रविवार, नवंबर 30, 2008

आतंकवाद की राजनीति के बाद अब राजनीतिक आतंकवाद


यह बेहद हैरतअंगेज है कि देश पर हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले से लहूलुहान मुंबई की मुक्ति के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने इसे छोटी-मोटी घटना बताया, वहीं वस्त्र पुरुष रूप में सरकार की किरकिरी करवा चुके केंद्रीय गृहमंत्री को आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा। दूसरी ओर ऑपरेशन के समय राजनीति के बजाए एकजुटता की बात करने वाली भाजपा ने मुंबई हमले के दौरान दिल्ली चुनाव को ध्यान में रखकर अपने इश्तहारों में राजनीति की और बाद में तो खैर राजनीतिक बयानबाजी करते हुए वह प्रधानमंत्री के इस्तीफे पर उतर आई। दिल्ली में हुई आतंकी घटना के बाद कांग्रेस पार्टी के अंदर भी केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल की भूमिका को लेकर जबर्दस्त आलोचना शुरू हो गई थी और मुंबई हमले के बाद इसकी जिम्मेवारी से बचना उनके लिए संभव भी नहीं रह गया था। दूसरी ओर जिन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के.नारायणन ने दो साल पहले ही यह कहकर सबको चौंका दिया था कि आतंकवादी समुद्र के रास्ते देश पर बड़े हमले की योजना बना रहे हैं, के बावजूद खुफिया स्तर पर आखिर क्यों नहीं कोई कारगर कदम उठाया गया?


आतंकवाद से निपटने के मामले में सरकार की नीति को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि एक ऐसे नरम देश की बनने लगी है, जिसमें आतंकवाद से लड़ने का वह जज्बा और जुनून नहीं है जो अमेरिका और ब्रिटेन ने दिखाया है। दूसरी ओर बार-बार गृहमंत्री के नीरस और रटे-रटाए बयानों की वजह से लोगों में जो भयंकर जन आक्रोश पैदा हुआ है, उसने तमाम राजनीतिक दलों को इस वक्त सुरक्षात्मक मुद्रा में ला खड़ा किया है। इसलिए सत्ताधारी यूपीए सरकार में जब सहयोगी दलों ने भी शिवराज पार्टी की कार्यशैली को लेकर ऊंगली उठाना शुरू कर दिया, तो शायद कांग्रेस के पास दृढ़ता और राजनीतिक दूरदर्शिता दिखाने के लिए इस्तीफे की राजनीति के अलावा कोई और कारगर विकल्प नहीं बचा था। शिवराज पाटिल के इस्तीफे को कांग्रेस अपनी जिन परंपरा में देखने का प्रस्ताव कर रही है, दरअसल वह जिस महान परंपरा की बात कर रही है उतनी नैतिकता की बात करना शायद आज की राजनीति में बेमानी है। एक मामूली रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेकर जिस कांग्रेस पार्टी के निवर्तमान रेल मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया था, उसको इतने आतंकवादी हमलों के बाद जाकर इस्तीफे की परंपरा याद आई?


आदेश मिलने के पंद्रह मिनट बाद ही ऑपरेशन के लिए तैयार एनएसजी के कमांडो अफसरशाही की लेटलतीफी के कारण सुबह पांच बजे मुंबई पहुंच पाए और जब पहुंचे तो वहां उन्हें ऑपरेशन स्थल तक पहुंचाने के लिए न तो कोई वाहन था और न जरूरी चीजें। आपदा प्रबंधन के लिए बढ़-चढ़कर बात करने वाली सरकार की लचर व्यवस्था बार-बार उजागर होती रही है, मगर इसको पहले से क्यों नहीं दुरुस्त किया जाता है? आतंक के सदमे से निस्तब्ध जनता के मन में अनेक सवाल हैं और आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर हर राजनीतिक दल उन सवालों को भुनाने की कोशिश में है। नये गृहमंत्री पी.चिदंबरम को हालांकि पहले से गृह मंत्रालय का थोड़ा अनुभव है, लेकिन आतंक के विरुद्ध सरकार क्या रणनीति अपनाती है, लोगों के आत्मविश्वास को कैसे वापस लाती है इसके लेकर नये गृह मंत्री की कार्य-कुशलता को लेकर तमाम लोगों की निगाह उन पर लगी रहेगी।

शुक्रवार, नवंबर 28, 2008

मुंबई की नृशंस घटना पर कराची, पाकिस्तान से हफ़ीज़ चाचड़

पाकिस्तान के कराची शहर में बीबीसी हिंदी सेवा के रिपोर्टर हैं जनाब हफ़ीज़ चाचड़. उन्होंने आज दोपहर हमारे लिए यह लेख लिखकर भेजा है.
इटली से मेरे दोस्त अहमद रज़ा ने फोन कर कहा कि मुंबई में होने वाली अप्रिय घटना नहीं होनी चाहिए थी और जो कुछ हो रहा है, काफ़ी बुरा हो रहा है. उन्होंने मुझे बताया कि पूरी दुनिया के लोग यह सोच रहे हैं कि इसमें पाकिस्तान का हाथ है और इटली सहेत पूरे योरोप में रहने वाले पाकिस्तानी मूल के या पाकिस्तानी नागरिक अपने आप को दोषी महसूस कर रहे हैं. वे अपना परिचय देते समय पाकिस्तानी कहते हुए डर रहे हैं. उन्होंने यह कह कर फोन बंद कर दिया कि पाकिस्तान और भारत के बीच संबंधों पर मुंबई घटनाक्रम का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
अहमद रज़ा-जैसे बहुत से पाक-भारत दोस्ती की भावना से प्रेरित पाकिस्तानी मुंबई में होनेवाली गोलीबारी और धमाकों से दुखी हैं और सब का यही विचार है कि आतंकवादी और अतिवादी ताक़तें दोनों देशों की दोस्ती पर आघात है. भारतीय समाचार पत्रों को पढ़ते समय लग रहा है कि मुंबई में हुए हमलों के बाद भारत में गुस्सा, दुख और हताशा दिख रही है और साथ ही झलक रही है सभी भारतीयों की आंखों से बेबसी कि कब तक वो ऐसे हमलों का सामना करते रहेंगे? जब वो 90 के दशक में हुए विस्फोटों को बुरी याद की तरह भुला चुके थे तो 2006 में रेल में हुए विस्फोटों ने मुंबई को एक बार फिर घायल कर दिया. वो ज़ख्म अभी भरे नहीं थे कि मुंबई में सबसे बड़ा 'सुनियोजित आतंकी हमला' हो गया.
इस हमले से व्यापक जन-धन के नुक़सान के साथ एक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा पर इतनी तगड़ी चोट हुई है कि भारतीयों का आक्रोश में हो जाना स्वाभाविक है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मुझे आज एक निर्बल और शक्तिहीन लग रहा है. कुछ मुठ्ठी भर आतंकियों ने भारत के ख़ुफिया तंत्र को चकमा देकर मुंबई में डर और भ्य का माहौल पैदा कर दिया. स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा खौफनाक हमला तो आजादी के तुरंत बाद कश्मीर में कबायली आक्रमण के रूप में हुआ था. मुंबई में घंटों तक जिस तरह दहशत तारी रही उसकी तुलना बगदाद, काबुल या बेरूत आदि से की जाए तो ग़लत नहीं होगा.
दक्षिण एशिया में पाकिस्तानी जनता आतंकवाद और चरमपंथ से सब से अधिक प्रभावित हुई है और पाकिस्तानियों को आतंक की ओर धकेलने में उन की सरकार का ही हाथ रहा है. पाकिस्तान के अधिकतर बड़े शहर आत्मघाती हमलों, बम धमाकों और आतंकवादी गत्तिविधियों के साक्षी रहे हैं. सरकार ने अमेरिका की ओर से शुरु की गई आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अच्छी भूमिका तो निभाई है लेकिन देश के भीतर अपनी छवि को और ख़राब कर दिया है. मुंबई हमलों में पाकिस्तानी आतंकवादी लिप्त हैं यह केवल भारतीय नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लोग कह रहे हैं.
कुछ महीने पहले जब सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ ने सत्ता को त्याग किया तो उस के तुंरत बाद पाकिस्तान प्रशासित कशमीर में जिहादी गुट फिर से सक्रीय हो गए जिन पर परवेज़ मुशर्रफ ने पांच साल पहले प्रतिबंध लगाया था. सरकार की ओर से इन जेहादी गुटों पर अभी भी प्रतिबंध है लेकिन पाकिस्तान प्रशसित कशमीर सहेत पूरे देश में सक्रीय हो रहे हैं. यही गुट राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी की इसेलिए तीखी आलोचना कर रहे हैं क्योंकि उन्हों ने भारत के साथ बहतर संबंध स्थापित करने की कोशिश की है.
पाकिस्तान में जब भी अवामी सरकार का गठन होता है तो भारत एक दम से दुशमन के रुप में सामने आता है और कशमीर मुद्दा गर्माता है. आप को याद हो गा कि 2006 में जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ की सरकार थी तो विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ती जारी कर कहा था कि पाकिस्तान ने कभी भी नहीं कहा कि कशमीर उस का अटूट अंग है. लेकिन अब जबकि यहाँ पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार है तो कुछ तत्व यह कह रहे हैं कि कशमीर तो पाकिस्तान का ही अटूट अंग है. आसिफ़ ज़रदारी के नेतृत्व वाली सरकार ने कई बार कहा है कि वह भारत के साथ अपने संबंधों को और मज़बूत करने के हर संभव प्रयास कर रही है.
पिछले कुछ महीनों से पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार और ख़ुफिया एजेंसी ईएसई के बीच घमासान युद्ध चल रहा है. ईएसई पीपुल्स पार्टी की सरकार से इसलिए भी नराज़ है कि उस ने भारत के साथ बहतर संबंध स्थापित करने की बात कही है. कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने जब ईएसई को गृह मंत्रालय के मातहत करने केलिए एक अधिसूचना जारी की थी तो उस ने सरकार को गिराने की धमकी दी थी. प्रधानमंत्री ने 24 घंटों के भीतर अधिसूचना वापस ले ली थी.
कुछ दिन पहले विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने ख़ुफिया एजेंसी ईएसई के राजनीतिक पाथ (Political Wing) को ख़त्म करने की घोषणा की थी जो चुनाव में धांधली और राजनेताओँ को ब्लैकमेल करने में लिप्त रहा है. विदेश मंत्री की घोषणा के थोड़े समय बाद एक वरिष्ट सैन्य अधिकारी ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है.
राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी देश के ख़ुफिया तंत्र पर अपना नियंत्रण चाहते हैं जो कि अभी सेना के पास है, इसलिए ईएसई और सरकार के बीच तनाव है. आसिफ ज़रदारी ने हिंदुस्तान टाईम्ज़ की शिखर सम्मेलन में सेना को उस समय करारा झटका दिया जब उन्हों ने कहा कि पाकिस्तान अपने प्रमाणु हथ्यारों का प्रयोग पहले नहीं करेगा. कुछ वरिष्ट सैन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति के इस ब्यान की कड़ी शब्दों में भर्त्सना की और एक ने यह भी कह दिया कि राष्ट्रपति ज़रदारी को इस विषय पर कोई जानकारी नहीं है. सेना को दूसरा झटका तब लग जब उन्हों अपनी पत्नी बेनज़ीर भुट्टो के शब्द दोहराए “There is a little bit of India in every Pakistani and a little bit of Pakistan in every Indian.” और फिर कहा था कि “I do not know whether it is the Indian or the Pakistani in me that is talking to you today.” अहमद रज़ा सहेत बहुत से पाकिस्तानियों ने भारत पाकिस्तान के संबंधों के इस नए युग का स्वागत किया और यदि कोई नराज़ हुए तो वह हैं जेहादी गुट.
मुंबई में आतंकियों ने भारत और पाकिस्तान की दोस्ती पर हमला किया है और राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी को संदेश दिया है कि वह भारत और पाकिस्तान की दोस्ती को किर्चुं में भिखेरने की शक्ति रखते हैं. मुंबई में आतंक का कब्जा हो जाने के बाद भले ही दोनों देशों के नेतृत्व आतंकवाद के खिलाफ कुछ कड़े शब्द कहे हों, लेकिन यथार्थ यह है कि पिछले साढ़े चार साल में दोनों देशों के मान-सम्मान से खिलवाड़ करने वाले आतंकी संगठनों का दमन करने से जानबूझकर बचा गया. एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों ने कभी भी मन, वचन और कर्म से आतंकवाद से मिलजुलकर लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं प्रदर्शित की.
जब तक आतंकवाद का एक जुट हो कर मुक़ाबला न किया गया तो मुंबई जैसी घटनाएँ फिर होनी के संभावना है. आतंकवाद और चरमपंथ का एक जुट हो कर मुक़ाबला करने में ही दोनों देशों केलिए भलाई है. यही वह उपाय है जिससे दोनों जनताओँ के स्वाभिमान की रक्षा हो सकती है.

गुरुवार, नवंबर 27, 2008

भारत की छवि एक लुंजपुंज देश की बनती जा रही है

आतंकी हमले ने देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को एक बार फिर दहलाकर रख दिया है। संसद पर हुए हमले को छोड़ दें तो आतंकवादियों ने इतने व्यापक हमले अब तक नहीं किए थे। अब तक आतंकवादी सिलसिलेवार बम धमाके करते रहे हैं, लेकिन पहली बार उन्होंने होटलों और अस्पतालों में घुसकर स्वचालित हथियारों से गोलीबारी की है और लोगों को बंधक बनाया है। मुंबई में आतंकियों ने हमले भी कुछ अलग तरीके से किए हैं। बम धमाके करने के बाद उन्होंने कई जगहों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश की है। जिसके बाद कभी न थमने वाली मुंबई की रफ्तार दहशत के मारे थम-सा गया है। पिछले कई महीनों से देश ने जितने आतंकवादी हमले झेले हैं, उसके बाद सुरक्षा व्यवस्था को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि एक लुंजपुंज देश की बनती जा रही है। इसकी तस्दीक इस बात से भी होती है कि मुंबई की इन आतंकवादी घटनाओं के फौरन बाद इंग्लैंड की क्रिकेट टीम बीच में ही दौरा बीच में छोड़कर स्वदेश लौट रही है और भारत भ्रमण पर आने वाले विदेशी पर्यटक अपने कार्यक्रम को मुल्तवी करने लगे हैं।


मुंबई के पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो आतंकवादी होटलों में विदेशी मेहमानों के पासपोर्ट की तलाशी ले रहे थे और ब्रिटिश तथा अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना रहे थे। जिससे साबित होता है कि इन देशों की सुरक्षा व्यवस्था अब इतनी पुख्ता और सख्त है कि वहां किसी भी तरीके से आतंकी नृशंस घटनाओं को अंजाम देने में बेहद कठिनाई महसूस कर रहे हैं। इसलिए इन देशों के आम नागरिकों को आतंकवादी अब दूसरे देशों में निशाना बनाने लगे हैं। आतंकवादियों ने ताज और ओबेरॉय होटल को काफी सोच-समझकर निशाना बनाया है, क्योंकि इन होटलों में सैकड़ों विदेशी पर्यटक ठहरते हैं। इसलिए सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों को यह कहना बिल्कुल सही है कि आतंकवादियों ने अनायास इन होटलों को निशाना नहीं बनाया। यह सब जान-बूझकर और काफी सोच-समझकर किया गया है। कुछ टीवी चैनलों को ईमेल भेजकर डेकन मुजाहिदीन नामक संगठन ने इन घटनाओं की जिम्मेदारी ली है, जिसका नाम इससे पहले कभी नहीं सुना गया। इसलिए आतंकवादियों की यह एक रणनीति भी हो सकती है, ताकि सही दिशा में चलने वाली जांच को गुमराह किया जा सके। आतंकी हमलों के बाद सरकार के रटे-रटाए जुमले सुन-सुनकर आम जनता यह मानने लगी है कि हुक्मरानों की नजर में आम लोगों की जान की कीमत कुछ खास नहीं है। इसलिए लगातार हो रही आतंकवादी घटनाओं के कारण देश के भीतर जन-आक्रोश बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आतंकवादी घटनाओं के बाद इससे निपटने के लिए जितने भी तरीकों पर चर्चा होती है, उसके बारे में अब तक के अनुभवों से यही दिख रहा है कि सारी कवायद शायद चर्चाओं तक ही सिमटकर रह जाता है। वक्त का यही तकाजा है कि आतंकवाद पर किसी भी तरह के सियासत को परे रखकर पूरा ध्यान गंभीरता से ठोस कार्रवाई पर केंद्रित किया जाए।

शुक्रवार, नवंबर 21, 2008

पूरे पाकिस्तान में 'निराला' की मिठाई और रामापीर का मेला...































कराची के बनारस चौक, सहारनपुर कालोनी, यू.पी. कालोनी-वहां की बोली-बानी, पहनावा और खान-पान से जरा भी नहीं लगता कि आप बनारस में नहीं हैं. विभाजन के इतने बरस के बाद भी सब कुछ जस के तस है. अपने यहां निराला कहते ही कवि महाप्राण निराला की याद आती है, मगर जिस तरह दिल्ली में नाथू स्वीट्स और अग्रवाल स्वीट्स की पूरी चेन है उसी तरह निराला नामक मिठाई की दुकान की पूरी चेन है-पूरे पाकिस्तान में. वहां के लोगों के मन में अंधविश्वास की हद तक यह बात पैठी हुई है कि बेहतर मिठाई तो सिर्फ हिंदू ही बना सकता है। इसलिए वहां मिठाई की दुकानों में सिंध के हिंदू कारीगरों की मांग बहुत रहती है। बहरहाल, यहां यह बताते चलें कि इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान में इस वक्त तकरीबन पच्चीस लाख से ऊपर हिंदुओं की संख्या है और रामापीर का जो मेला सिंध में लगता है, उसमें बढ़-चढ़कर हिंदू भाग लेते हैं. रामापीर के मेले में असल में दलित वर्ग के हिंदुओं की भागीदारी ज्यादा रहती है. उच्च और धनी तबके के लोग वहां से पहले ही भाग आए या दंगों में मारे गए या मार दिए गए. बचे हैं दलित वर्ग के अधिकांश लोग. उनकी कहानियां हम विस्तार से आपको बताते रहेंगे. फिलहाल आपको दिखा रहे हैं रामापीर मेले की कुछ तस्वीरें....

बुधवार, नवंबर 12, 2008

कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?


14 दिसंबर, 1980 के दिनमान के अंक में एक बड़े अश्वेत कवि लैग्सटन ह्यूज की कविता छपी थी, सपना। यह महत्वपूर्ण कविता हमें बेहद संवेदनशील और खुद्दार इनसान, कवि हृदय भाई यादवेन्द्र जी के सौजन्य से मिली हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहूं, तो ऐसे कामों के लिए धन्यवाद देने को वे एक बदमाशी समझते हैं, इसलिए इस कविता को पेश करते हुए उन्हें धन्यवाद देने की गुस्ताखी से बचना चाहता हूं!



सपना

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लैग्सटन ह्यूज



एक सपने को टालते जाने से क्या होता है?

क्या वह मुरझा जाता है तेज धूप में?

या पक जाता है जख्म-सा

और फिर रिसा करता है नासूर-सा?

या गंधाने लगता है सड़े हुए गोश्त-सा?

या कि पगी हुई मिठाई की तरह

उस पर जम जाता है चाशनी की पपड़ी?


मुमकिन है वह सिर्फ झुक जाता हो

भारी बोझे जैसा

कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?

सोमवार, नवंबर 10, 2008

अश्वेत लोगों की राष्ट्रीय तरक्की


बराक ओबामा की विक्ट्री स्पीच सुनने के बाद अपने अखबार दैनिक भास्कर के लिए इस कविता के एक अंश का अनुवाद करने को जब कहा गया, तो मैं पूरी कविता ही अनूदित करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. पेश है ब्लाग की दुनिया के पाठकों के लिए यह कविता-



साठ के दशक के दौरान हमने हल्ला मचाया हमें न्याय दो
हमारे हाथों में तख्तियां थी और होठों पर सवाल
सवाल ऐसे कि आखिर कब तक अमेरिकी सपने से बाहर रहेंगे हम?

बसों और व्यवसायों का बॉयकाट करते हुए हम
धरनों और प्रदर्शनों की हद तक गए
दुश्मनों के दुश्मन और दोस्तों के दोस्त
नीग्रो जाति अचानक अपने जेहनी उनींदेपन से जगी
देश भी साथ ही आगे बढ़ा और जनता ने गाया-
हम होंगे कामयाब लेकिन...कब?
तबसे क्या कुछ बदला है?


अभी कौन हमारा विरोध कर रहा है?
हमारे तमाम लोग तकलीफों में जीते हैं
ताउम्रअगर आप उन्हें कहें कि यीशु प्यार करते हैं
तुम्हें तो वे नाराज होकर कहेंगे कि मत लो उनका नाम
हमारे नौजवान अपनी मांओं के बटुए छीनते हैं
बलात्कार, लूट और गोलीबारी में बच्चों को मारते,
भाइयों को मारते हुए कौन हमें रोक रहा है अब?
अपनी मानवीय गरिमा से हमें कौन गिरा रहा है?


हजारों योग्य लोग सड़कों के उदास किनारों पर पड़े हैं
पेड़ों से लटकने की बजाय...और राष्ट्र आगे बढ़ता रहता है
लोग गाना गाते रहते हैं-
हम होंगे कामयाब-लेकिन कब?


पढ़े-लिखों और अभिजनों के पास समय नहीं है
इतने व्यस्त हैं वे अपनी निजी योजनाओं में
कि वे मदद का हाथ नहीं बढ़ा सकते


हममें से ज्यादातर को कैसी जिंदगी मिली?
क्या कुछ मूल्यवान छूटा हमसे?
क्या ढेरों पैसे और अच्छा वक्त हो तो
आप और मैं बेहतर व्यक्ति हो जाते हैं?
या यह हमारा अपना नकचढ़ा शासक वर्ग है
क्या हम तेजी से अपनी जमीन खोते जा रहे हैं?


माना हमने तरक्की की है और यह निश्चय ही महज संयोग नहीं
लेकिन कुछ अर्थों में वह भी हमारी दुखती रग हो गई है
असली तरक्की, मतलबपरस्ती और सनक से बाधित
हम उनकी तरह होने की कोशिश करते हैं


आततायी जब हमारी कसौटियां तय करता है
तो हम सिर्फ नकलची बनकर रह जाते हैं
लिहाजा देश को आगे बढ़ने दें और लोगों को गीत गाने दें


आर्थिक ताकत का मतलब तभी है
जब हम अपने ही भाइयों के चेहरे पर न थूकें
आततायी की पूजा करने का मतलब है
अंतत: उसकी नकल करना


अगर यह रवैया अभी नहीं बदलता है
मेरे भाइयो, मेरी बहनो
तो मुझे बताइये आखिर कब बदलेगा यह?

-लेडी डी26