शुक्रवार, अगस्त 29, 2008

क्या यही तो नहीं वह घड़ी?


बिहार में आई भीषण बाढ़ में बहुत कुछ बह गया...गरीबों का घर-द्वार, अन्न-धन सब कोसी की भेंट चढ़ गया और अमीरों का दीन-ओ-ईमान पूरी तरह बह गया है. मल्लाह सूखे और महफूज जगह तक पहुंचाने की फीस छह हजार रुपये मांग रहे हैं...दूध वाले एक लीटर दूध की कीमत डेढ़ सौ रूपये मांगते हैं...तीन रूपये के बिस्कुट की कीमत पच्चीस से तीस रूपये मांगी जा रही है...गुड़ सौ रूपये किलो में भी नदारद है...भूख से बिलबिलाते बच्चे भूख मिटाने के लिए बाढ़ का पानी पीकर गुजारा कर रहे हैं...कुछ मर गए, बहुत मरणासन्न हैं...ऊपर के लोग ऊपर से आए और बाढ़-दर्शन करके चले गए...हेलीकॉप्टर आकर न जाने किस ब्लैक होल में पैकेट गिरा जाते हैं कि वह किसी को नहीं मिल पा रहा है...सुना है गिद्ध धीरे-धीरे खतम हो रहे हैं...पर अब कुछ बिहार के इन इलाकों में अचानक उतर आए हैं...अफसर और बाहरी लोग पीड़ित महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं, रोटी के बदले देह मांग रहे हैं और जो देह बचा हुआ है उस देह को पिछले एक सप्ताह से भोजन और पानी नहीं मिला है...नींद तो खैर बहुत बड़ी नेमत है....लोगों ने कथावाचकों से महाप्रलय की कहानी सुनी है और उन्हें इस वक्त पता चल रहा है कि क्या यही तो नहीं वह घड़ी?


लोग तुलसीदास की काव्य-पंक्ति की तरह लोगों से पूछते हैं-कहे लोग एक-एकन सौं कहां जाई का करी- सवाल सबके पास है, पर इस बाढ़ में जवाब भी किसके पास है? सब कुछ बह गया...गया सभी कुछ गया...!

गुरुवार, अगस्त 28, 2008

भारत सरकार का रवैया और बिहार में महाप्रलय


इतने दिनों से जब बिहार के लोग भारत सरकार पर यह आरोप लगाते थे कि केन्द्र सरकार ने सब दिन बिहार को एक कालोनी की तरह सिर्फ इस्तेमाल किया है, तो मुझे इसमें तात्कालिक आवेश और राजनीति नजर आती थी, लेकिन अब जब बिहार बाढ़ के रूप में महाप्रलय को झेल रहा तो भारत सरकार और इस देश के ब्यूरोक्रेसी के बर्ताव से इसकी साफ-साफ पुष्टि हो रही है। संभवतः सच्चिदानंद सिन्हा की किताब है-'इंटरनल कोलोनी'-जिसमें तमाम आंकड़े और सरकारी आदेशों को आधार बनाकर उन्होंने साबित किया है कि भारत सरकार शुरु से ही बिहार को भारतीय गणराज्य का एक अवैध संतान मानती आ रही है। एकीकृत बिहार की धरती के गर्भ से भारत सरकार खनिज पदार्थ निकालती रही, सस्ते श्रम का इस्तेमाल करती रही और बिहारियों को एक 'टूल' से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा। कोयला निकलता था धनबाद में और हेड क्वार्टर बनाया गया कोलकाता में। क्यों भई मुख्यालय बिहार में नहीं बन सकता था? कोलकाता में रेलवे का दो-दो क्षेत्रीय कार्यालय है, एक कार्यालय हाजीपुर में बना तो उसके लिए बंगाल के हर राजनीतिक दल ने आसमान सिर पर उठा लिया। बी.बी. मिश्रा ने अपनी किताब- इंडियन मिडिल क्लास में लिखा है कि 1828 में बिहार के 40 न्यायिक मजिस्ट्रेट में से 36 बंगाली थे और वे अपने को किसी अंग्रेज अफसर से कम नहीं समझते थे। इसलिए बंगाल से बिहार को अलग करो की मांग 1880 में पूरे जोर-शोर से उठी। 'बिहार बंधु' नाम की पत्रिका निकली और यही बिहार का नवजागरण था।

खैर, यह तो हुई इतिहास की बातें। अभी जब पूरा उत्तरी बिहार बाढ़ के महाप्रलय का सामना कर रहा है, तब भारत सरकार जम्मू काश्मीर के मसले पर विचार करने में मगन है, बाकी कामों में व्यस्त है, लेकिन इस देश के प्रधानमंत्री को 30 लाख लोगों की जान-माल की कोई चिंता नहीं है। अभी एक हफ्ते पहले जब पंजाब में बाढ़ आई तो फौरन तमाम राज्य में सेना को लगा दिया गया। हजारों करोड़ की सहायता दी गई, लेकिन बिहार के लोग जिससे भी अपनी गुहार लगाते हैं वह तमाम आकुल पुकार किसी ब्लैक होल में जाकर खो जाती है। यूँ तो बिहार के 15 ज़िलों में बाढ़ है लेकिन सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा ज़िलों में बाढ़ की स्थिति बहुत गंभीर है.इस बाढ़ से 20 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोग बेघरबार हो गए हैं. नौ और मौतों की ख़बर के बाद वहाँ बाढ़ से मरने वालों की संख्या 55 तक पहुँच गई है. धर्मभीरू लोग कोसी नदी से ही प्रार्थना कर रहे हैं कि वह गरीबों पर रहम करे। जो ईश्वर को मानते हैं वे और जो नहीं मानते उनको भी फिलहाल इससे बेहतर राजनीति का और कोई अवसर दिखाई नहीं दे रहा है।

शुक्रवार, अगस्त 22, 2008

क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?-महमूद दरवेश

फिलिस्तीन की मुक्ति का संदेश पूरी दुनिया में कविताओं के माध्यम से पहुंचानेवाले प्रसिद्ध कवि महमूद दरवेश, पाब्लो नेरुदा और नाजिम हिकमत की तरह संघर्षशील जनता के प्रतीक बन गए थे। 9 अगस्त, 2008 को उनका निधन हो गया। यहां प्रस्तुत है उनकी एक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण कविता जो 1967 के अरब-इजरायल युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई थी-इजरायली सेना में लड़े एक मित्र से कवि का यह संवाद इस राजनैतिक समस्या के बारे में बेबाकी से बहुत कह देती है। इस कविता की प्रस्तुति व अनुवाद हमारे लिए किया है, बेहद संवेदनशील इनसान, कवि हृदय श्री यादवेन्द्र जी ने।

एक सैनिक देखता है सपने में सफेद ट्यूलिप

वह सपने में देखता है सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली
और शाम को खिले-खिले प्रेमिका के वक्ष
उड़ती हुई आती है चिड़िया उसके सपने में
और बताती है वह नींबू के फूलों के बारे में


बौद्धिकों-सा गंभीर नहीं होता वह कभी
सपनों की बातें करते हुए जैसी भी उसे दिखती है चीजें
और लगती है गंध
वह समझ लेता है उन्हें उसी सरलता से

बताया उसने
मातृभूमि उसके लिए है
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस लौट आने की तलब

और यह जमीन है?
कहा उसने-मैं क्या जानूं इस जमीन को...
क्या करूं जब मेरी धमनियों और शरीर में इसकी वैसी अनुभूति नहीं आती
बताई जाती है कविताओं में जैसी
अनायास लगा मुझे जैसे मैं देखता रहा हूं जमीन को वैसे ही
जैसे कोई देखे किराने की दुकान
कोई सड़क
या फिर कोई अखबार

पूछा मैंने
पर क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?
मेरे लिए जमीन तो है एक पिकनिक
शराब का एक गिलास
एक प्रेम-संबंध....

क्या इस जमीन के लिए कुर्बान कर सकते हो अपनी जान?
हरगिज नहीं
इस जमीन से मेरा जुड़ाव आसमान में संक्षिप्त उड़ान भर लेने
या जोशीला भाषण दे देने भर जैसा है बस
बाकी और कुछ नहीं

मुझे पढ़ाया गया कि इससे प्यार करो
पर दिल का नाता जुड़ नहीं पाया
मुझे तो मालूम ही नहीं कहां हैं इसकी जड़े और शाखाएं
या कैसी होती है इस पर उगी हुई दूब की गंध?
और इसके लिए कितना है तुम्हारा प्यार?
क्या वह भी वैसे ही दहकता है
जैसे दहकता है सूरज
और प्रज्ज्वलित होती हैं आकांक्षाएं?

उसने मेरी आंखों में आंखें डालकर देखा और बोलाः
मैं इसे प्यार करता हूं अपनी बंदूक की मार्फत
वैसे ही जैसे मिल जाए अतीत के कचरे के ढेर में कोई असबाब
और प्रकट हो जाए गूंगी-बहरी प्रतिमा उसमें से
पता ही न चल पाए क्या है इसका अभिप्राय और काल?

फिर बताने लगा वह
विदा के पलों के बारे में कि कैसे मुंह बंद किए हुए ही बिलख पड़ी उसकी मां युद्ध में भेजते हुए
कैसे उनकी कातर आवाज ने फिर से जगा दी

उसके तन-बदन में उम्मीद की एक नई किरण
लगा कि युद्ध मंत्रालय के ऊपर
शांति कपोतों के उड़ने के दिन फिर से लौट आएंगे जल्द ही अब

उसे तलब हुई सिगरेट की
कहा जैसे रक्त के कुंड से बचकर निकल आया हो-
मैंने सपने देखे थे सफेद ट्यूलिप के
जैतून की डालियों के
नींबू के पौधे पर भोर को आगोश में लेने को
आतुर बैठी चिड़िया के
बताओ, पर तुमने सचमुच देखा क्या?

क्या देखता? वही तो, जो किया मैंने....
खून से सनी गठरियां रेत में लुढ़कती जाती देखीं
और उन पर दाग दीं दनादन गोलियां-सीने में...पेट में....
कितनों को मारा?

मुश्किल है बताना...पर मेडल मुझे एक ही मिला
सुनकर पीड़ा हुई....पूछा
मैंनेः जिन्हें मारा उनमें से किसी के बारे में बताओ

अपनी सीट से वह थोड़ा हिला-डुला
तहाकर रखे गए अखबार को उलटा-पलटा
फिर बोला....जैसे सुना रहा हो कोई गीतः चट्टानों पर वह धराशायी हो गया था
बिल्कुल जैसे ढह जाता है कोई तंबू

सीने पर न तो था उसके कोई मेडल
न ही लगता था वह कोई प्रशिक्षित योद्धा
संभव है किसान रहा हो या मजदूर
या फिर फेरीवाला ही

बिल्कुल तंबू की तरह वह गिरा जमीन पर
और वहीं हो गया ढेर....
बांहें फैलाए जैसे हो नदी का कोई सूखा पड़ा पाट
मैंने उसकी जेब खंगाली
शायद मिल जाए कहीं नामोनिशान
वहां मिले महज दो फोटो-
एक उसकी बीवी लगती थी
दूसरी बेटी हो शायद

दुःख हुआ तुम्हें?
मैंने जानना चाहा
बीच में ही रोककर वह बोल पड़ाः
महमूद, मेरे दोस्त दुःख तो वैसा ही सफेद कबूतर है जो
लड़ाई के मैदान के आसपास फटकता भी नहीं
सैनिकों के लिए तो पाप है
दुःख की अनुभूति भी...पाप

मेरी मौजूदगी वहां थी
विध्वंस और मौत उगलने वाली मशीन बनकर
जिससे सारे आकाश को घेर लें
काले खौफनाक परिंदे ही परिंदे
फिर उसने बताया अपने पहले प्रेम के बारे में
और फिर सुदूर गलियों के बारे में इस युद्ध पर रेडियो और प्रेस में आती
प्रतिक्रियाओं के बारे में

उसे खांसी आई तो रूमाल से ढांप लिया उसने मुंह-
मैंने फिर पूछाः
क्या फिर हम कभी मिल पाएंगे दोबारा?
क्यों नहीं, पर यहां नहीं
कहीं दूर, किसी और शहर में दोस्त

चौथी बार उसको गिलाल भरते हुए मैंने पूछ लिया मजाक में-
क्या कहीं और खो गए?
अपनी मातृभूमि के बारे में कुछ तो कहो-
मुझे थोड़ी मोहलत दो यार, उसका जवाब आया

मेरे सपने हैं सफेद ट्यूलिप के गीतों से गूंजती
सड़कों के रोशनी से सराबोर घर के....मुझे गोलियां नहीं चाहिए
बल्कि चाहिए निस्सीम करुणा से लबालब एक दिल
मुझे चाहिए एक प्रकाशमान दिन....
बिल्कुल नहीं चाहिए उन्मादी फासिस्ट विजय

मैं ढूंढ रहा हूं कोई बच्चा
जिसके ठहाकों से भर डालूं अपना पूरा दिन
मुझे युद्ध का कोई हथियार नहीं चाहिए
मैं आया था यहां
सूरज का उगना देखने
पर क्या यहां सूरज का उगना देखने पर क्या देख रहा हूं-
महज इसका अवसान

उसने कहा अलविदा
और निकल पड़ा ढूंढने सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली पर बैठकर भोर को स्वागत करने को आतुर पंछी
समझ लेता है वह सभी बातें
बस उन्हें देखकर और सूंघकर

फिर कहा...मातृभूमि है उसके लिए
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस सुरक्षित लौट आने की तलब।

(अनुवादः यादवेन्द्र)

सोमवार, अगस्त 18, 2008

मृत्यु से दस मिनट पहले मैंने डाक्टर को बुलाया-महमूद दरवेश


"जीवन से मैंने कहा-

धीरे चलो, मुझे साथ आने दो

और मेरे ग्लास की प्यास बुझने दो"
9 अगस्त, 2008 को दिल के आपरेशन के दो दिन बाद विश्व प्रसिद्ध फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश चल बसे। उपर्युक्त पंक्तियां कुछ ही दिनों पहले लिखी उनकी कविता से उद्धृत की गई हैं। पहले भी कई बार मृत्यु के करीब पहुंचकर लौट आनेवाले इस विश्व कवि को उम्मीद और जिजीविषा का कवि माना जाता है।

इसी कविता में आगे लिखते हैं -


"मृत्यु से दस मिनट पहले मैंने डाक्टर को बुलाया

इत्तफाक से मिल जाए तो जीने के लिए

दस मिनट से ज्यादा क्या चाहिए?"
13 मार्च, 1942 को तत्कालीन फिलिस्तीन के एक किसान परिवार में पैदा हुए जीवनभर विस्थापन और युद्ध का दंश झेलते रहे। 1948 में इजरायल के गठन के बाद उनका पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ। विद्यार्थी जीवन से ही वे वामपंथी राजनीति से जुड़े रहे और 1970 में मास्को चले गए। इजरायल द्वारा फिलिस्तीन के हिस्से पर कब्जा कर लेने के बाद वे इसका निरंतर विरोध करते रहे, इसलिए इजरायल ने उनकी घर वापसी पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद वे यासिर यराफात के फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के प्रमुख सिद्धांतकार बनकर उभरे, पर 1993 के ओस्लो समझौते का विरोध करते हुए उससे अलग हो गए। 1995 में वे अपने इलाके में लौट आए और रामल्ला में रहने लगे। कहने को उन्होंने दो-दो शादियां कीं, पर जीवन का अधिकांश हिस्सा अकेलेपन में ही गुजारा। उन्हें दुनियाभर साहित्यिक पुरस्कार मिले और बीस से ज्यादा भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए। यहां प्रस्तुत है यादवेंद्र जी द्वारा किये हुए महमूद दरवेश की दो कविताओं का अनुवाद-
वे मेरी मौत से खुश होंगे
वे मेरी मौत से खुश होंगे जिससे सबको बता सकें
यह हममें से एक था, हमारा अपना था
बीस सालों से रात की दीवारों पर सुनता रहा हूं यही पदचाप-
दरवाजा खुलता नहीं
पर वे अंदर जाते हैं-तीनों एक साथ
एक कवि, एक हत्यारे और किताबों से घिरा रहनेवाला एक पाठक।


आप थोड़ी-सी शराब पियेंगे, मैं पूछता हूं
हां-उनका जवाब
आप मुझे गोली कब मारनेवाले हैं?
तुम इत्मीनान से अपना काम करते रहो
एक पंक्ति से वे अपने ग्लास रखकर गाने लगते हैं
जनता के लिए एक गीत

मैं फिर पूछता हूं-कब शुरू करेंगे मेरी हत्या?
बस अभी शुरू करते हैं-पर अपनी आत्मा से पहले
तुमने अपने जूते क्यों उतार रख दिए?
मैंने जवाब दिया- जिससे वे घूम लें सारी धरती पर
पर धरती तो इतनी अंधकारमय है
फिर तुम्हारी कविता प्रकाशमान क्यों रहती हैं?
क्योंकि मेरे हृदय में तीस समंदरों का पानी समाया हुआ है
अब भला तुम्हें फ्रेंच शराब इतनी क्यों भाती है?
क्योंकि मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्रियों से प्रेम करना था
अच्छा, तुम कैसी मौत चाहते हो?
नीली-जैसे खिड़की से झर रहे हों तारे-

आप और शराब लेंगे क्या?हां, हम और पियेंगे।
आप इत्मीनान से अपना काम करें-
मैं चाहूंगा कि आप हौले-हौले करें मेरा कत्ल
जिससे मैं रच सकूं अपनी आखिरी कविता
अपने दिल की पत्नी के नाम

अट्टहास करते हुए उन्होंने छीन लिया
खास तौर पर लिखे हुए कुछ शब्द!

पहचान-पत्र

दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
और मेरे पहचान-पत्र का नंबर है पचास हजार
आठ बच्चों का बाप हूं और नौवां गर्मियों के बाद आनेवाला है
आपको यह जानकर गुस्सा आया?

दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
एक खदान पर अन्य मजदूरों के साथ मजदूरी करता हूं
आठ बच्चों का बाप हूं
इन्हीं पत्थरों से मैं उनके लिए रोटी कपड़े और किताबें कमाता हूं....
आपके दरवाजे पर दान की याचना नहीं करता
न ही अपने आपको
आपकी सीढ़ियों पर धूल चाटने तक गिराता हूं
अब आप बताइये आपको गुस्सा आया?

दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
मेरा नाम तो है पर इसके साथ उपनाम नहीं
ऐसे देश में बीमार की तरह पड़ा हूं
जहां लोग-बाग उजाड़े जा रहे हैं
और मेरी जड़ें तो खोद डाली गई थीं
समय की उत्पत्ति से और युगों के प्रारंभ से भी पहले
चीड़ व जैतून के पेड़ों
और घास के उगने से भी पहले
मेरे पिता किसी मशहूर ऊंचे खानदान से नहीं
बल्कि हलवाहों के खानदान के थे
और मेरे दादा...थे एक किसान
न ही उनका खानदान ऊंचा था, न ही परवरिश...
उन्होंने मुझे सिखाया सूरज का स्वाभिमान
पढ़ाने-लिखाने से भी पहले
मेरा घरकिसी चौकीदार की मचान जैसा है
घास-फूस और डंठल से बना हुआ-
आप मेरे रहन-सहन से संतुष्ट हैं क्या?

मेरा नाम तो है इसके साथ पर उपनाम नहीं है
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
आपने मेरे पुरखों के बाग-बगीचे पर कब्जा कर लिया है
और वह जमीन भी जिसे मैं जोतता था
बच्चों के साथ मिलकर
हमारे लिए तो कुछ छोड़ा ही नहीं
सिवा इन चट्टानों के....
तो क्या सरकार उनको भी अपने कब्जे में ले लेगी?
बार-बार जैसी कि घोषणा की जाती रही है?

इसलिए इसे पहले पन्ने पर ही दर्ज करें
मैं किसी से घृणा नहीं करता
न ही किसी का कुछ हथियाता हूं
पर जब भूख लगेगी मुझे
कब्जा करनेवालों का मांस ही होगा मेरा आहार
सावधान हो जाएं....
सावधान....
मेरी भूख से
और मेरे क्रोध से भी!

(अनुवाद- यादवेंद्र)

शुक्रवार, अगस्त 01, 2008

क्या पाकिस्तान के सारे लोग आतंकवादी या आई.एस.आई. के एजेंट होते हैं?

कुछ दिनों पहले मैं पाकिस्तान गया था तो वहां की ब्यूरोक्रेसी को नजदीक से देखने और उनकी कार्यशैली को महसूस करने का अवसर मिला था. उससे पहले भारतीय ब्यूरोक्रेसी से भी बोर्डर पर पाला पड़ा था. दोनों देशों के अफसर कितने काबिल हैं यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि दोनों देशों में आतंक फैलाने वाले आतंकवादियों को कोई दिक्कत नहीं होती. वे आते हैं और आराम से मासूम लोगों का कत्ल करके चलते बनते हैं. मगर कोई मासूम अगर उनके खूंखार पकड़ मे आ जाए तो भारत में वह आई.एस.आई. का एजेंट मान लिया जाता है और पाकिस्तान में भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का एजेंट. दुखद यह है कि हमारे यहां कोई अंसार बर्नी नहीं है, पाकिस्तान में भारतीयों की मदद के लिए भारत का एजेंट कहलाने का कलंक लेकर भी अंसार बर्नी भारतीय लोगों की मदद करते हैं. देखिये एक और मासूम की हालत.


6 साल पहले बेहतर कमाई का सपना लिए महज 40 दिन की एकमात्र बेटी को पाकिस्तान छोड़ मोहम्मद सलीम हिंदुस्तान तो आया, लेकिन उसे अंदाजा नहीं था कि उसके लौटने की राह उतनी आसान नहीं होगी। संसद पर हुए हमले के बाद खुफिया एजंसियों की सक्रियता के चलते वह हिंदुस्तान में ही फंस गया। आईएसआई एजंट के रूप में भारत में जासूसी के आरोप में उसे नोएडा से गिरफ्तार कर लिया गया। गुनाह कबूल कर 6 साल जेल काटने के बाद उसे पाकिस्तान भेजने का कोर्ट ऑर्डर हो गया। पूरे परिवार समेत उसकी वापसी की राह देख रही बेटी अब 8 साल की हो गई है। हालांकि घर वापसी की राह अब भी उसे हवालात की सलाखों के पीछे से उतनी की कठिन दिख रही है, जितनी पहले थी।


पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में रहीमयार खां कस्बे का रहने वाला मोहम्मद सलीम हिंदुस्तानी सरबजीत की तरह यूं ही शराब पीकर सीमा पार नहीं कर गया था। अक्टूबर 2001 में अटारी बॉर्डर से होकर ड्राई फ्रूट बेचने वह दिल्ली आया था। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर आतंकवादी हमला हो गया। खुफिया एजंसियों की धरपकड़ अभियान के चलते सलीम पुरानी दिल्ली का होटल छोड़ नोएडा आ गया। यहां वह सेक्टर-37 में एक ढाबे पर काम करने लगा। हालांकि वह ज्यादा दिन तक स्थानीय खुफिया इकाई की नजर से बच नहीं पाया। पुलिस की मदद से टीम ने उसे 22 जून 2002 को गिरफ्तार कर लिया। उस पर अवैध तरीके से भारत में रहने व जासूसी करने का आरोप लगाया गया। कोर्ट की तरफ से सलीम को मुहैया करवाए गए ऐडवोकेट इजलाल अहमद बर्नी ने बताया कि जिस समय उसे गिरफ्तार किया गया था, उस समय उसका वीसा समाप्त होने में एक दिन का समय बाकी था। उसे फंसाने के लिए फर्जी तरीके से दस्तावेज़ तैयार किए गए। बर्नी ने बताया कि अदालती कार्रवाई लंबी खिंचने के कारण जल्द रिहाई के लिए सलीम ने सभी आरोप स्वीकार कर लिए। अदालत ने उसे 6 साल की कैद व 20 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। 2 जुलाई 2008 को सज़ा पूरी होने से पहले 1 जुलाई को उसने जुर्माने की रकम जमा करवा दी। बावजूद इसके पुलिस उसे 7 जुलाई को जेल से रिहा करवा कर बाढ़मेर चेक पोस्ट पर लेकर गई। वहां चेक पोस्ट बंद हो जाने के कारण उसे बाघा बॉर्डर ले जाया गया, लेकिन वहां उनके दस्तावेज स्वीकार नहीं किए गए। पाकिस्तानी चेक पोस्ट ने सलीम को वापस भेजने के दस्तावेज़ लाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिए कहा।


(सौजन्य - नवभारत टाइम्स)