गुरुवार, नवंबर 11, 2010

चिर काल तक यह जीवन फलता-फूलता रहेगा

बहुत दिन हुए....बहुत दिन हुए खुद के ही ब्लाग को देखे हुए. वक्त गुजरता गया और गुजरते वक्त ने कभी इतनी मोहलत नहीं दी कि मुड़कर इधर आ सकूं. पर देर आयद दुरुस्त आयद. आज आया. ...और आते ही भाई यादवेन्द्र जी ने यह कविता उपलब्ध करवाई है और वादा किया है कि अब वे निरंतर ख्वाब का दर पर दस्तक देते रहेंगे. तो लीजिए लंबे अरसे बाद आज इब्तिदा कीजिए, इस कविता से.....


बेटे को लिखा आखिरी ख़त

- नाजिम हिकमत


एक झटके से जल्लाद मुझे तुमसे अलग कर देगा
ये अलग बात कि मेरा सड़ा हुआ दिमाग
भरता रहता है मेरे दिमाग में अनहोने खुराफात ...
मेरे कार्ड में साफ़ साफ़ लिखा हुआ है
कि मैं अब कभी नहीं देख पाऊंगा तुमको.


यहाँ बैठे बैठे देख पाता हूँ
जवान होने पर तुम लगोगे बिलकुल
खेत से कटे हुए गेंहूँ के पुलिंदों की तरह
लम्बे छरहरे और सुनहरे बालों वाले..
जैसा मैं दिखता था अपनी जवानी में.
तुम्हारी आँखें बड़ी बड़ी होंगी
बिलकुल अपनी माँ जैसी
और धीरे धीरे तुम धीर गंभीर होते जाओगे
पर तुम्हारा माथा दूर से भी दमकेगा आभा से..


तुम्हारी वाणी अच्छी रोबीली निकल कर आएगी
मेरी तो बिलकुल ही बुरी थी...
और तुम गाया करोगे खट्टे मीठे
जीवन के ह्रदयविदारक गीत.
तुम्हे ढंग से बातचीत करने का सलीका आ जायेगा--


मैं तो अपने दिनों में जब ज्यादा विकल नहीं होता था
जैसे तैसे अपना काम चला लिया करता था.
तुम्हारी कृतियाँ शहद जैसा रस घोलेंगी
जब तुम्हारे कंठ से निकल कर बाहर आएँगी.


हां...ममेत
अल्हड लड़कियां तो तुम्हे देख कर
जूनून से बस पागल ही हो जाएँगी.
एहसास है मुझे


कितना भारी पड़ता है पालना
किसी बच्चे को बगैर पिता के.
अपनी माँ से प्रेम से पेश आना मेरे बच्चे
मैं नहीं दे पाया उसको खुशियाँ और सुख
पर तुम दिल से इसकी कोशिश करने
भरपूर...ईमानदार.
तुम्हारी माँ रेशम के धागों की मानिंद
शक्तिशाली और कोमल स्त्री है.


दादी बनने के बाद भी
वह उतनी ही खूबसूरत लगेगी
जैसी पहली बार में मुझे लगी थी
सत्तरह साल की कमसिन उम्र में.
वह सूरज सी दीप्तिमान भी है
और चन्द्रमा जैसी शीतल भी.
मुलायम चेरी की तरह है उसका दिल
यथार्थ में ऐसा ही है असल उसका सौंदर्य.


एक दिन सुबह सुबह
तुम्हारी माँ ने
और मैंने
अलविदा कहा एक दूसरे को
मन में ये उम्मीद लिए हुए
कि हम फिर मिलेंगे जल्दी ही
पर ये हमारे नसीब में नहीं लिखा था मेरे बेटे
फिर हमारा मिलना हो ही नहीं पाया कभी भी.
इस दुनिया में सबसे स्नेहिल और सुव्यवस्थित है
तुम्हारी माँ...


खुदा करे वो सौ साल जिए.
मैं भयभीत नहीं होता हूँ मौत से
फिर भी आसान नहीं है
कई कई बार ऐसे ही सिहर जाना
अपने हाथ में लिए काम के संपन्न हुए बगैर ही.
सांस छूटने से पहले एक एक दिन गिनने लगना
अपने नितांत एकाकीपन में.
मैं तुम्हे कभी नहीं दे पाया
एक भरीपूरी मुकम्मल दुनिया


ममेत..
कभी भी नहीं मेरे बच्चे.
ध्यान रखना मेरे बेटे
इस दुनिया में ऐसे कभी मत रहना
जैसे मेहमान बनकर रह रहे हो किसी किराए के घर में
गर्मी से बचने को महज कुछ दिनों के लिए...


इसमें इस ठाठ के साथ रहना
जैसे ये तुम्हारे बाप का खानदानी घर हो.
बीज,धरती और सागर पर भरपूर भरोसा रखना
पर सबसे ज्यादा भरोसा रखना
अपने लोगों के ऊपर.
बादलों,मशीनों और किताबों से बेपनाह प्यार करना
पर सबसे ज्यादा प्यार
अपने लोगों से करना.


कुम्हला जाने वाली डालियों के लिए
टूट जाने वाले तारों के लिए
और चोटिल जानवरों के लिए
पसीज कर मातम मनाना
पर इन सब से ऊपर रखना
अपने लोगों के लिए महसूस
संवेदना और साझापन.


धरती की एक एक अनुकम्पा पर
झूमकर आह्लादित और आनंदित होना मेरे बच्चे...
चाहे वह अन्धकार हो या प्रकाश
चारों में से कोई भी मौसम हो
पर कभी न भूलना सबसे ऊपर
अपने लोगों को सिर आँखों पर रखना.


ममेत
हमारा तुर्की
बेहद प्यारा और मनमोहक देश है
और इसमें रहने वाले लोग
अनन्य परिश्रमी,गंभीर और बहादुर लोग हैं
पर अफ़सोस मेरे बेटे
ये सदियों से सताए हुए,त्रस्त,भयभीत और निर्धन लोग हैं.
जाने कितने सालों से टूटी हुई है
इनपर कमर तोड़ देनेवाली भारी बिपदा
पर अब ज्यादा दूर नहीं मेरे बेटे
अच्छे भरे पूरे दिन.
तुम और तुम्हारे लोग मिलकर
निर्मित करेंगे कम्युनिज्म...


तुम कितने किस्मत वाले हो कि यह सब
अपनी आँखों से तुम देख पाओगे
और छू पाओगे इसको अपने हाथों से.


ममेत
मैं बेकिस्मत मर जाऊँगा यहाँ
इतनी दूर अपनी भाषा से
और अपने गीतों से
मेरे नसीब में नहीं
अपनी माटी का नमक और रोटी..
बारबार मन घर की ओर भागने लगता है
कातर भी हो रहा है तुम्हारे लिए
तुम्हारी माँ के लिए
दोस्तों के लिए
अपने तमाम लोगों के लिए..
पर इतना भरोसा है
कि मैं निर्वासन में नहीं मरूँगा
दूसरे अनजान देश में नहीं मरूँगा
मरूँगा तो बस
अपने स्वप्नों में सजाये देश में मरूँगा


अपने सबसे हसीन दिनों में
देखा था सपना रौशनी में नहाये जगमग शहर की बाबत
भरोसा है वहीँ पहुँच कर अंतिम सांस लूँगा.


ममेत..मेरे प्यारे बच्चे
तुम्हारी आगे की परवरिश अब मैं सौंप रहा हूँ
तुर्की की कम्युनिस्ट पार्टी को..
मैं अब प्रस्थान कर रहा हूँ
चिरंतन शांति के लोक में
मेरे जीवन का अब लौकिक अंत हो रहा है
पर ये आगे भी जारी रहेगा यथावत
तुम्हारे जीवन के लम्बे सालों में...
हाँ , चिर काल तक यह जीवन फलता फूलता रहेगा
हमारे अपने लोगों के जीवन में.


प्रस्तुति एवं अनुवाद :यादवेंद्र

मंगलवार, मार्च 23, 2010

विधवा ब्राह्मण महिलाओं को कितना जानते हैं आप?

हम भारतीय घर से बाहर निकलते ही अक्सर इतने शुचितावादी और नैष्ठिक होने लगते हैं कि यह तो लगभग भूल ही जाते हैं कि हमारी स्वाभाविक जिंदगी इन चीजों के कारण अस्वाभाविक और अप्राकृतिक हो जाती है. ....और दूसरों पर उंगली उठाने और राय बनाने में तो हमारी जल्दबाजी का जवाब नहीं. मेरे गांव की एक जवान विधवा यहां दिल्ली आकर कुछ करना चाहती है...नौकरी...घरेलू दाई का काम...मेहनत-मजदूरी का कोई भी काम जिससे अपना और एक बच्ची का पेट पल जाए. मगर उस विधवा ब्राह्मणी को आज की तारीख में भी दोबारा शादी करने की इजाजत नहीं है. उसे क्या किसी भी विधवा को आज भी मिथिला के ब्राह्मण समाज में पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है. गांव में मेहनत-मजदूरी करने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं, क्योंकि इससे गांव के अलंबरदार ब्राह्मणों की नाक कटेगी....अफसोसनाक बात यह है कि इन नाजुक नाक वालों की नजर उसके शरीर पर तो है...मगर उसके पेट और उसकी नीरस, बेरंग जिंदगी पर बिल्कुल नहीं.
परसों फोन पर वह मुझसे नौकरी मांग रही थी....और मैं कुछ इस तरह हां...हां किए जा रहा था जैसे नौकरी मेरी जेब में रहती है और उसके दिल्ली आते ही वह नौकरी मैं उसे तत्काल जेब से निकालकर दे दूंगा्...बाल-विधवा उस निरक्षर महिला की आकुलता और आगत जीवन की चिंता में इतना डूबता चला गया मैं. उसके दिल्ली की और नौकरी की असली स्थिति बताकर उसे और हताश करना मुझे अपराध-सा लगने लगा था...

बिहार से मजदूरों का पलायन हो रहा है- यह एक तथ्य है. और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि बिहार के गांवों में मेहनत-मजदूरी का काम गैर ब्राह्मण वर्ग की स्त्रियां करती हैं...शुरू से करती रही हैं और आज भी करती हैं. मगर गरीब रिक्शाचालक ब्राह्मण की बीवी कोई मेहनत मजदूरी का काम नहीं कर सकती. इस मामले में और गांवों की क्या स्थिति है यह तो मैं नहीं जानता, मगर अपने जिले के अनेक गांवों में यही तथ्य आज ही यथावत देखखर लौटा हूं-ब्राह्मण की पत्नी जनेऊ बनाकर, चरखा कातकर धनोपार्जन करती है, मगर गांव के अन्य जातियों की महिलाओं की तरह मेहनत-मजदूरी करने की उन्हें सामाजिक इजाजत नहीं है.
उस विधवा ने मुझसे कहा कि यदि दिन भर मैं भी खेतों में काम कर सकती हूं, मेहनत-मजदूरी कर सकती हूं और देखिये न अब तो इसमें अपने यहां भी सौ-सवा सौ रोज की मजदूरी गांव में ही मिलती है. मगर नहीं, यह सब करने से हमारे समाज के ब्राह्मणों का पाग (खास मैथिल टोपी) गिरता है.


उस महिला को यदि गांव में ही मजदूरी करने दी जाए तो दिल्ली स्लम होने से बचेगी...गांव उजड़ने से बचेगा...हम उसके अथाह दुख के सागर में डूबने और झूठ बोलने से बचेंगे और श्रम से अर्जित धन की शक्ति से उस विधवा महिला का जीवन भी उतना दुखमय नहीं रहेगा, फिलहाल जितना है.

बुधवार, मार्च 17, 2010

हत्या औऱ आत्महत्या से बचा स्त्री का जीवन


बनारस औऱ मथुरा में विधवा आश्रम में विधवाओं के जीवन और जीवन-चर्या से जो लोग परिचित हैं उन्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं. पढी-लिखी और कमाऊ औरतें भी पति से पिटती हैं और उसे पति का प्यार बताती हैं. ऐसा सिर्फ अपने देश में ही नहीं होता. अमेरिकी और इंग्लिश औरतें भी खूब पिटती हैं और वह भी तब जब वे आर्थिक रूप से सबला हैं और भारत के मुकाबले उनका सशक्तिकरण भी ज्यादा हुआ है.


परसों कनाट प्लेस में राजीव चौक के मेट्रो स्टेशन के पास किसी का इंतजार कर रहा था. चौबीस-पच्चीस साल का एक लड़का औऱ बाईस-तेइस साल की बेहद खूबसूरत लड़की गलबहियां डाले खड़े-से थे. दिल्ली में और खास तौर पर कनाट प्लेस में ऐसा दृश्य लगभग आम है. इसमें कोई नई या अनोखी बात नहीं. मगर मैंने देखा दो मिनट के बाद लड़की कहीं जाने के लिए ल़ड़के से इसरार कर रही थी, जो जिद में बदलने लगी और लड़की उस लड़के का हाथ पकड़कर आटो की तरफ खींचने लगी। लड़का सख्ती से मना कर रहा था...मगर लड़की इसरार किए जा रही थी. अचानक लड़के दनादन लड़की को थप्पड़ मारना शुरू कर दिया. लड़की पिट रही थी... थोड़ा रो भी रही थी मगर पिटने का विरोध नहीं कर रही थी. पुलिस की जिप्सी आकर रुकी. पुलिस वाले ने लड़की से पूछा कि लड़का उसे पीट क्यों रहा है....इस पर लड़की खामोश रही ....मगर लड़़के ने कहा आप जाओ...ये हमारा आपस का मामला है। पुलिस की जिप्सी तत्काल वहां से रवाना हो गई. मगर उस पिटती हुई लड़की की तस्वीर मेरे जेहन में बार-बार आ ही जाती है.

पिटने का मामला और खास तौर पर औरतों के पिटने का...बड़ा पुराना है....लगभग आदिम राग है....

राज्य कोई भी हो गरीब और असहाय औरतों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। राज्य अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो और उसका शहर मुजफ्फरनगर हो तो पूरे देश में सबसे ज्यादा प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्या करने वाले जिले के सेहरा अपने सिर पर बांधता है....और राज्य अगर हरियाणा हो तो खाप पंचायतें दो बच्चों के मां-बाप बने जाने वाले व्यक्ति को भी भाई-बहन की तरह रहने का फरमान सुना देती है। तमाम मानवाधिकार आयोग, गृह मंत्रालय औऱ राज्य सरकार इन पंचायतों के सामने असहाय नजर आती है। इसी राज्य के बहादुरगढ़ जैसे कस्बाई शहर को कन्या भ्रूण हत्या करने में खास महारत हासिल है.

बिहार और झारखंड में कुलीनता की हिंसा से बचा जीवन डायन बताकर खत्म कर दिया जाता है। सरेआम गरीब औऱ विधवा औऱत को डायन बताकर विष्ठा पीने को मजबूर किया जाता है, बाल खींच-खींचकर पीटा जाता है और निर्ममता पूर्वक मार डाला जाता है. हत्या औऱ आत्महत्या से बचा स्त्री का जीवन इसी तरह मर्दो के संसार में बीतता है.

बुधवार, मार्च 10, 2010

ये साथ निभाता रहे मरते दम तक....

एरमा बोमबेक्क (१९२७-१९९६) अमेरिका की बेहद लोकप्रिय हास्य लेखिका मानी जाती हैं. गरीब परिवार में जनमी एरमा को घरेलू स्थितियों को केंद्र में रख कर हास्य रचनाएँ लिखने का शौक बचपन से ही था, जो बाद में इतना लोकप्रिय हुआ कि वे दुनिया में सबसे ज्यादा छपने वाली स्तंभकार बन गयीं. ..अपनी लोकप्रियता के शिखर पर उनके कॉलम अकेले अमेरिका और कनाडा के नौ सौ अख़बारों में हफ्ते में दो बार छपा करते थे और उनके पाठकों की संख्या कोई तीन करोड़ आंकी गयी थी. इसके अलावा उन्होंने टीवी के लिए खूब कम किया और १५ किताबें भी छपीं जो सभी बेस्टसेलर्स रहीं. शादी के बाद डॉक्टरों ने उन्हें बच्चा जनने में अक्षम घोषित कर दिया, इसीलिए उन्होंने एक बेटी गोद ली..पर आसानी से किसी बात से हार न मानने वाली एरमा बाद में दो बेटों की वास्तविक माँ भी बनीं.अमेरिका में स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिलाने की लड़ाई में वे अग्रणी भूमिका में रहीं,इसी कारण उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति की परामर्श दात्री समिति का सदस्य भी बनाया गया.

एरमा ने ज्यादा कवितायेँ तो नहीं लिखी हैं पर उनकी कुछ प्रेरणात्मक कवितायेँ बहुत लोकप्रिय हैं.बहुतेरे कविता संकलनों में शामिल उनकी प्रस्तुत कविता उस समय लिखी गयी जब गुर्दे की असाध्य बीमारी से जूझती हुई वे आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अगर एक बार फिर से जीने को मिलता

अगर एक बार फिर से जीने को मिलता
तो बीमार होने पर मैं बिस्तर पर दुबक के आराम करती..
और इस गफलत में तो कतई न रहती
कि एक दिन मेरे काम न करने से
ये पृथ्वी छोड़ देगी
अपनी धुरी पर गोल गोल घूमना..


मैं गुलाब जैसी दिखने वाली मोमबत्ती जलाती जरुर
जो पड़े पड़े गर्मी से पिघल के
होने लगी थी बदशकल..

मैं खुद बतियाती काम
और सुनती दूसरों कि ज्यादा से ज्यादा
आए दिन दोस्तों को डिनर पर जरूर बुलाया करती
चाहे कालीन दागो दाग
और सोफा बदरंग ही क्यों न दिखता रहता...

करीने से सजी धजी बैठक में
पालथी मार के बैठी बैठी खाती पॉप कोर्न..
इसकी ज्यादा परवाह नहीं करती
कि फायेर प्लेस में आग जलाने से
इधर उधर उड़ने बिखरने लगती है राख...

दादा जी के जवानी के बेसिर-पैर के
धाराप्रवाह बतंगड़ को सुनने को
बगैर कोताही बरते देती ढेर सारा समय...

चाहे झुलसाने वाली गर्मी हो
तब भी चढाने को न कहती कार का शीशा
और अच्छी तरह सजे संवारे बालों को
उड़ उड़ कर बिखरने देती बे तरतीब...

घास से लग जाने वाले धब्बों की चिंता किये बगैर
बच्चों के साथ लान में पसर कर बैठती
और खूब बैठा करती...

टीवी देखते हुए कम और जीवन को निहारते हुए ज्यादा
रोया करती जार जार
फिर अचानक हंस पड़ती
बे साख्ता...

कुछ खरीदने को जाती
तो यह विचार मन में बिलकुल न लाती
कि इस पर मैल न जमे कभी
या कि ये साथ निभाता रहे मरते दम तक ही...

मैं कभी नहीं करती कामना
अपने गर्भ के आनन् फानन में निबट जाने की
और एकएक पल का आनंद
इस एहसास के साथ लेती
कि मेरी कोख में पल रहा यह अद्भुत प्राणी
ईश्वर के चमत्कार में हाथ बंटाने का
मेरे सामने इकलौता और आखिरी मौका है..

बच्चे जब अचानक पीछे से आते
और चूम लेते मेरे गाल
तो ये भूल के भी न कहती:
अभी नहीं...बाद में..

अभी हटो यहाँ से..
और हाथ धो कर आ जाओ खाना खाने की मेज पर...
मेरे जीवन में खूब सघन होकर तैरते होते
आई लव यू और आई एम सॉरी जैसे तमाम जुमले..
अगर एक बार फिर से जीवन
जीने को मिल जाता तो...

मैं पकड़ लूंगी एक एक पल को
देखूंगी..निहारूंगी..जियूंगी..
और बिसारुंगी तो कभी नहीं..

छोटी छोटी बातों पर छोडो पसीना बहाना
इसकी भी ज्यादा फ़िक्र मत करो
कि तुम्हे कौन करता है पसंद कौन ना पसंद
किसके पास क्या है...कितना है..
या कौन कौन कर रहा है क्या क्या..

प्यार करने वाले सभी लोगों के साथ के
साझेपन का आनंद चखो...
उन तमाम चीजों के बारे में ठहर कर सोचो
जिनसे ईश्वर ने हमें समृद्ध किया है..

ये भी जानने की कोशिश करो
कि क्या कर रहे हो
अपनी मानसिक,शारीरिक
भावनात्मक और आध्यात्मिक बेहतरी के लिए..

जीवन इतना खुला और अ-सीमित भी नहीं
कि इसको यूँ ही फिसलता हुआ गुजर जाने देते रहें..
बस ये तो एक आखिरी मौका है
इकलौता मौका
एक बार जब ये बीत गया
तो समझो बचेगा नहीं कुछ शेष...

मेरी दुआ है
आप सबके आज पर
हुमक कर बरसे ईश्वर की कृपा...


-चयन और अनुवाद- यादवेन्द्र

शुक्रवार, मार्च 05, 2010

जहाँ से मिट जाएँ सभी तरह के डर...

इब्तिसाम बरकत फिलिस्तीन मूल के उन सक्रिय मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और रचनाकारों में शामिल हैं जिन्होंने अपने जन्म स्थान से बल पूर्वक विस्थापन का दंश बचपन में झेला है..जेरुसलम के पास के एक गाँव में जनमी बरकत को तीन साल की उम्र में ही १९६७ का अरब-इस्राएल युद्ध देखना पड़ा और अपना जन्मस्थान छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. अपने इस अनुभव को उन्होंने अपने बहुचर्चित संस्मरण में प्रस्तुत किया है-उनका कहना है कि सिर्फ छह दिन तक चले इस युद्ध में दो लाख से ज्यादा फिलिस्तीनी लोगों को अपना जन्म स्थान छोड़ने को मजबूर होना पड़ा.फिलिस्तीन देश के नक़्शे से मिटा दिए जाने के बाद उनको इस्राएल का नागरिक बन के स्नातक तक कि पढाई वेस्ट बैंक में करनी पड़ी,पर आगे की पढाई के लिए वे अमेरिका आ गयीं .वहां रहते हुए उन्होंने कई तरह के कम किये--अध्यापन से लेकर पत्रकारिता और लेखन तक. वे दुनिया भर में होने वाले मानव अधिकार हनन का विरोध करने के साथ साथ युद्धों का भी मुखर विरोध करती हैं.उन्होंने भाषाओँ की नैतिकता और वंचित लोगो की आपबीती रिकॉर्ड करने के नए नए प्रयोग किये हैं.अरब देशों और इस्राएल की जनता के बीच साझा रचनात्मक सेतु बनाने की उनकी कोशिशों को भरपूर सराहना मिली है. यहाँ प्रस्तुत है उनकी दो छोटी कवितायेँ, जिसे बड़े यादवेन्द्र जी ने ख्वाब का दर के लिए फराहम कराया है. चयन और अनुवाद उन्हीं का है.

फिलिस्तीन

इब्तिसाम बरकत

ऑफिस में सामान मुहय्या कराने वाले स्टोर का
पुराने सामान की सेल वाला बही खाता खंगालते हुए
मैं तय्यारी कर रही हूँ
कि खरीद लूँ दुनिया ---
एक अदद ग्लोब
बस पचास डॉलर का ही तो है
विक्रेता कहता है १९५ देश खरीद लीजिये
बस पचास डॉलर में..

मैं सोचती हूँ:
इसका मतलब तो ये हुआ
कि कुल जमा पचीस सेंट का पड़ा एक देश..
क्या मैं आपको दूँ एक डॉलर
तो आप इस ग्लोब में शामिल कर लोगे
फिलिस्तीन?

आप इसको किस जगह रखना चाहती हैं?
उसने पलट के पूछा...
जहाँ जहाँ भी रहते हैं
फिलिस्तीनी...

पेंसिल

पत्थर की मस्जिद
पेंसिल की मानिंद खड़ी है
हमारे गाँव के बीचो बीच
युक्लिप्टस के दरख्तों से भी
ऊँची...
इसकी मीनारें
गुनगुनाती रहती हैं
आसमान के कानों में
जब तक लोग देते नहीं जवाब...
यहाँ आते ही हम
जूते चप्पल खोल के
खड़े हो जाते हैं
इबादत करने को लाइन बना कर...

हम दुआ मांगते हैं
कि जहाँ से मिट जाएँ तमाम लड़ाईयां ...
मिटा दो...मिटा दो....
हम दुआ मांगते हैं
कि जहाँ से मिट जाएँ सभी तरह के डर...
मिटा दो...मिटा दो...

हर रोज की इबादत में
हम यही दुहराते रहते हैं
बार बार....
कि हर किसी को आशीष मिले
अमन चैन का....

मंगलवार, फ़रवरी 09, 2010

गंगोत्री ग्लेशिअर प्रति वर्ष पीछे खिसक रहा है- यादवेंद्र

आज कल पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन की बात खूब जोर शोर से उठाई जा रही है...ये ऐसा विषय है जिस पर राजनीति तो सर चढ़ के बोल रही है,पर राजनीतिक लोग भी जिस आधार को ले कर शोर मचा रहे हैं वो है वैज्ञानिकों द्वारा दुनिया के अलग अलग हिस्सों में किये गए दीर्घ कालिक अध्ययन.भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में इसको सही ठहराने के लिए कई शोध परियोजनाएं चल रही हैं और अनेक विश्विद्यालय,संस्थान और गैर सरकारी संगठन इस दिशा में सक्रिय हैं.हिमालयी ग्लेशिअर --खास तौर पर गंगोत्री ग्लेशिअर -- के बहुत तेजी से पिघलने की बात कई अध्ययनों में सामने आयी है...हांलाकि जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए कोपेनहेगेन में आयोजित विश्व सम्मेलन से ठीक पहले भारत के पर्यावरण मंत्री ने ये कह के सबको हैरत में डाल दिया कि ग्लेशिअर के पिघलने कि बात सही है पर जलवायु परिवर्तन ही इनका कारण है ये साबित करना मुश्किल है.पिछले साल अगस्त में संसद में दिए बयान में इन्ही मंत्री महोदय ने कहा था कि पिछले तीन दशकों के आंकड़े देखें तो पाता चलता है कि गंगोत्री ग्लेशिअर १८-२५ मीटर प्रति वर्ष कि रफ़्तार से पीछे खिसक रहा है--ध्यान देने कि बात है कि इस से पहले के आंकड़े बताते हैं कि इसके पिघलने कि रफ़्तार काफी कम थी. भारतीय वैज्ञानिकों के एक शोध पत्र में दिया गया उपग्रह चित्र इसकी पुष्टि करता है.

उत्तराखंड के एक गैर सरकारी संगठन ने नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में बसे १६५ गांवों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि भागीरथी घाटी के सालों भर प्रवाहमान बने रहने वाले ४४% जलस्रोत या तो सूख गए या फिर इनमे जल प्रवाह बरसाती भर हो के रह गया.सर्दियों में इन इलाकों में बारिश और बर्फ काम पड़ने लगी,सर्दियों की अवधि कम से कम एक महीना सिमट गयी.बरसात की निरंतरता में कमी आयी है--अब ये कम समय में और कम क्षेत्र में सिकुड़ गयी है,पर साथ साथ इसकी तीव्रता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है.अल्मोड़ा के गोविन्द बल्लभ पन्त संस्थान के अध्ययन बताते हैं कि पिछले दो दशको में कम समय में तीव्र वारिश की घटनाएँ अलकनंदा घाटी में बढ़ी हैं.

ऊंचाई वाले इलाकों में बुरांश,फ्यूली और काफल परंपरागत समय से पहले देखे जाने लगे हैं---कई बार तो डेढ़ महीना पहले तक.ये बात किसी एक साल की नहीं है बल्कि सालों साल ऐसा देखा जा रहा है.एक अध्ययन तो यहाँ तक कहता है कि जलवायु परिवर्तन की यही गति बनी रही तो ब्रह्मकमल जैसा ईश्वरीय फूल पांच सालों में ही विलुप्त हो जायेगा.दर असल ब्रह्मकमल निरंतर बर्फ से ढके ३०००-४००० मीटर ऊँचे स्टालों पर उगता है.जलवायु परिवर्तन के कारण पहले बर्फ से ढके रहने वाले इलाके भी धीरे धीरे सिकुड़ रहे हैं--अब बर्फ की परतें ऊपर की ओर खिसकती जा रही हैं, इस लिए इनमे उगने वाले वनस्पति भी बर्फ की परतों के साथ ज्यादा ऊंचाई पर स्थानांतरित होते जा रहे हैं.ऊपर खिसकते जाने की भी एक संभव सीमा है और अपने चरम पर पहुँचने पर इन वनस्पतियों और जीवों को खुद को बचाए रखना बेहद मुश्किल होगा.

इन वैज्ञानिक अनुसंधानों की बाबत यहाँ रेखांकित की जाने वाली बात ये है कि जलवायु परिवर्तन के सूचक कारकों का जायजा आम आदमी के अनुभव जगत में दर्ज --बगैर वैज्ञानिक कारणों की समझ हुए भी---घटनाओं की पृष्ठभूमि में पहली बार लिया गया है. नंदा देवी पार्क में किये गए एक विज्ञानी अध्ययन में आम लोगों ने जो अ-साधारण मौसमी परिवर्तन महसूस किये वे हैं: तापमान का बढ़ना,बर्फबारी की अवधि कम हो जाना,सेब की फसल कम होना,ऊंचाई वाले इलाकों में गोभी मटर टमाटर ,सर्दी की फसलों का कम समय में पक जाना, कीड़े मकोड़ों का बढ़ता हुआ प्रकोप,मार्च-मई में बरसात की मात्रा का कम हो जाना, आम तौर पर जुलाई अगस्त ममे होने वाली बर्फ बारी का एक महीना बाद खिसक जाना,सर्दियों की बरसात का दिसम्बर जनवरी से खिसक के जनवरी फरवरी में चला जाना,सर्दियों की फसल की बुवाई में देरी,गेंहू और जौ की उपज में कमी इत्यादि.सर्वेक्षण बताता है की बरसात और बर्फ बारी में कमी की बात ९०% से ज्यादा लोग मानते हैं.

आशा की जानी चाहिए कि बड़े शहरों में बनायीं गयी ऊँची वातानुकूलित इमारतों में बैठ कर शोध करने वाले सरकारी वैज्ञानिक अपने शोध की दिशा निर्धारित करने में भविष्य में भी इसी तरह आम लोगों की बात को गौर से सुनते और दर्ज करते रहेंगे. इस सन्दर्भ में मुझे कुछ साल पहले विज्ञानं की दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में पढ़ी एक रिपोर्ट याद आती है जिसमे बीती सदी की अंग्रेजी लेखिका जेन ऑस्टेन के उपन्यास एम्मा का जिक्र था कि जब ये प्रकाशित हुआ तो इसमें फूलों से भरे सेब के बाग़ को ले कर लेखिका पर बहुतेरे लांछन लगाये गए थे ---ये कहा गया था कि इस ऐशो आराम में रहने वाली लेखिका को इतना तक नहीं पाता कि सेब के वृक्ष फूलों से कब गदराते हैं,जिस मौसम का जिक्र करते हुए सेब के फूलों कि चर्चा कि गयी थी आम तौर पर ब्रिटेन में उन दिनों सेब के पेड़ पर फूल लगते नहीं. पर उपन्यास के प्रकाशन के कोई ९०-९५ साल बाद एक प्रसिद्द मौसम विज्ञानी ने उपलब्ध मौसमी आंकड़ों की छान बीन करके ये बताया कि जेन ऑस्टेन ने जिस साल का जिक्र किया है उस साल ब्रिटेन में रिकॉर्ड गर्मी पड़ी थी और सेब के बागों में समय से पहले फूल आ गए थे---इस बात की आधिकारिक पुष्टि की जा सकती है.

इस उदाहरण से ये सबक तो मिलता ही है कि आम जनता को अनपढ़ गंवार मान लेने की गलती वैज्ञानिकों को नहीं करनी चाहिए...और अनुसन्धान की दिशा क्या हो इसके निर्धारण में उनको गौरव पूर्ण और न्यायोचित हिस्सेदारी दी जानी चाहिए...

शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

यारब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये

दाइ म [1] पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे के पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम[2] से घबरा न जाये दिल
इन्सान हूँ, पियाला-ओ-साग़र[3] नहीं हूँ मैं

यारब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहाँ[4] पे हर्फ़-ए-मुकर्रर[5] नहीं हूँ मैं

हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत[6] के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं

किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लाल-ओ-ज़मुर्रुदो--ज़र-ओ-गौहर [7]नहीं हूँ मैं

रखते हो तुम क़दम मेरी आँखों से क्यूं दरेग़
रुतबे में मेह्र-ओ-माह से कमतर नहीं हूँ मैं

करते हो मुझको मना-ए-क़दमबोस[8] किस लिये
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं

'ग़ालिब' वज़ीफ़ाख़्वार[9] हो, दो शाह को दुआ
वो दिन गये कि कहते थे "नौकर नहीं हूँ मैं


" शब्दार्थ:

1. हमेशा
2. हमेशा की चिंता
3. जाम
4. संसाररूपी पृष्ठ
5. बार बार लिखा हुआ शब्द
6. कष्ट
7. लाल,पन्ना,सोना और मोती
8. पैर छूने से मना
9. वृति (पेंशन) पाने वाला

बुधवार, जनवरी 20, 2010

निराशा में अमन की आशा का प्रहसन

कल आईपीएल की नीलामी में बड़े बेआबरू हुए पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी. सब बिके पर वे न बिके. सबके खरीदार मिले, उनके न मिले. ऊपर से ये कि तमाम भारतीय न्यूज चैनल्स ने उन खिलाड़ियों से ऑन एयर ऐसे-ऐसे सवाल पूछे कि मारे शर्म के वे बेचारे कुछ कह भी न पाए.

हैरतअंगेज बात है कि वे अचानक अछूत हो गए। इसी आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ी पिछले सालों में खूब अच्छी तरह बिके थे. अच्छी कीमत पर बिके थे. तब वे ठीक थे, क्योंकि मुंबई में तब सब ठीक था. अब न मुंबई पहले जैसी रही, न पाकिस्तान का लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर पहले जैसा रहा. सियासी स्तर पर जो तब्दीलियां हुईं, उसके कारण सब कुछ बदल गया. दोनों देशों के बीच पूरा समीकरण गड़बड़ हो गया. दूसरी ओऱ पाकिस्तान से नाटकों के दल भारत आ रहे हैं. गायकों की टोलियां भारत आ रही है. राहत फतेह अली, गुलाम अली जैसे ग़ज़ल गायक भारतीय जनता के बीच अपनी आवाज का जादू बिखेर रहे हैं.

संगीत, नाटक, संस्कृति और पत्रकारिता के स्तर पर अमन की आशा व्यक्त की जा रही है. मगर दूसरी ओर खेल के स्तर पर नफरत और गिले-शिकवे के आधार पर फैसले किये जा रहे हैं.ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि जब खिलाड़यों से ऐसी नफरत तो फिर वहां के कलाकारों को भारत क्यों बुला रहे हैं? कविता-कहानी और पत्रकारिता के स्तर पर अमन की आशा जैसा मुहिम चला रहे हैं, मगर खेल में नफरत दिखा रहे हैं? कलाकार स्वीकार्य और खिलाड़ी अछूत? ऐसा वर्गीकरण क्यों?
यदि इसी तरह का व्यवहार हमारे खिलाड़ियों के साथ पाकिस्तान करता, तो हम किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करते? यदि हमारे खिलाड़ियों को लाहौर बुलाकर वे लोग नीलामी से बैरंग लौटा देते, तो हम इसी तरह चुप रहते?

पाकिस्तान की सरकारों ने आतंकियों को शह दी, आतंकी दोनों देशों के मासूम लोगों की जान रोज-ब-रोज ले रहे हैं. आत्मघाती हमले कर रहे हैं और इन तमाम घटनाओं के बीच भी नेता सुरक्षित हैं, बेचारी जनता मर रही है. नेता सियासत कर रहे हैं और दोनों मुल्कों की जनता भुगत रही है.

सोमवार, जनवरी 18, 2010

बिहारी मुसलमानों की कौन सुनता है वहां?

आजादी मिलने के साथ ही विभाजन ने हिंदुओं को जो जख़्म दिये वे भारत आकर धीरे-धीरे भर गए। पूर्वी पाकिस्तान औऱ पश्चिमी पाकिस्तान से आए हिंदुओं से मूल हिंदुस्तान के किसी हिंदू ने कोई भेदभाव नहीं किया। वे धीरे-धीरे अपनी रोजी-रोटी कमाने लगे और यहां के समाज में घुल-मिल गए। पर हां, छूट गए गांव-घर, शहर, जमीन-जायदाद की याद आहें बनकर निकलती रही। पर ऐसा मुसलमानों के साथ नहीं हुआ।

बड़े पैमाने पर दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान पाकिस्तान चले गए। कुछ रास्ते में मारे गए, कुछ वहां जाकर रोजी-रोटी की चिंता औऱ छूट गए भूगोल की यादों में डूबकर मर गए। जो जिंदा बचे वे आज तक उस समाज के भीतर जज्ब नहीं हो पाए। आज के पाकिस्तान में वे मुहाजिर बनकर जी रहे हैं-तीसरे दर्जे के नागरिक औऱ जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे उर्दूभाषी मुसलमान बंगाली मुसलमानों के बीच खप ही नहीं पाए। आज तक वे वहां बिहारी मुसलमान कहे जाते हैं। न सरकारी तौर पर आजादी है और न सामाजिक तौर पर।

अपने मूल वतन से उखड़कर पाकिस्तान गए मुसलमानों को वाकई न ख़ुदा ही मिला, न विसाले सनम। नई उम्र के बच्चे अपने पुरखों को कोसते हैं-उनके फैसलों को कोसते हैं औऱ फिर अपने आपको भी कि वे चाहकर भी अपने पुरखों के गलत फैसले को ठीक नहीं कर सकते। वे चाहकर फिर वहां लौट नहीं सकते जहां से उखड़कर उनके पूर्वज गए थे। अब तो कोई उनसे हाथ भी न मिलाएगा, जबकि वे तपाक से गले मिलना चाहते हैं।

पिछले साल जब मैं पाकिस्तान गया था तो वहां सहारनपुर, मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, बुलंदशहर, भागलपुर, बनारस से गए मुसलमानों की पुरानी पीढी़ से मिला था। उनके बचपन के लखनऊ के बारे में वहीं जाना था। मरने से पहले एक बार फिर लखनऊ देखने की उनकी विकलता को महसूस किया था। जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास मलकागंज इलाके में कुछ बूढे सिखों को रावलपिंडी और लाहौर के लिए बेकरार होते देखा है।

बदीउज्जमां का उपन्यास एक चूहे की मौत के बारे में सुना है कि वह बिहार से पूर्वी पाकिस्तान गए मुसलमानों पर केंद्रित है, जो अब वहां बिहारी मुसलमान कहलाते हैं। पर अब तक मुझे बिहारी मुसलमानों की ठीक-ठीक वहां क्या हालत है, यह पता नहीं। मैं एक बार बांग्लादेश जाना चाहता हूं, वहां गलियों में भटकना चाहता हूं और उस देश की गलियों में आज भी अपनी मुकम्मल पहचान और अधिकारों के लिए भटकते बिहारी मुसलमानों की ज़मीनी हकीकत को देखना चाहता हूं।

इस मामले में आपकी क्या राय है?

शनिवार, जनवरी 16, 2010

उन्हें खेल का क्या इल्म है?

भारतीय मीडिया, नेता औऱ जनता के साथ एक बात कॉमन है कि वह बहुत जल्दी भूल जाते हैं। चाहे सरहद पर शहीद सैनिक हों या ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ी। करगिल में लड़ाई के समय और मुंबई हमले के समय मीडिया ने सैनिकों के प्रति, उनके परिवारों के प्रति जैसा माहौल बनाया, बाद में उसके बारे में बिल्कुल जानना जरूरी नहीं समझा कि वे अब किस हाल में है। मजबूरन खिलाड़ी कभी पदक बेचने की बात करते हैं, कभी उन्हें हड़ताल करना पड़ता है, तो कभी दुखी होकर खेल ही छोड़ देने की बात कहनी पड़ती है। फॉलोअप की संस्कृति से दूर मीडिया यह सब उस तरह से कवर नहीं करता, जैसा उनकी उपलब्धियों के समय कवरेज करता है।

ओलंपिक में 113 साल के बाद अभिनव बिंद्रा के रूप में किसी भारतीय ने स्वर्ण पदक जीता। तब मीडिया और सरकार ने खूब उनका गुणगान किया। बाद में अधिकारी पुराने ढर्रे पर लौट आए। मातहतों को गुलाम समझने की मानसिकता वाले अधिकारी पक्के अधिकारी हो गए। निशानेबाजी का ककहरा भी जो नहीं जानते वे यह तय करने लगे कि उन्हें कहां प्रशिक्षण लेना है, कहां अभ्यास करना है। अभिनव को जर्मनी से बुलाया गया, मगर उनके कोचिंग की व्यवस्था नहीं हो पाई। कभी खर्चे का रोना रोया गया। खेल अधिकारियों और ब्यूरोक्रेसी के रवैये से आजिज आकर आखिरकार उन्हें मीडिया में आकर यह कहना पड़ा कि ऐसे में वे खेल नहीं पाएंगे।

इसी हफ्ते हॉकी के खिलाड़ियों ने भी पैसे को लेकर हड़ताल किया। मामला जब गरमाया तब जाकर सरकार को लगा कि किसी भी समस्या को नजरअंदाज कर देने समस्या टलती नहीं। फिर खिलाड़यों के पैसे के मामले को लेकर दूसरे लोग भी आगे आए। पर दुखद यह है कि जब तक खिलाड़यों ने हड़ताल नहीं की, पैसे को लेकर एकदम अड़ नहीं गए तब तक न सरकार आगे आई और न ही वे लोग आगे आए जो अब आए हैं। इससे ये नहीं लगता कि हमारी सरकार और समाज का जमीर तब तक नहीं जागता जब तक कि कुछ हो-हंगामा न हो। यही हॉकी खिलाड़यों के साथ भी हुआ और यही रुचिका मामले के साथ भी। रुचिका मामले में जब हंगामा हुआ तभी कानून मंत्री जागे, तभी गृह मंत्री जागे, तभी महिला आयोग ने रुचि ली और थक-हारकर अदालत का विवेक भी तभी जागा।

राष्ट्रीय खेल होने के बावूज हॉकी के लिए सरकारी स्तर पर इतनी उदासीनता शर्मनाक है। जबकि क्रिकेट आगे सब नतमस्तक हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां क्रिकेट को कैश कराने में मस्त हैं। मीडिया क्रिकेट की हार-जीत को देश की हार और जीत का पर्याय बनाकर पेश करती है। मानो किसी देश से युद्ध में हार हुई हो या युद्व में हराया हो। मगर हॉकी के लिए कुछ नहीं होता। वे जीतते हैं तो एयरपोर्ट पर उनके लिए वह भीड़ नहीं उमड़ती, उन्हें क्रिकेट वालों की तरह प्यार और पैसा नहीं मिलता। पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और अब बीजेपी के सांसद कीर्ति आजाद ने कहा था कि जिन्होंने जीवन में कभी बल्ला नहीं पकड़ा, वे तय कर रहे हैं कि कौन खेले और कौन नहीं। समझ में नहीं आता कि क्रिकेट बोर्डों में नेता और अफसर वहां क्या कर रहे हैं? राजनीतिक दलों के सांसद और पत्रकार क्रिकेट बोर्ड में क्या कर रहे हैं? लालू यादव जैसे लोग क्रिकेट से क्यों उन्हें खेल का क्या इल्म है?

हकीकत यही है कि जो खिलाड़ी नहीं वे खेल का भविष्य बांचते और तय करते हैं, जो संगीत नहीं जानते वे संगीत पर फैसले सुनाते हैं, जो लिखना नहीं जानते वे किताबों की समीक्षा करते हैं। शायद यह सब अपने देश में ही इस तरह संभव है।

गुरुवार, जनवरी 14, 2010

हमारी सारी दुनिया हो गयी झूठी









बड़े भाई, यादवेन्द्र जी द्वारा अनूदित कविताएं अब तक हम इस ब्लाग पर प्रस्तुत करते रहे हैं। इस बार पेश है उनकी लिखी एक कविता, जिसके संदर्भ के लिए यहां पेश है खत में व्यक्त विचार.

२८ जनवरी १९८९ को लिखी अपनी एक पुरानी कविता आज जाने क्यों अचानक याद आ गयी..ढूंढा तो मिल भी गयी, हांलाकि आसानी से मेरी पुरानी चीजें मिलती नहीं हैं...हुआ ये कि मेरी छोटी बेटी मृदु जिसके पहली बार खड़े हो कर चलने को देख के मैं इतना अभिभूत हो गया था कि ये कविता उसी समय लिख डाली थी--बेटियों की कविता सिरीज में मेरी ये कविता भी शामिल है और मित्रों के आग्रह पर मैं इसको कई बार सुनाता भी हूँ..आज मेरी ये बेटी इंजिनियर बनने वाली है...आज ये कविता आपके साथ साझा कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि आपको भी इसमें धीरे धीरे जीवन से विलुप्त होती जा रही संवेदनाओं की कुछ छुअन मिलेगी...

प्रस्थान बिंदु

वह आज चली
पहली बार
ताज़ा भोर हुई
जैसे सदियों की बर्फ गली
वह आज चली....

वह आज गिरी
पहली बार
मैं झपटा उठाऊ उसे
जैसे कोई गिन्नी चोरों से घिरी
वह आज गिरी...

उसने मुझे पकड़ा भर कर
पहली बार
तारे तोड़ लाऊंगा उसके लिए
मैं आकाश तक हो गया बढ़ कर
उसने मुझे पकड़ा भर कर...

वह आज उठी
पहली बार
बल खाती गुर्राती ज्वार की तरह
हमारी सारी दुनिया हो गयी झूठी
वह आज उठी...

वह आज चली
वह आज गिरी
उसने मुझे पकड़ा भर कर
वह आज उठी
पहली बार
और बार बार...!

शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

पाकिस्तान- हिंदुस्तान के लोगों को कैसी आजादी?

देश आज़ाद को आज़ादी मिली, लोगों की कुर्बानियां रंग लाई, मगर ज़मीन पर लकीर खींचने की शर्त के साथ। आज़ादी का पूरा लुत्फ खुली हवा में ही उठाया जा सकता है। वतन जब अपना हो, तमाम अख़्तियारात जब अपने ज़द में हो तभी हम आज़ाद हैं। नेताओं ने सोचा और नेताओं के बगलगीरों ने सोचा...फिर मुल्क बंटा...नदी बंटी...सेना बंटी...माल-ओ-दौलत का बंटवारा हुआ। फिर लकीर दिल पर खींची जाने लगी। यह लकीर इतनी बड़ी होती चली गई कि सात समंदर पार के देशों में जाना आसान, मगर घर के पड़ोस में नहीं।

सरकारें आती रहीं, सरकारें जातीं, तीन बार सेनाओं ने ज़ोर-आजमाईश की, गरीब घरों से आकर फौज में भर्ती नौजवान एक देश की भाषा में शहीद हुए, दो दूसरी देश की भाषा में मारे गए। फिर तो लकीर और बड़ी होती चली गई। सियासतदानों, आतंकियों, फौजियों ने इसकी ऊंचाई और बढ़ा दी है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो बड़े अखबार घराने इन दिनों इस लकीर को लांघने की कोशिश कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं- अमन की आशा। आशा-निराशा दोनों का खेल इसमें चल रहा है। कुछ लोगों को लगता है कि यह आशा व्यर्थ है, यह प्रयास फलीभूत नहीं होगा- पहले बात कश्मीर पर करो, पहले बात फौजियों को घटाने पर करो....गोया अमन की आशा शर्तों और कंडीशंस की बांदी हो गई। पर यहां यह याद रहे कि हम उनके घर नहीं जाते, वो मेरे घऱ नहीं आते...मगर इन एहतियातों से तआल्लुक मर नहीं जाते।