शुक्रवार, अक्टूबर 10, 2008

तो क्या यही जिंदगी है?


दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिसमें ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है.

(विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी 'लस्ट फ़ॉर लाइफ़' से)



ठीक यही बात मेरे दिमाग में कौंध रही है कि जीने के लिए एक आदमी को आखिर कितना पैसा चाहिए? हां, जीवन हर आदमी के जीने का तरीका अलग होगा, जीवन-शैली अलग होगी और सोचने-समझने का तरीका अलग-अलग होगा। संभव है कि कोई बेहद कम साधनों में ही खुशी-खुशी जीवन जी रहा हो, परिवार के साथ, दोस्तों के साथ मजे में हो, तो कोई अरबों रूपये पाकर भी लगातार नाखुश हो. दिन-रात हाय पैसा...हाय पैसा में लगा हुआ हो कमाने के लिए पचास तिकड़में भिड़ा रहा हो...जीवन से, अपने आप से असंतुष्ट. ऐसे में फिर वही सवाल आदिम सवाल कि बुनियादी जरूरतें जब बेहतर तरीके से पूरी हो जाती हों तब और...और कितना सही है?

अपनी चाहत के लिए वक्त न हो, अपने तरीके से जीवन नहीं जी पा रहे हों, इच्छा और दिलचस्पी के विरूद्ध की चाकरी में दिन-रात लगे हों और काम के बाद का वक्त नींद के अलावा परिवार तक को न दे पा रहे हों तो फिर अपनी ही लाश का खुद सवार आदमी ही तो है.

युधिष्ठिर ने सुख के सात कारक तत्व बताए हैं वह एक भी तो नहीं है जीवन के इस ढर्रे में. बकौल एक शायर-

न मरने पर ही काबू न जीने का ही इम्कां है
हकीकत में इन्हीं मजबूरियों का नाम इंसां है.

तो क्या यही जिंदगी है? इसी तरह गीली लकड़ी की तरह चिट-चिट करके खतम हो जाना ही हमारी नियति है??

गुरुवार, अक्टूबर 09, 2008

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम

अहमद फराज साहब से इस्लाम-आबाद (हमलोग इस्लामाबाद कहते हैं, लेकिन पाकिस्तान में इस शहर का उच्चारण इसी तरह किया जाता है, इस्लाम-आबाद, एबट-आबाद आदि) में अंतिम बार इसी साल मई में मिला था. इस्लामाबाद बेहद शांत शहर है. पिछले आतंकवादी घटनाओं को छोड़ दें तो उस शहर में पत्ते खड़कने की आवाज भी सुनाई देती है. रोड जाम तो खैर वहां कभी लग ही नहीं सकता. तो साहिबो, इसी शांत शहर में फराज साहब ने अपना घर बनवाया और एक पांव हमेशा दुनिया के लिए उठाए रखने वाले फराज साहब का इंतकाल इसी शहर में हुआ. बीबीसी पंजाब के मेरे दोस्त अली सलमान जाफरी का मानना है कि अब पाकिस्तान में फराज साहब की कद का एक भी शायर नहीं है.


रावल डैम पर बहुत सुकून से मैं फराज साहब की बेहद मशहूर गजल मेंहदी हसन साहब की आवाज में सुन रहा था. कई बार सुन चुका हूं...पर दिल है कि कभी भरता ही नहीं....तो लीजिए आपके लिए लयबद्ध तो नहीं, शब्दबद्ध गजल पेश कर रहा हूं.....


रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ए-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फा है तो ज़माने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिंदार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

इक उम्र से हूं लज्जत-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफहम को है तुझसे उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ

बुधवार, अक्टूबर 08, 2008

महमूद दरवेश की डायरी के अंश की अगली कड़ी...

नीरो
जब लेबनान जल रहा था तब नीरो के मन में क्या उथल-पुथल चल रही थी? नशे से उसकी आंखें मचल रही थी...और चाल उसकी थी जैसे नर्तक कोई नशे में धुत आया हो बारात में.
ये पागलपन...मेरा पागलपन...ये सब बड़ा है किसी ज्ञान से...आग लगा फूंक दूं उन सब को जो न माने मेरा हुक्म...और बच्चे, उन पर भी वैसी ही लागू होगा मेरा अनुशासन...उन्हें भी मानने होंगे हमारे तौर-तरीके...जैसे, उन्हें जब्त करनी पड़ेंगी अपनी चीखें जब मैं गुनगुना रहा हूं अपने पसंद का कोई गीत...मेरे तान के सामने कोई कैसे चीखने की जुर्रत कर सकता है?

और क्या चल रही थी उथल-पुथल नीरो के नाम में-इस बार जब धू-धू कर जल रहा है इराक? इतिहास के वन में वह चाहता है स्थापित कर देना अपनी स्मृतियों के शिलालेख...एक से एक दमकते...जन नायकों के संहारक के तौर पर।

मेरे फरमान माने जाएंगे आज से सीधे खुदा के फरमान...अमरत्व की तमाम जड़ी-बूटियां..यही तो उगती हैं मेरे पिछबाड़े....और इस माहौल में तुम बात करते हो कविता की? आखिर ये कविता है कौन सी बला?

और क्या-क्या उथल-पुथल चल रही है नीरो के मन में-फिलिस्तीन को धधकते हुए देखकर? वे अभिभूत हैं कि करते रहें लोग सुनकर दांतों तले उंगली...पर पैंगंबरों की फेहरिस्त में शामिल कर लिया गया है उसका नाम भी। खुदा ने उसे खुद ही नियुक्त किया है कत्ल-ए-आम का महकमा देखनेवाला पैंगंबर, जिसे यह भी अधिकार दिया गया है कि पवित्र ग्रंथों में पाई जानेवाली गलतियों को करे, चाहे जिस भी तरह.

खुदा मुझसे भी करता है अक्सर बातें...कई-कई बार

और नीरो के मन में क्या-क्या चलती रहती है उथल-पुथल जब खूंखार लपटों से घिर जाती है पूरी सृष्टि?

मैं एक दिन..जब चाहूंगा...पुनर्विजित यह सृष्टि.
कैमरों को वह हुक्म देता है हुक्म कि अब बंद कर दे वह एक भी फोटो खींचना...इस बेहद लंबी अमेरिकी फिल्म के खतम होते-होते कहीं किसी को पता न चल जाए कि उसकी उंगलियों से ही सही
संचित हो रही है महाविनाश की महाविनाशकारी जलवा.
(शेष आगामी अंकों में जारी....)

अनुवाद एवं चयन-यादवेन्द्र

बुधवार, अक्टूबर 01, 2008

महान कवि महमूद दरवेश की डायरी के कुछ दिलचस्प अंश

दुश्मन
एक महीना पुरानी बात है...या शायद एक बरस पुरानी हो. लगता है ये हमेशा कि बात हो और मैं वहां से कहीं और गया ही न हूं. पिछली सदी के बयासीवें साल सब कुछ वैसा ही घटा जैसे हू-ब-हू आज हमारी आंखों के सामने घट रहा है. हमें चारों ओर से घेर लिया गया था, हमारा कत्ल-ए-आम किया जा रहा था और हम थे कि इस झुलसते नर्क में भी प्रतिरोध करने से बाज नहीं आ रहे थे. शहीद और मारे गए लोग एकदम अलहदा दिखते हैं, एक-दूसरे में कोई समानता नहीं होती. हर किसी का अलग होता है धड़, चेहरा, आंखें, नाम और उम्र. पर हत्यारे तो सबके सब एक से होते हैं...बिल्कुल हमशक्ल. वे धातु की बनी मशीनों के आसपास पसर जाते हैं...उन्हें बस दबाना होता है एक बटन ही तो. कत्ल होते ही वे फौरन छिटक लेते हैं वहां से -वे सब हमें देख लेते हैं, पर हम उन्हें कहां देख पाते हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि वे कोई अदृश्य भूत-प्रेत होते हैं, न आंखें और न ही कोई खास उम्र...नाम भी नहीं कोई. वे सब...उन सभी ने अपने लिए बस एक ही नाम रखा हुआ है-दुश्मन.
शेष आगामी पोस्ट्स में जारी...
अनुवाद और चयन- यादवेंद्र