमक नहीं लिया और थके कदमों से वापस लौट चली। आगे-आगे मां और पीछे-पीछे मैं...जैसे बिक चुकी गाय के पीछे-पीछे उसका बछड़ा चलता है...पीछे छूट जाने पर बीच-बीच में हल्की दौड़ लगाता हुआ! मां हालांकि मुझे बहुत मारती थी लेकिन मैं वह सब भूल चुका था और उसके पीछे रोते हुए भागता जा रहा था...इस बात से बेखबर कि कब बाढ़ का पानी हटेगा और कब फिर से उजड़ा हुआ हमारा गांव बसेगा...फिर कब लौटकर गांव अपना होगा...हम कुछ नहीं जानते थे। मेरे दोस्त, अड़ोस-पड़ोस के लोग कहां गए थे, किस हाल में थे...हमें कुछ पता नहीं था। बस चले जा रहे थेऐसी मंजिल की ओर जिसके बारे में हमें कुछ पता नहीं था। हम रोते जाते और चलते जाते...और कभी-कभी मुड़कर पीछे देख लेते कि शायद अपना कोई हित-मित्रा या परिचित दिखाई दे जाए लेकिन हद-ए-निगाह तक आब ही आब था और हमारी आंखों में न नींद थी और न कोई ख्वाब था।
जिंदगी से नींद और ख्वाब जब दोनों चले जाएं तो बचती हैं बस यादें और यादें। किसी ग़ज+लग़ो ने ठीक ही कहा है...करोगे याद तो हर बात याद आएगी...और जब यादें आती हैं तो साहब, यकीनन हर मौज ठहर जाती है। बाढ़ तो मेरे ग़म-ए -हयात का सिर्फ एक हिस्सा भर है। बाढ़ के बाद जब लौटकर हम गांव आए तो जहां पहले तीन-चार सौ लोगों की भरी-पूरी आबादी हुआ करती थी वहां अब मिट्टी के कुछ टीले-जैसे हड़प्पाकालीन किसी भग्न नगर को देखकर उसके माज+ी का अनुमान लगा रहे हों...कहीं कोई नहीं हद-ए-निगाह तक गुबार-ही-गुबार नजर आता था...मेरा गांव रेगिस्तान बन गया था और आंखें नखलिस्तान। बाढ़ में हमने कैसे जिंदगी बसर की और कैसे लौटकर गांव आए-अगर शास्त्राीय संगीत की शब्दावली में कहें तो विलंबित कई युगों में निबद्ध है और बरसात में आज भी हर साल वही सबकुछ दोहराया जाता है।

इब्तिदा फिर वही कहानी की

कल खोई नींद जिससे मीर ने
इब्तिदा फिर वही कहानी की
वक्त मिला तो अब फिर से कुछ वक्त ब्लाग को. ब्लागियानेवाले दोस्तों से गपशप को. इधर नये सिरे से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए दिन-रात जो लोग अखबारों, मंचों पर हलकान होते रहते हैं, माला जपते रहते हैं-उनके वे चेहरे फिर-फिर देखे.लाहौल विला कुवत.

बहुत कुछ इस बीच देखा किया इस बीच...
जिया मगर अपने ढंग से, मन से इस बीच.