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सरकारें आती रहीं, सरकारें जातीं, तीन बार सेनाओं ने ज़ोर-आजमाईश की, गरीब घरों से आकर फौज में भर्ती नौजवान एक देश की भाषा में शहीद हुए, दो दूसरी देश की भाषा में मारे गए। फिर तो लकीर और बड़ी होती चली गई। सियासतदानों, आतंकियों, फौजियों ने इसकी ऊंचाई और बढ़ा दी है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के दो बड़े अखबार घराने इन दिनों इस लकीर को लांघने की कोशिश कर रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं- अमन की आशा। आशा-निराशा दोनों का खेल इसमें चल रहा है। कुछ लोगों को लगता है कि यह आशा व्यर्थ है, यह प्रयास फलीभूत नहीं होगा- पहले बात कश्मीर पर करो, पहले बात फौजियों को घटाने पर करो....गोया अमन की आशा शर्तों और कंडीशंस की बांदी हो गई। पर यहां यह याद रहे कि हम उनके घर नहीं जाते, वो मेरे घऱ नहीं आते...मगर इन एहतियातों से तआल्लुक मर नहीं जाते।
4 टिप्पणियां:
nice
janta chaahe yahaan ki ho ya wahaan ki, koi khoon kharaba nahi chahta
मार्के की बात कही आप ने
संभावनाएं अनंत होती हैं। इसलिए,एक संभावना यह भी है कि..............?
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