शनिवार, जनवरी 16, 2010

उन्हें खेल का क्या इल्म है?

भारतीय मीडिया, नेता औऱ जनता के साथ एक बात कॉमन है कि वह बहुत जल्दी भूल जाते हैं। चाहे सरहद पर शहीद सैनिक हों या ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ी। करगिल में लड़ाई के समय और मुंबई हमले के समय मीडिया ने सैनिकों के प्रति, उनके परिवारों के प्रति जैसा माहौल बनाया, बाद में उसके बारे में बिल्कुल जानना जरूरी नहीं समझा कि वे अब किस हाल में है। मजबूरन खिलाड़ी कभी पदक बेचने की बात करते हैं, कभी उन्हें हड़ताल करना पड़ता है, तो कभी दुखी होकर खेल ही छोड़ देने की बात कहनी पड़ती है। फॉलोअप की संस्कृति से दूर मीडिया यह सब उस तरह से कवर नहीं करता, जैसा उनकी उपलब्धियों के समय कवरेज करता है।

ओलंपिक में 113 साल के बाद अभिनव बिंद्रा के रूप में किसी भारतीय ने स्वर्ण पदक जीता। तब मीडिया और सरकार ने खूब उनका गुणगान किया। बाद में अधिकारी पुराने ढर्रे पर लौट आए। मातहतों को गुलाम समझने की मानसिकता वाले अधिकारी पक्के अधिकारी हो गए। निशानेबाजी का ककहरा भी जो नहीं जानते वे यह तय करने लगे कि उन्हें कहां प्रशिक्षण लेना है, कहां अभ्यास करना है। अभिनव को जर्मनी से बुलाया गया, मगर उनके कोचिंग की व्यवस्था नहीं हो पाई। कभी खर्चे का रोना रोया गया। खेल अधिकारियों और ब्यूरोक्रेसी के रवैये से आजिज आकर आखिरकार उन्हें मीडिया में आकर यह कहना पड़ा कि ऐसे में वे खेल नहीं पाएंगे।

इसी हफ्ते हॉकी के खिलाड़ियों ने भी पैसे को लेकर हड़ताल किया। मामला जब गरमाया तब जाकर सरकार को लगा कि किसी भी समस्या को नजरअंदाज कर देने समस्या टलती नहीं। फिर खिलाड़यों के पैसे के मामले को लेकर दूसरे लोग भी आगे आए। पर दुखद यह है कि जब तक खिलाड़यों ने हड़ताल नहीं की, पैसे को लेकर एकदम अड़ नहीं गए तब तक न सरकार आगे आई और न ही वे लोग आगे आए जो अब आए हैं। इससे ये नहीं लगता कि हमारी सरकार और समाज का जमीर तब तक नहीं जागता जब तक कि कुछ हो-हंगामा न हो। यही हॉकी खिलाड़यों के साथ भी हुआ और यही रुचिका मामले के साथ भी। रुचिका मामले में जब हंगामा हुआ तभी कानून मंत्री जागे, तभी गृह मंत्री जागे, तभी महिला आयोग ने रुचि ली और थक-हारकर अदालत का विवेक भी तभी जागा।

राष्ट्रीय खेल होने के बावूज हॉकी के लिए सरकारी स्तर पर इतनी उदासीनता शर्मनाक है। जबकि क्रिकेट आगे सब नतमस्तक हैं। मल्टीनेशनल कंपनियां क्रिकेट को कैश कराने में मस्त हैं। मीडिया क्रिकेट की हार-जीत को देश की हार और जीत का पर्याय बनाकर पेश करती है। मानो किसी देश से युद्ध में हार हुई हो या युद्व में हराया हो। मगर हॉकी के लिए कुछ नहीं होता। वे जीतते हैं तो एयरपोर्ट पर उनके लिए वह भीड़ नहीं उमड़ती, उन्हें क्रिकेट वालों की तरह प्यार और पैसा नहीं मिलता। पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और अब बीजेपी के सांसद कीर्ति आजाद ने कहा था कि जिन्होंने जीवन में कभी बल्ला नहीं पकड़ा, वे तय कर रहे हैं कि कौन खेले और कौन नहीं। समझ में नहीं आता कि क्रिकेट बोर्डों में नेता और अफसर वहां क्या कर रहे हैं? राजनीतिक दलों के सांसद और पत्रकार क्रिकेट बोर्ड में क्या कर रहे हैं? लालू यादव जैसे लोग क्रिकेट से क्यों उन्हें खेल का क्या इल्म है?

हकीकत यही है कि जो खिलाड़ी नहीं वे खेल का भविष्य बांचते और तय करते हैं, जो संगीत नहीं जानते वे संगीत पर फैसले सुनाते हैं, जो लिखना नहीं जानते वे किताबों की समीक्षा करते हैं। शायद यह सब अपने देश में ही इस तरह संभव है।

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