बुधवार, अक्टूबर 01, 2008

महान कवि महमूद दरवेश की डायरी के कुछ दिलचस्प अंश

दुश्मन
एक महीना पुरानी बात है...या शायद एक बरस पुरानी हो. लगता है ये हमेशा कि बात हो और मैं वहां से कहीं और गया ही न हूं. पिछली सदी के बयासीवें साल सब कुछ वैसा ही घटा जैसे हू-ब-हू आज हमारी आंखों के सामने घट रहा है. हमें चारों ओर से घेर लिया गया था, हमारा कत्ल-ए-आम किया जा रहा था और हम थे कि इस झुलसते नर्क में भी प्रतिरोध करने से बाज नहीं आ रहे थे. शहीद और मारे गए लोग एकदम अलहदा दिखते हैं, एक-दूसरे में कोई समानता नहीं होती. हर किसी का अलग होता है धड़, चेहरा, आंखें, नाम और उम्र. पर हत्यारे तो सबके सब एक से होते हैं...बिल्कुल हमशक्ल. वे धातु की बनी मशीनों के आसपास पसर जाते हैं...उन्हें बस दबाना होता है एक बटन ही तो. कत्ल होते ही वे फौरन छिटक लेते हैं वहां से -वे सब हमें देख लेते हैं, पर हम उन्हें कहां देख पाते हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि वे कोई अदृश्य भूत-प्रेत होते हैं, न आंखें और न ही कोई खास उम्र...नाम भी नहीं कोई. वे सब...उन सभी ने अपने लिए बस एक ही नाम रखा हुआ है-दुश्मन.
शेष आगामी पोस्ट्स में जारी...
अनुवाद और चयन- यादवेंद्र

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