मंगलवार, मई 29, 2007

हिंदी साहित्य की पत्रिकाओं में इन दिनों ऐसे-ऐसे तेजस्वी संपादकों का आगमन हो रहा है कि वे अपनी कथित टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए खुद भी नंगई पर उतर आए हैं और प्रतिष्ठित लेखकों को भी अपनी लंपटता से परेशान कर रहे हैं. इस तथाकथित साहित्यिक युद्ध में अमानवीयता का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. क्या यही है मनुष्य के साथ खड़े होने वाले साहित्य का मानवीय पक्ष?

बुधवार, मई 16, 2007

ये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिल


आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर और उर्दू के बेहद मकबूल शायर मिर्जा असादुल्ला खाँ ग़ालिब उर्फ मिर्जा गालिब के बिना गदर की कोई कहानी पूरी नहीं होती लेकिन इस समय हिंदी और उर्दू के आलिम-ओ-फाजिल जिस नुक्त-ए-नजर से शायद उस दौर को देखने की जहमत नहीं उठा रहे हैं. जफर न सिर्फ एक अच्छे शायर थे बलि्क मिजाज से भी बादशाह कम, एक शायर ज्यादा थे. मुगल सल्तनत के आखिरी ताजदार बहादुरशाह जफर अपनी एक गजल में फरमाते हैं-

या मुझे अफ़सरे-शाहाना बनाया होता

या मेरा ताज गदायाना बनाया होता

अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने

क्यों ख़िरदमंद बनाया न बनाया होता

यानी मुझे बहुत बड़ा हाकिम बनाया होता या फिर मुझे सूफ़ी बनाया होता, अपना दीवाना बनाया होता लेकिन बुद्धिजीवी न बनाया होता. भारत के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के 150 साल पूरे होने पर जहाँ बग़ावत के नारे और शहीदों के लहू की बात होती है वहीं दिल्ली के उजड़ने और एक तहज़ीब के ख़त्म होने की आहट भी सुनाई देती है. ऐसे में एक शायराना मिज़ाज रखने वाले शायर के दिल पर क्या गुज़री होगी जिस का सब कुछ ख़त्म हो गया हो. बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने मरने को जीते जी देखा और किसी ने उन्हीं की शैली में उनके लिए यह शेर लिखा:
न दबाया ज़ेरे-ज़मीं उन्हें, न दिया किसी ने कफ़न उन्हें

न हुआ नसीब वतन उन्हें, न कहीं निशाने-मज़ार है
बहादुर शाह ज़फ़र ने दिल्ली के उजड़ने को भी बयान किया है. पहले उनकी एक ग़ज़ल देखें जिसमें उन्होंने उर्दू शायरी के मिज़ाज में ढली हुई अपनी बर्बादी की दास्तान लिखी है:
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्ते ग़ुबार हूं

मेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया

जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया, मैं उसी की फ़स्ले-बहार हूं

पढ़े फ़ातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों

कोई आके शमा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूं

मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जांफ़ज़ा, मुझे सुन के कोई करेगा क्या

मैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं,
बहादुर शाह ज़फ़र ने अपनी एक और ग़ज़ल में अपने हालात को इस तरह पेश किया है:
पसे-मरग मेरे मज़ार पर जो दिया किसी ने जला दिया

उसे आह दामने-बाद ने सरे-शाम ही से बुझा दिया

मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ऐ परी

वो जो तेरा आशिक़े-ज़ार था, तहे-ख़ाक उसके दबा दी

यादमे-ग़ुस्ल से मेरे पेशतर, उसे हमदमों ने ये सोच कर

कहीं जावे उसका न दिल दहल, मेरी लाश पर से हटा दिया

मैंने दिला दिया मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र की

किसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों से उड़ा दिया
दिल्ली के हालात को दर्शाते हुए उनके कुछ शेर इस प्रकार हैं:
नहीं हाले-दिल्ली सुनाने के क़ाबिल

ये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिल

उजाड़े लुटेरों ने वो क़स्र उसके

जो थे देखने और दिखाने के क़ाबिल

न घर है न दर है, रहा इक ज़फ़र है

फ़क़त हाले-देहली सुनाने के क़ाबिल
एक और ग़ज़ल में लिखते हैं:
न था शहर देहली, ये था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन

जो ख़िताब था वो मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
एक और ग़ज़ल में लिखते हैं:
क्या ख़िज़ां आई चमन में हर शजर जाता रहा

चैन और मेरे जिगर का भी सबर जाता रहा

क्या खुशी हर इक को थी, कर रहे थे सब दुआ

जब घुसी फ़ौजे नसारा हर असर जाता रहा

क्यों न तड़पे वो हुमा अब दाम में सय्याद के

बैठना दो दो पहर अब तख़्त पर जाता रहा

रहते थे इस शहर में शम्सो-क़मर हूरो-परी

लूट कर उनको कोई लेकर किधर जाता रहा

आगूं था ये शहर दिल्ली अब हुआ उजड़ा दयार

क्यों ज़फ़र ये क्या हुआ यौवन किधर जाता रहा
सुफ़ियाना और देसी रंग में डूबी हुई उनकी मनोस्थिति और हालात को दिखलाती हुई एक ग़ज़ल है:
कौन नगर में आए हम कौन नगर में बासे हैं

जाएंगे अब कौन नगर को मन में अब हरासे हैं

देस नया है भेस नया है, रंग नया है ढ़ंग नया है

कौन आनंद करे है वां और रहते कौन उदासे हैं

क्या क्या पहलू देखे हमने गुलशन की फुलवारी में

अब जो फूले उसमें फूल, कुछ और ही उसमें बासे हैं

दुनिया है ये रैन बिसारा, बहुत गई रह गई थोड़ी सी

उनसे कह दो सो नहीं जावें नींद में जो नंदासे हैं
दिल्ली से अपने विदा होने को बहादुर शाह ज़फ़र ने इन शब्दों में बांधा है:
जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चले

बतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चले

न बाग़बां ने इजाज़त दी सैर करने की

खुशी से आए थे रोते हुए चमन से चले
निर्वासन के दौरान बहादुर शाह ज़फ़र के हालात को दर्शाती उनकी इस मशहूर ग़ज़ल के बिना कोई बात पूरी नहीं होगी:
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में

किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में

बुलबुल को बाग़बां से न सय्याद से गिला

क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में

कहदो इन हसरतों से कहीं और जा बसें

इतनी जगह कहां है दिले दाग़दार में

एक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां

कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार में

उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन

दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में

दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई

फैला के पांव सोएंगे कुंजे मज़ार में

कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए

दो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कूए-यार में

शनिवार, मई 05, 2007

आख़िर यह किसकी दुनिया है?

दुनिया भर की सरकारों के प्रतिनिधियों और वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट को प्रकाशित कर दिया है. इस रिपोर्ट में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे नया कहा जा सके. न ऐसा कुछ है जिसकी आशंका पहले न जताई गई हो. जो बात नई है वह यह कि अब तक जो आशंकाएँ जताई जा रही थीं वो धरातल पर दिखने लगी हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले दिनों में पानी का संकट होगा, फसलें चौपट हो जाएँगी और तरह-तरह की बीमारियाँ फैलेंगी. अगर पारा इसी तरह चढ़ता रहा और औसत तापमान डेढ़ से ढाई प्रतिशत बढ़ गया तो 20 से 30 प्रतिशत वनस्पतियाँ और जानवरों की प्रजातियाँ ख़त्म हो जाएँगी.
पानी की किल्लत झेलने वाले देश अफ़्रीका के होंगे. बारिश के पानी से होने वाली फसल 50 फीसदी कम हो जाएगी. वह भी अफ़्रीकी देशों में. फसल की पैदावार कम होगी मध्य और दक्षिण एशिया में. ज़ाहिर है बीमारियाँ भी इन्हीं देशों में फैलेंगी. जब सब आँकड़े बता रहे हों कि भुगतेंगे वो जो वास्तव में जलवायु परिवर्तन के दोषी कभी नहीं थे. तो रिपोर्ट में इसे स्वीकार भी करना पड़ा. इस रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग के बहाने से एक पुराने सवाल को फिर से कुरेद दिया है कि आख़िर यह दुनिया किसकी है और किसके लिए है?
इसे कौन नहीं जानता कि पिछली दो सदियों में प्रदूषण के लिए मूल रुप से कौन ज़िम्मेदार रहा है? जो उद्योग पर उद्योग लगाते चले गए और विकसित देश बन गए उनका नाम इस रिपोर्ट में पीड़ितों की सूची में नहीं है. नाम उनका है जो ग़रीब हैं और अगर गरीबी से थोड़ा उबरे हैं तो अभी भी विकसित नहीं हुए हैं. विकासशील हैं. वो पहली और दूसरी दुनिया में नहीं गिने जाते वो तीसरी दुनिया के देश कहलाते हैं. निश्चित रुप से यह रिपोर्ट और ऐसी कई रिपोर्टें तीसरी दुनिया के देशों के लोगों को तकलीफ़ पहुँचाती है. लेकिन क्या यह तकलीफ़ उन्हें संवेदनशील भी बनाती है? शायद नहीं. जैसी वैश्विक समाज में ग़रीब देशों की स्थिति है वैसी ही तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीब लोगों की है.
क्या यह सच नहीं है कि सीवरों और नालियों का रास्ता रोकने वाला कचरा कोई और जमा करता है लेकिन उससे आई बाढ़ झुग्गियों और निचली बस्तियों में रहने वाले लोग झेलते हैं? सड़कों पर धुँआ कारें उगलती हैं और दमे से लेकर टीबी तक के शिकार वो लोग होते हैं जो या तो बसों में सफ़र करते हैं या फिर जिन्हें बस का सफ़र भी नसीब नहीं. दिल्ली में यमुना प्रदूषित हो गई तो किसे फ़र्क पड़ रहा है. कार वाले यमुना के पुल तक पहुँचते-पहुँचते शीशे चढ़ा लेते हैं ताकि सड़ाँध से बच सकें लेकिन उनका क्या जिनके लिए यमुना का पानी ही निस्तारी का एक मात्र साधन था? चाहे दिल्ली हो या मुंबई या लखनऊ या पटना. अमीर या धनी समाज को लगता है कि अगर उसे सहना नहीं पड़ रहा है तो वह चिंता भी क्यों करे? और अगर चिंता करता भी है तो अपनी ग़लती सुधारने की जहमत कभी नहीं उठाता. न उनकी किसी को चिंता है और न वे ख़बर बनते-बनाते हैं. भारत जैसे देश में भी क्रिकेट की शीर्ष संस्था की बैठक तो पहली ख़बर होती है लेकिन दुनिया भर के ग़रीबों की पीड़ा 'डाउन-मार्केट' ख़बर होने के नाते भीतर के पन्नों में औपचारिक ख़बर बनी रह जाती है.
तो फिर अफ़्रीकी देश भुगतें, दक्षिण एशियाई देश सहें तो इससे पश्चिमी देशों को क्योंकर तकलीफ़ होने लगी? उन्हें न्यूऑर्लियान्स में आई भयानक बाढ़ और फ़्राँस की भयानक गर्मी और यूरोप का तूफ़ान अभी भी अपवाद की तरह लगता है. ग़रीब, चाहे लोग हों, समाज हो या फिर देश, उसका प्रारब्ध ही सहना है.
यह कौन सी दुनिया है और किसकी दुनिया है और यह दुनिया ऐसी है क्यों?