गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

आज के हालत-ए-हाजरा पर यादवेन्द्र का नजरिया

वह समय अभी अच्छी तरह से बीता हुआ भी नहीं माना जा सकता जब मिस्र की सड़कों पर...मुख्य तौर पर दिल्ली के जंतर मंतर या रामलीला मैदान की तरह ही राजधानी काहिरा के तहरीर चौक पर... लाखों लोगों का गैर राजनैतिक समूह (कहा जाता है कि इसमें नौजवान सबसे ज्यादा थे) कई दिनों तक देश की तीन दशकों से ज्यादा वक्त से काबिज राजनैतिक सत्ता को गद्दी छोड़ने की चुनौती देता रहा और बगैर ज्यादा खून खराबे के अंततः अपने फौरी मकसद में कामयाब भी हुआ. तब दुनिया भर में इसको एक अद्भुत क्रांति ( अरबी बसंत नाम से याद किया जाता है)के प्रतीक के तौर पर हाथों हाथ लपका गया.भारत में अनेक गैर राजनैतिक बुद्धिजीवी,अन्ना हजारे और रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसे हिंदूवादी राजनीति का पानी नाप रहे आध्यात्मिक गुरु बार बार इसकी दुहाई देकर व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं...अब इस साल के अंतिम दिनों में दिल्ली या मुंबई में इसी तरह का गैर राजनैतिक कहा जाने वाला जन आन्दोलन लोकपाल के मुद्दे पर आयोजित किया जायेगा इसकी घोषणा महीनों से ताल ठोंक ठोंक कर की जा रही है.

इस टिप्पणीकार का अरबी बसंत के अद्भुत उदाहरण को छोटा करके दिखाने का कतई कोई आग्रह नहीं है पर बार बार गैर राजनैतिक कहे जाने वाले आन्दोलन का अंततः क्या हस्र होता है इसके लिए हमें अपने आस पास की उभर रही वास्तविकताओं से आँखें मिला कर बातें करनी होंगी...मिस्र और ट्यूनीशिया की बात ही करें तो आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले लगभग धर्म निरपेक्ष जन आंदोलनों के बाद दशकों से काबिज निरंकुश शासक तो हट गए पर चुनाव के बाद जो नया सत्ता वर्ग उभरा वह इस्लामी कट्टरवादी चेहरे पर झीना सा पर्दा डाल कर सहिष्णु दिखने वाला धुर इस्लामी कट्टरपंथी राजनैतिक वर्ग ही निकला..और शुरूआती चुनाव परिणाम आते ही आर्थिक संसाधन और संगठन के मामले में बेहद ताकतवर इन कट्टर पंथियों नें मुगदर भांजने शुरू भी कर दिए...इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण उनके भविष्य में समाज में स्त्रियों की भूमिका को लेकर दिए गए वक्तव्य हैं जिसमें बार बार शरीया कानून का हवाला दिया जा रहा है.धर्म को राजनीति का हथियार बनाने का विरोध करने वाली नयी पार्टियाँ इन चुनावों के दो दौर में दस फीसदी से भी कम वोट हासिल कर पायीं.और तो और मिस्र के चुनाव में बीस फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर लेने वाली दूसरी सबसे बड़ी इस्लामी सलाही पार्टी के प्रवक्ता ने जब मिस्र ही क्या पूरे अरब विश्व के सबसे बड़े कथाकार नगीब महफूज ( 1988 में साहित्य का नोबेल जीतने वाले)के साहित्य को उनके शताब्दी वर्ष में घिनौनी वेश्या जैसा संबोधन दे डाला तब आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाले बुद्धिजीवियों का माथा भी ठनका.अपने दीर्घ जीवन में महफूज ने बेहद साहस के साथ कट्टर पंथी मजहबी सोच और सत्ता का विरोध किया.उनकी किताबों पर प्रतिबन्ध लगे,उनसे लम्बी पुलिस पूछ ताछ हुई और यहाँ तक कि मृत्यु से कुछ वर्ष पहले एक कट्टरपंथी नौजवान ने उनपर चाकू से हमला किया और उनके दाहिने हाथ को इतना जख्मी कर दिया कि उस से लिखना मुमकिन न हो..कई आलोचक तो उनके साहित्य में मिस्र के हालिया सत्ता परिवर्तन की चिंगारी भी देखते हैं.महफूज की एक आत्मकथात्मक कृति में बचपन के अंग्रेजों के खिलाफ मिस्री विद्रोह की चर्चा है जिसमें अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए महफूज कहते हैं कि हम खुदा से दुआ करते थे कि इस बगावत के कारण हमारा स्कूल हमेशा बंद ही रहे...बाद के लेखन में भी महफूज सामाजिक और राजनैतिक बदलाव की निरंतरता की वकालत करते रहे. इतना ही नहीं,इन कट्टरपंथी पार्टियों ने संसद में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व की बात को गुनाह का संबोधन दिया..विश्व प्रसिद्ध पिरामिडों को देखने वालों को मूर्तिपूजा जैसे गैर इस्लामी काम अंजाम देने वाला बताया...यहाँ तक कि जिन चुनावों की बदौलत उन्हें अपनी ताकत दिखाने का मौका मिला है उसे ही वे अनुचित बता रहे हैं.

मिस्र के प्रमुख स्तंभकार अब्देल मोनिम सईद ने अल अहरम वीकली में लिखते हुए अरब बुद्धिजीवियों के इस मोहभंग की तुलना ग्रीक पुराकथाओं के चरित्र आईकारस से की जो बार बार आसमान में परिंदों की तरह उड़ने की जिद करता था और जब उसके पिता दीदेलस ने मोम से उसके कन्धों पर पंखों को चिपका दिया और इस चेतावनी के साथ उड़ने को कहा कि सूरज के पास मत जाना नहीं तो पंखों को शरीर से चिपकाने वाला मोम पिघल जायेगा...पर युवा जिद अपनी जगह. आईकारस सूरज तक जा पहुंचा और जैसा होना था वही हुआ...इधर मोम पिघला और उधर आईकारस की शामत आई. इस कथा से और कुछ मिले न मिले यह सीख जरुर मिलती है कि अधूरी तैयारी और भावनात्मक उत्साह और भावुकता के साथ शुरू किये गए अभियान अपने लक्ष्य तक पहुँचने मुश्किल होते हैं.और राजनैतिक सत्ता को उखाड़ने के लिए गैर राजनैतिक आन्दोलन का शस्त्र ज्यादा कारगर नहीं हो सकता...और राजनैतिक लड़ाई का नेतृत्व संगठित विचारों और कार्यक्रमों के साथ ही किया जा सकता है...बिखरी हुई रूमानियत और संकल्पहीनता के साथ छेड़ी गयी लड़ाई भले ही तात्कालिक स्तर पर सफल होती दिखाई दे पर इसकी दूरगामी और स्थायी परिणति होना बहुत मुश्किल है...कम से कम हालिया इतिहास में इसकी मिसाल नहीं मिलेगी. गुजरात,असम और बिहार के सामाजिक परिवर्तन के तमाम नायक अपने अपने प्रान्तों के मुख्य मंत्री भले ही बन गए पर उनमें से बिरले ही ऐसे हुए जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और शुचिता के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये.इसी लिए कोई आश्चर्य नहीं कि अन्ना हजारे और उनके साथियों की वाणी में विनम्रता और दूसरों के विवेक को स्वीकार करने का घनघोर अभाव है...और उनके जन आन्दोलन का मुखर विरोध करने के लिए इक्का दुक्का मौकों को छोड़ दें तो कांग्रेस अबतक जिस भड़काऊ भाषा का प्रयोग का इस्तेमाल करने से बचती रही है उसका जयप्रकाश के परिवर्तनकारी आन्दोलन के कई पुरोधा( लालू प्रसाद और शिवानन्द तिवारी जैसे लोग) खुल कर प्रयोग कर रहे हैं. ऐसे समय में हमें ठहर कर पूरी संजीदगी के साथ यह विचार करना होगा कि यथा स्थिति से बगावत करने के लिए तैयार बैठे समाज ( इसका बहुत बड़ा हिस्सा युवा है,यदि हम वोट पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात करें तो) की इच्छा और ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने के लिए गैर राजनैतिक मंच कितना प्रभावी होगा और खुद को दूसरा राष्ट्रपिता समझने वाले व्यक्ति के आसपास केन्द्रित ट्विटर और फेसबुक की ताकत से संचालित मंच से राजनैतिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ना सचमुच क्या संभव भी होगा?हमें याद रखना होगा कि इतिहास से सबक नहीं सिखने वालों का हस्र कभी भी अच्छा नहीं हुआ है.
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बुधवार, दिसंबर 14, 2011

अचूक अवसरवादियों का 'नया दौर'

यह अचूक अवसरवादियों का नया दौर है. जिसमें विचारधाराएं, जीवन मूल्य, बड़प्पन जैसे शब्द मूल अर्थक्षरित हुए. यह कुछ पा लेने का दौर है. जो पा लेने में सफल होता है वह महानता का चलता फिरता आत्मविज्ञापन लगता है.

शनिवार, दिसंबर 10, 2011


48 वर्षीय नसरीन सतूदेह इरान की बेहद लोकप्रिय मानव अधिकार वकील और कार्यकर्ता हैं जो अपने कट्टर पंथी शासन विरोधी विचारों के लिए सरकार की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं.अपने छात्र जीवन में खूब अच्छे नंबरों से पास होने के बाद उन्होंने कानून की पढाई की पर वकालत करने के लाइसेंस के लिए उन्हें आठ साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा.उन्होंने सरकारी महकमों और बैंक में भी नौकरी की पर इरान के पुरुष वर्चस्व वाले समाज में आततायी पिताओं के सताए हुए बच्चों और शासन के बर्बर कोप का भाजन बने राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए क़ानूनी सहायता प्रदान करने के कारण उन्हें दुनिया भर में खूब सम्मान मिला.पिछले राष्ट्रपति चुनाव की कथित धांधलियों में उन्होंने खुल कर विरोधी पक्ष का साथ दिया...नतीजा सितम्बर 2010 में उनकी गिरफ़्तारी और अंततः जनवरी 2011 में ग्यारह साल की एकाकी जेल की सजा...जेल में रहते हुए उन्हें अपने परिवार से भी नहीं मिलने दिया जाता था इसलिए कई बार उन्होंने विरोध स्वरुप अन्न जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया...उनकी सेहत निरंतर बिगडती जा रही है.दुनिया में मानव अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अनेक लोगों और संगठनों ने उनकी रिहाई की माँग की है.जेल की अपनी एकाकी कोठरी से उन्होंने अपनी बेटी के लिए जो चिट्ठी लिखी,उसका अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है:

मेरी सबसे दुलारी मेहरावे...मेरी बेटी..मेरी शान...मेरी ख़ुशी,

एविन जेल के वार्ड न.209 से में तुम्हें सलाम भेजती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि तुम्हारा समय ठीक से बीत रहा होगा.मैं तुमसे बगैर किसी चिंता,उदासी और आँसू के मुखातिब होना चाहती हूँ..बल्कि तुम्हारे लिए और तुम्हारे छोटे भाई के लिए प्यार और दुआओं से भरे दिल के साथ तुमलोगों को सलाम करती हूँ.

मुझे अपने प्यारे बच्चों से दूर हुए छह महीने हो गए.इन छह महीनों में ले दे के ऐसे मौके बिरले ही आए हैं जब हम एक दूसरे को आमने सामने देख पाए हैं...वो भी सिक्योरिटी गार्ड की मौजूदगी में ही.मुझे इस बीच में तुम्हें ख़त लिखने की इजाज़त कभी नहीं दी गयी...ना ही तुम्हारी कोई फोटो मुझतक पहुँचने दी गयी...न हमें बगैर किसी की मौजूदगी के मिलने ही दिया गया. मेरी प्यारी मेहरावे,कोई और क्या समझेगा मेरे दिल का दर्द जितना तुम समझ सकती हो..जिन हालातों में हम एक दूसरे के साथ मिल पाए,इसका भी तुम्हें पता है.हर बार...तुमलोगों से मिलने के बाद हर बार और यहाँ तक कि यहाँ रहते हुए हर रोज मैं अपने आपसे ये सवाल पूछती हूँ कि दुनिया जहान के काम करते हुए मैंने कहीं अपने बच्चों के हक़ को इज्जत और अहमियत देनी बंद तो नहीं कर दी.मेरी बच्ची,तुम्हारी समझदारी का खूब भरोसा करते हुए भी किसी और बात से ज्यादा मुझे इस बात की फ़िक्र रहती है कि तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आना चाहिए कि मैंने अपने ही बच्चों के हक़ न्योछावर कर दिए.

मेरी सबसे प्यारी मेहरावे, अपनी गिरफ़्तारी के बाद पहले दिन से ही मैं तुम्हारे और तुम्हारे भाई के अधिकारों के ऊपर गौर करती रही हूँ..तुम्हारी उम्र का ध्यान करते हुए मुझे तुम्हारी चिंता ज्यादा रहती है...कि तुम मुश्किल हालातों में कितना खुद को ढाल पाओगी...कि कितनी गहराई से उनको समझ पाओगी...तुम्हारी हिम्मत और सहनशक्ति...सबसे ज्यादा इस बात से परेशान रहती हूँ कि मेरी गिरफ़्तारी और सजा को लेकर स्कूल में तुम्हारे दोस्त कहीं तुमसे मिलने जुलने और बोलने से तो परहेज नहीं करने लगेंगे. हाँलाकि मेरे मन के अंदेशों को धराशायी होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा...अब मैं...या ये कहना बेहतर होगा कि हम...अपनी मान्यताओं और विश्वासों के प्रति ज्यादा मजबूती के साथ खड़े हुए हैं.

तुम्हारी ताकत और सहनशक्ति मुझसे कमतर कतई नहीं है मेरी बेटी.एक बार मैंने तुमसे कहा था: ऐसा कभी मत सोचना मेरे बच्चे कि मुझे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है...या कि मैंने कोई ऐसा गलत काम किया जिस से मुझे ऐसी सजा दी जाये... मैंने जो कुछ भी किया देश के कानून के अंदर किया...गैर क़ानूनी कुछ भी नहीं किया...मुझे खूब अच्छी तरह याद है कि इस पर तुमने अपनी नन्हीं हथेलियों से मेरा चेहरा सहलाते हुए जवाब दिया था: ममी,मुझे सब मालूम है...जानती हूँ मैं...उस दिन जिस भरोसे से तुमने ये शब्द बोले थे उससे मैं अपनी बच्ची की गुनहगार बनाने की आशंकाओं से सदा के लिए उबर गयी थी.

मेरी बच्ची,स्कूल में साथ पढने वाले बच्चों के बर्ताव के बारे में भी मेरी तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं...जाहिर है,इस पीढ़ी के बच्चे पिछली पीढ़ी से ज्यादा समझदार और सयाने हैं. यही कारण है कि यहाँ मैं किसी चिंता के बोझ से मुक्त हूँ, अपनी विश्वासों पर पक्की खड़ी हूँ...दर असल मुझमें यह शक्ति तुम्हारी और तुम्हारे पिता की वजह से आई.

प्यारी प्यारी मेहरावे, मुझे हमारी साथ साथ बितायी हुई खुशनुमा यादें बार बार जेहन में आ रही हैं.यहाँ जेल में रात में जब मैं सोने जाती हूँ तो याद आते हैं वो पल जब मैं घर रहते हुए तुम्हें सुलाया करती थी.मैं तुम्हें तरह तरह की लोरियां और गीत सुनाया करती थी,पर तुम्हें सबसे ज्यादा पसंद थी वो परियों वाली लोरी.कोई रात ऐसी नहीं बिताती थी जब तुम उसको सुनने की जिद न करो...और मैं शुरू हो जाती थी:

मेरी प्यारी बच्ची,बच्चों के हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए मेरा सबसे बड़ा संबल और प्रेरणा तुम ही थीं.उस समय भी मैं सोचती थी..और अब भी भरोसा है कि बच्चों के हक़ कि लड़ाई में मिली कामयाबी का सबसे बड़ा फायदा मेरे अपने बच्चों को मिलेगा.जब भी मैं बर्बरता से जूझते किसी मासूम का केस लड़ कर कोर्ट से घर लौटती तो सबसे पहले तुम दोनों को बांहों में भींच लेती और देर तक इस आत्मीय गिरफ्त से छूटने से बचती रहती.अब आज यहाँ रहते हुए मैं इस बर्ताव के बारे में बार बार सोचती हूँ...शायद देर तक तुम दोनों के साथ ऐसे लिपटने से मैं जुल्मों के सताए बच्चों को कुछ दिलासा दे पाती होऊं.

मुझे याद है एक बार तुमने बड़ी संजीदगी से कहा था कि तुम नहीं चाहती कि कभी भी 18 साल की हो जाओ.मेरे पूछने पर तुमने टपक से जवाब दिया था कि इस उम्र में पहुँचते ही तुम्हें बचपने को अलविदा कहना पड़ेगा...तुम बचपने को मिलती ख़ास तवज्जो से कभी महरूम नहीं होना चाहती.मैं इस जवाब से मिली ख़ुशी को कभी शब्दों में बयान नहीं कर सकी मेरी बेटी...मुझे खूब याद है कि तुम कोई ऐसा मौका नहीं छोड़तीं जब मेरे या तुम्हारे पिता के सामने ये साबित करना हो कि तुम अब भी बच्ची ही हो,18 साल की सयानी नहीं हुई...और हमारे लिए तुम्हारे बचपने की हिफाजत करना..और उसको सम्मान देना कितना जरुरी था.

मेरी प्यारी बच्ची, जैसे मैंने तुम्हारे बाल अधिकारों को भरपूर सुरक्षा और सम्मान देने की पूरी कोशिश की वैसे ही अपने तमाम मुवक्किलों के साथ भी बर्ताव किया...उनके हकों की अनदेखी मैंने कभी नहीं की. जब जब मेरे मुवक्किल मुश्किल में पड़े या उनको सलाखों के पीछे धकेला गया,मैंने अपना दिन रात नहीं देखा और उनकी हिफाजत के लिए मौके पर डटी रही.जिन्होंने मुझे अपनी मदद के लिए बुलाया है उनको बीच मंज्धार में छोड़ कर मैं कैसे जा सकती हूँ? कभी नहीं..मैं ऐसा कभी नहीं कर सकती.

अब ख़त को पूरा करने से पहले एक बार मैं तुमसे कहना चाहती हूँ कि तुमलोगों के और तुम्हारी तरह के दूसरे बच्चों के बाल अधिकारों की हिफाजत को ध्यान में रख कर और तुमलोगों के बेहतर भविष्य की सोच कर ही मैंने यह पेशा अपनाया था.और मुझे पूरा पूरा भरोसा है कि मेरे और मेरी तरह के हालातों में रह रहे बहुतेरे परिवारों की तकलीफ व्यर्थ नहीं जाएगी...दर असल इन्साफ तभी प्रकट होता है जब चारों ओर घनघोर निराशा छाने लगती है...हम इन्साफ की उम्मीद करना भी छोड़ देते हैं.मुझे अपने कहे पर पूरा भरोसा है.तुम्हारे लिए मेरी दुआ सिर्फ भरपूर ख़ुशी और सुख भरे बचपने की है.

प्यारी प्यारी मेहरावे,मुझसे जिरह करने वालों और जजों के लिए इस वजह से गुस्सा नहीं पालना की वे मेरे साथ ऐसा सुलूक कर रहे हैं...बल्कि अपनी बाल सुलभ मुलायमियत और खूबसूरती के साथ उनसे पेश आन...उनके लिए अमन और चैन की दुआएं माँगना...ऐसा करोगी तो उनके साथ साथ हमें भी खुदा ऐसे ही अमन और चैन के आशीर्वाद देगा.

यहाँ रहते हुए कोई ऐसा पल नहीं आता की तुम्हें याद न करती होऊं...तुम्हारे लिए सैकड़ों चुम्बन...

-तुम्हारी माँ नसरीन

-चयन एवं अनुवाद- यादवेन्द्र

गुरुवार, नवंबर 11, 2010

चिर काल तक यह जीवन फलता-फूलता रहेगा

बहुत दिन हुए....बहुत दिन हुए खुद के ही ब्लाग को देखे हुए. वक्त गुजरता गया और गुजरते वक्त ने कभी इतनी मोहलत नहीं दी कि मुड़कर इधर आ सकूं. पर देर आयद दुरुस्त आयद. आज आया. ...और आते ही भाई यादवेन्द्र जी ने यह कविता उपलब्ध करवाई है और वादा किया है कि अब वे निरंतर ख्वाब का दर पर दस्तक देते रहेंगे. तो लीजिए लंबे अरसे बाद आज इब्तिदा कीजिए, इस कविता से.....


बेटे को लिखा आखिरी ख़त

- नाजिम हिकमत


एक झटके से जल्लाद मुझे तुमसे अलग कर देगा
ये अलग बात कि मेरा सड़ा हुआ दिमाग
भरता रहता है मेरे दिमाग में अनहोने खुराफात ...
मेरे कार्ड में साफ़ साफ़ लिखा हुआ है
कि मैं अब कभी नहीं देख पाऊंगा तुमको.


यहाँ बैठे बैठे देख पाता हूँ
जवान होने पर तुम लगोगे बिलकुल
खेत से कटे हुए गेंहूँ के पुलिंदों की तरह
लम्बे छरहरे और सुनहरे बालों वाले..
जैसा मैं दिखता था अपनी जवानी में.
तुम्हारी आँखें बड़ी बड़ी होंगी
बिलकुल अपनी माँ जैसी
और धीरे धीरे तुम धीर गंभीर होते जाओगे
पर तुम्हारा माथा दूर से भी दमकेगा आभा से..


तुम्हारी वाणी अच्छी रोबीली निकल कर आएगी
मेरी तो बिलकुल ही बुरी थी...
और तुम गाया करोगे खट्टे मीठे
जीवन के ह्रदयविदारक गीत.
तुम्हे ढंग से बातचीत करने का सलीका आ जायेगा--


मैं तो अपने दिनों में जब ज्यादा विकल नहीं होता था
जैसे तैसे अपना काम चला लिया करता था.
तुम्हारी कृतियाँ शहद जैसा रस घोलेंगी
जब तुम्हारे कंठ से निकल कर बाहर आएँगी.


हां...ममेत
अल्हड लड़कियां तो तुम्हे देख कर
जूनून से बस पागल ही हो जाएँगी.
एहसास है मुझे


कितना भारी पड़ता है पालना
किसी बच्चे को बगैर पिता के.
अपनी माँ से प्रेम से पेश आना मेरे बच्चे
मैं नहीं दे पाया उसको खुशियाँ और सुख
पर तुम दिल से इसकी कोशिश करने
भरपूर...ईमानदार.
तुम्हारी माँ रेशम के धागों की मानिंद
शक्तिशाली और कोमल स्त्री है.


दादी बनने के बाद भी
वह उतनी ही खूबसूरत लगेगी
जैसी पहली बार में मुझे लगी थी
सत्तरह साल की कमसिन उम्र में.
वह सूरज सी दीप्तिमान भी है
और चन्द्रमा जैसी शीतल भी.
मुलायम चेरी की तरह है उसका दिल
यथार्थ में ऐसा ही है असल उसका सौंदर्य.


एक दिन सुबह सुबह
तुम्हारी माँ ने
और मैंने
अलविदा कहा एक दूसरे को
मन में ये उम्मीद लिए हुए
कि हम फिर मिलेंगे जल्दी ही
पर ये हमारे नसीब में नहीं लिखा था मेरे बेटे
फिर हमारा मिलना हो ही नहीं पाया कभी भी.
इस दुनिया में सबसे स्नेहिल और सुव्यवस्थित है
तुम्हारी माँ...


खुदा करे वो सौ साल जिए.
मैं भयभीत नहीं होता हूँ मौत से
फिर भी आसान नहीं है
कई कई बार ऐसे ही सिहर जाना
अपने हाथ में लिए काम के संपन्न हुए बगैर ही.
सांस छूटने से पहले एक एक दिन गिनने लगना
अपने नितांत एकाकीपन में.
मैं तुम्हे कभी नहीं दे पाया
एक भरीपूरी मुकम्मल दुनिया


ममेत..
कभी भी नहीं मेरे बच्चे.
ध्यान रखना मेरे बेटे
इस दुनिया में ऐसे कभी मत रहना
जैसे मेहमान बनकर रह रहे हो किसी किराए के घर में
गर्मी से बचने को महज कुछ दिनों के लिए...


इसमें इस ठाठ के साथ रहना
जैसे ये तुम्हारे बाप का खानदानी घर हो.
बीज,धरती और सागर पर भरपूर भरोसा रखना
पर सबसे ज्यादा भरोसा रखना
अपने लोगों के ऊपर.
बादलों,मशीनों और किताबों से बेपनाह प्यार करना
पर सबसे ज्यादा प्यार
अपने लोगों से करना.


कुम्हला जाने वाली डालियों के लिए
टूट जाने वाले तारों के लिए
और चोटिल जानवरों के लिए
पसीज कर मातम मनाना
पर इन सब से ऊपर रखना
अपने लोगों के लिए महसूस
संवेदना और साझापन.


धरती की एक एक अनुकम्पा पर
झूमकर आह्लादित और आनंदित होना मेरे बच्चे...
चाहे वह अन्धकार हो या प्रकाश
चारों में से कोई भी मौसम हो
पर कभी न भूलना सबसे ऊपर
अपने लोगों को सिर आँखों पर रखना.


ममेत
हमारा तुर्की
बेहद प्यारा और मनमोहक देश है
और इसमें रहने वाले लोग
अनन्य परिश्रमी,गंभीर और बहादुर लोग हैं
पर अफ़सोस मेरे बेटे
ये सदियों से सताए हुए,त्रस्त,भयभीत और निर्धन लोग हैं.
जाने कितने सालों से टूटी हुई है
इनपर कमर तोड़ देनेवाली भारी बिपदा
पर अब ज्यादा दूर नहीं मेरे बेटे
अच्छे भरे पूरे दिन.
तुम और तुम्हारे लोग मिलकर
निर्मित करेंगे कम्युनिज्म...


तुम कितने किस्मत वाले हो कि यह सब
अपनी आँखों से तुम देख पाओगे
और छू पाओगे इसको अपने हाथों से.


ममेत
मैं बेकिस्मत मर जाऊँगा यहाँ
इतनी दूर अपनी भाषा से
और अपने गीतों से
मेरे नसीब में नहीं
अपनी माटी का नमक और रोटी..
बारबार मन घर की ओर भागने लगता है
कातर भी हो रहा है तुम्हारे लिए
तुम्हारी माँ के लिए
दोस्तों के लिए
अपने तमाम लोगों के लिए..
पर इतना भरोसा है
कि मैं निर्वासन में नहीं मरूँगा
दूसरे अनजान देश में नहीं मरूँगा
मरूँगा तो बस
अपने स्वप्नों में सजाये देश में मरूँगा


अपने सबसे हसीन दिनों में
देखा था सपना रौशनी में नहाये जगमग शहर की बाबत
भरोसा है वहीँ पहुँच कर अंतिम सांस लूँगा.


ममेत..मेरे प्यारे बच्चे
तुम्हारी आगे की परवरिश अब मैं सौंप रहा हूँ
तुर्की की कम्युनिस्ट पार्टी को..
मैं अब प्रस्थान कर रहा हूँ
चिरंतन शांति के लोक में
मेरे जीवन का अब लौकिक अंत हो रहा है
पर ये आगे भी जारी रहेगा यथावत
तुम्हारे जीवन के लम्बे सालों में...
हाँ , चिर काल तक यह जीवन फलता फूलता रहेगा
हमारे अपने लोगों के जीवन में.


प्रस्तुति एवं अनुवाद :यादवेंद्र

मंगलवार, मार्च 23, 2010

विधवा ब्राह्मण महिलाओं को कितना जानते हैं आप?

हम भारतीय घर से बाहर निकलते ही अक्सर इतने शुचितावादी और नैष्ठिक होने लगते हैं कि यह तो लगभग भूल ही जाते हैं कि हमारी स्वाभाविक जिंदगी इन चीजों के कारण अस्वाभाविक और अप्राकृतिक हो जाती है. ....और दूसरों पर उंगली उठाने और राय बनाने में तो हमारी जल्दबाजी का जवाब नहीं. मेरे गांव की एक जवान विधवा यहां दिल्ली आकर कुछ करना चाहती है...नौकरी...घरेलू दाई का काम...मेहनत-मजदूरी का कोई भी काम जिससे अपना और एक बच्ची का पेट पल जाए. मगर उस विधवा ब्राह्मणी को आज की तारीख में भी दोबारा शादी करने की इजाजत नहीं है. उसे क्या किसी भी विधवा को आज भी मिथिला के ब्राह्मण समाज में पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है. गांव में मेहनत-मजदूरी करने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं, क्योंकि इससे गांव के अलंबरदार ब्राह्मणों की नाक कटेगी....अफसोसनाक बात यह है कि इन नाजुक नाक वालों की नजर उसके शरीर पर तो है...मगर उसके पेट और उसकी नीरस, बेरंग जिंदगी पर बिल्कुल नहीं.
परसों फोन पर वह मुझसे नौकरी मांग रही थी....और मैं कुछ इस तरह हां...हां किए जा रहा था जैसे नौकरी मेरी जेब में रहती है और उसके दिल्ली आते ही वह नौकरी मैं उसे तत्काल जेब से निकालकर दे दूंगा्...बाल-विधवा उस निरक्षर महिला की आकुलता और आगत जीवन की चिंता में इतना डूबता चला गया मैं. उसके दिल्ली की और नौकरी की असली स्थिति बताकर उसे और हताश करना मुझे अपराध-सा लगने लगा था...

बिहार से मजदूरों का पलायन हो रहा है- यह एक तथ्य है. और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि बिहार के गांवों में मेहनत-मजदूरी का काम गैर ब्राह्मण वर्ग की स्त्रियां करती हैं...शुरू से करती रही हैं और आज भी करती हैं. मगर गरीब रिक्शाचालक ब्राह्मण की बीवी कोई मेहनत मजदूरी का काम नहीं कर सकती. इस मामले में और गांवों की क्या स्थिति है यह तो मैं नहीं जानता, मगर अपने जिले के अनेक गांवों में यही तथ्य आज ही यथावत देखखर लौटा हूं-ब्राह्मण की पत्नी जनेऊ बनाकर, चरखा कातकर धनोपार्जन करती है, मगर गांव के अन्य जातियों की महिलाओं की तरह मेहनत-मजदूरी करने की उन्हें सामाजिक इजाजत नहीं है.
उस विधवा ने मुझसे कहा कि यदि दिन भर मैं भी खेतों में काम कर सकती हूं, मेहनत-मजदूरी कर सकती हूं और देखिये न अब तो इसमें अपने यहां भी सौ-सवा सौ रोज की मजदूरी गांव में ही मिलती है. मगर नहीं, यह सब करने से हमारे समाज के ब्राह्मणों का पाग (खास मैथिल टोपी) गिरता है.


उस महिला को यदि गांव में ही मजदूरी करने दी जाए तो दिल्ली स्लम होने से बचेगी...गांव उजड़ने से बचेगा...हम उसके अथाह दुख के सागर में डूबने और झूठ बोलने से बचेंगे और श्रम से अर्जित धन की शक्ति से उस विधवा महिला का जीवन भी उतना दुखमय नहीं रहेगा, फिलहाल जितना है.

बुधवार, मार्च 17, 2010

हत्या औऱ आत्महत्या से बचा स्त्री का जीवन


बनारस औऱ मथुरा में विधवा आश्रम में विधवाओं के जीवन और जीवन-चर्या से जो लोग परिचित हैं उन्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं. पढी-लिखी और कमाऊ औरतें भी पति से पिटती हैं और उसे पति का प्यार बताती हैं. ऐसा सिर्फ अपने देश में ही नहीं होता. अमेरिकी और इंग्लिश औरतें भी खूब पिटती हैं और वह भी तब जब वे आर्थिक रूप से सबला हैं और भारत के मुकाबले उनका सशक्तिकरण भी ज्यादा हुआ है.


परसों कनाट प्लेस में राजीव चौक के मेट्रो स्टेशन के पास किसी का इंतजार कर रहा था. चौबीस-पच्चीस साल का एक लड़का औऱ बाईस-तेइस साल की बेहद खूबसूरत लड़की गलबहियां डाले खड़े-से थे. दिल्ली में और खास तौर पर कनाट प्लेस में ऐसा दृश्य लगभग आम है. इसमें कोई नई या अनोखी बात नहीं. मगर मैंने देखा दो मिनट के बाद लड़की कहीं जाने के लिए ल़ड़के से इसरार कर रही थी, जो जिद में बदलने लगी और लड़की उस लड़के का हाथ पकड़कर आटो की तरफ खींचने लगी। लड़का सख्ती से मना कर रहा था...मगर लड़की इसरार किए जा रही थी. अचानक लड़के दनादन लड़की को थप्पड़ मारना शुरू कर दिया. लड़की पिट रही थी... थोड़ा रो भी रही थी मगर पिटने का विरोध नहीं कर रही थी. पुलिस की जिप्सी आकर रुकी. पुलिस वाले ने लड़की से पूछा कि लड़का उसे पीट क्यों रहा है....इस पर लड़की खामोश रही ....मगर लड़़के ने कहा आप जाओ...ये हमारा आपस का मामला है। पुलिस की जिप्सी तत्काल वहां से रवाना हो गई. मगर उस पिटती हुई लड़की की तस्वीर मेरे जेहन में बार-बार आ ही जाती है.

पिटने का मामला और खास तौर पर औरतों के पिटने का...बड़ा पुराना है....लगभग आदिम राग है....

राज्य कोई भी हो गरीब और असहाय औरतों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। राज्य अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो और उसका शहर मुजफ्फरनगर हो तो पूरे देश में सबसे ज्यादा प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्या करने वाले जिले के सेहरा अपने सिर पर बांधता है....और राज्य अगर हरियाणा हो तो खाप पंचायतें दो बच्चों के मां-बाप बने जाने वाले व्यक्ति को भी भाई-बहन की तरह रहने का फरमान सुना देती है। तमाम मानवाधिकार आयोग, गृह मंत्रालय औऱ राज्य सरकार इन पंचायतों के सामने असहाय नजर आती है। इसी राज्य के बहादुरगढ़ जैसे कस्बाई शहर को कन्या भ्रूण हत्या करने में खास महारत हासिल है.

बिहार और झारखंड में कुलीनता की हिंसा से बचा जीवन डायन बताकर खत्म कर दिया जाता है। सरेआम गरीब औऱ विधवा औऱत को डायन बताकर विष्ठा पीने को मजबूर किया जाता है, बाल खींच-खींचकर पीटा जाता है और निर्ममता पूर्वक मार डाला जाता है. हत्या औऱ आत्महत्या से बचा स्त्री का जीवन इसी तरह मर्दो के संसार में बीतता है.

बुधवार, मार्च 10, 2010

ये साथ निभाता रहे मरते दम तक....

एरमा बोमबेक्क (१९२७-१९९६) अमेरिका की बेहद लोकप्रिय हास्य लेखिका मानी जाती हैं. गरीब परिवार में जनमी एरमा को घरेलू स्थितियों को केंद्र में रख कर हास्य रचनाएँ लिखने का शौक बचपन से ही था, जो बाद में इतना लोकप्रिय हुआ कि वे दुनिया में सबसे ज्यादा छपने वाली स्तंभकार बन गयीं. ..अपनी लोकप्रियता के शिखर पर उनके कॉलम अकेले अमेरिका और कनाडा के नौ सौ अख़बारों में हफ्ते में दो बार छपा करते थे और उनके पाठकों की संख्या कोई तीन करोड़ आंकी गयी थी. इसके अलावा उन्होंने टीवी के लिए खूब कम किया और १५ किताबें भी छपीं जो सभी बेस्टसेलर्स रहीं. शादी के बाद डॉक्टरों ने उन्हें बच्चा जनने में अक्षम घोषित कर दिया, इसीलिए उन्होंने एक बेटी गोद ली..पर आसानी से किसी बात से हार न मानने वाली एरमा बाद में दो बेटों की वास्तविक माँ भी बनीं.अमेरिका में स्त्रियों को बराबरी का हक़ दिलाने की लड़ाई में वे अग्रणी भूमिका में रहीं,इसी कारण उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति की परामर्श दात्री समिति का सदस्य भी बनाया गया.

एरमा ने ज्यादा कवितायेँ तो नहीं लिखी हैं पर उनकी कुछ प्रेरणात्मक कवितायेँ बहुत लोकप्रिय हैं.बहुतेरे कविता संकलनों में शामिल उनकी प्रस्तुत कविता उस समय लिखी गयी जब गुर्दे की असाध्य बीमारी से जूझती हुई वे आसन्न मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही थीं.

अगर एक बार फिर से जीने को मिलता

अगर एक बार फिर से जीने को मिलता
तो बीमार होने पर मैं बिस्तर पर दुबक के आराम करती..
और इस गफलत में तो कतई न रहती
कि एक दिन मेरे काम न करने से
ये पृथ्वी छोड़ देगी
अपनी धुरी पर गोल गोल घूमना..


मैं गुलाब जैसी दिखने वाली मोमबत्ती जलाती जरुर
जो पड़े पड़े गर्मी से पिघल के
होने लगी थी बदशकल..

मैं खुद बतियाती काम
और सुनती दूसरों कि ज्यादा से ज्यादा
आए दिन दोस्तों को डिनर पर जरूर बुलाया करती
चाहे कालीन दागो दाग
और सोफा बदरंग ही क्यों न दिखता रहता...

करीने से सजी धजी बैठक में
पालथी मार के बैठी बैठी खाती पॉप कोर्न..
इसकी ज्यादा परवाह नहीं करती
कि फायेर प्लेस में आग जलाने से
इधर उधर उड़ने बिखरने लगती है राख...

दादा जी के जवानी के बेसिर-पैर के
धाराप्रवाह बतंगड़ को सुनने को
बगैर कोताही बरते देती ढेर सारा समय...

चाहे झुलसाने वाली गर्मी हो
तब भी चढाने को न कहती कार का शीशा
और अच्छी तरह सजे संवारे बालों को
उड़ उड़ कर बिखरने देती बे तरतीब...

घास से लग जाने वाले धब्बों की चिंता किये बगैर
बच्चों के साथ लान में पसर कर बैठती
और खूब बैठा करती...

टीवी देखते हुए कम और जीवन को निहारते हुए ज्यादा
रोया करती जार जार
फिर अचानक हंस पड़ती
बे साख्ता...

कुछ खरीदने को जाती
तो यह विचार मन में बिलकुल न लाती
कि इस पर मैल न जमे कभी
या कि ये साथ निभाता रहे मरते दम तक ही...

मैं कभी नहीं करती कामना
अपने गर्भ के आनन् फानन में निबट जाने की
और एकएक पल का आनंद
इस एहसास के साथ लेती
कि मेरी कोख में पल रहा यह अद्भुत प्राणी
ईश्वर के चमत्कार में हाथ बंटाने का
मेरे सामने इकलौता और आखिरी मौका है..

बच्चे जब अचानक पीछे से आते
और चूम लेते मेरे गाल
तो ये भूल के भी न कहती:
अभी नहीं...बाद में..

अभी हटो यहाँ से..
और हाथ धो कर आ जाओ खाना खाने की मेज पर...
मेरे जीवन में खूब सघन होकर तैरते होते
आई लव यू और आई एम सॉरी जैसे तमाम जुमले..
अगर एक बार फिर से जीवन
जीने को मिल जाता तो...

मैं पकड़ लूंगी एक एक पल को
देखूंगी..निहारूंगी..जियूंगी..
और बिसारुंगी तो कभी नहीं..

छोटी छोटी बातों पर छोडो पसीना बहाना
इसकी भी ज्यादा फ़िक्र मत करो
कि तुम्हे कौन करता है पसंद कौन ना पसंद
किसके पास क्या है...कितना है..
या कौन कौन कर रहा है क्या क्या..

प्यार करने वाले सभी लोगों के साथ के
साझेपन का आनंद चखो...
उन तमाम चीजों के बारे में ठहर कर सोचो
जिनसे ईश्वर ने हमें समृद्ध किया है..

ये भी जानने की कोशिश करो
कि क्या कर रहे हो
अपनी मानसिक,शारीरिक
भावनात्मक और आध्यात्मिक बेहतरी के लिए..

जीवन इतना खुला और अ-सीमित भी नहीं
कि इसको यूँ ही फिसलता हुआ गुजर जाने देते रहें..
बस ये तो एक आखिरी मौका है
इकलौता मौका
एक बार जब ये बीत गया
तो समझो बचेगा नहीं कुछ शेष...

मेरी दुआ है
आप सबके आज पर
हुमक कर बरसे ईश्वर की कृपा...


-चयन और अनुवाद- यादवेन्द्र