गुरुवार, अक्तूबर 09, 2008

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम

अहमद फराज साहब से इस्लाम-आबाद (हमलोग इस्लामाबाद कहते हैं, लेकिन पाकिस्तान में इस शहर का उच्चारण इसी तरह किया जाता है, इस्लाम-आबाद, एबट-आबाद आदि) में अंतिम बार इसी साल मई में मिला था. इस्लामाबाद बेहद शांत शहर है. पिछले आतंकवादी घटनाओं को छोड़ दें तो उस शहर में पत्ते खड़कने की आवाज भी सुनाई देती है. रोड जाम तो खैर वहां कभी लग ही नहीं सकता. तो साहिबो, इसी शांत शहर में फराज साहब ने अपना घर बनवाया और एक पांव हमेशा दुनिया के लिए उठाए रखने वाले फराज साहब का इंतकाल इसी शहर में हुआ. बीबीसी पंजाब के मेरे दोस्त अली सलमान जाफरी का मानना है कि अब पाकिस्तान में फराज साहब की कद का एक भी शायर नहीं है.


रावल डैम पर बहुत सुकून से मैं फराज साहब की बेहद मशहूर गजल मेंहदी हसन साहब की आवाज में सुन रहा था. कई बार सुन चुका हूं...पर दिल है कि कभी भरता ही नहीं....तो लीजिए आपके लिए लयबद्ध तो नहीं, शब्दबद्ध गजल पेश कर रहा हूं.....


रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ए-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फा है तो ज़माने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिंदार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

इक उम्र से हूं लज्जत-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफहम को है तुझसे उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ

2 टिप्‍पणियां:

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ए-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

बहुत अच्छी पोस्ट है...

mehek ने कहा…

कुछ तो मेरे पिंदार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

इक उम्र से हूं लज्जत-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ
bahut khub