मंगलवार, अप्रैल 29, 2008

काशी में शवों का हिसाब हो रहा है

हिंदी के बेहद संवेदनशील (यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि उनकी मौत ब्रेन हैमरेज से हुई थी।) और चर्चित कवि श्रीकांत वर्मा ने दार्शनिक अंदाज में अपने बेहद लोकप्रिय कविता-संग्रह मगध में लिखा था-

काशी में शवों का हिसाब हो रहा है
किसी को जीवितों के लिए फुर्सत नहीं
जिन्हें है,
उन्हें जीवित और मृत की पहचान नहीं।


मगर इन दिनों वहां जो स्थति है वह बेहद भयावह है। जिंदगी लील रही गर्मी के चलते मणिकर्णिका घाट व हरिश्चंद्र घाट पर दाह संस्कार के लिए आने वाले शवों की तादाद में बढ़ोतरी हो गई है। मणिकर्णिका घाट पर पिछले कुछ दिनों से औसत से 15-20 फीसदी अधिक शवदाह संस्कार के लिए लाए जा रहे हैं। इसमें से कई लोगों की मौत की वजह गर्मी व लू ही बताई जा रही है। लू किन्हें लगती है, उन्हें जो ए.सी. कमरों में बैठकर देश को चलाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभाते हैं? या उन्हें जो दो जून की रोटी के लिए सड़क रिक्शा खींचते हैं, ईंट ढोते हैं?


फिलवक्त मुद्दा वहां मौत क्यों हो रही है से छिटककर इस पर केंद्रित हो रहा है कि इन घाटों पर बिकनेवाली कच्ची लकड़ी के दाम में 30 रुपये प्रति मन और पक्की लकड़ी के दाम में 80 रुपये प्रति मन की बढ़ोतरी हो चुकी है। हरिश्चंद्रघाट पर भी रोजाना पांच से दस शव अधिक लाए जा रहे हैं। संख्या में बढ़ोतरी की वजह गर्मी ही बताई जा रही है। हरिश्चंद्र घाट पर सप्ताहभर पहले 170 रुपये मन बिकने वाली लकड़ी का भाव 205-210 पहुंच चुका है। इन मुद्दों के बीच असली सवाल दबाये जा रहे हैं और अवांतर प्रसंगों के सहारे अखबार निकाले जा रहे हैं, राजनीति की जा रही है। दुख यही है कि शवों का हिसाब रखनेवाले लोगों के पास जीवितों के लिए बिल्कुल फुर्सत नहीं। जीवित जब कुछ नहीं बोलते तब-

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्‍न कर हस्‍तक्षेप करता है-
मनुष्‍य क्‍यों मरता है?

गुरुवार, अप्रैल 24, 2008

अशोक जी दे गए जीवन भर का शोक!

अशोक शास्त्री नहीं रहे। आज सुबह (24.04.2008 को) दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका देहांत हो गया।

जनसत्ता से लंबे समय तक जुड़े रहे अशोक जी इन दिनों जयपुर में रह रहे थे और घर पर रहकर स्वाध्याय कर रहे थे, बरसों से लंबित काम निबटा रहे थे। रांगेय राघव की एकमात्र पुत्री से उनका ब्याह हुआ था, पर इसका कभी जिक्र तक वे नहीं करते थे। इसको लेकर के शायद उनके मन में कहीं-न-कहीं यह संकोच भी रहा हो कि लोग कहीं यह आरोप उनके ऊपर चस्पां न कर दें कि वे इस संबंध का कोई लाभ लेना चाहते हैं।


इस टेलीफोनिक युग में भी वे पत्र लिखा करते थे। चार दिन पहले उनका कोरियर से पत्र मिला था, साथ में उन्होंने दो स्केच भी बनाकर भेजा था। अशोक जी इतनी जल्दी और इस तरह चुपचाप दुनिया से रुख्सत हो जाएंगे, शायद उनके किसी शुभेच्छु को दूर-दूर तक भी आशंका न थी। आह, अशोक जी...2003 के बाद फिर मिलना भी न हो सका।

सोमवार, अप्रैल 21, 2008

क्या आप जानते हैं लतिका रेणु को?


कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु को सब जानते हैं। मैला-आंचल को बहुतों ने पढ़ा है। तीसरी कसम फिल्म बहुत सारे सिने प्रेमियों ने देखी हैं...मगर हिरामन जैसे पात्र के रचयिता रेणु जी की महुवा घटवारिन लतिका रेणु को शायद कम लोग जानते हैं। हालांकि रेणु जी के लिए जिन्होंने तन-मन-धन और पूरा जीवन उत्सर्ग कर दिया उन्हें शायद ज्यादा जानना चाहिए था, मगर हम कुछ कारणों से उन्हें नहीं जानते।



रेणु जी जब पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में लंबी बीमारी से जूझ रहे थे, तब वहां तत्कालीन नर्स लतिका जी ने उनकी बड़ी सेवा की थी। लतिका जी बंगाली हैं और रेणु जी का बांग्ला भाषा पर भी उतना ही अधिकार था जितना कि हिंदी पर। वे लतिका जी से बांग्ला में ही बात करते थे। भाषा की निकटता ने मरीज और नर्स को वास्तविक रुप से भी एक-दूसरे के नजदीक ला दिया। रेणु जी शादीशुदा थे, पहले से ही उनके कई बच्चे थे, बावजूद इसके उन्होंने लतिका जी से दूसरी शादी की। लतिका जी ने रेणु जी के लिए सब कुछ उत्सर्ग कर दिया। यहां तक जिस मातृत्व को औरत की पूर्णता से जोड़कर देखा जाता है, लतिका जी ने उसकी भी तिलांजलि दे दी, क्योंकि वे जानती थीं कि रेणु जी के पहली पत्नी से कई बच्चे हैं। वही बच्चे इनके भी बच्चे होंगे। दुर्योग से वे इनके बच्चे तो साबित नहीं ही हो पाए, अलबत्ता दुश्मन जरूर हो गए।



अपनी किताबों का कॉपीराइट भी रेणु जी ने अपने बड़े बेटे पद्मपराग राय वेणु को दे दिया। आज लतिका जी के पास मामूली पेंशन है, एक छोटा-सा मकान है-जिसे हथियाने की पूरी कोशिश कर चुके हैं पद्मपराग राय वेणु और अपना बच्चा तो खैर कोई है ही नहीं। पटना के राजेन्द्र नगर मोहल्ले के एक छोटे से फ्लैट में आज नितांत एकाक जीवन जी रही लतिका जी बेहद भुखमरी के दौर से गुजर रही हैं। कोई उन्हें देखनेवाला नहीं है, न समाज, न सरकार और न रेणु जी के प्रशंसक।

गुरुवार, अप्रैल 10, 2008

क्या लामा हमारी तरह ही रोते हैं पापा ?

तिब्बत को लेकर इन दिनों दुनिया भर में जिस तरह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, वह तिब्बतियों के भीतर सुलग रहे ज्वालामुखी का फट पड़ने की तरह है। मगर जो चीन आज भी भारत की हजारों वर्गमील जमीन पर अवैध रूप से कब्जा किये बैठा है, जो हमारे देश के अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरुणाचल प्रदेश का दौरा करने के लिए विरोध जताता है, जो चीन सिक्किम को भी अपना ही एक अंग मानता है और रात के दो बजे भारत के राजदूत को अपने विदेश मंत्रालय में तलब कर लेता है और हमारे आका की तरह हमें ही हमारे देश के पंद्रह शहरों की सूची सौंपता है कि यहां तिब्बती लोग विरोध कर सकते हैं, वह चीन महत्व की दृष्टि से हमें क्या समझता है, यह आसानी से समझा सकता है। इधर केन्द्र की सत्ता में बैठे शिखंडियों और वृहन्नलाओं ने यह घोषणा की है कि ओलंपिक मशाल मार्च के दौरान दिल्ली में उसी तरह की चाक-चौबंद व्यवस्था होगी, जैसी गणतंत्र दिवस के दरम्यान दिल्ली में होती है।


यहां पेश हिंदी के लोकप्रिय कथाकार और कवि उदय प्रकाश की कविता `तिब्बत´ । इस कविता को आज से 28 वर्ष पहले, 1980 में `भारत भूषण अग्रवाल´ पुरस्कार दिया गया था।



तिब्बत


तिब्बत से आये हुए

लामा घूमते रहते हैं

आजकल मंत्र बुदबुदाते



उनके खच्चरों के झुंड

बगीचों में उतरते हैं

गेंदे के पौधों को नहीं चरते



गेंदे के एक फूल में

कितने फूल होते हैं

पापा ?



तिब्बत में बरसात

जब होती है

तब हम किस मौसम में

होते हैं ?



तिब्बत में जब तीन बजते हैं

तब हम किस समय में

होते हैं ?



तिब्बत में

गेंदे के फूल होते हैं

क्या पापा ?



लामा शंख बजाते है पापा?

पापा लामाओं को

कंबल ओढ़ कर

अंधेरे में

तेज़-तेज़ चलते हुए देखा हैकभी ?



जब लोग मर जाते हैं

तब उनकी कब्रों के चारों ओर

सिर झुका कर

खड़े हो जाते हैं लामा



वे मंत्र नहीं पढ़ते।


वे फुसफुसाते हैं ....तिब्बत..तिब्बत ...

तिब्बत - तिब्बत....तिब्बत -

तिब्बत - तिब्बत

तिब्बत-तिब्बत ....तिब्बत ..........



तिब्बत -तिब्बत

तिब्बत .......और रोते रहते हैं

रात-रात भर।


क्या लामा

हमारी तरह ही

रोते हैं

पापा ?

शनिवार, अप्रैल 05, 2008

तुम तो अद्भुत व्यक्ति थे, चौधरी राजकमल-नागार्जुन

राजकमल चौधरी ने हिंदी और मैथिली दोनों भाषाओं में उम्दा लेखन किया। उनकी रचनाओं को एक जगह संकलन करने में कई वर्षों से लगे डा. देवशंकर नवीन ने पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ संग्रह को संपादित किया है। राजकमल चौधरी की कहानियाँ परमाणु के पर्वत के समावेश की कहानियाँ है, जो मानव-जीवन के अनछुए प्रसंगों से उठाकर लाई गई हैं, जिसमें राजकमल की सारी की सारी कहानी-कला मौजूद है और लगता ऐसा है कि इसमें कोई कला नहीं दिखाई गई हैं। जन-जीवन का सत्य ज्यों का त्यों रख दिया गया है। सच्ची घटनाएँ तो अखबारी रिपोर्टों में बयान होती हैं, कहानी में घटनाएँ सच की तरह आती है। घटनाएं सच हों, इससे ज्यादा जरूरी है कि वे सच लगें भी। राजकमल की कहानियों की यह खास विशेषता है कि वे सारी घटनाएँ सच हों या न हो, सच लगती अवश्य हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी एक मैथिली कहानी संभवतः इस कहानी को हिंदी में डा. देवशंकर नवीन ने ही अनुवाद किया है।



पात्र, प्रकाशवती, अस्पताल और अन्य प्रसंग
(हीरा के लिए लिखी गई)
1
औरत-जो कोई भी हो-सिगरेट पीती है, तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं उसे धुआँ फेंकनेवाली मशीन समझने लगता हूँ। सुन्दर स्त्रियाँ मौसमी फूलो की तरह होती हैं, उन्हें अलग-अलग फूलदानों में सजाना चाहिए। लेकिन मैं अपने गाँव में था-मेरा गाँव कोसी नदी के पेट में है, और अब धीरे-धीरे पेट के बाहर और जंगल के बाहर निकल आने की कोशिश में है अखबार वहाँ अब भी नहीं आते, और गाँव के लोग दिन-पंजिका से मुहुर्त देखकर ही शहर की यात्रा पर निकलते हैं-और पटना-अस्पताल की मिस पी.राजम्मा मुझसे सैक़डों मील पीछे छूट चुकी थी।सिगरेट पीनेवाली औरत का कोई सवाल ही नहीं था, उस गाँव मे। मेरे घर की बगल में, दो मकानों के बाद रमानाथ बाबू रहते हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति में है। जनसंघ का करते हैं। आम चुनाव नजदीक आ गया है। जीतेगा जी जीतेगा दीपक वाला जीतेगा-एक डब्बा बिस्कुट के लिए, गाँव के बच्चे चिल्लाते हैं, कौन जानता है, कल सुबह ये बच्चे किसका नाम चिल्लाएँगे। मैं रमानाथ से बहस करता हूँ और उनके कच्चे दालान में बैठकर लिप्टन की असली चाय पीता हूँ। चाय के बारेमें अभी भी मेरे मन में थोड़ा आभिजात्य है अच्छी चाय जैस्मिन नहीं तो कम से कम लेप्चू मुझे अच्छी लगती है। बुरी चाय अच्छी नहीं लगती। लेकिन, रमानाथ के घर की चाय-लिप्टन की मुझे अच्छी लगती थी।अपने घर में भी वही चाय बनती है। लेकिन उसका फर्ज सिर्फ मुझे सुबह की नींद से जगाना है। उस चाय में सुख नहीं है एक विवशता है नींद तोड़ लेने की।जैसे पी. राजम्मा थरमस में अपने होस्टल से चाय लाती थी। यह चाय उतनी गर्म नहीं रह पाती थी, लेकिन मजबूत और आत्मविभोर करनेवाली होती थी। मैं चाय के साथ सिगरेट पीता हूँ और अपने इर्द-गिर्द अपने परिवेश अपने समाज के बारे में कोई-न-कोई फैसला लेता हूँ। अस्पताल में इससे ज़्यादा गुस्सा नहीं किया जा सकता। गुस्से का यहाँ कोई कारण नहीं है।डॉक्टर लोग आते हैं तो मुस्कुराते हैं और पीठ पर हाथ रखकर दोस्त की तरह बातें करते हैं। मैं सोचता हूँ मेरे अन्दर ज़रूर कोई ख़ास बीमारी हैं-कैंसर की तरह-जिस बीमारी की कद्र इन लोगों के दिल में है।पी. राजम्मा अपने दूसरे टर्न में छह महीनों के बाद दोबारा हमारे वार्ड में आई है। पहली बार आई थी, तब मैं होश में नहीं था। लोगों के चेहरे देखता था, बातें सुनता था, लेकिन वे कौन हैं, मुझसे उनका क्या रिश्ता है-य़ह मेरी पत्नी है, जो दिन-रात तिपाई पर मेरे सिरहाने बैठी रहती हैं-यह सुधीर है मेरा सगा भाई ओह ये मेरे दोस्त हैं-मैं उन्हें पहचान नहीं पाता था। एक बार उपाध्याय की पत्नी ने मुझसे कहा, सुबह की ड्यूटीवाली नर्स मिस राजम्मा आपकी बड़ी सेवा करती हैं। आप अच्छे हो जाएँ तो उसे जरूर कोई इनाम दूँगी,.कोई अच्छा सा प्रेजेंट जैसे कच्चे रेशम की कोई साड़ी!मैं सुबह में जगे रहकर इस दय़ालु सेविका मिस पी.राजम्मा के देखने और पहचानने की कोशिश करता हूँ कि कच्चे सिल्क में वह कोल-कन्या कैसी लगेगी। नर्से ज़्यादातर अपनी सफ़ेद और तंग वर्दी में अच्छी लगती हैं, अपनी पट्टीदार कोर की सफ़ेद धुली साडी में. सिल्क में वह कैसी दिखेगी ? नर्से भी और फौजी सिपाही भी अपनी वर्दी में ही जँजते हैं।खाकी वर्दी और बड़ी डील-डौल के जूते उतार देने पर सिपाही लोग छोटी-किस्म के बाज़ारू शोहदों की तरह दिखते हैं। उनके चेहरे पर न तो वीरता का उन्माद दिखता है और न पराक्रम का वीरोचित आग्रह। वर्दी उतार देने पर वे बीमार दिखते हैं बीमार और बेरोजगार।अपने दूसरे टर्न में छह महीने बाद जब पी.राजम्मा आई, तब तक मुझे अपने ही बी-वार्ड में पूरा एक कमरा मिल चुका था। यह दरअसल रेजीडेंट सर्जन का कमरा था, जो अक्सर बन्द रहता था और जब कोई वी.आई.पी. मरीज बी-वार्ड में आता था, तो बडे डॉक्टर के कहने से वार्ड की स्थायी स्टॉफ-नर्स बडी नाजो-अदा से हिलती-डुलती हुई, पूरे वार्ड का दायरा घूमकर इस एकान्त कमरे के पास रुकती थीं और दरवाज़ा खोलकर, चाबी मरीज़ या मरीज़ बेहोश रहा तो मरीज़ के रिश्तेदारों के हाथ में थमाकर सीधे लाइफबॉय से धुली हुई मुस्कुराहटों से अपने होंठों को लपेटकर कहती थीं, आप बहुत मैं मिनिस्टर का आदमी नहीं हूँ। मैं किसी का, किसी बनिए का भी नहीं, महन्त का भी नहीं, आदमी नहीं हूं। मैं आदमी नहीं हूँ-यही बात साबित करने के लिए मैं किताबें पढ़ता हूँ, मैं चायखानों में बैठकर दक्षिणपन्थी साम्यवाद और वामपन्थी साम्यवाद की तुलना करता हूँ मैं रोज नशा लेता हूँ मैं जब कभी कोई औरत लेता हूँ और ज़्यादातर मैं अपने कमरे में टेबल के सहारे बिस्तरे पर पड़ा हुआ, अपने बारे में और इतनी बड़ी इस सारी दुनिया के बारे में सोचता रहता हूँ-क्या होगा, और क्या होना चाहिए!बड़े शहरों में और अपने देश के गाँवों में भी एक तरह के ऐसे लोगों की बिखर हुई जमात ज़रूर होती है-ऐसी जमात जो काम या पेशे के रूप में सिर्फ़ सोचने का काम करती है। दूसरा कोई काम ऐसे लोगों को मालूम ही नहीं है। सोचना, और सिर्फ़ सोचते रहना, इसके बारे में नहीं कि उनके दिन कब पलटेंगे, कब उनकी बच्ची बड़ी होकर किसी स्कूल में नौकरी करने लगेगी या किस तरह लम्बे कर्ज में गाँव के बनिए-महाजनों के हाथ चले गए उनके खेत वापस आएँगे-यह नहीं यह सब कुछ भी नहीं सिर्फ ऊंची और बड़ी बातें कि आदमी जब ग्रहों और नक्षत्रों पर घर-दरवाजा बनाकर रहने लगेगा वैसी हालतमें अन्तर्क्षेत्रीय परिस्थितियाँ क्या होंगी, आदमी और आदमी के बीच का रिश्ता क्या होगा, कैसा होगा-और यह कि प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी अगर राजनीति (सक्रिय और सक्रिय दोनों) से संन्यास आखिर ले ही लेंगी, तो वे क्या करेंगी, उनका खाली वक्त कैसे कटेगा-और यह भी कि प्रकाशवती हर दिन दोपहर में भगवती-धाम क्यों जाती है, इतनी कोमल है वह, इतनी गोरी है कि धूप में साँवली हो जाएगी...ऐसे लोग हर शहर में और हर गाँव में होते हैं, कही अकेले और कहीं इनकी पूरी की पूरी एक जमात होती है।रमानाथ ऐसे लोगों में नहीं है। वे अपने आप में अकेले रहते हैं, लेकिन वे सोचते नहीं। करते हैं। एक छोटी सी रूटीन में अपनी पूरी जिन्दगी को समेटकर वे अपना काम अकेले किए जाते हैं चाहे वह अपने दालान के सामने जनसंघ का भगवा झंडा गाड़ने की बात हो, या अपने बीमार बैल को जानवर-अस्पताल ले जाने की बात। प्रकाशवती उनकी सगी छोटी बहन का नाम है। और वह नाम मेरे लिए किसी बड़े उपन्यास की बड़ी नायिका का नाम है किसी बेनाम गाँव की किसी बेनाम स्त्री का नाम नहीं है।स्त्रियों के नाम मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए महत्त्वपूर्ण हैं स्त्रियाँ। चन्द स्त्रियों ने ही मेरी रचना-प्रतिभा यानी अपने परिवेश की रचना के लिए, आवश्यक प्रतिभा को अपना अभिमान दिया है। प्रकाशवती पी. राजम्मा अलका दासगुप्ता..स्त्रियाँ जहां होते हैं अनायास। अनायास वह एक स्त्री प्रकाशवती सुबह के वक्त मेरे दालान की बडी खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है और पूछती हैं, गाँव से वापस जा रहे हैं ? अब यहाँ से जी भर गया ? यहां के लोगों से ?’’प्रकाशवती अर्थात् रमानाथ ठाकुर की बहन अपने भाई की ही तरह चिन्ताहीन है, वह सोचने का काम नहीं करती। वह सीधी अपने मकान से निकलती है और चुपचाप मेरे दालान की खिड़की पर चली आती है। उसे अन्दर बुला लेने का साहस मुझमें नहीं है। एक चितकबरी गौरैया बार-बार दीवार मं लगी कार्ल मॉर्क्स की बड़ी तस्वीर पर बैठना चाहती हैं, और बार-बार कमरे में उड़ती हुई बाहर निकल जाने की कोशिश करती है।खिड़की की जाफरी में प्रकाशवती का चेहरा फ्रेम में बंधे, किसी तस्वीर के चेहरे जैसा लगता हैउसकी बाँहें और उसके कंधे हथकरघे की लाल पीली धारीदार साड़ी में छिपे हुए हैं। लेकिन, वह मुस्कुरा नहीं रही है। वह उदास है।-ऐसा नहीं हो सकता ? ऐसा होता कि...-ऐसा क्या होता ?-ऐसा नहीं हो सकता कि आप दस दिन बाद बाहर जाएँ ? होली में अब गिनती के दिन रह गए हैं।-मैं किसी से होली नहीं खेलता।-भाभी से भी नहीं ?-नहीं।-लेकिन, चला जाना,...हमेशा केलिए चला जाना क्या इतना ज़रूरी है ?-अगस्त में ? अर्थात् आप अभी के गए, सावन-भादों में गाँव आएँगे ?-इरादा तो यही है।-आप दस दिन रुक नहीं सकते ?-क्या लाभ होगा ?-किसी की बात रह जाएगी, यही लाभ होगा।-किसकी बात रह जाएगी ?-किसी की !लेकिन, किसकी बात रह जाएगी, यह बताए बग़ैर प्रकाशवती की तस्वीर खिड़की के फ्रेम से गायब हो गई। किसी की बात रह जाएगी-यह कहकर प्रकाश शरमाने लगी थी। कोई भी मामूली सा सच कह लेने के बाद खुश होकर निवृत्त होकर औरतें शऱमाती हैं। यह शर्म गलत नहीं है, लेकिन कविता नहीं है। ऐसी शर्म में सुन्दरता नहीं होती, एक हल्के किस्म का नंगापन होता है। लेकिन, अपना नंगापन कह लेने के बाद वे या तो सिर झुकाकर फैसले की प्रतीक्षा करने लगती हैं, या फिर अपनी जीत का एलान करके वहाँ से चली जाती हैं, फिर कभी वहीं वापस आने के लिए। वापस आ जाना स्त्रियों की विवशता है। प्रकाशवती को किसी-न-किसी वक्त लौट आना ही होगा।
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हितेन्द्र शाम को गिंसबर्ग की महफिल में घोषणा करता है,बड़ी मालकिन हम सभी लोगों पर गुस्सा है ! कहती हैं, किसी-न-किसी दिन वे खुद इस डाक बँगले पर आएँगी और शतरंज के सारे मोहरे अपने साथ उठा ले जाएंगी। न रहेंगे मोहरे और नहीं बजेगी शतरंज की बाजी!’’‘बाजी नहीं बाजा! न रहेंगे मोहरे और नहीं बजेगा शतरंज का बाजा,किन्तु, वह हमेशा सामने नहीं होती। आँगन में खुलनेवाला बड़ा दरवाज़ा उसकी सीमा है। इसके बाहर वह पाँव नहीं डालती। सिर्फ सूचनाएँ जमा रखती हैं। बाहर की दुनिया की सूचनाएँ ही उसे जीने के लिए पर्याप्त उत्सुकता और जीवन-रस देती हैं। वह जो बात देख नहीं पाती उसे सुन लेती है। सुनने का सुख भी देखने और छूने के सुख की तरह ही पहले दर्जे का सुख है। इस सुख से बँधी हुई है मेरी स्त्री और मेरे परिवार की सभी दूसरी स्त्रियाँ।