सोमवार, सितंबर 29, 2008

असफल राष्ट्रों के बीच भारत

पिछले कुछ सालों में जिस अनुपात में दक्षिण एशियाई देशों में राजनीतिक अस्थिरता, आतंकवाद और विध्वंसक गतिविधियां बढ़ी हैं, उसकी तह में जाने पर जो तात्कालिक और स्थानीय किस्म के कारण दिखाई देते हैं, दरअसल उसके पीछे ग्लोबल दुनिया की बड़ी-बड़ी वजहें हैं। अफगानिस्तान से खदेड़े जाने के बाद तालिबान और अल कायदा के लड़ाके जिस तरह पाकिस्तान के कई हिस्सों में अपने आप को मजबूत करके कट्टरपंथी फरमान जारी करना शुरू कर दिया है, वह एक दिन में मुमकिन नहीं हुआ है। उसकी पृष्ठभूमि शीतयुद्ध के जमाने से ही बननी शुरू हुई थी और अब वह अपना वहशी रूप उसी महाशक्ति को दिखाने लगा है, जिसने उसको कभी पैदा किया था। वह चाहे आतंक का पर्याय बन चुका अल कायदा सरगना ओसाम बिन लादेन हो या तालिबान के कई खुदमुख्तार नेता। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पहले तो इन्हें एक से एक आधुनिक हथियार और बेपहनाह डालर बांटे गए, फिर जब काम निकल गया तब इन्हें इनके हाल पर छोड़कर यह मान लिया गया कि खेल अब खत्म हो चुका है। दूसरी ओर राजनीतिक स्तर पर आर्थिक और सैनिक मदद के बहाने अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसी सरकारों को बढ़ावा दिया गया, जो अपने देश की जनता के प्रति जिम्मेदार होने के बजाए इन ताकतों के प्रति ज्यादा वफादारी दिखाए। इस वजह से जिन देशों में यह सब लोकतंत्र के आवरण में संभव नहीं था, वहां-वहां सैनिक तानाशाहों को आगे बढ़ाया गया और वे सैनिक तानाशाह अपनी जनता की जान की कीमत पर इन ताकतों के प्रति वफादारी दिखाने में तत्पर रही। यह स्थिति सिर्फ दक्षिण एशिया के ही कुछ देशों की नहीं हुई, कई अफ्रीकी देशों में भी बिल्कुल यही तरीका अपनाया गया, जिसके विरोध की कीमत नाईजीरियाई कवि केन सारो वीवा को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी और साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुके कवि वोले शोयिंका को हथियार उठाने पर मजबूर होना पड़ा। बर्मा में सैनिक तानाशाही का वर्षों से कोपभाजन बनी हुई आंग सांग सू ची के लंबे संघर्षों के बावजूद वहां लोकतंत्र की बहाली न होना, सिर्फ सेना की मजबूती नहीं है, बल्कि ऐसी सरकारों को अंतरराष्ट्रीय मदद और मान्यता देनेवाली ताकतों का इसमें बड़ा भारी योगदान है।
यह महज संयोग भर नहीं हैं कि जानी-मानी पत्रिका फॉरेन पालिसी तथा फंड फॉर पीस नामक संगठन ने दुनिया भर के असफल राष्ट्रों की जो सूची जारी की है, उसमें वही देश सबसे ऊपर हैं जिनके ऊपर हमेशा अमेरिका का आशीर्वादी हाथ सबसे ऊपर रहता था। जिन सद्दाम हुसैन और उनकी बाथ पार्टी को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक समय अमेरिका ने हर तरह से मदद की, उसने जब बढ़े हुए मनोबल की वजह से कुवैत पर चढ़ाई करने की गलती की, तो अमेरिका उसी इराक और सद्दाम हुसैन का सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा। कथित विध्वंसक हथियार रखने (जो पूरी रिपोर्ट ही बाद में फर्जी निकली) की रिपोर्ट को आधार बनाकर और लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर इराक को नेस्तनाबूद कर दिया गया। अमेरिका की तमाम कोशिशों और कथित पुननिर्माण की योजना के बाद भी आज इराक प्रतिदिन बम विस्फोट, गरीबी, अशांति झेलने के लिए अभिशप्त है और सूडान के बाद असफल राष्ट्रों की सूची में दूसरे नंबर पर है। 9/11 के तुरंत बाद जार्ज बुश ने हुंकार भरी थी कि मुझे जिंदा या मुर्दा ओसामा चाहिए। फिर ओसामा को ढूंढने के नाम पर जिस तरह अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई की गई, हालांकि वह लड़ाई वहां अभी तक जारी है, लेकिन अफगानिस्तान की स्थिति मध्य युग के किसी देश जैसी हो गई है। पाकिस्तान ने आतंकवाद से लड़ने के नाम पर जिस तरह अमेरिका के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चल रहा था, वह पाकिस्तान आज खुद आतंकवाद से सबसे ज्यादा पीडि़त है। अल्लाह, आर्मी और अमेरिका का पूरा समर्थन होने का दावा करने वाले सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ कट्टरपंथियों को धार्मिक नेताओं की आंख की किरकिरी इन वजहों से भी बने कि उन्होंने आतंकवाद की जड़ को नष्ट करने के लिए काफी प्रयास किया। वह कितना हो पाया और कितना नहीं हो पाया, इस पर बहस की जा सकती है, मगर मुशरüफ ने प्रगतिशील ताकतों को बढ़ावा देने और कट्टरपंथियों को दबाने की काफी कोशिश की। इसी कड़ी में इस्लामाबाद की लाल मस्जिद की घटना भी है, जिसमें कट्टरपंथियों के खिलाफ कमांडो कार्रवाई करने के बाद से उनका बुरा वक्त शुरू हो गया। आज पाकिस्तान में राष्ट्रपति की कुर्सी पर मुशर्रफ नहीं हैं और लाल मस्जिद को भी अब सफेद रंग से रंगकर उसकी पहचान ही मिटा दी गई है। असफल राष्ट्रों की जारी सूची का महत्व भारत के लिए न सिर्फ कूटनीतिक और रणनीतिक कारणों से बल्कि यह चिंताजनक भी है। क्योंकि पड़ोसियों की स्थिति में सुधार होने के बावजूद भारत एक-एक करके असफल राष्ट्रों से घिरता जा रहा है। पड़ोस में जब आग लगी हो और अपने देश के अंदर भी राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भड़कती हुई चिंगारियों को बुझाने और उसके कारणों को मिटाने की जरूरत हो, तब इस पर गंभीरता से विचार करना और भी जरूरी हो जाता है। असफल राष्ट्रों की सूची दरअसल विभिन्न राष्ट्रों राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य और सामाजिक मानदंडों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। इस सूची का ये अर्थ लगाया जाता है कि इन राष्ट्रों की स्थिति बदतर है और किसी भी दिन बिल्कुल असफल हो सकते हैं। इस सूची के अनुसार पहले नंबर पर सूडान है जहां पिछले दो दशक से गृहयुद्ध जैसी स्थिति है और हजारों लोग वहां मारे जा चुके हैं, जबकि दूसरे नंबर पर इराक है, जहां नील नदी खून और लाश नदी के रूप में बदल चुकी है। यह सूची भारत के लिए गंभीर चिंतन का विषय इस वजह से भी है कि अफगानिस्तान इस सूची में आठवें स्थान पर है और पाकिस्तान बारहवें पर। जबकि भारत का एकदम पड़ोसी देश बांग्लादेश इस सूची में सोलहवें स्थान पर है और बर्मा चौदहवें स्थान पर। असफल राष्ट्रों की सूची में नेपाल और श्रीलंका भी है, लेकिन नेपाल में फिलहाल स्थिति सामान्य है और वहां निर्वाचित सरकार अब कामकाज देख रही है, वहीं श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों का संघर्ष आज भी लगातार जारी है।
अल कायदा के संजाल को ध्वस्त करने के लिए अमेरिका ने जो अभियान शुरू किया था, वह अभी खत्म नहीं हुआ है और अल कायदा लगातार अपना केंद्र बदल रहा है। ऐसे में इसके मजबूत संजाल से निपटने के लिए इन असफल राष्ट्रों के कथित सरकारों के पास न कोई उपाय है और न कारगर योजना। इसलिए साउथ ब्लाक में बैठे भारतीय विदेश नीति के नियंताओं को पड़ोसी देशों से संबंधों के मामले में बेहद सतर्क और संवेदनशील रुख अख्तियार करना पड़ेगा।

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

विचारणीय आलेख.