वह समय अभी अच्छी तरह से बीता हुआ भी नहीं माना जा सकता जब मिस्र की सड़कों पर...मुख्य तौर पर दिल्ली के जंतर मंतर या रामलीला मैदान की तरह ही राजधानी काहिरा के तहरीर चौक पर... लाखों लोगों का गैर राजनैतिक समूह (कहा जाता है कि इसमें नौजवान सबसे ज्यादा थे) कई दिनों तक देश की तीन दशकों से ज्यादा वक्त से काबिज राजनैतिक सत्ता को गद्दी छोड़ने की चुनौती देता रहा और बगैर ज्यादा खून खराबे के अंततः अपने फौरी मकसद में कामयाब भी हुआ. तब दुनिया भर में इसको एक अद्भुत क्रांति ( अरबी बसंत नाम से याद किया जाता है)के प्रतीक के तौर पर हाथों हाथ लपका गया.भारत में अनेक गैर राजनैतिक बुद्धिजीवी,अन्ना हजारे और रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसे हिंदूवादी राजनीति का पानी नाप रहे आध्यात्मिक गुरु बार बार इसकी दुहाई देकर व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं...अब इस साल के अंतिम दिनों में दिल्ली या मुंबई में इसी तरह का गैर राजनैतिक कहा जाने वाला जन आन्दोलन लोकपाल के मुद्दे पर आयोजित किया जायेगा इसकी घोषणा महीनों से ताल ठोंक ठोंक कर की जा रही है.
इस टिप्पणीकार का अरबी बसंत के अद्भुत उदाहरण को छोटा करके दिखाने का कतई कोई आग्रह नहीं है पर बार बार गैर राजनैतिक कहे जाने वाले आन्दोलन का अंततः क्या हस्र होता है इसके लिए हमें अपने आस पास की उभर रही वास्तविकताओं से आँखें मिला कर बातें करनी होंगी...मिस्र और ट्यूनीशिया की बात ही करें तो आधुनिक जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले लगभग धर्म निरपेक्ष जन आंदोलनों के बाद दशकों से काबिज निरंकुश शासक तो हट गए पर चुनाव के बाद जो नया सत्ता वर्ग उभरा वह इस्लामी कट्टरवादी चेहरे पर झीना सा पर्दा डाल कर सहिष्णु दिखने वाला धुर इस्लामी कट्टरपंथी राजनैतिक वर्ग ही निकला..और शुरूआती चुनाव परिणाम आते ही आर्थिक संसाधन और संगठन के मामले में बेहद ताकतवर इन कट्टर पंथियों नें मुगदर भांजने शुरू भी कर दिए...इसका सबसे ज्वलंत प्रमाण उनके भविष्य में समाज में स्त्रियों की भूमिका को लेकर दिए गए वक्तव्य हैं जिसमें बार बार शरीया कानून का हवाला दिया जा रहा है.धर्म को राजनीति का हथियार बनाने का विरोध करने वाली नयी पार्टियाँ इन चुनावों के दो दौर में दस फीसदी से भी कम वोट हासिल कर पायीं.और तो और मिस्र के चुनाव में बीस फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर लेने वाली दूसरी सबसे बड़ी इस्लामी सलाही पार्टी के प्रवक्ता ने जब मिस्र ही क्या पूरे अरब विश्व के सबसे बड़े कथाकार नगीब महफूज ( 1988 में साहित्य का नोबेल जीतने वाले)के साहित्य को उनके शताब्दी वर्ष में घिनौनी वेश्या जैसा संबोधन दे डाला तब आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाले बुद्धिजीवियों का माथा भी ठनका.अपने दीर्घ जीवन में महफूज ने बेहद साहस के साथ कट्टर पंथी मजहबी सोच और सत्ता का विरोध किया.उनकी किताबों पर प्रतिबन्ध लगे,उनसे लम्बी पुलिस पूछ ताछ हुई और यहाँ तक कि मृत्यु से कुछ वर्ष पहले एक कट्टरपंथी नौजवान ने उनपर चाकू से हमला किया और उनके दाहिने हाथ को इतना जख्मी कर दिया कि उस से लिखना मुमकिन न हो..कई आलोचक तो उनके साहित्य में मिस्र के हालिया सत्ता परिवर्तन की चिंगारी भी देखते हैं.महफूज की एक आत्मकथात्मक कृति में बचपन के अंग्रेजों के खिलाफ मिस्री विद्रोह की चर्चा है जिसमें अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए महफूज कहते हैं कि हम खुदा से दुआ करते थे कि इस बगावत के कारण हमारा स्कूल हमेशा बंद ही रहे...बाद के लेखन में भी महफूज सामाजिक और राजनैतिक बदलाव की निरंतरता की वकालत करते रहे. इतना ही नहीं,इन कट्टरपंथी पार्टियों ने संसद में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व की बात को गुनाह का संबोधन दिया..विश्व प्रसिद्ध पिरामिडों को देखने वालों को मूर्तिपूजा जैसे गैर इस्लामी काम अंजाम देने वाला बताया...यहाँ तक कि जिन चुनावों की बदौलत उन्हें अपनी ताकत दिखाने का मौका मिला है उसे ही वे अनुचित बता रहे हैं.
मिस्र के प्रमुख स्तंभकार अब्देल मोनिम सईद ने अल अहरम वीकली में लिखते हुए अरब बुद्धिजीवियों के इस मोहभंग की तुलना ग्रीक पुराकथाओं के चरित्र आईकारस से की जो बार बार आसमान में परिंदों की तरह उड़ने की जिद करता था और जब उसके पिता दीदेलस ने मोम से उसके कन्धों पर पंखों को चिपका दिया और इस चेतावनी के साथ उड़ने को कहा कि सूरज के पास मत जाना नहीं तो पंखों को शरीर से चिपकाने वाला मोम पिघल जायेगा...पर युवा जिद अपनी जगह. आईकारस सूरज तक जा पहुंचा और जैसा होना था वही हुआ...इधर मोम पिघला और उधर आईकारस की शामत आई. इस कथा से और कुछ मिले न मिले यह सीख जरुर मिलती है कि अधूरी तैयारी और भावनात्मक उत्साह और भावुकता के साथ शुरू किये गए अभियान अपने लक्ष्य तक पहुँचने मुश्किल होते हैं.और राजनैतिक सत्ता को उखाड़ने के लिए गैर राजनैतिक आन्दोलन का शस्त्र ज्यादा कारगर नहीं हो सकता...और राजनैतिक लड़ाई का नेतृत्व संगठित विचारों और कार्यक्रमों के साथ ही किया जा सकता है...बिखरी हुई रूमानियत और संकल्पहीनता के साथ छेड़ी गयी लड़ाई भले ही तात्कालिक स्तर पर सफल होती दिखाई दे पर इसकी दूरगामी और स्थायी परिणति होना बहुत मुश्किल है...कम से कम हालिया इतिहास में इसकी मिसाल नहीं मिलेगी. गुजरात,असम और बिहार के सामाजिक परिवर्तन के तमाम नायक अपने अपने प्रान्तों के मुख्य मंत्री भले ही बन गए पर उनमें से बिरले ही ऐसे हुए जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और शुचिता के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये.इसी लिए कोई आश्चर्य नहीं कि अन्ना हजारे और उनके साथियों की वाणी में विनम्रता और दूसरों के विवेक को स्वीकार करने का घनघोर अभाव है...और उनके जन आन्दोलन का मुखर विरोध करने के लिए इक्का दुक्का मौकों को छोड़ दें तो कांग्रेस अबतक जिस भड़काऊ भाषा का प्रयोग का इस्तेमाल करने से बचती रही है उसका जयप्रकाश के परिवर्तनकारी आन्दोलन के कई पुरोधा( लालू प्रसाद और शिवानन्द तिवारी जैसे लोग) खुल कर प्रयोग कर रहे हैं. ऐसे समय में हमें ठहर कर पूरी संजीदगी के साथ यह विचार करना होगा कि यथा स्थिति से बगावत करने के लिए तैयार बैठे समाज ( इसका बहुत बड़ा हिस्सा युवा है,यदि हम वोट पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात करें तो) की इच्छा और ऊर्जा को सकारात्मक दिशा देने के लिए गैर राजनैतिक मंच कितना प्रभावी होगा और खुद को दूसरा राष्ट्रपिता समझने वाले व्यक्ति के आसपास केन्द्रित ट्विटर और फेसबुक की ताकत से संचालित मंच से राजनैतिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ना सचमुच क्या संभव भी होगा?हमें याद रखना होगा कि इतिहास से सबक नहीं सिखने वालों का हस्र कभी भी अच्छा नहीं हुआ है.
--
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें