गुरुवार, अगस्त 28, 2008

भारत सरकार का रवैया और बिहार में महाप्रलय


इतने दिनों से जब बिहार के लोग भारत सरकार पर यह आरोप लगाते थे कि केन्द्र सरकार ने सब दिन बिहार को एक कालोनी की तरह सिर्फ इस्तेमाल किया है, तो मुझे इसमें तात्कालिक आवेश और राजनीति नजर आती थी, लेकिन अब जब बिहार बाढ़ के रूप में महाप्रलय को झेल रहा तो भारत सरकार और इस देश के ब्यूरोक्रेसी के बर्ताव से इसकी साफ-साफ पुष्टि हो रही है। संभवतः सच्चिदानंद सिन्हा की किताब है-'इंटरनल कोलोनी'-जिसमें तमाम आंकड़े और सरकारी आदेशों को आधार बनाकर उन्होंने साबित किया है कि भारत सरकार शुरु से ही बिहार को भारतीय गणराज्य का एक अवैध संतान मानती आ रही है। एकीकृत बिहार की धरती के गर्भ से भारत सरकार खनिज पदार्थ निकालती रही, सस्ते श्रम का इस्तेमाल करती रही और बिहारियों को एक 'टूल' से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा। कोयला निकलता था धनबाद में और हेड क्वार्टर बनाया गया कोलकाता में। क्यों भई मुख्यालय बिहार में नहीं बन सकता था? कोलकाता में रेलवे का दो-दो क्षेत्रीय कार्यालय है, एक कार्यालय हाजीपुर में बना तो उसके लिए बंगाल के हर राजनीतिक दल ने आसमान सिर पर उठा लिया। बी.बी. मिश्रा ने अपनी किताब- इंडियन मिडिल क्लास में लिखा है कि 1828 में बिहार के 40 न्यायिक मजिस्ट्रेट में से 36 बंगाली थे और वे अपने को किसी अंग्रेज अफसर से कम नहीं समझते थे। इसलिए बंगाल से बिहार को अलग करो की मांग 1880 में पूरे जोर-शोर से उठी। 'बिहार बंधु' नाम की पत्रिका निकली और यही बिहार का नवजागरण था।

खैर, यह तो हुई इतिहास की बातें। अभी जब पूरा उत्तरी बिहार बाढ़ के महाप्रलय का सामना कर रहा है, तब भारत सरकार जम्मू काश्मीर के मसले पर विचार करने में मगन है, बाकी कामों में व्यस्त है, लेकिन इस देश के प्रधानमंत्री को 30 लाख लोगों की जान-माल की कोई चिंता नहीं है। अभी एक हफ्ते पहले जब पंजाब में बाढ़ आई तो फौरन तमाम राज्य में सेना को लगा दिया गया। हजारों करोड़ की सहायता दी गई, लेकिन बिहार के लोग जिससे भी अपनी गुहार लगाते हैं वह तमाम आकुल पुकार किसी ब्लैक होल में जाकर खो जाती है। यूँ तो बिहार के 15 ज़िलों में बाढ़ है लेकिन सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा ज़िलों में बाढ़ की स्थिति बहुत गंभीर है.इस बाढ़ से 20 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोग बेघरबार हो गए हैं. नौ और मौतों की ख़बर के बाद वहाँ बाढ़ से मरने वालों की संख्या 55 तक पहुँच गई है. धर्मभीरू लोग कोसी नदी से ही प्रार्थना कर रहे हैं कि वह गरीबों पर रहम करे। जो ईश्वर को मानते हैं वे और जो नहीं मानते उनको भी फिलहाल इससे बेहतर राजनीति का और कोई अवसर दिखाई नहीं दे रहा है।

3 टिप्‍पणियां:

vipinkizindagi ने कहा…

achchi post

अजित वडनेरकर ने कहा…

जानकारी बढ़ी। अच्छी पोस्ट। सचमुच, किसी ज़माने में दूरदर्शन पर बाढ़ के दृष्य इतने दिखाए जाते कि अनुष्ठान से लगते थे। इधर टीवी मीडिया ने तो इससे पीछा ही छुड़ा लिया है। बाकी अखबारों में भी पूर्वांचल की बाढ़ कम और मुंबई की बाढ़ ज्यादा कवरेज पाती है। यह सालाना अनुष्ठान से मुक्ति है या बाजारवाद का दबाव या आपराधिक उदासीनता। मीडिया का कैसा रवैया मानें इसे ?

Udan Tashtari ने कहा…

अफसोसजनक रवैया....दुखद....