शनिवार, मार्च 29, 2008

हिंदी कृतघ्नों और कमीनों की भाषा है-त्रिलोचन

ऐसी भाषा का प्रयोग हिंदी के औघड़ और मुंहफट कवि बाबा नागार्जुन करते तो लोगों को शायद इतनी हैरत नहीं होती, लेकिन त्रिलोचन-जैसे शालीन और सहिष्णु कवि ने जब ऐसी तल्ख भाषा का प्रयोग किया है, तो उसके पीछे छिपे दर्द और आक्रोश को जाना जा सकता है। पेश है हिंदी की लघु पत्रिका कृति ओर के अंक-४७ में छपे कवि विजेन्द्र के नाम लिखे एक पत्र का अंश-



विजेन्द्र अंग्रेजी में और गहरे उतरो। भारत को आरंभ से देखो और रखो। हिंदी का ही मामला लो, फिजूल उलझाया जा रहा है। लगता है राजनीति के खिलाड़ी हिंदी को उत्तरी-दक्खिनी टीम के बीच फुटबाल बनाए रहेंगे। आज हिंदी में काम करने वालों की और भी आवश्यकता है, है-हों की जगह चुपचाप काम किया जाए। भाई इसका क्या रोना कि कद्र नहीं हुई। हिंदी कृतघ्नों और कमीनों की भाषा है-किसी में पानी नहीं। तो भी काम करना है। शायद कभी हवा बदले। कभी चेतना उग आए।
14.09.1970, बनारस

5 टिप्‍पणियां:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

किसी हद तक त्रिलोचन सही ही कह रहे हैं.

Kavita Vachaknavee ने कहा…

हिन्दी के नष्ट होने का कारण अंग्रेज़ी नहीं बल्कि हिन्दी वाले हैं, इसमें कोई बड़ी २ राय नहीं हैं| आप बड़े से बड़े नामधारी को उठा कर देख लीजिए सब के सब हीनता ग्रंथी से कुंठित ( हमारी भाषा में कहें तो जिस की पूँछ उठाओ वही गाभिन )| त्रिलोचन का ऐसा कहना हर हिन्दी के नामलेवा के सिर पर जूती है |..... और यदि निराला की याद करें तो उन्होंने प्रेमचंद विषयक अपने संस्मरणों में खुल कर हिन्दी जाति को श्राप दिया है कि इन्हें कभी सम्मान व प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त होगी क्योंकि ये ......... (अमुक-अमुक) हैं |

अनिल रघुराज ने कहा…

संदर्भ थोड़ा भिन्न है। मसला चर्चा असल में हिंदी और उर्दू की चल रही थी, तब बताते हैं कि फिराक गोरखपुरी ने कहा था - हजार लोगों (साहित्य से जुड़े) के बीच एक हिंदी वाले को खड़ा दो, मैं उस (गाली) को आसानी से पहचान लूंगा। उनका कहना था कि असली भाषा उर्दू, हिंदवी या हिंदुस्तानी है।
वैसे भी यह अजीब तथ्य है कि अंग्रेजी के प्रोफेसरों (फिराक, विजयदेव नारायण शाही, रामविलास शर्मा) ने हिंदी की बड़ी सेवा की है।

VARUN ROY ने कहा…

पराशर भाई ,
हिन्दी की समस्या ये है कि हिन्दी का विकास उनके हाथों में है जो अपने कुत्तों से भी अंग्रेजी में बोलते हैं.
मेरी एक कविता है - 'मेरी हिंगलिश कविता'. साथ में संलग्न कर रहा हूँ . आपके विचार जानना चाहूँगा.
हिंगलिश कविता
मेरी प्रयोगधर्मी कविता सुनकर
आयोजक महोदय घबड़ाये
थोडा हड़बड़ाये फिर बड़बड़ाये
ये कैसी कविता है
ये तो न हिन्दी है न इंग्लिश है
मैंने कहा जी हाँ ये हिंगलिश है ।

हिन्दी इंग्लिश का फ्यूजन है
हालांकि आलोचकों में
अभी थोडा कन्फ्यूजन है ।

रूढ़ीवादियों के लिए
मेरी कविता अधर्मी है
पर यकीन मानिये
यह विशुद्ध प्रयोगधर्मी है ।

मेरी हिंगलिश कविता
वास्तव में
कॉन्वेंटी कल्चर को अर्पित है
वी वांट हिन्दी इन इंडिया
चाहने वालों को समर्पित है ।

मेरी कविता भविष्य की
कविता है
बाद में रंग लाएगी
नयी नयी है अभी
लोगों को समझ में
नही आएगी ।

भाषा की राजनीति में
धर्मनिरपेक्षता का
प्रयोग है मेरी कविता
बहुसंख्यक हिन्दी द्वारा
अल्पसंख्यक इंग्लिश को
पटने का उत्जोग है मेरी कविता ।

मैंने आयोजक महोदय को समझाया
राजनीति का उन्हें
गुर बताया
हिन्दी बहुसंख्यक है
उसे पकडे रहेंगे
तो सांप्रदायिक कहलायेंगे
राजनीती की दौड़ में जनाब
पीछे रह जायेंगे ।

इसलिए आप भी हिंगलिश
कविता को बढावा दीजिए
हिन्दी की कविता में
इंग्लिश के शब्द घुसेडिये
और बहुसंख्यक की अस्मिता का
अल्पसंख्यक को चढावा दीजिए ।

फिर देखिए आपके जीवन में
कितने रंग भर जाते हैं
कैसे कैसे सम्मान , पुरस्कार
आपके हाथ आते हैं ।

कीमत की चिंता मत कीजिए
जिन्हें चुकानी है वो चुकायेंगे
नही चुका पाए तो
भांड में जायेंगे
अल्पसंख्यक इंग्लिश खुश रहेगी
धर्मनिरपेक्षता कायम रहेगी
यही क्या कम है
देश समाज व्यक्ति
जहन्नुम में जाये
आपको क्या गम है ।

इसलिए कहता हूँ वक्त की
नब्ज को पहचानिए
धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के
फर्क को जानिए
प्रयोगधर्मी बनिए
हिंगलिश कविता अपानायिए
और भाषा की राजनीति में
सत्ता सुख पायिए॥

वरुण राय

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

क्या बात है जिसे देखिए वही कह रहा है कि फलाने ने ऐसा कहा और ढिमकाने ने वैसा कहा क्या अब हिंदी वालों के पास इतना भी नहीं बचा कि अपने निजी आंसू बहा सकें; निराला से लेकर फ़िराक तक के आंसुओं को हम अपनी आंखों से बहा रहे हैं। भद्दी से भद्दी गाली भी मुझे हिंदी से जुड़ा होने पर अपमानित नहीं कर पाती है, लज्जारोधी हो चले हैं हम तो......