बुधवार, अक्तूबर 08, 2008

महमूद दरवेश की डायरी के अंश की अगली कड़ी...

नीरो
जब लेबनान जल रहा था तब नीरो के मन में क्या उथल-पुथल चल रही थी? नशे से उसकी आंखें मचल रही थी...और चाल उसकी थी जैसे नर्तक कोई नशे में धुत आया हो बारात में.
ये पागलपन...मेरा पागलपन...ये सब बड़ा है किसी ज्ञान से...आग लगा फूंक दूं उन सब को जो न माने मेरा हुक्म...और बच्चे, उन पर भी वैसी ही लागू होगा मेरा अनुशासन...उन्हें भी मानने होंगे हमारे तौर-तरीके...जैसे, उन्हें जब्त करनी पड़ेंगी अपनी चीखें जब मैं गुनगुना रहा हूं अपने पसंद का कोई गीत...मेरे तान के सामने कोई कैसे चीखने की जुर्रत कर सकता है?

और क्या चल रही थी उथल-पुथल नीरो के नाम में-इस बार जब धू-धू कर जल रहा है इराक? इतिहास के वन में वह चाहता है स्थापित कर देना अपनी स्मृतियों के शिलालेख...एक से एक दमकते...जन नायकों के संहारक के तौर पर।

मेरे फरमान माने जाएंगे आज से सीधे खुदा के फरमान...अमरत्व की तमाम जड़ी-बूटियां..यही तो उगती हैं मेरे पिछबाड़े....और इस माहौल में तुम बात करते हो कविता की? आखिर ये कविता है कौन सी बला?

और क्या-क्या उथल-पुथल चल रही है नीरो के मन में-फिलिस्तीन को धधकते हुए देखकर? वे अभिभूत हैं कि करते रहें लोग सुनकर दांतों तले उंगली...पर पैंगंबरों की फेहरिस्त में शामिल कर लिया गया है उसका नाम भी। खुदा ने उसे खुद ही नियुक्त किया है कत्ल-ए-आम का महकमा देखनेवाला पैंगंबर, जिसे यह भी अधिकार दिया गया है कि पवित्र ग्रंथों में पाई जानेवाली गलतियों को करे, चाहे जिस भी तरह.

खुदा मुझसे भी करता है अक्सर बातें...कई-कई बार

और नीरो के मन में क्या-क्या चलती रहती है उथल-पुथल जब खूंखार लपटों से घिर जाती है पूरी सृष्टि?

मैं एक दिन..जब चाहूंगा...पुनर्विजित यह सृष्टि.
कैमरों को वह हुक्म देता है हुक्म कि अब बंद कर दे वह एक भी फोटो खींचना...इस बेहद लंबी अमेरिकी फिल्म के खतम होते-होते कहीं किसी को पता न चल जाए कि उसकी उंगलियों से ही सही
संचित हो रही है महाविनाश की महाविनाशकारी जलवा.
(शेष आगामी अंकों में जारी....)

अनुवाद एवं चयन-यादवेन्द्र

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