मंगलवार, मार्च 23, 2010

विधवा ब्राह्मण महिलाओं को कितना जानते हैं आप?

हम भारतीय घर से बाहर निकलते ही अक्सर इतने शुचितावादी और नैष्ठिक होने लगते हैं कि यह तो लगभग भूल ही जाते हैं कि हमारी स्वाभाविक जिंदगी इन चीजों के कारण अस्वाभाविक और अप्राकृतिक हो जाती है. ....और दूसरों पर उंगली उठाने और राय बनाने में तो हमारी जल्दबाजी का जवाब नहीं. मेरे गांव की एक जवान विधवा यहां दिल्ली आकर कुछ करना चाहती है...नौकरी...घरेलू दाई का काम...मेहनत-मजदूरी का कोई भी काम जिससे अपना और एक बच्ची का पेट पल जाए. मगर उस विधवा ब्राह्मणी को आज की तारीख में भी दोबारा शादी करने की इजाजत नहीं है. उसे क्या किसी भी विधवा को आज भी मिथिला के ब्राह्मण समाज में पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है. गांव में मेहनत-मजदूरी करने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं, क्योंकि इससे गांव के अलंबरदार ब्राह्मणों की नाक कटेगी....अफसोसनाक बात यह है कि इन नाजुक नाक वालों की नजर उसके शरीर पर तो है...मगर उसके पेट और उसकी नीरस, बेरंग जिंदगी पर बिल्कुल नहीं.
परसों फोन पर वह मुझसे नौकरी मांग रही थी....और मैं कुछ इस तरह हां...हां किए जा रहा था जैसे नौकरी मेरी जेब में रहती है और उसके दिल्ली आते ही वह नौकरी मैं उसे तत्काल जेब से निकालकर दे दूंगा्...बाल-विधवा उस निरक्षर महिला की आकुलता और आगत जीवन की चिंता में इतना डूबता चला गया मैं. उसके दिल्ली की और नौकरी की असली स्थिति बताकर उसे और हताश करना मुझे अपराध-सा लगने लगा था...

बिहार से मजदूरों का पलायन हो रहा है- यह एक तथ्य है. और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि बिहार के गांवों में मेहनत-मजदूरी का काम गैर ब्राह्मण वर्ग की स्त्रियां करती हैं...शुरू से करती रही हैं और आज भी करती हैं. मगर गरीब रिक्शाचालक ब्राह्मण की बीवी कोई मेहनत मजदूरी का काम नहीं कर सकती. इस मामले में और गांवों की क्या स्थिति है यह तो मैं नहीं जानता, मगर अपने जिले के अनेक गांवों में यही तथ्य आज ही यथावत देखखर लौटा हूं-ब्राह्मण की पत्नी जनेऊ बनाकर, चरखा कातकर धनोपार्जन करती है, मगर गांव के अन्य जातियों की महिलाओं की तरह मेहनत-मजदूरी करने की उन्हें सामाजिक इजाजत नहीं है.
उस विधवा ने मुझसे कहा कि यदि दिन भर मैं भी खेतों में काम कर सकती हूं, मेहनत-मजदूरी कर सकती हूं और देखिये न अब तो इसमें अपने यहां भी सौ-सवा सौ रोज की मजदूरी गांव में ही मिलती है. मगर नहीं, यह सब करने से हमारे समाज के ब्राह्मणों का पाग (खास मैथिल टोपी) गिरता है.


उस महिला को यदि गांव में ही मजदूरी करने दी जाए तो दिल्ली स्लम होने से बचेगी...गांव उजड़ने से बचेगा...हम उसके अथाह दुख के सागर में डूबने और झूठ बोलने से बचेंगे और श्रम से अर्जित धन की शक्ति से उस विधवा महिला का जीवन भी उतना दुखमय नहीं रहेगा, फिलहाल जितना है.

बुधवार, मार्च 17, 2010

हत्या औऱ आत्महत्या से बचा स्त्री का जीवन


बनारस औऱ मथुरा में विधवा आश्रम में विधवाओं के जीवन और जीवन-चर्या से जो लोग परिचित हैं उन्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं. पढी-लिखी और कमाऊ औरतें भी पति से पिटती हैं और उसे पति का प्यार बताती हैं. ऐसा सिर्फ अपने देश में ही नहीं होता. अमेरिकी और इंग्लिश औरतें भी खूब पिटती हैं और वह भी तब जब वे आर्थिक रूप से सबला हैं और भारत के मुकाबले उनका सशक्तिकरण भी ज्यादा हुआ है.


परसों कनाट प्लेस में राजीव चौक के मेट्रो स्टेशन के पास किसी का इंतजार कर रहा था. चौबीस-पच्चीस साल का एक लड़का औऱ बाईस-तेइस साल की बेहद खूबसूरत लड़की गलबहियां डाले खड़े-से थे. दिल्ली में और खास तौर पर कनाट प्लेस में ऐसा दृश्य लगभग आम है. इसमें कोई नई या अनोखी बात नहीं. मगर मैंने देखा दो मिनट के बाद लड़की कहीं जाने के लिए ल़ड़के से इसरार कर रही थी, जो जिद में बदलने लगी और लड़की उस लड़के का हाथ पकड़कर आटो की तरफ खींचने लगी। लड़का सख्ती से मना कर रहा था...मगर लड़की इसरार किए जा रही थी. अचानक लड़के दनादन लड़की को थप्पड़ मारना शुरू कर दिया. लड़की पिट रही थी... थोड़ा रो भी रही थी मगर पिटने का विरोध नहीं कर रही थी. पुलिस की जिप्सी आकर रुकी. पुलिस वाले ने लड़की से पूछा कि लड़का उसे पीट क्यों रहा है....इस पर लड़की खामोश रही ....मगर लड़़के ने कहा आप जाओ...ये हमारा आपस का मामला है। पुलिस की जिप्सी तत्काल वहां से रवाना हो गई. मगर उस पिटती हुई लड़की की तस्वीर मेरे जेहन में बार-बार आ ही जाती है.

पिटने का मामला और खास तौर पर औरतों के पिटने का...बड़ा पुराना है....लगभग आदिम राग है....

राज्य कोई भी हो गरीब और असहाय औरतों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। राज्य अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो और उसका शहर मुजफ्फरनगर हो तो पूरे देश में सबसे ज्यादा प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्या करने वाले जिले के सेहरा अपने सिर पर बांधता है....और राज्य अगर हरियाणा हो तो खाप पंचायतें दो बच्चों के मां-बाप बने जाने वाले व्यक्ति को भी भाई-बहन की तरह रहने का फरमान सुना देती है। तमाम मानवाधिकार आयोग, गृह मंत्रालय औऱ राज्य सरकार इन पंचायतों के सामने असहाय नजर आती है। इसी राज्य के बहादुरगढ़ जैसे कस्बाई शहर को कन्या भ्रूण हत्या करने में खास महारत हासिल है.

बिहार और झारखंड में कुलीनता की हिंसा से बचा जीवन डायन बताकर खत्म कर दिया जाता है। सरेआम गरीब औऱ विधवा औऱत को डायन बताकर विष्ठा पीने को मजबूर किया जाता है, बाल खींच-खींचकर पीटा जाता है और निर्ममता पूर्वक मार डाला जाता है. हत्या औऱ आत्महत्या से बचा स्त्री का जीवन इसी तरह मर्दो के संसार में बीतता है.

बुधवार, मार्च 10, 2010

ये साथ निभाता रहे मरते दम तक....

एरमा बोमबेक्क (१९२७-१९९६) अमेरिका की बेहद लोकप्रिय हास्य लेखिका मानी जाती हैं. गरीब परिवार में जनमी एरमा को घरेलू स्थितियों को केंद्र में रख कर हास्य रचनाएँ लिखने का शौक बचपन से ही था, जो बाद में इतना लोकप्रिय हुआ कि वे दुनिया में सबसे ज्यादा छपने वाली स्तंभकार बन गयीं. ..अपनी लोकप्रियता के शिखर पर उनके कॉलम अकेले अमेरिका और कनाडा के नौ सौ अख़बारों में हफ्ते में दो बार छपा करते थे और उनके पाठकों की संख्या कोई तीन करोड़ आंकी गयी थी. इसके अलावा उन्होंने टीवी के लिए खूब कम किया और १५ किताबें भी छपीं जो सभी बेस्टसेलर्स रहीं. शादी के बाद डॉक्टरों ने उन्हें बच्चा जनने में अक्षम घोषित कर दिया, इसीलिए उन्होंने एक बेटी गोद ली..पर आसानी से किसी बात से हार न मानने वाली एरमा बाद में दो बेटों की वास्तविक माँ भी बनीं.अमेरिका में स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिलाने की लड़ाई में वे अग्रणी भूमिका में रहीं,इसी कारण उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति की परामर्श दात्री समिति का सदस्य भी बनाया गया.

एरमा ने ज्यादा कवितायेँ तो नहीं लिखी हैं पर उनकी कुछ प्रेरणात्मक कवितायेँ बहुत लोकप्रिय हैं.बहुतेरे कविता संकलनों में शामिल उनकी प्रस्तुत कविता उस समय लिखी गयी जब गुर्दे की असाध्य बीमारी से जूझती हुई वे आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अगर एक बार फिर से जीने को मिलता

अगर एक बार फिर से जीने को मिलता
तो बीमार होने पर मैं बिस्तर पर दुबक के आराम करती..
और इस गफलत में तो कतई न रहती
कि एक दिन मेरे काम न करने से
ये पृथ्वी छोड़ देगी
अपनी धुरी पर गोल गोल घूमना..


मैं गुलाब जैसी दिखने वाली मोमबत्ती जलाती जरुर
जो पड़े पड़े गर्मी से पिघल के
होने लगी थी बदशकल..

मैं खुद बतियाती काम
और सुनती दूसरों कि ज्यादा से ज्यादा
आए दिन दोस्तों को डिनर पर जरूर बुलाया करती
चाहे कालीन दागो दाग
और सोफा बदरंग ही क्यों न दिखता रहता...

करीने से सजी धजी बैठक में
पालथी मार के बैठी बैठी खाती पॉप कोर्न..
इसकी ज्यादा परवाह नहीं करती
कि फायेर प्लेस में आग जलाने से
इधर उधर उड़ने बिखरने लगती है राख...

दादा जी के जवानी के बेसिर-पैर के
धाराप्रवाह बतंगड़ को सुनने को
बगैर कोताही बरते देती ढेर सारा समय...

चाहे झुलसाने वाली गर्मी हो
तब भी चढाने को न कहती कार का शीशा
और अच्छी तरह सजे संवारे बालों को
उड़ उड़ कर बिखरने देती बे तरतीब...

घास से लग जाने वाले धब्बों की चिंता किये बगैर
बच्चों के साथ लान में पसर कर बैठती
और खूब बैठा करती...

टीवी देखते हुए कम और जीवन को निहारते हुए ज्यादा
रोया करती जार जार
फिर अचानक हंस पड़ती
बे साख्ता...

कुछ खरीदने को जाती
तो यह विचार मन में बिलकुल न लाती
कि इस पर मैल न जमे कभी
या कि ये साथ निभाता रहे मरते दम तक ही...

मैं कभी नहीं करती कामना
अपने गर्भ के आनन् फानन में निबट जाने की
और एकएक पल का आनंद
इस एहसास के साथ लेती
कि मेरी कोख में पल रहा यह अद्भुत प्राणी
ईश्वर के चमत्कार में हाथ बंटाने का
मेरे सामने इकलौता और आखिरी मौका है..

बच्चे जब अचानक पीछे से आते
और चूम लेते मेरे गाल
तो ये भूल के भी न कहती:
अभी नहीं...बाद में..

अभी हटो यहाँ से..
और हाथ धो कर आ जाओ खाना खाने की मेज पर...
मेरे जीवन में खूब सघन होकर तैरते होते
आई लव यू और आई एम सॉरी जैसे तमाम जुमले..
अगर एक बार फिर से जीवन
जीने को मिल जाता तो...

मैं पकड़ लूंगी एक एक पल को
देखूंगी..निहारूंगी..जियूंगी..
और बिसारुंगी तो कभी नहीं..

छोटी छोटी बातों पर छोडो पसीना बहाना
इसकी भी ज्यादा फ़िक्र मत करो
कि तुम्हे कौन करता है पसंद कौन ना पसंद
किसके पास क्या है...कितना है..
या कौन कौन कर रहा है क्या क्या..

प्यार करने वाले सभी लोगों के साथ के
साझेपन का आनंद चखो...
उन तमाम चीजों के बारे में ठहर कर सोचो
जिनसे ईश्वर ने हमें समृद्ध किया है..

ये भी जानने की कोशिश करो
कि क्या कर रहे हो
अपनी मानसिक,शारीरिक
भावनात्मक और आध्यात्मिक बेहतरी के लिए..

जीवन इतना खुला और अ-सीमित भी नहीं
कि इसको यूँ ही फिसलता हुआ गुजर जाने देते रहें..
बस ये तो एक आखिरी मौका है
इकलौता मौका
एक बार जब ये बीत गया
तो समझो बचेगा नहीं कुछ शेष...

मेरी दुआ है
आप सबके आज पर
हुमक कर बरसे ईश्वर की कृपा...


-चयन और अनुवाद- यादवेन्द्र

शुक्रवार, मार्च 05, 2010

जहाँ से मिट जाएँ सभी तरह के डर...

इब्तिसाम बरकत फिलिस्तीन मूल के उन सक्रिय मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और रचनाकारों में शामिल हैं जिन्होंने अपने जन्म स्थान से बल पूर्वक विस्थापन का दंश बचपन में झेला है..जेरुसलम के पास के एक गाँव में जनमी बरकत को तीन साल की उम्र में ही १९६७ का अरब-इस्राएल युद्ध देखना पड़ा और अपना जन्मस्थान छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. अपने इस अनुभव को उन्होंने अपने बहुचर्चित संस्मरण में प्रस्तुत किया है-उनका कहना है कि सिर्फ छह दिन तक चले इस युद्ध में दो लाख से ज्यादा फिलिस्तीनी लोगों को अपना जन्म स्थान छोड़ने को मजबूर होना पड़ा.फिलिस्तीन देश के नक़्शे से मिटा दिए जाने के बाद उनको इस्राएल का नागरिक बन के स्नातक तक कि पढाई वेस्ट बैंक में करनी पड़ी,पर आगे की पढाई के लिए वे अमेरिका आ गयीं .वहां रहते हुए उन्होंने कई तरह के कम किये--अध्यापन से लेकर पत्रकारिता और लेखन तक. वे दुनिया भर में होने वाले मानव अधिकार हनन का विरोध करने के साथ साथ युद्धों का भी मुखर विरोध करती हैं.उन्होंने भाषाओँ की नैतिकता और वंचित लोगो की आपबीती रिकॉर्ड करने के नए नए प्रयोग किये हैं.अरब देशों और इस्राएल की जनता के बीच साझा रचनात्मक सेतु बनाने की उनकी कोशिशों को भरपूर सराहना मिली है. यहाँ प्रस्तुत है उनकी दो छोटी कवितायेँ, जिसे बड़े यादवेन्द्र जी ने ख्वाब का दर के लिए फराहम कराया है. चयन और अनुवाद उन्हीं का है.

फिलिस्तीन

इब्तिसाम बरकत

ऑफिस में सामान मुहय्या कराने वाले स्टोर का
पुराने सामान की सेल वाला बही खाता खंगालते हुए
मैं तय्यारी कर रही हूँ
कि खरीद लूँ दुनिया ---
एक अदद ग्लोब
बस पचास डॉलर का ही तो है
विक्रेता कहता है १९५ देश खरीद लीजिये
बस पचास डॉलर में..

मैं सोचती हूँ:
इसका मतलब तो ये हुआ
कि कुल जमा पचीस सेंट का पड़ा एक देश..
क्या मैं आपको दूँ एक डॉलर
तो आप इस ग्लोब में शामिल कर लोगे
फिलिस्तीन?

आप इसको किस जगह रखना चाहती हैं?
उसने पलट के पूछा...
जहाँ जहाँ भी रहते हैं
फिलिस्तीनी...

पेंसिल

पत्थर की मस्जिद
पेंसिल की मानिंद खड़ी है
हमारे गाँव के बीचो बीच
युक्लिप्टस के दरख्तों से भी
ऊँची...
इसकी मीनारें
गुनगुनाती रहती हैं
आसमान के कानों में
जब तक लोग देते नहीं जवाब...
यहाँ आते ही हम
जूते चप्पल खोल के
खड़े हो जाते हैं
इबादत करने को लाइन बना कर...

हम दुआ मांगते हैं
कि जहाँ से मिट जाएँ तमाम लड़ाईयां ...
मिटा दो...मिटा दो....
हम दुआ मांगते हैं
कि जहाँ से मिट जाएँ सभी तरह के डर...
मिटा दो...मिटा दो...

हर रोज की इबादत में
हम यही दुहराते रहते हैं
बार बार....
कि हर किसी को आशीष मिले
अमन चैन का....