राजकमल चौधरी ने हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं में उम्दा लेखन किया। उनकी रचनाओं को एक जगह संकलन करने में कई वर्षों से लगे डा. देवशंकर नवीन ने पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ संग्रह को संपादित किया है। राजकमल चौधरी की कहानियाँ परमाणु के पर्वत के समावेश की कहानियाँ है, जो मानव-जीवन के अनछुए प्रसंगों से उठाकर लाई गई हैं, जिसमें राजकमल की सारी की सारी कहानी-कला मौजूद है और लगता ऐसा है कि इसमें कोई कला नहीं दिखाई गई हैं। जन-जीवन का सत्य ज्यों का त्यों रख दिया गया है। सच्ची घटनाएँ तो अखबारी रिपोर्टों में बयान होती हैं, कहानी में घटनाएँ सच की तरह आती है। घटनाएं सच हों, इससे ज्यादा जरूरी है कि वे सच लगें भी। राजकमल की कहानियों की यह खास विशेषता है कि वे सारी घटनाएँ सच हों या न हो, सच लगती अवश्य हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी एक मैथिली कहानी संभवतः इस कहानी को हिंदी में डा. देवशंकर नवीन ने ही अनुवाद किया है।
पात्र, प्रकाशवती, अस्पताल और अन्य प्रसंग
(हीरा के लिए लिखी गई)
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(हीरा के लिए लिखी गई)
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औरत-जो कोई भी हो-सिगरेट पीती है, तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं उसे धुआँ फेंकनेवाली मशीन समझने लगता हूँ। सुन्दर स्त्रियाँ मौसमी फूलो की तरह होती हैं, उन्हें अलग-अलग फूलदानों में सजाना चाहिए। लेकिन मैं अपने गाँव में था-मेरा गाँव कोसी नदी के पेट में है, और अब धीरे-धीरे पेट के बाहर और जंगल के बाहर निकल आने की कोशिश में है अखबार वहाँ अब भी नहीं आते, और गाँव के लोग दिन-पंजिका से मुहुर्त देखकर ही शहर की यात्रा पर निकलते हैं-और पटना-अस्पताल की मिस पी.राजम्मा मुझसे सैक़डों मील पीछे छूट चुकी थी।सिगरेट पीनेवाली औरत का कोई सवाल ही नहीं था, उस गाँव मे। मेरे घर की बगल में, दो मकानों के बाद रमानाथ बाबू रहते हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति में है। जनसंघ का करते हैं। आम चुनाव नजदीक आ गया है। जीतेगा जी जीतेगा दीपक वाला जीतेगा-एक डब्बा बिस्कुट के लिए, गाँव के बच्चे चिल्लाते हैं, कौन जानता है, कल सुबह ये बच्चे किसका नाम चिल्लाएँगे। मैं रमानाथ से बहस करता हूँ और उनके कच्चे दालान में बैठकर लिप्टन की असली चाय पीता हूँ। चाय के बारेमें अभी भी मेरे मन में थोड़ा आभिजात्य है अच्छी चाय जैस्मिन नहीं तो कम से कम लेप्चू मुझे अच्छी लगती है। बुरी चाय अच्छी नहीं लगती। लेकिन, रमानाथ के घर की चाय-लिप्टन की मुझे अच्छी लगती थी।अपने घर में भी वही चाय बनती है। लेकिन उसका फर्ज सिर्फ मुझे सुबह की नींद से जगाना है। उस चाय में सुख नहीं है एक विवशता है नींद तोड़ लेने की।जैसे पी. राजम्मा थरमस में अपने होस्टल से चाय लाती थी। यह चाय उतनी गर्म नहीं रह पाती थी, लेकिन मजबूत और आत्मविभोर करनेवाली होती थी। मैं चाय के साथ सिगरेट पीता हूँ और अपने इर्द-गिर्द अपने परिवेश अपने समाज के बारे में कोई-न-कोई फैसला लेता हूँ। अस्पताल में इससे ज़्यादा गुस्सा नहीं किया जा सकता। गुस्से का यहाँ कोई कारण नहीं है।डॉक्टर लोग आते हैं तो मुस्कुराते हैं और पीठ पर हाथ रखकर दोस्त की तरह बातें करते हैं। मैं सोचता हूँ मेरे अन्दर ज़रूर कोई ख़ास बीमारी हैं-कैंसर की तरह-जिस बीमारी की कद्र इन लोगों के दिल में है।पी. राजम्मा अपने दूसरे टर्न में छह महीनों के बाद दोबारा हमारे वार्ड में आई है। पहली बार आई थी, तब मैं होश में नहीं था। लोगों के चेहरे देखता था, बातें सुनता था, लेकिन वे कौन हैं, मुझसे उनका क्या रिश्ता है-य़ह मेरी पत्नी है, जो दिन-रात तिपाई पर मेरे सिरहाने बैठी रहती हैं-यह सुधीर है मेरा सगा भाई ओह ये मेरे दोस्त हैं-मैं उन्हें पहचान नहीं पाता था। एक बार उपाध्याय की पत्नी ने मुझसे कहा, सुबह की ड्यूटीवाली नर्स मिस राजम्मा आपकी बड़ी सेवा करती हैं। आप अच्छे हो जाएँ तो उसे जरूर कोई इनाम दूँगी,.कोई अच्छा सा प्रेजेंट जैसे कच्चे रेशम की कोई साड़ी!मैं सुबह में जगे रहकर इस दय़ालु सेविका मिस पी.राजम्मा के देखने और पहचानने की कोशिश करता हूँ कि कच्चे सिल्क में वह कोल-कन्या कैसी लगेगी। नर्से ज़्यादातर अपनी सफ़ेद और तंग वर्दी में अच्छी लगती हैं, अपनी पट्टीदार कोर की सफ़ेद धुली साडी में. सिल्क में वह कैसी दिखेगी ? नर्से भी और फौजी सिपाही भी अपनी वर्दी में ही जँजते हैं।खाकी वर्दी और बड़ी डील-डौल के जूते उतार देने पर सिपाही लोग छोटी-किस्म के बाज़ारू शोहदों की तरह दिखते हैं। उनके चेहरे पर न तो वीरता का उन्माद दिखता है और न पराक्रम का वीरोचित आग्रह। वर्दी उतार देने पर वे बीमार दिखते हैं बीमार और बेरोजगार।अपने दूसरे टर्न में छह महीने बाद जब पी.राजम्मा आई, तब तक मुझे अपने ही बी-वार्ड में पूरा एक कमरा मिल चुका था। यह दरअसल रेजीडेंट सर्जन का कमरा था, जो अक्सर बन्द रहता था और जब कोई वी.आई.पी. मरीज बी-वार्ड में आता था, तो बडे डॉक्टर के कहने से वार्ड की स्थायी स्टॉफ-नर्स बडी नाजो-अदा से हिलती-डुलती हुई, पूरे वार्ड का दायरा घूमकर इस एकान्त कमरे के पास रुकती थीं और दरवाज़ा खोलकर, चाबी मरीज़ या मरीज़ बेहोश रहा तो मरीज़ के रिश्तेदारों के हाथ में थमाकर सीधे लाइफबॉय से धुली हुई मुस्कुराहटों से अपने होंठों को लपेटकर कहती थीं, आप बहुत मैं मिनिस्टर का आदमी नहीं हूँ। मैं किसी का, किसी बनिए का भी नहीं, महन्त का भी नहीं, आदमी नहीं हूं। मैं आदमी नहीं हूँ-यही बात साबित करने के लिए मैं किताबें पढ़ता हूँ, मैं चायखानों में बैठकर दक्षिणपन्थी साम्यवाद और वामपन्थी साम्यवाद की तुलना करता हूँ मैं रोज नशा लेता हूँ मैं जब कभी कोई औरत लेता हूँ और ज़्यादातर मैं अपने कमरे में टेबल के सहारे बिस्तरे पर पड़ा हुआ, अपने बारे में और इतनी बड़ी इस सारी दुनिया के बारे में सोचता रहता हूँ-क्या होगा, और क्या होना चाहिए!बड़े शहरों में और अपने देश के गाँवों में भी एक तरह के ऐसे लोगों की बिखर हुई जमात ज़रूर होती है-ऐसी जमात जो काम या पेशे के रूप में सिर्फ़ सोचने का काम करती है। दूसरा कोई काम ऐसे लोगों को मालूम ही नहीं है। सोचना, और सिर्फ़ सोचते रहना, इसके बारे में नहीं कि उनके दिन कब पलटेंगे, कब उनकी बच्ची बड़ी होकर किसी स्कूल में नौकरी करने लगेगी या किस तरह लम्बे कर्ज में गाँव के बनिए-महाजनों के हाथ चले गए उनके खेत वापस आएँगे-यह नहीं यह सब कुछ भी नहीं सिर्फ ऊंची और बड़ी बातें कि आदमी जब ग्रहों और नक्षत्रों पर घर-दरवाजा बनाकर रहने लगेगा वैसी हालतमें अन्तर्क्षेत्रीय परिस्थितियाँ क्या होंगी, आदमी और आदमी के बीच का रिश्ता क्या होगा, कैसा होगा-और यह कि प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी अगर राजनीति (सक्रिय और सक्रिय दोनों) से संन्यास आखिर ले ही लेंगी, तो वे क्या करेंगी, उनका खाली वक्त कैसे कटेगा-और यह भी कि प्रकाशवती हर दिन दोपहर में भगवती-धाम क्यों जाती है, इतनी कोमल है वह, इतनी गोरी है कि धूप में साँवली हो जाएगी...ऐसे लोग हर शहर में और हर गाँव में होते हैं, कही अकेले और कहीं इनकी पूरी की पूरी एक जमात होती है।रमानाथ ऐसे लोगों में नहीं है। वे अपने आप में अकेले रहते हैं, लेकिन वे सोचते नहीं। करते हैं। एक छोटी सी रूटीन में अपनी पूरी जिन्दगी को समेटकर वे अपना काम अकेले किए जाते हैं चाहे वह अपने दालान के सामने जनसंघ का भगवा झंडा गाड़ने की बात हो, या अपने बीमार बैल को जानवर-अस्पताल ले जाने की बात। प्रकाशवती उनकी सगी छोटी बहन का नाम है। और वह नाम मेरे लिए किसी बड़े उपन्यास की बड़ी नायिका का नाम है किसी बेनाम गाँव की किसी बेनाम स्त्री का नाम नहीं है।स्त्रियों के नाम मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं स्त्रियाँ। चन्द स्त्रियों ने ही मेरी रचना-प्रतिभा यानी अपने परिवेश की रचना के लिए, आवश्यक प्रतिभा को अपना अभिमान दिया है। प्रकाशवती पी. राजम्मा अलका दासगुप्ता..स्त्रियाँ जहां होते हैं अनायास। अनायास वह एक स्त्री प्रकाशवती सुबह के वक्त मेरे दालान की बडी खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है और पूछती हैं, गाँव से वापस जा रहे हैं ? अब यहाँ से जी भर गया ? यहां के लोगों से ?’’प्रकाशवती अर्थात् रमानाथ ठाकुर की बहन अपने भाई की ही तरह चिन्ताहीन है, वह सोचने का काम नहीं करती। वह सीधी अपने मकान से निकलती है और चुपचाप मेरे दालान की खिड़की पर चली आती है। उसे अन्दर बुला लेने का साहस मुझमें नहीं है। एक चितकबरी गौरैया बार-बार दीवार मं लगी कार्ल मॉर्क्स की बड़ी तस्वीर पर बैठना चाहती हैं, और बार-बार कमरे में उड़ती हुई बाहर निकल जाने की कोशिश करती है।खिड़की की जाफरी में प्रकाशवती का चेहरा फ्रेम में बंधे, किसी तस्वीर के चेहरे जैसा लगता हैउसकी बाँहें और उसके कंधे हथकरघे की लाल पीली धारीदार साड़ी में छिपे हुए हैं। लेकिन, वह मुस्कुरा नहीं रही है। वह उदास है।-ऐसा नहीं हो सकता ? ऐसा होता कि...-ऐसा क्या होता ?-ऐसा नहीं हो सकता कि आप दस दिन बाद बाहर जाएँ ? होली में अब गिनती के दिन रह गए हैं।-मैं किसी से होली नहीं खेलता।-भाभी से भी नहीं ?-नहीं।-लेकिन, चला जाना,...हमेशा केलिए चला जाना क्या इतना ज़रूरी है ?-अगस्त में ? अर्थात् आप अभी के गए, सावन-भादों में गाँव आएँगे ?-इरादा तो यही है।-आप दस दिन रुक नहीं सकते ?-क्या लाभ होगा ?-किसी की बात रह जाएगी, यही लाभ होगा।-किसकी बात रह जाएगी ?-किसी की !लेकिन, किसकी बात रह जाएगी, यह बताए बग़ैर प्रकाशवती की तस्वीर खिड़की के फ्रेम से गायब हो गई। किसी की बात रह जाएगी-यह कहकर प्रकाश शरमाने लगी थी। कोई भी मामूली सा सच कह लेने के बाद खुश होकर निवृत्त होकर औरतें शऱमाती हैं। यह शर्म गलत नहीं है, लेकिन कविता नहीं है। ऐसी शर्म में सुन्दरता नहीं होती, एक हल्के किस्म का नंगापन होता है। लेकिन, अपना नंगापन कह लेने के बाद वे या तो सिर झुकाकर फैसले की प्रतीक्षा करने लगती हैं, या फिर अपनी जीत का एलान करके वहाँ से चली जाती हैं, फिर कभी वहीं वापस आने के लिए। वापस आ जाना स्त्रियों की विवशता है। प्रकाशवती को किसी-न-किसी वक्त लौट आना ही होगा।
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हितेन्द्र शाम को गिंसबर्ग की महफिल में घोषणा करता है,बड़ी मालकिन हम सभी लोगों पर गुस्सा है ! कहती हैं, किसी-न-किसी दिन वे खुद इस डाक बँगले पर आएँगी और शतरंज के सारे मोहरे अपने साथ उठा ले जाएंगी। न रहेंगे मोहरे और नहीं बजेगी शतरंज की बाजी!’’‘बाजी नहीं बाजा! न रहेंगे मोहरे और नहीं बजेगा शतरंज का बाजा,किन्तु, वह हमेशा सामने नहीं होती। आँगन में खुलनेवाला बड़ा दरवाज़ा उसकी सीमा है। इसके बाहर वह पाँव नहीं डालती। सिर्फ सूचनाएँ जमा रखती हैं। बाहर की दुनिया की सूचनाएँ ही उसे जीने के लिए पर्याप्त उत्सुकता और जीवन-रस देती हैं। वह जो बात देख नहीं पाती उसे सुन लेती है। सुनने का सुख भी देखने और छूने के सुख की तरह ही पहले दर्जे का सुख है। इस सुख से बँधी हुई है मेरी स्त्री और मेरे परिवार की सभी दूसरी स्त्रियाँ।
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