गुरुवार, जनवरी 14, 2010

हमारी सारी दुनिया हो गयी झूठी









बड़े भाई, यादवेन्द्र जी द्वारा अनूदित कविताएं अब तक हम इस ब्लाग पर प्रस्तुत करते रहे हैं। इस बार पेश है उनकी लिखी एक कविता, जिसके संदर्भ के लिए यहां पेश है खत में व्यक्त विचार.

२८ जनवरी १९८९ को लिखी अपनी एक पुरानी कविता आज जाने क्यों अचानक याद आ गयी..ढूंढा तो मिल भी गयी, हांलाकि आसानी से मेरी पुरानी चीजें मिलती नहीं हैं...हुआ ये कि मेरी छोटी बेटी मृदु जिसके पहली बार खड़े हो कर चलने को देख के मैं इतना अभिभूत हो गया था कि ये कविता उसी समय लिख डाली थी--बेटियों की कविता सिरीज में मेरी ये कविता भी शामिल है और मित्रों के आग्रह पर मैं इसको कई बार सुनाता भी हूँ..आज मेरी ये बेटी इंजिनियर बनने वाली है...आज ये कविता आपके साथ साझा कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ कि आपको भी इसमें धीरे धीरे जीवन से विलुप्त होती जा रही संवेदनाओं की कुछ छुअन मिलेगी...

प्रस्थान बिंदु

वह आज चली
पहली बार
ताज़ा भोर हुई
जैसे सदियों की बर्फ गली
वह आज चली....

वह आज गिरी
पहली बार
मैं झपटा उठाऊ उसे
जैसे कोई गिन्नी चोरों से घिरी
वह आज गिरी...

उसने मुझे पकड़ा भर कर
पहली बार
तारे तोड़ लाऊंगा उसके लिए
मैं आकाश तक हो गया बढ़ कर
उसने मुझे पकड़ा भर कर...

वह आज उठी
पहली बार
बल खाती गुर्राती ज्वार की तरह
हमारी सारी दुनिया हो गयी झूठी
वह आज उठी...

वह आज चली
वह आज गिरी
उसने मुझे पकड़ा भर कर
वह आज उठी
पहली बार
और बार बार...!