शुक्रवार, दिसंबर 28, 2007

क्या आपको सरदार मलिक और असरारुल हक 'मजाज' याद हैं?

आज के पापुलर संगीतकार अन्नू मलिक को लोग जानते हैं. चैनल वाले भी जानते हैं. जनता उनके गीत गाती-गुनगुनाती है. मगर उनके पिता सरदार मलिक साहब को लोगों ने करीब-करीब भुला दिया है. इंतकाल से पहले एक रेडियो चैनल को दिये इंटरव्यू में सरदार साहब ने कहा कि उर्दू के बागी और इन्कलाबी शायर असरारुल हक 'मजाज' से वो एक गीत लिखवाना चाहते थे.इसलिए उन्होंने मजाज साहब को बंबई बुलाया. अपने घर पर रखकर खातिरदारी की. अपनी ख्वाहिश से उनको अवगत कराया. 'मजाज' साहब पीते बहुत थे. दिन-रात का भी ख्याल नहीं करते थे.इश्क़ और फिर शराबनोशी. इन दो ने मजाज़ पर कुछ ऐसा क़ब्ज़ा किया कि उनकी पूरी दुनिया जैसे यहीं तक सिमट कर रह गई.जिसे चाहा वह मिली नहीं और फिर शराब के ज़रिए ग़म भुलाते-भुलाते मजाज़ ने अपने आप को खो दिया.


एक हफ्ता जब गुजर गया तब उन्होंने सरदार साहब को बुलाया. सरदार साहब ने देखा कि वे तो लड़खड़ाते हुए बैठ गए और कहा कि सरदार लिखो. सरदार साहब लिखने लगे. वह गीत जब पूरा हो गया तो सरदार साहब ने उसकी जो धुन बनाई वह उस गीत की तरह ही लाजवाब बनी. मजाज साहब के लिखे इस अमर गीत को सरदार मलिक ने १९५३ में बनी फिल्म ठोकर लिया.यह गीत मजाज साहब के दर्द, उनके जेनरेशन की मुश्किलें और अपने समय के हालात की साफगोई के साथ बयान किया गया एक सच्ची दास्तान है.

इस गीत की तलाश मैं कुछ दिनों से कर रहा था. भाई यशवंत सिंह के प्रति आभार सहित पेश मजाज साहब का वह अमर गीत.

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सडकों पे आवारा फिरूं
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-बदर मारा फिरूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर दहकी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

ये रुपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तस्व्वुर जैसे आशिक़ का ख़्याल
आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आई ये मोती की लड़ी
हूक-सी सीने में उट्ठी, चोट-सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

रात हंस हंसके ये कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी शाहनाज़े-लाला-रुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

हर तरफ़ है बिखरी हुई रंगीनियां रानाइयां
हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगडाइयां
बढ रही है गोद फैलाए हुए रुसवाइयां
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं
लौटकर वापस चला जाउं मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाए ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

मुन्तज़िर है एक तूफ़ाने-बला मेरे लिए
अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए
पर मुसीबत है मेरा अहदे-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

जी में आता है अब अहदे-वफ़ा भी तोड़ दूं
उनको पा सकता हूं मैं, ये आसरा भी छोड़ दूं
हां मुनासिब है, ये ज़ंजीरे-हवा भी तोड़ दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

दिल में इक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूं
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूं
ज़ख्‍म सीने में महक उठा है, आख़िर क्या करूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकडों चंगेज़ो नादिर हैं नज़र के सामने
सैकडों सुलतानो जाबिर हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं

बढ के इस इन्द्रसभा का साज़ ओ सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं उसका शबिस्तां फूंक दूं
तखते सुलतान क्या मैं सारा क़स्र ए सुलतान फूंक दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
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मायने - नाशादो-नाकारा-उदास और बेकार, क़ुमक़ुम- बिजली की बत्ती, शमशीर- तलवार, तसव्वुर- अनुध्यान, मैखाना- मधुशाला, शहनाज़े लाला रुख़- लाल फूल जैसे मुखड़े वाली, काशाने- मकान, इशरत- सुखभोग, फ़ितरत- स्वभाव या प्रकृति, हमनवा- साथी, तूफ़ाने-बला- विपत्तियों का तूफ़ान, वा- खुले हुए, अहदे-वफ़ा- प्रेम निभाने की प्रतिज्ञा, माहताब-चांद, अमामा- पगड़ी, मुफ़लिस- ग़रीब, शबाब- यौवन, मज़ाहिर- दृश्य, सुल्ताने जाबिर- अत्याचारी बादशाह, शबिस्तां- शयनागार, क़स्रे सुल्तान- शाही महल

गुरुवार, दिसंबर 27, 2007

आज मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती है साहिबो

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-बयां और
अंदाजे-बयां के इस मुमताज शायर की आज जयंती है. ब्लाग की दुनिया में संयोग से आज इसकी कोई हलचल नहीं दिखी.आज २७ दिसंबर है. आज ही के दिन २७ दिसंबर १७९७ को आगरा में चचा ग़ालिब पैदा हुए थे. यह साल आजादी की पहली लड़ाई यानी गदर के डेढ़ सौवीं जयंती का भी है. जिसके बारे में विस्तार से चचा ग़ालिब ने अपनी फारसी में लिखी अपनी डायरी दस्तंबू में याद किया है.
भारतीय कविता के महान शायर मिर्ज़ा असद्दुल्ला खाँ ग़ालिब को नमन.

शनिवार, दिसंबर 22, 2007

मन फाटे नहीं ठौर...

रात आधी से अधिक बीत चुकी है... चारों तरफ है गहन अंधकार और इस अंधकार में मैं एक लंबे अरसे से कैद हूं। चचा मीर की तरह मेरे लिए भी सुबह होती है, शाम होती है... और यह जिंदगी शायद यूं ही तमाम होती जा रही है... नींद के बगैर बेमानी...। सुबह होने में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है... और यह लो, एक और रात फिर बीती नींद के बगैर! आंखों में तेज दर्द होने लगा है। न किसी से बातें करने को जी चाहता है, न किसी की हंसी अच्छी लगती है... न जाने मैं क्या-से-क्या होता जा रहा हूं? किसी भी बात की खुशी कभी महसूस नहीं होती। क्या मुझे अपना पूरा जीवन इसी तरह जीना होगा? एक चिड़चड़े आदमी में बदलता जा रहा हूं... या खुदा! और कितना वक्त लगेगा नींद को मुझ तक पहुंचने में? क्या वह मेरे घर का रास्ता भूल गई है? या वह मुझसे रूठ गई? क्या कयामत तक मुझे नींद का इसी तरह इंतजार करना पड़ेगा? जिस नंींद के लिए ÷ट्राइका' टेबलेट की एक गोली खाने के बाद लोग दोपहर तक घोड़े बेचकर सोते हैं उस ÷ट्राइका' का भी मेरे ऊपर कोई असर नहीं हो रहा। खीझ के मारे चार-चार टिकिया एक साथ निगल लेता हूं फिर भी कोई असर नहीं! डॉक्टर हैरान हैं और शायद उसी हैरानी की वजह से उन्होंने नींद की एक बेहद ताकतवर दवा ÷नाइट्रोसन-10' लिख दी है। खुशी हुई कि अब तो निंदिया रानी को आना ही पड़ेगा क्योंकि आज तो उसे लिवाने के लिए खुद ÷नाइट्रोसन-10' महाराज जाएंगे! इत्तफाक से उस दिन काफी खुशी हुई। एक गोली खाकर सोने की कोशिश करता हूं लेकिन कोई असर नहीं... गुस्से में दो खा लेता हूं तो सिर में जोरों से चक्कर आने लगता है और पैदल चलने में दिक्कत-सी महसूस होने लगती है। बाहर से आकर फिर बिस्तर पर लेट जाता हूं... झींगुरों की सनन... सनन की आवाजें आ रही हैं...मगर नींद है कि आ नहीं रही है। खीझते हुए सोचता हूं, आखिकार नींद क्यों रात भर नहीं आती... जबकि चचा गालिब की तरह मुझे भी अच्छी तरह पता है कि मौत का एक दिन मुअय्‌यन है। सब दिन इस धरती पर तो कोई जिंदा रहा नहीं है और न हम रहेंगे। हकीकत यह है कि मुझे मौेत का बिलकुल डर नहीं लगता। मरने का मेरे मन में जरा खौफ नहींबकौल चेखव, मौत तो बस एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने जैसा है... क्या नींद और क्या रात... क्या जीवन और क्या मौत! सोचना नहीं चाहता हूं, चाहता हूं कि नींद आए और अपने आगोश में मुझे ले ले... बड़ी पुरानी ख्वाहिश है... मगर सोच की चरखी जो घूमती है तो बस घूमती ही चली जाती है।
...तो इस नींद की कहानी काफी पुरानी है। सन्‌ 1982 में जब मैं सिर्फ छह साल का था इसकी शुरुआत हो गई थी। पहली जमात का छमाही इम्तहान कुछ हफ्ते पहले ही खतम हुआ था और सालाना इम्तहान में अभी कुछ महीने की देर थी। मौसम-ए-गरमा बीत रहा था और झमाझम बारिशों का मौसम आ चुका था। गांव के मेरी उम्र के बच्चे देर तक बारिश में नहाने लगे थेजैसे इस बुढ़ापे में आज भी मुंबई में जब पहली बारिश होती है तो सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक यश चोपड़ा उसमें देर तक भीगते हैं। बारिश में जो लोग कभी नहीं भीगते, उनका मन भी शायद कभी किसी बात पर गीला नहीं होता।
किसी कवि ने कहा है कि जो रो सकता है वह मन से काम करता है और पूरे मन से दोस्तों का साथ निभाता है। जो किसी भी सूरत में रो नहीं सकता वह आसानी से किसी को धोखा दे सकता है
... किसी को कुचलकर आगे जा सकता है और जीवन में उसकी कामयाबी का पलड़ा हमेशा भारी होता है। पता नहीं क्यों ऐसे कामयाब लोगों से मुझे बहुत डर लगता है और यकायक बाबा नागार्जुन याद आ जाते हैं : जो नहीं हो सके पूर्णकाम/मैं करता हूं उनको प्रणाम... रोज बनती-बिगड़ती आज की इस दुनिया में सफल लोगों के लिए असफल लोग हंसने का सामान भर होते हैं। तुम हंसे ऐसे कि उसकी कड़वाहट साफ-साफ दीखने लगी... हंसो क्योंकि तुम रो नहीं सकते और जब किसी को कुचलकर, उसकी पीठ पर लात रखकर आगे बढ़ना तब भी तुम इसी तरह हंसते रहना... क्योंकि तुम हंसने के लिए अभिशप्त हो मेरे समय के आकाओं... और हम जैसे लोग रोने के लिए!
तो, बात शुरू वहां से हुई थी जब मेरी पहली जमात का इम्तहान खतम हो गया था और बारिशों का मौसम आ चुका था। रोज झमाझम वर्षा होने लगी थी। अक्सर मेरे आंगन में खपरैल छप्पर से गिरते पानी की तेज धार के नीचे मेरे दोस्त खड़े हो जाते और दूर से जब उनके सिर पर पानी की तेज धार गिरती तो हल्की सी चोट का एहसास होतागोया सिर थपथपाकर हौले-हौले कोई मालिश कर रहा हो। वे लोग मुझे ललचाते रहते। उन्हें पता था कि मेरी मां मुझे उन लोगों के साथ नहाने की इजाजत नहीं देंगी। मेरा मन मचलता रहता। मैं अंदर-ही-अंदर कटकर रह जाता। कभी अगर पिताजी खुश होते तो घमौरियां मिटाने के लिए बारिश में नहाने की इजाजत दे देते।
चूंकि मैं तीन बहनों के बाद पैदा हुआ था इसलिए आम बच्चों की तरह मुझे बारिश में नहाने, पोखर में देर तक तैरने और तेज धूप में टिकोरे चुनने की आजादी नहीं थी और न दोस्तों के साथ खुलकर मौज-मस्तियों में डूबने का। शुरू में अत्यधिक सुरक्षा बोध के कारण जहां एक तरफ मैं बचपन की मस्तियों से वंचित हो गया था वहीं दूसरी तरफ बड़ा आदमी बनाने की मां-बाप की जिद ने न केवल मुझसे मेरा बचपन छीन लिया बल्कि मेरे कोमल बचपन को बहुत हौलनाक और त्राासद बना दिया।
गांव में मेरी उम्र के बच्चे चांदनी रात में छुपम-छुपाई या गुल्ली-डंडा खेलते लेकिन मैं अभागे की तरह चुपचाप सबको हसरत भरी निगाहों से देखता रहता और अंदर-ही-अंदर उन लोगों के साथ खेलने के लिए मचलता रहता। यदि मैं उन बच्चों के साथ खेलने की जिद करता तो मेरी पिटाई होती। उस वक्त खुद पर इतनी कोफ्त होती कि लगता मेरी स्थिति गुलामों से भी बदतर है। यानी माता-पिता के कहे को जरा भी अनसुना किया कि दे दनादन... थप्पड़ .. छड़ी, जो तत्काल हाथ में आ जाता उसी से शुरू हो जाते। कोई बूढ़ी और दयालु महिला अगर मुझे बचाने के लिए मेरे पास आतीं तो मां उन लोगों को गालियां देने लगतीं। मां कहती कि अपने बच्चे को मैं पीटूं चाहे जो मर्जी करूं, इसमें लोगों का क्या जाता है? अपने बच्चे-बीवी को पीटूं या काट डालूं तो इसमें लोगों की... क्यों फटती है? गलती से कभी यदि कोई दयालु महिला या बुजुर्ग बेरहमी से होती हमारी पिटाई देखकर बचाने के लिए आ जाते / जातीें तो मेरी मां ऐसी खरी-खोटी सुनाती कि लोग दोबारा कभी बचाने नहीं आते। आखिर सबके भीतर एक आन तो होती ही है। गाली और दुर्वचन सुनने को कोई क्योंकर आए? आज आलम यह है कि मेरे गांव में अब कोई बड़ों की मारपीट में भी बीच-बचाव करने नहीं जाता। यानी जो प्रवृत्ति हमारे बचपन में आम नहीं थी वह अब करीब-करीब रिवाज में बदल गई है। लोग अपने घर में मरें-कटें या अपनी पत्नी की पीट-पीटकर जान ही क्यों न ले लें, अब कोई बचाने नहीं जाता। शहरों की तरह गांव के लोग भी अब अपने दरवाजे के रामझरोखे पर बैठे-बैठे ही जग का मुजरा लेते रहते हैं। कोई मरनी-हरनी हो या शादी-ब्याह हो तभी कोई किसी के यहां जाता है और वह भी निमंत्राण मिले तभी, नहीं तो नहीं।
गांव में कुछ ऐसे धनी और महत्त्वाकांक्षी लोग भी थे जिनके बच्चे कुछ गिने-चुने बच्चों के साथ ही खेलते और वह भी घर के लोगों की इजाजत मिलने के बाद। खेल में मस्त बच्चों को उस वक्त अपने माता-पिता पर जबरदस्त गुस्सा आता जब खेल के बीच में ही फरमान सुनाई पड़ता - बंद करो यह खेल-तामाशा और लालटेन जलाकर फौरन पढ़ने बैठो। उसके बाद किसी बच्चे ने यदि तुरंत अनुमति का पालन नहीं किया तो फिर वही थप्पड़ और छड़ी की बरसात... छोटी-से-छोटी बात पर भी मार...। गांव के हर बच्चे की तकरीबन वही कहानी... मार और पीठ पर छड़ियों की वही निशानी! घर के लोगों के लिए अनुशासन का मतलब थाबात-बात पर पिटाई और वह भी ऐसी कि बच्चों के मिट्टी जैसे कोमल मन पर इन चीजों का क्या असर पड़ता है इससे कोई लेना-देना नहीं... और स्कूल में गुरुजी की जो मार पड़ती थी उसकी तो खैर एक अलग ही कहानी है।
पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे -कूदोगे बनोगे खराबजैसे फिकरे गांव की फिजां में कदम-कदम पर सुनाई देते। जो बच्चा हमेशा किताबों में अपनी आंखें गड़ाये रखता उसकी गांव में बात-बात पर मिसाल दी जाती और उस वक्त लगता कि वाकई हमसे नाकारा इस दुनिया में और कोई नहीं। हम किसी काम के नहीं। हम बार-बार अच्छे बच्चे बनने की कोशिश करते और नाकामयाब हो जाते। क्योंकि पढ़ने के अलावा हमें खेलने में भी बहुत मजा आता था। इसलिए हम उतनी देर तक पढ़ नहीं पाते थे... और इस वजह से लाख प्रयत्न करके भी अच्छे बच्चे नहीं हो पाते थे। हर बात में उन किताबी कीड़ों से हम जैसे बच्चों की तुलना की जाती और उसी मेयार पर यह तय किया जाता कि हम गंदे बच्चे हैं या अच्छे। मुुझे लगता है कि शायद यह भी एक कारण है कि मुझे ठीक से कोई खेल खेलना नहीं आता... और मेरे गांव में मेरी उम्र का कोई भी बच्चा किसी खेल में माहिर नहीं हो पाया।
स्कूल में तो और भी बुरा हाल था। शायद वहां पढ़ाई कम और पिटाई ज्यादा का नियम लागू था। कभी शनिचरा के लिए तो कभी अनुपस्थिति-दंड के रूप में तीन आने पैसे नहीं देने के कारण गुरु जी हम जैसे लक्ष्मीविहीन पिता के बच्चों की निर्ममता से पिटाई करते। लगता कि उनके ऊपर हैवानियत सवार हो चुकी है और वे जान लिए बिना मानेंगे नहीं। मेरे अधिकांश साथियों ने गुुरुजी की पिटाई के डर से पढ़ाई से ही तौबा कर ली। मेरी उम्र के बच्चों ने पिता की मार भले सह ली लेकिन लौटकर दोबारा स्कूल कभी नहीं गए। आजकल मेरे बचपन के वे दोस्त पुरानी दिल्ली की गलियों में अपने सीने में टी.बी. लिए रिक्शा खींचते हैं। फावड़े से खुदाई करते-करते मेरे चार लंगोटिया यारों की टी.बी. से मौत हो गई। उनकी बीवियां आजकल कहां हैं और हैं तो कैसे और किन हालात में, बस पुरानी यादें और उसके साथ ही आंसुओं की मुसलसल बारिश...। अब यदि मेहरबां होकर मैें बचपन के उस वक्त को बुलाना भी चाहूं तो वह अब कभी लौटकर नहीं आएगा। वह गया वक्त है और गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता... भले कोई लाख मेहरबां होकर बुला ले। वह तो तावारीख हो जाता है। मेहरबां होकर बुलाने पर चचा गालिब भले तवारीख से लौटकर आ जाते हों लेकिन जो वक्त चला जाता है वह कभी लौटकर नहीं आता...।
मेरे पिताजी गांव में नहीं रहते थे। तत्कालीन मुंगेर जिले के मानसी में बिजली महकमे में वे सरकारी नौकर थे। सप्ताहांत में शनिवार की शाम को आते और सोमवार की सुबह चले जाते। रविवार के दिन उन्हें इतने काम होते कि एक पल की भी फुर्सत उन्हें नसीब नहीं होती। वे आते तो जमाने भर के गम और परिवार की दिक्कतों के बारे में राय-मशविरा करते, खेती-बारी की चिंता करते। बच्चों की दिक्कतों को सुनने का उनके पास बिलकुल वक्त नहीं था और सारी बातें उनसे कह पाने की मेरी हिम्मत नहीं होती। इस डर से भी कि इसका पता चलने पर कहीं जीजाजी मेरी और बुरी गत न बनाएं। मेरी मां उषा प्रियंवदा की कहानी ÷वापसी' की गजाधर बाबू की पत्नी की तरह घी-चीनी के बोइयामों और मुझसे तीन साल छोटे भाई की परिचर्या में ही इस कदर मगन रहती कि उसके पास मेरे लिए बिलकुल वक्त नहीं होता। मां ने कभी यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि मेरा यह बच्चा इतना एकाकी और मौन स्वभाव का क्यों होता जा रहा है? क्यों यह अपने हमउम्र बच्चों से भी इतना अलग-थलग रहता है? खेलने-कूदने के बदले बगीचे में या गांव में किसी मचान पर अकेला और चुपचाप क्यों यह देर तक बैठा रहता है? मेरे जीजा और मां कहतीं कि यह एकदम मतिशून्य है। उन लोगों द्वारा दिए गए विशेषणों को यदि मैथिली में याद करके कहें तो अक्सर वे लोग ÷अकरकान', ÷आकाशकांकोड़' और ÷मतरसुन्न' कहा करते। मेरी मां और पिता दोनों घी, दूध और मिठाइयों को ही प्यार और स्नेह का पर्याय समझते थे और अच्छी चीजें मुझे सबसे पहले और बहनों से ज्यादा मिलती हैं यह जान कर संतुष्ट रहते थे। बेटा-बेटी का फर्क घर में साफ दिखाई देता था और यह फर्क अमूमन गांव में हर घर में दिखाई देता था, यह आज भी खत्म नहीं हुआ है। इधर इन चीजों के बावजूद मैं अपने ही घर में अवांछित और अकेला होता जा रहा थाहर तरफ बेशुमार आदमियों की मौजूदगी के बीच भी तन्हाइयों का शिकार।
उस वक्त (कमोबेश आज भी) मिथिला में जिस लड़के की शादी हो जाती वह एक तरह से ससुराल का ही स्थायी निवासी हो जाता। क्योंकि हमारे यहां गौना शादी के तुरंत बाद नहीं होता है। उसमें दो-चार साल का वक्त लगता है और जब तक गौना न हो जाए तब तक दूल्हा हफ्तों ससुराल में डेरा डाले रहता है। उम्दा भोजन और मनपसंद चीजें सिर्फ एक बोल पर हाजिर। 1982 में मेरी बड़ी बहन की शादी के बाद जीजाजी महीने में बमुश्किल एक-आध दिन ही अपने गांव में रहते। पांच साल तक, जब तक बहन का गौना नहीं हो गया, तब तक उनका स्थायी पता मेरा गांव ही रहा। परिपाटी हमारे यहां है कि दामाद को दस तरह की तरकारी, मछली, खीर, दही यानी छप्पन प्रकार का पकवान हर समय और हर हाल में चाहिएइंतजाम चाहे जैसे हो, जहां से हो। गांव की महिलाएं आज भी मौके-बेमौके कहा करती हैं कि अमीरों का हाथी और गरीबों का दामाद एक समान होता है। अर्थात्‌ अमीरों को जितना खर्च एक हाथी के भोजन में उठाना पड़ता है उतना ही गरीबों को एक दामाद के आने पर। जीजाजी चूंकि घर के स्थायी साकिन हो चुके थे इसलिए घर की आर्थिक स्थिति जर्जर होती जा रही थी। कमानेवाले घर में एक ही शख्स मेरे पिता थे और खानेवाले आठ-दस लोग। खाना अगर मोटा-झोटा चलता तो भी एक बात थी लेकिन दामाद को तो मोटा-झोटा खाना देने की कोई सोच भी नहीं सकता था! वह तो कहिए कि खेती का सहारा था, सो घर किसी तरह चल जाता था वरना एक आदमी की कमाई से क्या होता है? हां, यह जरूर है कि उन दिनों चीजें सस्ती थीं लेकिन आमदनी भी तो बहुत कम थी। मुझे याद है कि पिताजी को तब मात्रा साढ़े सात सौ रुपये मिलते थे और उसका एक हिस्सा तो वहीं मानसी में खर्च हो जाता था।
अच्छी चीजें घर में उतनी ही बनतीं जितने में जीजाजी का भोजन हो जाए। बाकी लोग उस तरह के भोजन के लिए तरसते रहते। उनके हिस्से में वैसा भोजन शायद ही कभी आता। विडम्बना यह थी कि हमारे ही घर में बनी चीजें हमें नहीं मिल पातीं। मिथिला की परिपाटी के अनुपालन में हमारी ही इच्छाओं का हमारे घर में ही कोई मोल नहीं थाआंखें बरसती रहीं और हम तरसते रहे। इन्हीं स्थितियों के बीच जीते हुए हम मानसिक रूप से पहले और शारीरिक रूप से शायद बाद में बड़े हुए। मन का घाव तन के बढ़ाव को स्वीकार ही नहीं कर पाता है। कबीर ने बिल्कुल आंखिन देखी और अनभै सांच कहा है, ÷धरती फाटे मेघ जल, कपड़ा फाटे डोर। तन फाटे की औखदी, मन फाटे नहीं ठौर।' ÷मैला आंचल' के मनफटे गांधीवादी बावनदास को ठीक उसी दिन कांग्रेसी नेता सेठ दुलारचंद कापरा ने मौत के घाट उतारा था जिस दिन उसके ÷गन्ही महतमा' का श्राद्ध था। बावनदास को जीवन बोझ लगने लगा था और मुझे भी।
हम रोज-रोज की पिटाई से नरक बन चुकी अपनी जिंदगी से तंग आकर मौत मांग रहे थे, मगर हमें मौत भी नहीं मिल रही थी। मौत के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए हमने। कई बार तालाब में डूबने की कोशिश की लेकिन हम तैरना जानते थे इसलिए अथाह पानी में जाकर तीन-चार घूंट पानी पीने के बाद ही जिंदगी का लोभ हो जाता और तैरकर बाहर आ जाते। उसके बाद आसान मौत के लिए कनेर के फूल का बीज भी पीसकर कई बार पिया लेकिन नहीं मरे। जिस दौर में लंबी जिंदगी के लिए लोग मन्नतें मांगते थे, तरह-तरह की दवाईयों का सेवन करते थेमैं मौत के लिए दिन-रात तरकीबें सोचता रहता था। आसान और शर्तिया मौत के लिए हमेशा कुछ-न-कुछ जुगाड़ करने में लगा रहता। एक बार एक लड़के को कहा कि तुम मेरा गला दबाकर मार डालो। उसे मैंने जैसा बताया था उसने पूरी ईमानदारी से उसका जब पालन करना शुरू किया तो कुछ ही देर के बाद मैं बिलबिलाने लगा। मेरी घिघियाहट और मुंह से निकलते झाग को देखकर उसने मेरा गला दबाना बंद कर दिया और बदकिस्मती ऐसी कि मैं एक बार फिर बच गया। कितनी कोशिशें की मगर सब बेकार। किसी भी तरीके से मैं मरता ही नहीं था। जिंदगी बोझ बनती जा रही थीऔर...और पिटाई सहने के लिए शायद।
जब थोड़े बड़े हुए यानी आठ साल केतभी गांव में बाढ़ आई। हमारे गांव में कभी बाढ़ नहीं आई - न 1984 से पहले, न कभी उसके बाद। 1960 से पहले जब कोशी नदी नहीं बंधी थी तब भी गांव में कभी बाढ़ नहीं आई थी, सो बुजुर्गों को भी यकीन नहीं हो रहा था कि हमारे गांव में भी कभी बाढ़ आ सकती है और कोशिकन्हा की ही तरह भीषण तबाही मचा सकती है। हमारे गांव से पश्चिम जितने गांव थे उन गांवों के लोग जल्दी-जल्दी में जो हाथ आया सो अपना माल-असबाब समेटकर भाग रहे थे। गांव के लोग उन लोगों से पूछ-पूछकर खतरे का अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे थे और दुर्भाग्य यह कि फिर भी सतर्क नहीं हो रहे थे। जिसे भी देखिए उसी की जुबां पर पानी का किस्सा मौजूद था लेकिन दिमाग में पानी का कोई खौफ नहीं था! गोया बाढ़ से कोई ऐसा इकरारनामा हुआ हो कि वह अपना वादा जरूर निभाएगी और मेरे गांव की ओर रुख नहीं करेगी।
मेरे गांव के बीचोबीच एक नहर है जिसके एक तरफ लोग बसे हुए हैं और दूसरी तरफ लोगों के खेत हैं। जब तक नहर नहीं बनी थी तब तक कोई सुअन्न यानी अच्छा अनाज-धान, गेहूं, दालें नहीं उपजता था। मोटा अनाज जैसे मडुआ, कुरथी, अल्हुआ (शकरकंदी) की ही उपज संभव हो पाती थी। इसके कारण उन गांवों के लोग हमारे गांव में बेटी नहीं ब्याहते जिनके यहां धान, गेहूं, मूंग और मक्के की अच्छी पैदावार होती थी। आलम यह था कि जिनके यहां धान की फसल नहीं होती उन्हें अपने बेटे के ब्याह में लड़कीवाले को दहेज देना पड़ता था। इसके बगैर बेटे का ब्याह होना ही मुमकिन नहीं था। मेरे पिता के ब्याह में दादाजी को जमीन गिरवी रखकर नानाजी को मोटा दहेज देना पड़ा था तब जाकर कहीं पिताजी की शादी हो पाई थी।
दादाजी बेहद गरीब तो थे ही, शायद बहुत बदनसीब भी थे। मेरे पिता जब छह-सात साल के रहे होंगे तभी मेरी दादी ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। छोटी बुआ तब सिर्फ डेढ़ साल की थी। पिताजी से आठ-साल बड़ी मेरी बड़ी बुआ ने बहुत मुश्किलों के बीच छोटी बुआ को पाला, बिखरते हुए घर को संभाला। बहुत गरीबी में जी रहे थे दादाजी। गरीबी ऐसी कि उसके कारण बालावस्था में ही दादाजी ने छोटी बुआ को उनसे तिगुने उम्र के फूफाजी के साथ ब्याह दिया। बड़े फूफा ने बड़ी बुआ को इतनी आजादी दी थी कि वे ससुराल छोड़कर मायके में काफी दिनों तक रहीं और अपने पिता के बिखर चुके परिवार को नए सिरे से खड़ा किया। बड़े फूफा ने ऐसे-ऐसे वक्तों में दादाजी की आर्थिक सहायता की, जब जमीन बेचने के अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं था। एक लंबे अरसे के बाद जब उनकी बड़ी बेटी यानी मेरी बुआ ससुराल जा रही थीजहां से अब साल-छह मास के बाद ही आना संभव हो सकता था। दोबारा बस चुके दादाजी के घर से बड़ी बुआ ससुराल जा रही थी, जिसने मां की मौत के बाद एक बिलट चुके परिवार को फिर से बसा दिया था...और अब जब दादाजी का परिवार संभल गया था तब उनके लिए ही उस परिवार में कोई जगह नहीं बची थी। बड़ी चाची का आगमन हो चुका था और घर में बड़ी बुआ की उपस्थिति अब महत्त्वहीन और खटकनेवाली होती जा रही थी। ÷चोखेरबाली' यानी आंखों की किरकिरी और वह भी उस घर में जिसे उन्होंने बहुत जतन से बसाया था। दादाजी ने जब यह किस्सा मुझे सुनाया था तब वर्षों बाद भी उनकी आंखों में वही बाढ़ आई थी जो शायद मेरे जन्म के पैंतालीस-पचास बरस पहले आई होगी...और दादाजी न जाने कितनी दूर तक बहते चले गये थे...और कितना कुछ बह गया था उनका कि हमें कुछ और बताने के लिए उनके पास कोई शब्द तक नहीं बचा था।
1984 का वह साल जब मेरे गांव का इतिहास और भूगोल दोनों बदल गए - धान की रोपाई हो चुकी थी। लोग निश्चिंत होकर अगहन महीने का इंतजार कर रहे थे कि अचानक कोशी बांध टूटने की खबर पूरे इलाके में फैल गई। बाढ़ तो खैर बाद में आई, अफवाह काफी पहले आ गई। जितने मुंह उतनी बातें। बातों में कितना सच होता और कितना झूठ, यह तय करना मुश्किल था। अफवाहों का बाजार गर्म था। गांव में तुलसीदास की पोथी ÷कवितावली' की यह पंक्ति, ÷कहैं लोग एक-एकन सों, कहां जाइ का करी' की बेचैनी छाई हुई थी। जिन लोगों को यह बिल्कुल यकीन नहीं होता था कि हमारे गांव में भी कभी बाढ़ आ सकती है वही सबसे ज्यादा बदहवास थे और अफरा-तफरी मचा रहे थे। आंखों में बाढ़ कैसे आती है यह तो मेरे अनुभव का हिस्सा था लेकिन गांव में बाढ़ कैसे आती है यह हमने तब तक नहीं जाना था। गांव की स्त्रिायों की आंखों में बाढ़ तो तकरीबन रोज देखता था लेकिन पुरुषों की बदहवास आंखों में भी बाढ़ मैंने उससे पहले कभी नहीं देखी। पड़ोसी गांव की एक बुढ़िया छाती पीटती हुई मेरे गांव से जा रही थीबप्पा रे बप्पा सब कुछ भस गया...तबाह हो गया सब कुछ...घरबार सब चौपट हो गया। एक भी बाल-बच्चा जिंदा नहीं बचा...। उस बुढ़िया के रुदन से पृथ्वी दलमलित होने लगी थी। उसकी करुण-कहानी मेरे गांव के आलसी और बतकुच्चन लोगों को सक्रिय करने के लिए काफी थी।
नहर के उस पार मेरी उमर के बच्चे आम के बगीचे तक गए कि वहां से बाढ़ देखेंगे। बाढ़ के बारे में उस वक्त हमें पता ही नहीं था कि यह होती क्या चीज है? बाढ़ आने से होनेवाले नुकसान का हमें कोई तर्जुबा नहीं था। गांव में अफवाह यह थी कि बाढ़ एकदम घोड़े की तरह दौड़ती आती है...फिर उसके बाद पूरी पृथ्वी जलमग्न। बाढ़ में पानी के साथ-साथ जलकुंभियों, मछलियों, सांपों, मरे हुए जानवरों और मृत लोगों की भी बाढ़ आती है। सो, मेरे बालमन में बाढ़ की चिंता से ज्यादा बाढ़ देखने की हुलस थी। हमलोग जब नहर के उस पार आम की गाछी तक पहुंचे कि भयंकर बारिश शुरू हो गई। ऐसी मूसलाधार कि लगा वास्तव में प्रलयकाल आ गया है। नानी बताती थी कि धरती पर जब बहुत पाप बढ़ जाता है तब पूरी धरती जलमग्न हो जाती है। नानी इसी जलमग्न होने को प्रलयकाल कहती थीं और हमें लगा कि वह आ चुका है। जब तक हम घर पहुंचे तब तक सारे लोग पूरी तरह भीग चुके थे। मैं भीग जाने के कारण कांपने लगा था लेकिन वैसे समय में भी मां ने मुझे कई थप्पड़ रसीद किए और फिर सामान समेटने में जुट गई। मुझे बाढ़ से ज्यादा मां की मार का खौफ सताने लगा और मैं कोशिश में रहने लगा कि यथासंभव उसकी नजर से दूर रहूं। क्या पता कब किस बात पर पिटाई हो जाए।
बाढ़ का पानी वाकई घोड़े की तरह दौड़ता हुआ आया और नहर तक आकर जमने लगा। हालत यह हो गई थी कि किसी भी क्षण कई जगहों से नहर का वजूद खत्म हो सकता था। नहर की हालत ऐसी हो गई थी कि अब टूटा। भागो...भागो... दौड़ो...जल्दी बक्सा-पेटी समेटो...भागो... भागो...की आवाज से हाहाकार मचा हुआ था। कोई किसी की बात नहीं सुन रहा था। जिसकी जो समझ में आ रहा था वही कर रहा था। बाढ़ का पानी नहर के ऊपर से बहने लगा था और तेजी से गांव की तरफ सरेसा घोड़े की तरह फर्दबाल दौड़ने लगा था।...मेरी मां ने बहनों से कहा कि घर में जितना आटा बचा है, सारा गूंथकर जल्दी-जल्दी रोटियां बना लो और जितनी तरकारी घर में बची हुई है, सारी बना लो। जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ...जल्दी-जल्दी...एकदम जल्दी। मां बहनों को निर्देश देती हुई जल्दी-जल्दी सामान समेटने में लग गई थीइतनी तेज गति से जैसे मौत आने से पहले जितनी दूर तक संभव हो भाग लिया जाए। मां अनुभवी थीं। क्योंकि जिस गांव से मां आई थी वहां बाढ़ का खतरा आज भी मेरे गांव के मुकाबले ज्यादा रहता है। वहां पहले बाढ़ बहुत आती थी इसलिए भी वह बाढ़ की विभीषिका से अच्छी तरह वाकिफ थीं लेकिन पिता बिल्कुल अनजान थे। पिता को बाढ़ का कोई इल्म नहीं था।
तब टोले में करीब-करीब सबके घर मिट्टी के ही बने थे, सो पानी के भयंकर वेग के आगे घंटे-दो-घंटे में ही धराशायी हो गए। ऊपर भयंकर मूसलाधार बारिश और नीचे लगातार बढ़ता हुआ बाढ़ का पानी..और उससे कहीं ज्यादा मेरे पिता की आंखों से गिरता हुआ। नानी शायद ठीक कहती थीं कि प्रलय इसी तरह आती है...चारों तरफ पानी-ही-पानी और हैरान-परेशान इंसान, बचने को ठौर ढूंढ़ता हुआ एकदम बदहवास। पानी का तेज वेग भीत को काटता जा रहा था। पिता को शायद अपने शरीर का वह पानी याद आने लगा था जो भीत बनाने में गिरता रहा था...तेज धूप में गीली मिट्टी के छोटे-छोटे टुकड़ों को जोड़कर खड़ी की गई भीत यानी मिट्टी की दीवार...और उस कच्ची दीवार पर बूंद-बूंद टपकता हुआ पिता की देह का गर्म...खारा पानी...। उस पानी को पसीना कहते हैं, यह मैंने तभी जाना था। उससे पहले यह जानने का कोई मौका ही नहीं आया था कि उस पानी को क्या कहते हैं। आंखों से गिरनेवाले पानी को आंसू कहते हैंयह पिता ने तब तक हमें बताया नहीं था। किस पानी को पसीना कहते हैं और किस पानी को आंसू, इसके बारे में मैंने किससे और कैसे इतना कुछ जाना यह अब ठीक से याद नहीं। जो बह गया सो बह गया...अब उसका क्या गम चाहे वह आंसू हो या पसीना।
गिरते हुए घर को पिता लाचारगी से देखते रहे। मेहनत से बनाया गया उनका घर उन्हीं आंखों के आगे नेस्तनाबूद होता रहा और वे निस्सहाय अपनी बरबादी का नजारा देखते रहे। इस दृश्य को बाद में हमने पिता की आंखों से ही देखा। क्योंकि हमलोगों को पिता ने दूसरे टोले में एक पक्के मकान में पनाह दिलवा दी थी। आठ साल की उम्र में मैंने तभी जाना कि घर से बेघर होना किसे कहते हैं? खैर, बेघर तो हम हो ही चुके थे और बेआवाज भी। हमारे पास जो भाषा थी उसमें किसी बेघर को कैसे बार-बार बेघर होना पड़ता है इसे बयान करने के लायक शब्दावली शायद नहीं थी। बार-बार मुझे अपना बक्सा और आलमारीवाला कमरा आज भी बहुत याद आता है। गांव में तब यही रिवाज था कि जो सामान जिस कमरे में रखा हो उस कमरे को उसी नाम से पुकारा जाता था। अब न आलमारी थी, न बक्सा। सारी चीजें दृश्यवत थींं उन्हें पहचान पाना बहुत मुश्किल था। छप्पर के ऊपर से पानी बह रहा था और जहां बक्सावाला कमरा हुआ करता था वहां अब जलकुंभियों पर फन काढ़े सांप बैठा हुआ था। गांव में जिसका भी घर मिट्टी का थाकिसी का घर गिरने से नहीं बच सका। बेघरबार लोग आब-ओ-दाना की खोज में भटकने लगे थे। मचान बनाने के मामले में बिल्कुल अनाड़ी मेरे पिता ने हड़बड़ी में जैसा मचान बनाया था वह बेहद कमजोर था। मचान से एक-एक करके पानी में गिरते हुए अनाज के बोरे को वे देखते रहे। दो दिनों के बाद जब हमारी रोटियां खत्म हो गईं तो मां ने ईंट जोड़कर चूल्हा बनाया और आम के सूखे पत्तों को जलाकर भात पकाया। मगर समस्या यह थी कि हमारे पास दाल-सब्जी तो क्या नमक भी नहीं था। जो नमक था वह पिछले दो दिनों से लगातार आंखों से बह रहा था-जिसे सहेजना वक्त के लिए भी मुमकिन नहीं था वैसे तो पानी हमारे चारों ओर फैला हुआ था लेकिन वह पीने के लायक नहीं था। आंखों का पानी पी-पीकर आखिर हम कब तक काम चलाते? जो पानी चारों ओर फैला था वह बेघर करने के लायक तो था लेकिन पीने के लायक नहीं। ÷पानी बिच मीन पियासी' शायद इन्हीं स्थितियों के लिए कहा जाता है।
तब सैंतीस साल की मेरी मां दो दिन में ही जैसे सत्तर साल की बुढ़िया हो गई थी। वामन भगवान की तरह जो तीन कदमों में घर और खेत के बीच की दूरी नापती थी वह बमुश्किल किसी तरह चलकर एक दुकान में नमक खरीदने गई। अभ्यस्त हाथ ने पैसे के लिए जब आंचल की खूंट को देखा और खोलना चाहा तो खूंट में हमेशा बंधा रहनेवाला सौ का नोट खूंट में तो था लेकिन होने के बावजूद उसके होने का कोई मूल्य नहीं रह गया था। बेपरवाह मां छाती भर पानी में टूटे हुए घर को देखने के लिए इतनी बार गई थी कि नोट आंचल में ही गलकर लुगदी बन चुका था। सन्‌ 1984 में सौ रुपये की एक कीमत थी और नोट की जो हालत हो गई थी उसके कारण उसकी अब कोई कीमत नहीं रह गई थी। घर में जो था वह पहले ही नष्ट हो चुका था और साथ में जो था वह साथ नहीं दे पा रहा था। मां वहीं दहाड़ें मारकर रोने लगी। उसकी रुलाई ऐसी थी जैसे आसमान फट पड़ा हो...कलेजा मुंह को आ गया हो...और साहिबो, जब मां रोने लगती है तब फिर बच्चा भी कहां चुप रहता है! हम दोनों मां-बेटे रो रहे थे और आसपास जो लोग खड़े थे वे माजरा समझने की कोशिश कर रहे थे। थोड़ी देर में दुकानदार को जब बात समझ में आई तो उसने लगभग किलो भर नमक हमें यों ही मुफ्त में दे दिया लेकिन मां ने लिया नहीं। उसने अपने जीवन में लोगों से पैंचा-उधार तो मांगा था मगर भीख के बारे में तो वह सोच भी नहीं सकती थी।
÷रसप्रिया' का पंचकौड़ी मिरदंगिया दसदुआरी होकर भी जब भीख के नाम से फुफकार उठा था तो वह तो एक किसान की बेटी थी और नौकरीपेशा आदमी की पत्नी। सबसे बड़ी बात यह कि वह खुद श्रमशील थी। किसान की बेटी हाथों का इस्तेमाल खेतों, जांता पीसने, धान कूटने, मसाला पीसने और यों कहें कि घर के कामों में करती है, भीख मांगने में नहीं। दुकानदार के लाख कहने के बावजूद मां ने नमक नहीं लिया और थके कदमों से वापस लौट चली। आगे-आगे मां और पीछे-पीछे मैं...जैसे बिक चुकी गाय के पीछे-पीछे उसका बछड़ा चलता है...पीछे छूट जाने पर बीच-बीच में हल्की दौड़ लगाता हुआ! मां हालांकि मुझे बहुत मारती थी लेकिन मैं वह सब भूल चुका था और उसके पीछे रोते हुए भागता जा रहा था...इस बात से बेखबर कि कब बाढ़ का पानी हटेगा और कब फिर से उजड़ा हुआ हमारा गांव बसेगा...फिर कब लौटकर गांव अपना होगा...हम कुछ नहीं जानते थे। मेरे दोस्त, अड़ोस-पड़ोस के लोग कहां गए थे, किस हाल में थे...हमें कुछ पता नहीं था। बस चले जा रहे थेऐसी मंजिल की ओर जिसके बारे में हमें कुछ पता नहीं था। हम रोते जाते और चलते जाते...और कभी-कभी मुड़कर पीछे देख लेते कि शायद अपना कोई हित-मित्रा या परिचित दिखाई दे जाए लेकिन हद-ए-निगाह तक आब ही आब था और हमारी आंखों में न नींद थी और न कोई ख्वाब था।
जिंदगी से नींद और ख्वाब जब दोनों चले जाएं तो बचती हैं बस यादें और यादें। किसी ग़ज+लग़ो ने ठीक ही कहा है...करोगे याद तो हर बात याद आएगी...और जब यादें आती हैं तो साहब, यकीनन हर मौज ठहर जाती है। बाढ़ तो मेरे ग़म-ए -हयात का सिर्फ एक हिस्सा भर है। बाढ़ के बाद जब लौटकर हम गांव आए तो जहां पहले तीन-चार सौ लोगों की भरी-पूरी आबादी हुआ करती थी वहां अब मिट्टी के कुछ टीले-जैसे हड़प्पाकालीन किसी भग्न नगर को देखकर उसके माज+ी का अनुमान लगा रहे हों...कहीं कोई नहीं हद-ए-निगाह तक गुबार-ही-गुबार नजर आता था...मेरा गांव रेगिस्तान बन गया था और आंखें नखलिस्तान। बाढ़ में हमने कैसे जिंदगी बसर की और कैसे लौटकर गांव आए-अगर शास्त्राीय संगीत की शब्दावली में कहें तो विलंबित कई युगों में निबद्ध है और बरसात में आज भी हर साल वही सबकुछ दोहराया जाता है।

इब्तिदा फिर वही कहानी की

कल खोई नींद जिससे मीर ने
इब्तिदा फिर वही कहानी की
वक्त मिला तो अब फिर से कुछ वक्त ब्लाग को. ब्लागियानेवाले दोस्तों से गपशप को. इधर नये सिरे से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए दिन-रात जो लोग अखबारों, मंचों पर हलकान होते रहते हैं, माला जपते रहते हैं-उनके वे चेहरे फिर-फिर देखे.लाहौल विला कुवत.

बहुत कुछ इस बीच देखा किया इस बीच...
जिया मगर अपने ढंग से, मन से इस बीच.

सोमवार, नवंबर 12, 2007

कब तक देखो और इंतजार करो?


पाकिस्तान में आपातकाल की घोषणा के बाद मार्शल लॉ लागू होते ही लोगों की प्रतिक्रियाएं ब्लाग पर सरकार के खिलाफ आने लगी. अभिव्यक्ति के इस नये माध्यम से सैनिक हुकूमत बहुत ज्यादा घबरा गई. सैनिक शासन में जब हर जगह फौजां ही फौजां की मौजूदगी हो तो कुछ भी तय करने का हक लोगों के पास नहीं रह जाता. अब तक जिन एशियाई देशों में सेना ने सत्ता पर कब्जा किया है वहां-वहां लोगों का अनुभव ऐसा ही रहा है.हमारे तमाम पड़ोसी देशों यथा पाकिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश आदि में सैनिक हुकूमत का यही रवैया रहा है. श्रीलंका और नेपाल जिस नक्शे-कदम पर चल रहा है वह भी हमारे लिए एक सीख की तरह है. अपने पड़ोस में तमाम असफल देशों से जिस तरह भारत घिरता जा रहा है वह ज्यादा दिनों तक देखो और इंतजार करो की विदेश से नीति पर टिके रहने को मुमकिन नहीं रहने देगा.



आंग सांग सू ची, बर्खास्त चीफ जस्टिस इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी, माओवादी नेता प्रचंड सब अपने-अपने स्तर पर अपने मुल्क की बेहतरी के लिए लड़ रहे हैं. सू ची, दलाई लामा आदि ने तो अपना पूरा जीवन ही अपने मुहिम के लिए होम कर दिया है. भारत की इरोम शर्मिला पिछले कई वर्षों से भूख हड़ताल पर है और सरकार उनकी मांग पर विचार करने के बदले उन्हें तरह-तरह से परेशान करने में लगी हुई है. तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को लेकर एक समय पूरे भारत के युवाओं में विरोध का मुखर स्वर देखा जा सकता था, आज वह नदारद-सा दीखता है.



ख्वाब का दर जल्दी ही इन देशों के संघर्षधर्मी चेतना संपन्न साहित्य को लाने का प्रयास करेगा. इन देशों की संस्कृति, साहित्य और कला पर पड़े प्रभावों पर अब सीरिज में जानकारियां यहां देखी जा सकेगी. धन्यवाद.

शनिवार, अक्तूबर 06, 2007

बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही

नीहारिका झा के बारे में कुछ भी कहने से बेहतर यही है बकौल शमशेर बहादुर सिंह-
बात बोलेगी हम नहीं,
भेद खोलेगी बात ही.
पेश है ख्वाब का दर के लिए खास तौर पर भेजी गई उनकी एक कविता.

एक निवाला


तुम तो रोज खाते होगे
कई निवाले,
मैं तो कई सदियों से हूँ भूखा,
अभागा, लाचार, लतियाया हुआ।
रोज गुजरता हूँ तुम्‍हारी देहरी से
आस लिए कि कभी तो पड़ेगी तुम्‍हारी भी नजर,
इसी उम्‍मीद से हर रोज आता हूँ,
फिर भी पहचान क्‍या बताऊँ अपनी,
कभी विदर्भ तो कभी कालाहांडी से छपता हूँ,
गुमनामी की चित्‍कार लिए,
जो नहीं गूँजती इस हो-हंगामे में।

ना नाम माँगता हूँ,
ना ही कोई मुआवजा,
उन अनगिनत निवालों का हिसाब भी नहीं,
विनती है ! केवल इतनी,
मौत का एक निवाला चैन से लेने दो ।


- नीहारिका झा

बुधवार, सितंबर 26, 2007

शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को नहीं दिख रहा है?


मैंने अपने गांव के जिस सरकारी स्कूले से पढ़ाई की, वहां पांचवीं तक अंगरेजी भाषा की ए.बी.सी.डी. हमें न तब पढ़ाई गई, न आज के बच्चों को भी पढ़ाई जाती है. छठीं जमात में जाने के बाद अचानक अंगरेजी एक विषय के रूप में हमारी पढ़ाई में शामिल हो गई. बस, अंगरेजी क्या आई कि अचानक हम इस विषय की पढ़ाई से जी चुराने लगे और धीरे-धीरे नकारा बच्चों के खिताब से हमें नवाजा जाने लगा. मैं जब हमें कह रहा हूं याद रखिये कि हम जैसे तमाम बच्चों की यही हालत थी.शायद ही कोई पास हो पाता था इस विषय में.परिणाम यह हुआ कि हमारे जैसे बच्चों की अंगरेजी कभी कान्वेंट एजुकेटेड बच्चों जैसी नहीं हो पाई.जबकि शहरी बच्चे बचपन से ही लगातार अंगरेजी पढ़ने के कारण हमसे अच्छे हो गए.बाकी विषयों में भले फिसड्डी रहे. बी.बी.सी. हिंदी में मेरे मित्र श्री राजेश प्रियदर्शी ने एक लेख लिखा है-वही सब मुद्दे इसमें शामिल हैं, जो बरसों से न केवल मैं सोच रहा था, बल्कि भुक्तभोगी भी हूं. पेश है बी.बी.सी. से साभार उनका वह लेख.



भारत में जो तेज़ रफ़्तार तरक्क़ी हो रही है उसका ज्यादातर श्रेय देश के शिक्षित मध्यवर्ग को जाता है, और जितनी समस्याएँ हैं उनका विश्लेषण करने पर हम अक्सर इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे. सारा विकास दिल्ली, मुंबई, बंगलौर जैसे शहरों में हो रहा है जिसकी कमान थाम रखी है अँग्रेज़ीदाँ इंडिया ने, जबकि गोहाना, भागलपुर, नवादा, मुज़फ़्फ़रनगर में जो कुछ हो रहा है वह भारत की अशिक्षित जनता कर रही है जिसे शिक्षित बनाने की बहुत ज़रूरत है. इस तरह के निष्कर्ष तो सब बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं. क्या सब कुछ इतना सीधा-सरल है? शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को, पढ़े-लिखे समझदार लोगों को नहीं दिख रहा है?



दिल्ली में बीए पास करने वाला युवक कॉल सेंटर की नौकरी पा सकता है, बलिया, गोरखपुर, जौनपुर या सिवान जैसी जगह से बीए पास करने वाले युवक को सिक्यूरिटी गार्ड क्यों बनना पड़ता है, इस सवाल का जवाब हम कितनी मासूमियत से टाल जाते हैं. जवाब मुख़्तसर है--अँगरेज़ी. अँगरेज़ी की जो पूँजी दिल्ली वाले युवक के पास है वह आरा-गोरखपुर वाले के पास नहीं है. इसका भी एक मासूम सा जवाब है कि 'तो अँगरेज़ी क्यों नहीं सीखते'? गाँव-क़स्बों के बिना छत वाली स्कूलों की तस्वीरें भी अब छपनी बंद हो गईं हैं कि असली तस्वीर आँख के सामने रहे. क्या किसी ने कभी पूछा है कि अँगरेज़ी मीडियम स्कूलों में नाम लिखाने की आर्थिक-सामाजिक शर्तें देश की कितनी आबादी पूरी कर सकती है? अगर नहीं कर सकती तो क्या सबको चमकदार मॉल्स के बाहर सिक्यूरिटी गार्ड बन जाना चाहिए और जो बच जाएँ उन्हें उग्र भीड़ में तब्दील हो जाने से गुरेज़ करना चाहिए.



भारत और इंडिया नाम के जो दो अलग-अलग समाज एक ही देश में बन गए हैं अँगरेज़ी उसकी जड़ में है. यह दरार पहले भी थी लेकिन उदारीकरण के बाद जो रोज़गार के अवसर पैदा हुए हैं उन्हें लगभग पूरी तरह हड़प करके अँगरेज़ी ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है.
मुझे लगता है कि प्राथमिक स्तर पर पूरे देश में अँगरेज़ी शिक्षा को अनिवार्य कर देने का समय आ गया है, इसके बिना देश की बहुसंख्यक वंचित आबादी के साथ कोई सामाजिक-आर्थिक न्याय नहीं हो सकता.
अगर हम व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो कम से कम ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने का उपाय तो करें. जब साफ दिख रहा है कि अँगरेज़ी जानने वाले कुछ लाख लोगों की बदौलत महानगरों में इतनी समृद्धि आ रही है तो क़स्बों-गाँवों को अँगरेज़ी से दूर रखने का क्या मतलब है?
हिंदीभाषी समाज के लिए भाषा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है. हिंदी को स्थापित करने के लिए अँग्रेज़ी के वर्चस्व को समाप्त करना होगा. यह मानते हुए अलग-अलग राज्यों में हर स्तर पर आंदोलन-अभियान चलते रहे लेकिन परिणाम सबके सामने है. सत्ता की भाषा बदल देने की लड़ाई इतनी आसान नहीं होती.



बिहार,उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारें इस मामले में हमेशा भ्रमित रही हैं, कभी पहली कक्षा से अँगरेज़ी पढ़ाने की बात होती है तो कभी सातवीं से. हिंदी को लेकर दक्षिण भारत में जो राजनीति है उससे भी सब अच्छी तरह वाकिफ़ हैं.


आपको याद ही होगा, ग्लोबलाइज़ेशन, उदारीकरण, बाज़ारीकरण का कितना विरोध एक दौर में हुआ था. धीरे-धीरे सही-ग़लत की बहस ख़त्म हो गई और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार तक ने मान लिया कि जिधर दुनिया जा रही है, उधर ही जाना होगा.



हिंदी के लिए भावुक होकर आप बहुत कह सकते हैं जो अब तक कहते रहे हैं लेकिन सोचिए यह लड़ाई भावना की नहीं, अवसरों की है

सोमवार, सितंबर 24, 2007

नीहारिका झा उस भागलपुर की हैं जो प्राचीन विश्वविद्यालय विक्रमशिला जैसे शिक्षा केंद्र और रेशम के लिए ख्यात रहा है. रहा है, शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया कि विक्रमशिला की तरह रेशम भी अब अतीत होता जा रहा है वहां. वहां की तहजीब, नफासत नीहारिका की भाषा और अंदाजे-बयां में भी परिलक्षित होता है. उनकी स्कूल और कालेज की शिक्षा-दीक्षा स्थानीय स्तर पर हुई. दैनिक भास्कर, जयपुर में काम करने के बाद इन दिनों वे वेबदुनिया.काम में कार्यरत हैं. उन्होंने मुझे एक मेल किया, जिसमें सिर्फ उनकी सोच-विचार परिलक्षित होता है बल्कि कुछ काव्य पंक्तियों में उनकी भावनाओं का उत्पलावन भी दिखाई देता है. पत्र उन्होंने मुझे व्यक्तिगत रुप से लिखा था, लेकिन पर्सनल इज पोलिटिकल शायद इसी तरह के पत्रों को लेकर कहा जाता है. अगर संभव हो सका तो अगले सप्ताह से नीहारीका जी ख्वाब का दर पर बराबर दस्तक देती रहेंगी.

कैसे हैं पंकज जी?
एक आम लड़की की तरह ही अगर जिंदगी बितानी होती तो शायद घर से इतनी दूर मैं आती ही नहीं। जानते हैं बिहार में यही सोच है, खासकर मैथिल ब्राह्मण परिवारों में अभी भी यह बात गहरी समाई हुई है कि लड़कियों को अपना वजूद बनाने का हक तभी है जब उसके मां-बाप या शादी के बाद उसका पति उसे इस बात की इजाजत दे. बाद मैंने देखा कि यह भावना सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश में मौजूद है. मुझे पहले महसूस होता था कि बिहार में ही जातिवाद, अराजकता या भेदभाव वाली स्थिति है, लेकिन यह जानकर और ज्यादा दु:ख हुआ कि पूरे देश के लोग इस आग में जल रहे हैं. लोग कहते रहते हैं कि लड़कियाँ आगे बढ़ रही हैं, उनका विकास हो रहा है, लेकिन उनकी जिंदगी जिस दोराहे पर खड़ी हो गई, उस पर एक ओऱ जहां आधुनिक होने का ठप्‍पा लगा है वहीं दूसरी ओर घर-परिवार के मोर्चे पर उन्‍हें नाकाबिल साबित करने की लगातार कोशिश की जाती है. आज की स्थिति तो पहले से भी कहीं ज्‍यादा भयावह हो गई है. क्‍योंकि जानते हैं, दोराहे की जिंदगी बड़ी कष्‍टप्रद होती है.
मैं नारीवादी तो नहीं हूँ, हाँ कभी-कभी मन सेंटिया जाता है. इन बातों से आप बोर तो नहीं हो गए? अभी-अभी दिमाग में एकाध पंक्तियां आई हैं-
''मन आज भी उदास है,
एक गहरे कुँए की केवल इतना है
पत्‍थर मारो तो कुँए के पानी में
अब भी होती हैं हलचल
लेकिन इन आँखों का पानी न जाने कब सूख गया ? ''
हमारा संवाद बना रहेगा.
नीहारिका

शनिवार, सितंबर 22, 2007

क्या यही है हमारी मानवीयता का सच?

हिंदी के बेहद संवेदनशील कवि आलोकधन्वा ने अपनी मशहूर कविता सफेद रात में एक स्थान पर लिखा है-
बहस चल नहीं पाती
हत्याएं होती हैं
फिर जो बहसें चलती हैं
उसका भी अंत हत्याओं में होता है.

कुछ हिंदी चिट्ठाकारों की प्राथमिकताओं और लेखन के लिए चुने गए विषयों को देखकर बहुत दुःख होता है. क्योंकि जिन चिट्ठों पर राजनीतिक चर्चाओं को जगह मिलती है वहां भी नेपाल की ताजा स्थिति पर कोई बहस नहीं है. यह सच है कि आपको जो अच्छा लगे, जो विषय जंचे उस पर आप लिखें और अपने ब्लाग में छापें, मगर हम अपने समय की क्रूरताओं और हिंसा से आखिर कब तक तटस्थ रह सकते हैं? हमारे आसपास की घटनाएं ही नहीं, हमसे दूर घट रही घटनाएं भी हमें आज किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं. आलोक के ही शब्दों में-क्या लाहौर फिर बस पाया? क्या वे बग़दाद को फिर से बना सकते हैं? वे तो रेत पर उतना भी पैदल नहीं चल सकते, जितना एक ऊंट का बच्चा चलता है, ढूह और गुबार से अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ.तो जो लाहौर को, काबुल को, बगदाद को बना नहीं सकता, बसा नहीं सकता, उसको मिटा देने का अधिकार दुनिया के दारोगा को आखिर किसने दिया है?
पीढ़ियों से नेपाल में रह रहे पहाड़ी मूल से अलग दिखने वाले लोगों को मधेशी कहकर अपमानित किया जाता रहा है. उन्हें कोई मूल अधिकार देने के बदले राजशाही दशकों से बहलाती रही.नेपाल जब लोकतांत्रिक देश बना तो भारतीय मूल के लोगों यानी मधेशियों की उम्मीदें जवां हुई. माओवादियों के ताकतवर होने के बाद प्रगतिशील लोगों की उनसे और अधिक उम्मीदें बढ़ गईं, लेकिन पिछले तीन-चार दिनों से माओवादियों के हथियारबंद दस्ते उन्हें पकड़-पकड़कर गोलियों से भून रहे हैं.पुलिस अभिरक्षा से मधेशी नेताओं को जबरन बुलाकर कत्ल किया जा रहा है. नेपाल के तराई में कर्फ्यू जैसा माहौल है. गांव-के-गांव खाली हो चुके हैं. लोग भारत पलायन कर रहे हैं और भारी अफरा-तफरी का माहौल है. दुखद यह है यह भी लोकतंत्र के वास्तविक बहाली अर्थात राजशाही की पूरी तरह समाप्ति के नाम पर हो रहा है.


लोकतंत्र का सबसे बड़ा दारोगा अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर आज दुनिया के १३६ देशों में अपने सैनिकों की मौजूदगी को सुनिश्चित कर चुका है. इराक, अफगानिस्तान, सूडान, सीरिया, फिलिस्तीन,निकारागुआ, वियतनाम सब को रौंद चुका है. मोसोपोटामिया की उन्नत सभ्यता के देश इराक को आज एक विशाल कब्रिस्तान में बदलने की कवायद जारी है. फ्रांस के विदेश मंत्री के कल के खुलासे के अनुसार अमेरिका ईरान पर हमले की तैयारी को तकरीबन अंतिम रुप दे चुका है. यह सब लोकतंत्र के लिए हो रहा है और लोकतंत्र के नाम पर,लोकतंत्र की मजबूती के लिए हो रहा है. हैरतअंगेज यह है कि अमेरिका के कट्टर विरोधी नेपाल के माओवादी भी नेपाल निर्दोष मधेशियों की हत्या उसी कथित लोकतंत्र के नाम पर कर रहे हैं, जिस लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका यह सब कुछ कर रहा है.


हिंदी चिट्ठाकारिता में इस त्रासद स्थिति की आहट नहीं सुनाई दे रही है. यह मानवीयता नहीं है शायद कि एक खास आइडेंटिटी के लिए हिंदी भाषियों की हत्या हो और हम किसी न किसी कारण या आग्रहवश इस हिंसा की अनदेखी करें. असम में, मुंबई में मात्र हिंदी भाषी होने के अपराध में लोगों की हत्या हो रही है. क्या किसी खास भाषा को बोलना अपराध है? सोचें हम कि यह चुनी हुई चुप्पी बौद्धिकता है, मौनम स्वीकृति लक्षणम् है, हिंसा का समर्थन है या क्या है यह?

शुक्रवार, सितंबर 21, 2007

काफ़िर, तनखैया और माओवाद


यह तकरीबन हर धर्म के मनमाने व्याख्याकारों के साथ दिक्कत है कि कोई रैशनल आदमी अगर जरा भी उनके तर्कों से असहमति व्यक्त करता है या वह अगर अत्यंत आपत्तिजनक तर्कों को काटने का प्रयत्न करता है, पंडितों, मुल्लाओं,ज्ञानियों या किसी खलीफा की सुनने से इनकार करने की जुर्रत करता है, तो वह फौरन क़ाफिर, तनखैया या देशद्रोही करार दे दिया जाता है.


बेहद हैरतअंगेज और चिंताजनक बात यह है कि प्रगतिशील और मार्क्सवाद का बाना धारण किये हुए, कुछ तो सिर्फ तन के स्तर पर- कोई जरा भी उनके तर्कों को अगर काटने की कोशिश करे, या उनके एकांगी और पूर्वाग्रही तर्कों को मानने से इनकार करे तो वे भी धार्मिकर अलंबरदारों की तरह ही ऐसे लोगों को फौरन फासिस्ट, और संघी-प्रतिक्रियावादी आदि-आदि कहकर कट लेते हैं. जो कि एक लोकतांत्रिक देश और व्यवहार के धरातल पर कतई उचित नहीं है.नेपाल में हथियारबंद माओवादियों ने एक दर्जन के करीब निर्दोष मधेशी नेताओं की गोली मारकर हत्या कर दी. माओवादियों की इस कार्रवाई के भी समर्थन में मेरे कुछ कथित प्रतिबद्ध माओवादी मित्रों ने समर्थन किया है-सिर्फ विचारधारा एक होने के कारण. सोचने की बात है कि क्या यही है सर्वहारा के कल्याण और जनता के लिए लड़ने का नारों का यथार्थ? क्या यही है जनाब प्रचंड की घोषणाओं की हकीकत? आखिर उनके उतावलेपन और बौखलाहट का कारण क्या है? जहां तक मैं जानता हूं मार्क्सवाद की किसी भी व्याख्या में निर्दोषों की हत्या करने का कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता. अगर यह सांच कहिये तो माओवाद समर्थक मित्र मारने दौड़ते हैं. क्या ऐसे ही मौकों को ध्यान में रखकर कबीर ने कहा था-

सांच कहै तो मारन धावै

झूठे जग पतियाना...साधो सब जग बौरान....

बुधवार, सितंबर 19, 2007

हम भी कुछ खुश नहीं वफा करके


इश्क में कहते हो हैरान हुये जाते हैं

ये नहीं कहते कि इन्सान हुए जाते हैं


- जोश मलीहाबादी

ऐ इश्क तूने अक्सर कौमों को खा के छोड़ा

जिस घर से सर उठाया उसको बिठा के छोड़ा


- हाली

इश्क कहते हैं जिसे सब वो यही है शायद

खुद-ब-खुद दिल में है इक शख्स समाया जाता


- हाली

देखा न आंख उठा के कभी अहले-दर्द ने

दुनिया गुजर गई गमे-दुनिया लिये हुये


-फानी बदायूंनी

इश्क कहता है दो आलम से जुदा हो जाओ

हुस्न कहता है जिधर जाओ नया आलम है


- आसी गाजीपुरी

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे


- जौक

बुत को बुत और खुदा को जो खुदा कहते हैं

हम भी देखें कि तुझे देख के क्या कहते हैं


- दाग


हम भी कुछ खुश नहीं वफा करके

तुमने अच्छा किया निबाह न की


- मोमिन

थोड़ी बहुत मुहब्बत से काम नहीं चलता ऐ दोस्त

ये वो मामला है जिसमें या सब कुछ या कुछ भी नहीं


- फिराक गोरखपुरी

फिर दिल पे है निगाह किसी की रुकी रुकी

कुछ जैसे कोई याद दिलाता है आज फिर


- फिराक गोरखपुरी

गरज कि काट दिए जिन्दगी के दिन ऐ दोस्त

वो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में


- फिराक गोरखपुरी

अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ

देखा जो मुझको छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ


- वफा रामपुरी

आ के तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूं

मैं जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूं मैं


- जिगर मुरादाबादी

तुम नहीं पास कोई पास नहीं

अब मुझे जिन्दगी की आस नहीं


- जिगर बरेलवी

हिज्र हो या विसाल ऐ अकबर

जागना रातभर कयामत है


- अकबर इलाहाबादी

मैं सच बोलूंगी और हार जाऊंगी

मैं सच बोलूंगी और हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा

परवीन शाकिर

सच है यह कि आज हर जगह सच की हार हो रही है. सच बोलने वाले सच्चे लोग झूठ से, झूठे लोगों से हार रहे हैं.फर्जी और चालबाज लोग, चतुर-सुजान निश्छलों के मुकाबले ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं. सत्ता से उनकी सांठ-गांठ भी अच्छी रहती है. इसलिए यह अकारण नहीं है कि हिंदी के आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कुटज नामक निबंध में अपनी मनोव्यथा को सही तरीके से व्यक्त किया है. क्या लेकर आए हैं लोग और क्या लेकर जाएंगे, मैं सोचता हूं-और लोग भी क्या यही सोचते हैं?

सोमवार, सितंबर 17, 2007

क्या अब्राहम लिंकन अमेरिका के ही राष्ट्रपति थे?

क्या अब्राहम लिंकन भी उसी अमेरिका के राष्ट्रपति थे जिस अमेरिका के राष्ट्रपति श्रीमान जार्ज डब्लयू. बुश साहब हैं?यकीन नहीं आता कि आज का अमेरिका वही अमेरिका है जिसके राष्ट्रपति कभी अब्राहम लिंकन हुआ करते थे. आज बुश साहब के नेतृत्व में अमेरिका जिस कदर दुनिया को अपने पांवों के तले रौंदने को लोकतंत्र की स्थापना का नाम दे रहा है उसके कारण सहसा यह यकीन नहीं होता. यह भी यकीन नहीं होता कि उसी अमेरिका में आज के पब्लिक इंटेलेक्चुअल नोम चोम्स्की साहब रहते हैं. जो अमेरिका आज हर बात का जवाब कलस्टर बम और अनेक तरह के हथियारों से देने का आदी हो चुका है उसी अमेरिका के कभी राष्ट्रपति जनाब अब्राहम लिंकन साहब ने अपने बेटे के शिक्षक को एक पत्र लिखा था. पेश है लिंकन साहब का वह अमर पत्र-

उसे सिखाना

उसे पढ़ाना कि संसार में दुष्ट होते हैं तो आदर्श नायक भी
कि जीवन में शत्रु हैं तो मित्र भी
उसे बताना कि श्रम से अर्जित एक डालर
बिना श्रम के मिले पांच डालर से अधिक मूल्यवान है


उसे सिखाना कि पराजित कैसे हुआ जाता है
यदि उसे सिखा सको तो सिखाना
कि ईर्ष्या से दूर कैसे रहा जाता है


नीरव अट्टहास का गुप्त मंत्र भी उसे सिखाना


तुम करा सको तो उसे पुस्तकों के आश्चर्यलोक की सैर अवश्य कराना
किंतु उसे इतना समय भी देना
कि वह नीले आकाश में विचरण करते विहग-वृंद के शाश्वत सत्य को जान सके
हरे-भरे पर्वतों की गोद में खिले फूलों को देख सके
उसे सिखाना कि पाठशाला में अनुत्तीर्ण होना अधिक सम्मानजनक है
बनिस्बत धोखा देने के


उसे अपने विचारों में आस्था रखना सिखाना
चाहे उसे सभी कहें यह विचार गलत है तब भी
उसे सिखाना कि सज्जन के साथ सज्जन रहना है
और कठोर के साथ कठोर

मेरे पुत्र को ऐसा मनोबल देना
कि भीड़ का अनुसरण न करे
और जब सभी एक स्वर में गाते हों तो उसे सिखाना कि तब वह धैर्य से सुने
किंतु वह जो कुछ सुने उसे सत्य की छलनी से छान ले
उसे सिखाना कि दुख में कैसे हंसा जाता है
उसे समझाना कि आंसुओं में कोई शर्म की बात नहीं होती
तुनकमिजाजियों को लताड़ना उसे सिखाना
और यह भी कि अधिक मधुभाषियों से सावधान रहना है


उसे सिखाना कि अपना मस्तिष्क
और विचार अधिकतम बोली लगाने वालों को ही बेचे
मगर अपने हृदय और आत्मा पर मूल्य-पट भी न टांके


उसे समझाना कि शोर करने वाली भीड़ पर कान न दे
और यदि वह समझे कि वह सही है
तो उस पर दृढ़ रहे और लड़े


उसके साथ सुकोमल व्यवहार करना
पर अधिक दुलारना भी मत
क्योंकि अग्नि-परीक्षा ही इस्पात को सुंदर
सुदृढ़ बनाती है
और बहादुर होने का धैर्य भी


उसे सिखाना कि वह सदैव अपने आप में उदात्त आस्था रखे
क्योंकि तभी वह
मनुष्य जाति में उदात्त आस्था रख पाएगा....

रविवार, सितंबर 16, 2007

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

चचा गालिब ने बहुत पहले इस चीज की भांप लिया था कि-
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब,
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.


मैं नहीं जानता कि वह कुछ क्या है जिसके कारण हिंदी ब्लाग की दुनिया में बेहद सक्रिय कुछ दोस्तों को अपना नाम छिपाने के लिए मजबूर करती है? क्या सामने से लड़ने का साहस नहीं होने के कारण वे छिपकर वार करना ज्यादा मुफीद समझते हैं? क्या वे इस वहम में जीते हैं कि कथित स्टिंग आपरेशन की तरह उनके लिए भी साध्य पवित्र है, साधन चाहे लाख अपवित्र हो?


अजीब उलझन है कि लोग आदिविद्रोही, धुरविरोधी, पंगेबाज, घूघूती-बासूती वगैरह-वगैरह नाम रखकर हिंदी चिट्ठाकारिता की दुनिया में चरित्र प्रमाण पत्र बांटने का कथित पवित्र काम आपने हाथ में लेकर संशय, हिंसा और असहिष्णुता का माहौल बनाना चाहते हैं. याद रहे कि हिंदी के फक्कड़ मिजाज के विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा में एक जगह लिखा है कि डरना किसी से भी नहीं, गुरू से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं तब फिर मेरे ब्लागर भाई यह क्यों सोचते हैं बिना कोई मूल्य चुकाये हम सत्य को प्राप्त कर लें?यह मत भूलिये कि सत्य अपना पूरा मूल्य चाहता है. झूठ के सिक्के से शायद सच को कभी हम खरीद ही नहीं सकते.

शुक्रवार, सितंबर 14, 2007

सबके दु:ख-सुख उसके चेहरे पे लिखे पाए गए

उर्दू शायरी में राहत इंदौरी एक बड़ा नाम है. उनकी शायरी में आम आदमी का दर्द जिस काव्यात्मक भाषा में अभिव्यक्त होता है वह आज की उर्दू शायरी में तकरीबन विरल है.

आज हिंदी दिवस है. सरकारी विभागों, उपक्रमों और बैंकों आदि में हिंदी को लेकर तमाम तरह की भाषणबाजियों का बाजार आज से हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा के नाम पर गर्म रहेगा. लोग हिंदी की बात करते-करते अक्सर उर्दू विरोध पर भी उतर आएंगे, जबकि उर्दू के नजदीक गए बिना हम शायद ही वास्तविक हिंदी को समझ सकें. मुझे हिंदी पोर्टल वेबदुनिया पर राहत साहब की तीन गज़लें मिल गई. उनके प्रति साभार. आप इन गज़लों को पढ़िये और बताइए कि कैसी लगी ये गजलें?

पेशानियों पे लिखे मुकद्दर नहीं मिले
दस्तर खान मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले

आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है
मग़रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले

कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात
अंधे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले

मैं चाहता था खुद से मुलाकात हो मगर
आईने मेरे कद के बराबर नहीं मिले

परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो
मुमकिन है वापस आओ तो वे घर नहीं मिले।



मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था

अपने ही फैलाव के नशे में खोया था दरख्त
और हर मौसम टहनी पर फलों का बार था

देखते ही देखते शहरों की रौनक बन गया
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार था

सबके दु:ख-सुख उसके चेहरे पे लिखे पाए गए
आदमी क्या था हमारे शहर का अखबार था

अब मोहल्ले भर के दरवाजों पे दस्तक है नसीब
इक जमाना था के जब मैं भी बहुत खुद्दार था

कागज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई
हमने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था।


हर इक चेहरे को जख़्मों का आईना ना कहो
ये जिंदगी तो है रहमत इसे सजा न कहो

जाने कौन सी मजबूरियों का कैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफा न कहो

तमाम शहर ने नेज़ो पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफाक़ था इसे हादसा न कहो

ये और बात है के दुश्मन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

हमारे ऐब हमें उँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

मैं वाक़ियात की ज़ंजीर नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो

ये शहर वो है जहाँ रक्कास भी है 'राहत'
हर इक तराशे हुए बुत को खुदा न कहो।

रविवार, सितंबर 02, 2007

पाकिस्तान में मुहाजिरों का हाल


आजादी की साठवीं सालगिरह मनाते हुए हम शायद उन लोगों को भूल रहे हैं जो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के कारण अपनी आंखों में नए मुल्क का ख्वाब लिए हुए भारत से पाकिस्तान गए और वहां जाकर मुहाजिर कहलाए। जो आज के पाकिस्तान यानी पश्चिमी पाकिस्तान गए वे मुहाजिर कहलाए और जो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश गए वे वहां जाकर बिहारी मुसलमान कहलाए। धर्म एक है, खुदा एक है बावजूद इसके इन साठ सालों में भी उनका अपना वतन कहीं नहीं है। जबकि उस वक्त के मुसलमानों सबसे चहेते रहनुमा कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्‍ना ने रहमत अली के दिए हुए शब्द पाकिस्तान को मुसलमानों का एक ऐसा यूटोपिया बनाकर पेश किया था जहां जाकर उनके सारे मसले खत्म हो जाएंगे। मसले तो खत्म नहीं हुए अलबत्‍ता उनके तमाम अरमान आज भी स्थानीय मुसलमानों और दोयम दर्जे के सरकारी कानून के कारण खत्म होते जा रहे हैं। हम शायद उन्हें भी भूलने की गुस्ताखी नहीं कर रहे हैं जो बंटवारे की वजह से मारे गए, बेघर हुए और कुछ लोग आजाद वतन का ख्वाब आंखों में लिए हुए हिंदुस्तान आ गए और पाकिस्तान चले गए? इस तथ्य को आखिरकार हम कैसे भुला सकते हैं कि इस तकसीम में तकरीबन 5 लाख से ज्यादा लोग मारे गए, 10 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, 10 लाख से अधिक बंटवारे के बाद अपना घर-बार छोड़कर इधर-से-उधर आए और जो लोग उधर गए वे आज भी विस्थापितों की जिंदगी जीने के मजबूर हैं।


बंटवारे के बाद अपने लिए एक अलग देश का ख्वाब लिए हुए हिंदुस्तान से पाकिस्तान गए तकरीबन 50 फीसदी मुहाजिर बेहद गरीबी में कराची तथा सिंध प्रांत के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं। इस कथित आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है। वे आज भी दाने-दाने के मोहताज हैं और पेट भरने के लिए कराची शहर के गुज्जर नाला, ओरंगी टाउन, अलीगढ़ कालोनी, बिहार कालोनी और सुर्जानी इलाकों में स्लम और बदबू भरी गलियों में किसी तरह जीवन बसर कर रहे हैं। मुहाजिर नौजवान बी.ए., एम.ए. पास करके धक्‍के खाते रहते हैं लेकिन उन्हें तमाम मुश्किलों के बाद भी नौकरी नहीं मिलती। विभाजन के बाद भारत से पलायन करके गए लोग पाकिस्तान की कुल जनसंख्या के तकरीबन 8 फीसदी हैं लेकिन वे सरकार की नजरों में इन साठ सालों के बाद भी इनसान नहीं मात्र एक संख्या हैं। भारत से वहां गए लोगों में काफी तादाद निम्न-मध्यम वर्ग के लोग भी थे जो सांप्रदायिक दंगों को झेलते हुए पाकिस्तान पहुंचे थे और उनके हाथों में कुछ भी नहीं था। जिन लोगों तब कुछ नहीं मिल सका उन्हें आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी आज तक कुछ नहीं मिल सका है, सिवाए स्थानीय निवासियों के नफरतों के। वे तब भी गरीब थे और आज भी गरीब हैं। कराची के इन मुहाजिरों की एक पूरी पीढ़ी ने जहां बंटवारे का दर्द और सांप्रदायिक दंगों की पीड़ा झेली तो दूसरी ओर आज की युवा पीढ़ी गरीबी और दोयम दर्जे की सरकारी नीतियों की मार झेल रही है। इस धार्मिक विभाजन का सबसे त्रासद पहलू यह है कि इसमें कई चीजों की उपेक्षा करके मात्र धर्म को एक आधार बना दिया गया। तत्कालीन हिंदुस्तान के अल्पसंख्यक समुदाय में यह भावना भर दी गई थी कि हिंदू बहुल देश में रहना उनके लिए फायदेमंद नहीं होगा।


मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए धर्म के आधार पर एक अलग देश की मांग करने लगी थी। विश्व युद्ध के बाद यह साफ हो चुका था कि अब उनकी मांग की अनदेखी कर पाना संभव नहीं होगा। सत्‍ता हस्तांतरण के ट्रेनों में सीमा पार कर रहे लोगों की लाशें भेजी जानी लगी और कई बार तो लाशों को क्षत-विक्षत करके भेजते थे। भयावह यह है कि अन्य त्रासदियों की तरह इसमें भी सबसे ज्यादा हिंसा और बलात्कार की शिकार दोनों तरफ की महिलाएं हुईं। बचकर जो गरीब महिलाएं वहां पहुंच गई उनकी औलाद आज भी कराची की गलियों में पालीथिन बीनकर, मैला ढोकर सम्मान से जीने की कोशिश में ही हलकान होकर हताश हो चुकी है। बांग्लादेश यानी उस वक्त के पूर्वी पाकिस्तान गए बिहार के मुसलमान चूंकि उर्दू भाषी थे इसलिए वे आमार बांग्ला सोनार बांग्ला के कथित राष्ट्वादी धारा में फिट नहीं हो सकते थे इसलिये वे उनके लिये आज भी बाहरी लोग हैं। कराची के मुहाजिरों का दर्द भाषाई स्तर पर तो एक हद तक दुखदायी नहीं है लेकिन बांग्लादेश गए बिहारी मुसलमानों का दर्द आजादी के साठ वर्ष बीतने के बाद भी एक अछोर दर्द में तब्दील होकर रह गया है। वहां न उनका वतन है अपना, न भाषा है अपनी और कहने को ही सही न अपना कोई एक समाज विकसित हो सका है। उर्दू के शायर जोश मलीहाबादी, कथाकार सआदत हसन मंटो पाकिस्तान तो चले गए लेकिन वे कभी वहां सहज महसूस नहीं कर पाए। तत्कालीन पूर्वी-पश्चिमी पाकिस्तान के दोनों ओर अपने-अपने पाकिस्तान में आज भी अविभाजित हिंदुस्तान से गए मुसलमान वहां अपना वतन ढूंढ रहे हैं और सत्‍ता की बागडोर थामे रहनुमा इसमें उनकी कोई मदद नहीं कर पा रहे हैं।

शनिवार, सितंबर 01, 2007

एक रिश्ता जिसके आगे रिश्तेदारी भी फीके हैं

मित्र बनाने की परम्परा को छत्तीसगढ़ में मितान या मितानिन 'बदना' कहते हैं. इस 'बदना' का मतलब है एक तरह से अनुबंध की औपचारिकता.
दो पुरुष या दो महिलाएँ आपस में एक दूसरे को मितान बनाने के लिए एक दिन नियत करते हैं और मितान बद लेते हैं.कहीं फूलों का आदान-प्रदान किया और मित्र बन गए, तो कहीं गंगा जल या तुलसी के पत्तों का आदान-प्रदान हुआ. एक छोटे-से आयोजन में गौरी-गणेश और कलश की पूजा के बाद एक दूसरे को कोई पवित्र चीज़ देकर मितान 'बदा' जाता है.
कहीं-कहीं एक दूसरे का नाम अपने हाथों पर गुदवा कर (यानी उसका नाम अपने हाथ में स्थाई टैटू की तरह लिखवाकर) मितान बनने की भी परम्परा है. हालांकि स्वाभाविक सामाजिक परिवेश की वजह से इस परंपरा का विस्तार दो विपरीत लिंग वाले लोगों के बीच नहीं हो सका. यानी कोई पुरुष किसी महिला के साथ मितान नहीं बद सकता.
पीढ़ियों का साथ
इस मित्रता के कई नाम हैं, हालांकि व्यावहारिक रुप से सब एक से ही हैं.
मितान बनाने के लिए आदान प्रदान की जाने वाली चीज़ के आधार पर इनके नाम भी हैं- भोजली मितान, दौनापान, गंगाजल, सखी, महाप्रसाद, गोदना, गजामूंग.
दो पुरुष आपस मे मितान होते हैं और दो महिलाएँ मितानिन.
अब तो उम्र के आख़री पड़ाव में आ गए हैं लेकिन मुझको याद नहीं कि कभी हम दोनों के बीच किसी बात को लेकर, किसी भी तरह का कोई मनमुटाव हुआ हो. हर सुख-दुख में बिना आवाज़ दिए ही मैंने मितान को अपने साथ खड़ा पाया है

रामझूल
श्रावण मास की सप्तमी को धान के बीज बो कर उसे पूजने की परम्परा यहां रही है, जिसे भोजली कहा जाता है.
रक्षाबंधन के दूसरे दिन इस भोजली को विसर्जित किया जाता है. छत्तीसगढ़ में एक दूसरे को इसी भोजली को कानों में लगा कर भोजली मितान बनाने की प्रथा चलन में ज़्यादा है.
एक बार आपस में मित्र बन गए तो यह मित्रता आजीवन बरक़रार रहती है और आने वाली पीढ़ियों में भी उस मित्रता का निर्वाह किया जाता है.
मितान यानी हर सुख-दुख का साथी. किसी के यहां ब्याह हो या मृत्युपरांत मुंडन, मितान हर क़दम पर एक दूसरे के साथ होंगे.

गुरुवार, अगस्त 30, 2007

एक मछली जो अंधेरे में चमकती है


ताईवान की एक कंपनी ने एक ऐसी सजावटी मछली की प्रजाति तैयार की है जो अंधेरे में चमकती है.हरे पीले रंग में चमकने वाली इस मछली को कंपनी ने जीन संशोधन से तैयार किया है.ताईकाँग कार्पोरेशन नाम की इस कंपनी ने जेलीफिश के डीएनए को ज़ेब्राफिश में डाल दिया इससे एक नई प्रजाति तैयार हो गई.जीन के साथ पहले हुए प्रयोगों में भेड़ के दूध में प्रोटीन की मात्रा बढ़ा देने जैसे प्रयोग तो हुए हैं.पर ज़ेब्रा मछली के साथ पहली बार ऐसा प्रयोग हुआ है.कुछ लोगों के लिए तो यह महज़ एक मज़ेदार प्रयोग है पर कुछ दूसरे इस बात पर चिंतित हैं कि 'डरावने जीवों' का सिलसिला कहाँ तक जाएगा.नसबंदी ताईकाँग कार्पोरेशन की इस मछली में ब्रिटेन ने बहुत रुचि दिखाई है जहाँ एक्वैरियम का धंधा करोड़ों का है.इस कंपनी का दावा है कि जीन संवर्धित मछलियाँ और यह अंधेरे में चमकने वाला फ्लोरोसेंट जीन सुरक्षित है.और इनकी नसबंदी भी की जा चुकी है.वैसे तो टीके-1 नाम की ये मछलियाँ 2001 में ही तैयार कर ली गईं थीं पर इनकी नसबंदी करने में डेढ़ वर्ष और लग गए ताकि ये सामान्य मछलियों के साथ प्रजनन न कर सकें और कोई नई अनचाही प्रजाति तैयार न हो जाए.
टीके-1 मछलियों को ताईवान विश्वविद्यालय के एच जे साई ने तैयार किया है.ताईकाँग कार्पोरेशन की योजना यह थी कि वह पहले 30 हज़ार मछलियाँ तैयार करके प्रति मछली 17 डॉलर यानी आठ सौ रुपयों से अधिक में बेचा जाए.कार्पोरेशन तीन महीने के भीतर इसका उत्पादन एक लाख तक बढ़ाना चाहता था.पर इसे लेकर लोगों की रुचि कम ही नज़र आ रही है.वैज्ञानिक चिंतित हैं कि ब्रिटेन में ये मछलियाँ भौगोलिक परिस्थियों के अनुसार अपने आप को ढाल पाएँगी या नहीं.कुछ लोग इसका विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि जीव फ़ैशन की चीज़ बन जाए.

बुधवार, अगस्त 29, 2007

भूत सिर्फ़ दिमाग़ का एक वहम है

इन दिनों हिंदी के तमाम अखबार भूत-प्रेत का मसाला बेच रहे हैं. इंडिया टी.वी. ने तो ऐसे मामले को परोसने में महारत ही हासिल कर ली है. हर अखबार सैक्स, धर्म, क्रिकेट और कार के बाद भूतों के किस्से को सबसे बिकाऊ माल समझने लगे हैं. इसी का नतीजा है कि हिंदी के एक बड़े घराने का अखबार हर रविवार भूतों के किस्से जरूर परोसता है. पेश है इसकी सचाई पर आधारित एक शोध का नतीजा-
कई बार ठंडी हवा के चलने, कम रोशनी होने और चुम्बकीय क्षेत्र होने के कारण ऐसा महसूस होता है कि कमरे में कोई है लेकिन ये सिर्फ़ एक अनुभूति होती है.मनोवैज्ञानिकों ने ये निष्कर्ष ब्रिटेन की उन दो सबसे ज़्यादा प्रेतबाधित इमारतों हैम्पटन कोर्ट पैलेस, इंग्लैड और एडिनबरा, स्कौटलैंड की साऊथ ब्रिज वॉल्ट इमारत में बड़े पैमाने पर किये गये उस अध्ययन के बाद निकाला है जिसमें सैकड़ों लोगों पर प्रयोग किये गये.

चुम्बकीय क्षेत्र बदलने से भी कई आश्चर्यजनक प्रभाव उत्पन्न होते हैंये अध्य्यन करने करने वाले हर्टफ़ोर्डशायर विश्वविद्यालय के डॉ. रिचर्ड वाइज़मैन और उनके सहयोगियों का कहना है कि उन्हें कई आश्चर्यजनक तथ्य मिले हैं जिनसे ये पता चलता है कि जो लोग भूत-पिशाच से प्रभावित होते हैं वो भूतों के वास्तविक होने का तो कोई सबूत नहीं दे पाते लेकिन प्रेतग्रस्त ज़रुर होते हैं.हैम्पटन कोर्ट में जहां कथित रुप से हेनरी अष्टम की पांचवी पत्नी कैथरीन हावर्ड का भूत होने की बात कही जाती है, कुछ लोगों से कहा गया कि वे इस भूत के बारे में अपने कुछ अप्रत्याशित अनुभव रिकार्ड करें.जैसे क़दमों की चाप, किसी की कमरे में मौजूदगी वगैरह.डॉ रिचर्ड वाइज़मैन कहते हैं ये अनुभव चौंकाने वाले थे.कुछ लोगों ने इन दोनों इमारतों में बड़ी तादाद में अप्रत्याशित घटनाएँ रिकार्ड कीं और इससे इस बात के सबूत मिलते हैं कि प्रेतग्रस्त होना एक वास्तविकता है.पर क्या भूत वास्तव में होते हैं?डॉ वाइज़मैन और उनके सहयोगी इस बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं.

मंगलवार, अगस्त 28, 2007

अमेरिकी कवि एमानुएल ओर्तीज की कविता

अमेरिका के विद्रोही कवि एमानुएल ओर्तीज की इस कविता का हाल ही में हिंदी अनुवाद प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका पहल में प्रकाशित हुआ है. इसकी बड़ी चर्चा है और इसी वजह से हमारी जिज्ञासा मूल कविता पढ़ने की हुई. आज पेश मूल कविता, कल हम इसका हिन्दी अनुवाद लाएंगे.

A MOMENT OF SILENCE, BEFORE I START THIS POEM
Emmanuel Ortiz 9.11.02

Before I start this poem, I'd like to ask you to join me in a moment of
silence in honor of those who died in the World Trade Center and the Pentagonlast September 11th. I would also like to ask you to offer up a moment of silence for all of thosewho have been harassed, imprisoned, disappeared, tortured, raped, or killedin retaliation for those strikes, for the victims in both Afghanistan and theU.S. And if I could just add one more thing... A full day of silence for the tens of thousands of Palestinians who have diedat the hands of U.S.-backed Israeli forces over decades of occupation. Sixmonths of silence for the million and-a-half Iraqi people, mostly children,who have died of malnourishment or starvation as a result of an 11-yearU.S. embargo against the country. Before I begin this poem, two months of silence for the Blacks underApartheid in South Africa, where homeland security made them aliens in theirown country Nine months of silence for the dead in Hiroshima and Nagasaki,where death rained down and peeled back every layer of concrete, steel, earthand skin and the survivors went on as if alive. A year of silence for themillions of dead in Viet Nam - a people, not a war - for those who know athing or two about the scent of burning fuel, their relatives' bones buriedin it, their babies born of it. A year of silence for the dead in Cambodiaand Laos, victims of a secret war ... ssssshhhhh .... Say nothing ... wedon't want them to learn that they are dead. Two months of silence for thedecades of dead in Colombia, whose names, like the corpses they oncerepresented, have piled up and slipped off our tongues. Before I begin this poem, An hour of silence for El Salvador ... An afternoon of silence for Nicaragua... Two days of silence for the Guetmaltecos ... None of whom ever knew amoment of peace in their living years. 45 seconds of silence for the 45 deadat Acteal, Chiapas 25 years of silence for the hundred million Africans whofound their graves far deeper in the ocean than any building could poke intothe sky. There will be no DNA testing or dental records to identify theirremains. And for those who were strung and swung from the heights of sycamoretrees in the south, the north, the east, and the west... 100 years ofsilence... For the hundreds of millions of indigenous peoples from this half of righthere, Whose land and lives were stolen, In postcard-perfect plots like Pine Ridge, Wounded Knee, Sand Creek, FallenTimbers, or the Trail of Tears. Names now reduced to innocuous magneticpoetry on the refrigerator of our consciousness ... So you want a moment of silence? And we are all left speechlessOur tongues snatched from our mouthsOur eyes stapled shutA moment of silenceAnd the poets have all been laid to restThe drums disintegrating into dust Before I begin this poem,You want a moment of silence You mourn now as if the world will never be the same And the rest of us hopeto hell it won't be. Not like it always has been Because this is not a 9-1-1 poemThis is a 9/10 poem,It is a 9/9 poem,A 9/8 poem,A 9/7 poemThis is a 1492 poem. This is a poem about what causes poems like this to be written And if this isa 9/11 poem, then This is a September 11th poem for Chile, 1971This is a September 12th poem for Steven Biko in South Africa, 1977This is a September 13th poem for the brothers at Attica Prison, New York,1971.This is a September 14th poem for Somalia, 1992.This is a poem for every date that falls to the ground in ashesThis is a poem for the 110 stories that were never toldThe 110 stories that history chose not to write in textbooksThe 110 stories that that CNN, BBC, The New York Times, and Newsweek ignoredThis is a poem for interrupting this program. And still you want a moment of silence for your dead?We could give you lifetimes of empty: The unmarked gravesThe lost languagesThe uprooted trees and historiesThe dead stares on the faces of nameless children Before I start this poem wecould be silent forever Or just long enough to hunger,For the dust to bury us And you would still ask usFor more of our silence. If you want a moment of silence Then stop the oil pumpsTurn off the engines and the televisionsSink the cruise shipsCrash the stock marketsUnplug the marquee lights,Delete the instant messages,Derail the trains, the light rail transit If you want a moment of silence, put a brick through the window of Taco Bell,And pay the workers for wages lost Tear down the liquor stores,The townhouses, the White Houses, the jailhouses, the Penthouses and thePlayboys. If you want a moment of silence, Then take it On Super Bowl Sunday,The Fourth of JulyDuring Dayton's 13 hour saleOr the next time your white guilt fills the room where my beautiful peoplehave gathered You want a moment of silence Then take itNow, Before this poem begins. Here, in the echo of my voice,In the pause between goosesteps of the second hand In the space betweenbodies in embrace,Here is your silence Take it. But take it allDon't cut in line.Let your silence begin at the beginning of crime. But we, Tonight we will keep right on singingFor our dead. -

सोमवार, अगस्त 27, 2007

कुँवारों में भारी निराशा और हताशा

अनेक युवा शादी की तमन्ना दिल में लिए हुए इधर उधर घूम रहे हैं लेकिन शायद उनके लिए कोई दुल्हन बची ही नहीं हो.शायद उसे दुनिया में आने से पहले ही मार दिया गया हो.अनेक गाँवों के कुँवारों में भारी निराशा और हताशा भर गई है. अनेक गाँवों की क़रीब एक चौथाई महिला आबादी ख़त्म हो गई है. इसका नतीजा ये हुआ है कि कुँवारे युवा अब बाहर जाकर अपने लिए दुल्हनों की तलाश करने लगे हैं.एक ऐसे ही कुँवारे कहते हैं, "मुझे कोई स्थानीय लड़की नहीं मिल सकी जिससे मैं शादी कर पाता. इसलिए मैंने पिछले साल बाँग्लादेश से अपने लिए दुल्हन ख़रीदी, हालाँकि वह सौदा भी काफ़ी महँगा पड़ा." उनकी पहली संतान भी एक लड़की ही है जिसका स्वास्थ्य बहुत गिरा हुआ है और लगता है वह भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है.लगता है पुराना सिलसिला ही आगे बढ़ रहा है यानि बेटा पैदा होने की तमन्ना कहीं न कहीं हर दिल में बैठी है.अगर यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो वह समय दूर नहीं जब इस पूरे क्षेत्र में मानवता का संकट ही पैदा हो जाएगा.

गुरुवार, अगस्त 09, 2007

कल खोई थी नींद जिससे मीर ने
इब्दिता फिर वही कहानी की
-मीर तकी मीर
दोस्तो,
एक तबील अरसे के बाद फिर चिट्ठाकारी की उसी दुनिया में लौटा हूं जिससे कुछ वक्त के लिए मैं गायब था. वक्त-वक्त की बात है. वक्त ऐसा भी इनसान पे कभी आता है कि छोड़कर साथ साया भी चला जाता है.इनसान का इम्तहान उसी वक्त होता जब वह अपनी जिंदगी के सबसे मुश्किल भरे दौर से गुजर रहा होता है.आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक जगह कहा कि ज्ञान के क्षेत्र में सबसे कठिन दुर्ग का विजय ही असली विजय माना जाता है.मगर इनसान कुछ भी है तो है आखिरकार इनसान ही. घबराना और घबराकर चिंतित हो जाना उसकी ज़ाती फितरत है.फिर यह भी कि वक्त से जिसे डर नहीं लगता वह उसकी कीमत तो चुकाता है लेकिन वक्त को अपनी ओर मोड़ता भी वही है. अगली कहानी कल. आमीन.

शुक्रवार, जून 15, 2007

नया ज्ञानोदय की परिचय पच्चीसी


कुमार मुकुल की कविता एक तरह से मजबूरी में "नया ज्ञानोदय" को छापनी पड़ी. कविता छापने के बाद भी चूंकि मुद्दा गंभीर था इसलिए उन्होंने लिखकर विरोध जताने के लिए "हंस" को यह लेख दिया लेकिन इस लेख के मुआमले में असहमति के सारे साहस चूक गए. "हंस" ने नहीं छापा. मुकुल जी हर हाल में यह बताना चाहते थे कि वे भी मुंह में जबान रखते हैं और उन्हीं की जुबानी पेश है यह लेख.



कुमार मुकुल

2005 के वागर्थ के युवा पीढ़ी विशेषांक में रवींद्र कालिया ने स्वगत में लिखा था- बगैर तोड़फोड़ के किसी भी विधा का विकास संभव नहीं होता... वह (कुणाल सिंह) शब्दों से फुटबाल की तरह खेलते हुए कहानी खड़ी कर लेता है... अब जाकर 2007 में आये नया ज्ञानोदय के मई-जून विशेषांकों में संपादन के स्तर पर घोषित तोड़फोड़ और शब्दों का खेल सामने आया है।शब्दों के जादूगर संपादकद्वय द्वारा नवोदितों के दिये गये परिचय के नमूने देखें- 'दुबली-पतली और सुंदर कथाकार', 'अविवाहित कथाकार... बट गर्ल्स फादर मस्ट हैव हिज ओन बार', 'हर मंगलवार को मंदिर और शनिवार को हंस के कार्यालय में जाती हैं', 'बैलों की खरीदफरोख्त का अच्छा अनुभव', 'बालिवुडिय शब्दावली में कहें तो राजुला शाह स्टार घराने से हैं', '...आग्रह करने पर नहीं लिखते... धमकाने पर भी नहीं... दो कहानियां और अब तक दो बार अस्पताल की हवा खा चुके हैं। हाल में ही तीसरी बार अस्पताल से बाहर आये और यहां यह तीसरी कहानी...', 'करीब आधा दर्जन प्रेम और इतनी ही कहानियां। अभी तक न कोई किताब, न ही कोई पुरस्कार', 'सात-आठ कहानियां। छह-सात भाषाओं में अनुवाद। तीन-चार पुरस्कार... प्रेम संबंध एक ही और एक ही किताब। शादी अभी एक भी नहीं', 'जी खोलकर हंसती हैं और धुंआधार लिखती हैं... युवा लेखिकाओं से फोन पर बात करने का चस्का। यह चित्र 10 अप्रैल की सुबह का', 'सैंतीस साल की उम्र में 'सत्ताइस साल की लड़की' लिखी, जो हिट रही', 'पेशेवर अध्यापक... प्रेमिका से ही शादी कर ली... यह कहानी संपादक के उकसाने पर लिखी', 'बहुत गुजारिश के बाद यह छोटी कहानी', 'बीबी-बच्चों के साथ ताजमहल में फोटो खिंचवा चुके हैं', 'इन दिनों ताजमहल के साये में गुजर-बसर कर रही हैं', 'पच्चीस पृष्ठीय पहली कहानी संपादकों की क्रूरता का शिकार होते-होते अब छह-सात पृष्ठ की रह गयी। उम्मीद है, भविष्य में लंबी कहानी लिखने से कतराएंगे। एक ताजी सचमुच की छुटकी कहानी का इंतजार', 'कंधों से नीचे जाते खुले-लंबे सीधे बाल- गोल चेहरा- चमकती हुई आंखें- चेहरे से टपकता बौद्धिक उजास और विश्वास- सारिका (1977-78-79 का कोई अंक रहा होगा) में छपा चित्र। नाम- नासिरा शर्मा (इस अंक में नासिरा शर्मा की पांच तस्वीरें और एक स्केच छपे हैं।)', 'अंजली काजल की... अंतिम कहानी। इसके बाद वे अंजली गौतम के नाम से लिखेंगी... दो तीन महीने पहले ही शादी हुई और शादी के बाद यह पहली कहानी'।'सनातन बाबू का दाम्पत्य' कहानी में कहानी के झूठ होने की घोषणा करता कहानीकार (कुणाल सिंह) कहता है- 'क्या हम सच से उकता कर थोड़ी देर के लिए जान-बूझ कर झूठ नहीं जीने लगते? उदाहरण के लिए 'माना सूरज पश्चिम से उगता है... कितना भोला और जिंदादिल झूठ जिस पर सौ सच्चाइयां कुर्बान।'उपरोक्त संदर्भों में देखें तो 'विधा के विकास के नाम पर तोड़फोड़, एक झूठ पर सौ सच कुर्बान करने की कातिलाना अदा, बालिवुडीय हिट-फ्लॉप शब्दावली का घोषित तौर पर प्रयोग संपादकद्वय के निजी फितूरों को ज्यादा सार्वजनिक कर रहे हैं। युवा रचनाकारों की बाबत वे कुछ खास नहीं बता पा रहे हैं, सिवा उनकी अक्षमताएं उजागर करने के। जैसे पच्चीस पृष्ठ की कहानी को घोषित संपादकीय क्रूरता में कतर कर छह पेज का कर देने का क्या तर्क है? ऐसी कहानियों में संपादकद्वय अपना नाम जोड़ देते तो बेहतर होता। बजाय अपनी क्रूरता के उद्-घाटन के। इस क्रूरता के शिकार युवा कथाकार उमाशंकर चौधरी से जब उनकी पच्चीस पेज की कहानी को कतर कर छह पेज की कर देने के बारे में मैसेज कर पूछा तो उनका एसएमएस आया- 'ये कहानी दो पेज एडिट हुई है, वो भी मेरे द्वारा, परिचय में जो लिखा गया है, वो अगर मजाक है तो बहुत ही खराब मजाक है, मैं एक पत्र लिखूंगा।'इसी तरह नासिरा जी की आधा दर्जन तस्वीरें छापने और नख-शिख वर्णन का कोई अलग से मानी नहीं निकलता। सिवा सुमुखियों के प्रति अपने गुप्त अनुराग के प्राकट्य के। किसी रचनाकार की तस्वीर किस दिन और कितने बजे खींची गयी, यह तक बताया गया है परिचय में।कुणाल शब्दों के फुटबालर हैं और खूब खेल किया है उन्होंने। सैकड़ों सच्चाइयां कुर्बान कर दी हैं एक-एक झूठ को स्थापित करने में। बालिवुडीय शब्दावली का प्रयोग जो आरंभ कर चुके हैं वो- तो आगे क्या युवा रचनाशीलता का जासूसी अंक या मॉडलिंग अंक निकालने की योजना है। होली पर अश्लील मसखरेबाजी से पूर्ण अंक निकालने की पुरानी सामंती परंपरा को पुनर्जीवित करने का इरादा तो नहीं।परिचय में 'दुबली-पतली सुंदर कहानीकार' लिख कर क्या बताना चाहते हैं संपादक? इस 'नयनसुख' संपादकीय के नमूने वागर्थ 2004 के अक्टूबर अंक में भी देखे जा सकते हैं, जिसमें पाठकीय कॉलम में छपे पचास पत्रों में मात्र एक आरती झा की तस्वीर छपी है, जबकि उसी अंक में आरती की एक लघुकथा भी प्रकाशित है। तस्वीर वहां लग सकती थी, पर कृपा प्रदर्शन फिर कैसे होता! छुपाछुपी का यह खेल वागर्थ के उस अंक में कुणाल के परिचय में भी देखा जा सकता है, लिखा है- 'एक राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिका में सहायक संपादक, जबकि इसी अंक में सहायक संपादक में उनका नाम छपा है। सहायक संपादक के युवकोचित राग-द्वेष की झलक तमाम परिचयों में मिल जाती है। राकेश मिश्र के परिचय के साथ कुणाल का परिचय का मिलान करें, पता चल जाएगा। राकेश के बारे में बताया गया है कि आधी दर्जन कहानियां, पर कोई पुरस्कार नहीं। जबकि कुणाल के परिचय में राकेश को मुंह चिढ़ाते हुए लिखा गया है- सात-आठ कहानियां, तीन-चार पुरस्कार। यहां प्रेम संबंधों की गिनती और उससे उपजी कुंठा के दर्शन भी होते हैं। राकेश मिश्र के आधा दर्जन प्रेम हैं, पर कुणाल का एक प्रेम संबंध है और शादी तो बेचारे की एक भी नहीं है, लगता है शादी का ठेका देने का इरादा है।कहानीकार कविता के पति राकेश बिहारी मिले, तो उन्होंने परिचय पर आपत्ति जताते कहा- मेरी मां दुखी रहती हैं कि कैसी बहू है कि पूजा-पाठ नहीं करती। शशिभूषण के परिचय पर विस्फारित आंखों से देखतीं कवयित्री अनामिका ने कहा- यह तो चरित्र हनन है। वरिष्ठ कवि विष्णु नागर ने कहा कि पहले एक हंस ही चर्चा में आने के लिए तमाशा करता था, ज्ञानोदय उससे आगे निकलने को है। राजीव रंजन गिरी ने भी परिचय को बीभत्स बताया।2005 के वागर्थ के संपादकीय में रवींद्र कालिया ने दलित विमर्श और नारी विमर्श को तथाकथित बताते हुए कुछ संभ्रांत नागरिकों द्वारा दैहिकता और यौनाचार करने का आरोप लगाया था। उपरोक्त परिचय आखिर इससे भिन्न किस दूसरी मानसिकता का खुलासा करते हैं?कई परिचयों में उकसा कर, आग्रह कर, धमका कर कहानियां लिखवाने की बात की गयी है। रचनाकार न हुए गाय-भैंस हुए। दूध नहीं उतर रहा तो इंजेक्शन से दूध उतार दिया। अपनी समझदारी थोपने का दुराग्रह ऐसा कि इस रौ में वे कई ग़लतियां कर जा रहे हैं। जैसे, राजीव कुमार के परिचय में पहली पंक्ति में लिखते हैं- 'अब तक दो बार अस्पताल की हवा खा चुके हैं, लगे हाथ दूसरी पंक्ति में लिखते हैं- तीसरी बार अस्पताल से बाहर आए...'। सारा ध्यान सुमुखियों पर लगा देने पर ऐसी ग़लतियां होंगी ही। अंजली काजल ने शादी के बाद जब उसी नाम से कहानी लिखी और छपवायी, तो अंजली गौतम हो जाने का स्त्री-अस्मिता विरोधी मत उन पर थोपने के क्या मानी? हमारे युवा मित्र व जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने जब अंजली काजल से इस बाबत पूछा तो उनका मैसेज आया कि मैं अंजली गौतम हूं या अंजली काजल- कुछ समझ नहीं आ रहा। सुधीर सुमन ने ही बताया कि ज्ञानोदय में छपे इस अंक के एक रचनाकार के परिचय के दौरान स्टिंग आपरेशन के तर्ज पर छद्म नाम से रचनाएं करने के राज़ का पर्दाफाश कर उनके लिए वैधानिक संकट खड़ा कर दिया गया है। संपादकीय नैतिकता के लिहाज़ से इसे एक भद्दा और क्रूर खेल माना जाएगा। अब तो यही बाकी रह गया है कि वह रचनाकार इसके विरुद्ध किसी कोर्ट में जाए और कहे कि वह छद्म नाम उसका नहीं है और साहित्यिक स्टिंग पत्रकारिता के ज्ञानोदयी संपादक वहां सबूत पेश करें कि नहीं यह नाम उसी का है। यह तो अपना मत और अपनी आधी-अधूरी, सड़ी-गली सूचनाएं पाठकों पर थोपने कोशिश ही कही जाएगी। इस तरह की गॉसिप को क्या कहा जाए? क्या हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता में यह स्टारडस्ट इरा की शुरुआत है? क्या अब हिंदी साहित्य को ज्ञानोदय की इसी परंपरा पर चलाया जाएगा?नया ज्ञानोदय के मई अंक के संपादकीय में इसी तरह अपना मत जबरदस्ती विजयमोहन सिंह के मत्थे मढ़ने की कोशिश की गयी है। विजय कुमार की हजामत इस आधार पर बनायी गयी है कि वे कविता में युवा पीढ़ी को तवज्जो नहीं दे रहे और इसके लिए बचाव में खड़ा किया गया है विजयमोहन सिंह को, जबकि पत्रिका के 'प्रारंभ' में ही विजयमोहन सिंह लिखते हैं- '...कुछ चतुर और 'शॉप लिफ्टर' कविताएं अपनी असली पहचान छिपा कर पत्रिकाओं तथा अखबारों के साप्ताहिक संस्करणों में प्रवेश पा जाती हैं। इधर की कविताओं में असली रचना की पहचान इसीलिए थोड़ी धूमिल हुई है।' अलबत्ता कविताएं चतुर भी होती हैं, मेरी समझ में यह नहीं आया। हां, उनके निहितार्थ समझ में आये और वे विजय कुमार के कथन को पुष्ट ही करते हैं। मैनेजर पांडेय के अनुसार भी- 'हिंदी में कुछ कवि ऐसे हैं, जिनके लिए कविता लिखना शतरंज खेलने जैसा है... एक और जमात ऐसे कवियों की है, जो कविता का प्रयोग मदारी के बंदरिया की तरह करते हैं और उससे पैसा बटोरते हैं... कविता भले ही चेतन मनुष्य की मानस कृति हो, आज के अधिकांश स्वनामधन्य कवियों के लिए वो बुद्धिविलास है।'

मंगलवार, जून 12, 2007

वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है

दिल्ली में गर्मी के मारे लोगों का बुरा हाल है...इनसान बाहरी और भीतरी दोनों तपिश से इस कदर परेशान है कि तरावट पाने की उसकी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं. पानी कुछ पल तक तो गले को तर कर देता है लेकिन आंखों का जो पानी सूख गया है उसको कैसे तर करोगे मेरे भाई? रहीम ने कहा था आवत हिय हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह...तो साहब नैनन में सनेह का जो पानी हुआ करता था वह कहां चला गया? हम क्यों नहीं बचा पाते हैं उस पानी को? मुझे लगता है गर्मी का एक यह भी कारण हो सकता है.

जे.एन.यू. के मेरे वे मित्र जो आज आई.ए.एस. हैं, बड़े अधिकारी हैं और ज्यादातर वातानुकूलित कक्ष से निकलने वाले लोगों की जमात में वे पाए जाते हैं उन्हें शायद याद हो कि जे.एन.यू. की पहाड़ियों से निकलती तपिश हालांकि दिल्ली की गर्मी से दो-तीन डिग्री ज्यादा ही हुआ करती थी लेकिन बावजूद इसके गंगा ढाबा के पास गर्म पत्थर पर बैठकर आहिस्ते-आहिस्ते गहराती हुई वह शाम जो हमारी जिंदगी में शबो-रोज आया करती थी वह पता नहीं अब याद हो कि न याद हो. नैनन में सनेह का आलम यह था कि अगर कोई मित्र बीमार हो जाए तो तीमारदारों की लाइन लगी रहती थी...पैसा हो या न हो...मेस बिल, दवा-दारु किसी चीज की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. आज सबकी अपनी अलग-अलग दुनिया है और एक ही दुनिया की अलग-अलग दुनियाओं में हम इस गर्मी में ठंडी हवा की एक छुअन को भी तरस-तरस जा रहे हैं.
हम अखिलेश की कहानी चिट्ठी के नायकों की तरह सुखी होने बाद एक-दूसरे को चिट्ठी लिखकर सूचना नहीं दे पाए हैं कि हम वाकई आज सुखी(!) हो गए हैं और अपनी-अपनी दुनिया में वही तरावट ढूंढ़ रहे हैं.

शाम आज भी हमारे जीवन में आती है लेकिन वो गर्म पत्थर और वो बातें हमारे जीवन में नहीं रह गई हैं, व्यावहारिकता का तकाजा भी शायद यही है कि सब दिन वह सब कुछ हमारे जीवन में रह भी नहीं सकता था. लेकिन जो मन है हमारे पास वह तो वही रह ही सकता था? वह नहीं रख सके हम बचाकर और गर्मी से परेशान हैं. सीने में जलन और आंखों में तूफान-सा जो कुछ दिखाई दे जाता वह एक शायर की हैरानी को बहुत अधिक बढ़ाता है... इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है के रुप में.अब कौन दे इसका जवाब जनाब शहरयार साहब को जो खुद इन दिनों अलीगढ़ ही गर्मी से बेहद परेशान से चल रहे हैं.गर्मियां तो यूं ही आती-जाती रहेंगी लेकिन चाकरी के अपनी व्यस्ततम समय में भी क्या हम अपने नैनन के सनेह को बचा नहीं सकते? इस वक्त जो शामें हमारी जिंदगी में आती हैं हम उसे तो कम-अज-कम अजीब होने से तो बचा ही सकते हैं!

शनिवार, जून 09, 2007

'इंडियन लिटरेचर' का अंक-238

मित्रो, सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली अपनी दो सुप्रसिद्ध पत्रिकाओं हिन्दी में 'समकालीन भारतीय साहित्य' और अंगरेजी में 'इंडियन लिटरेटर' के नाम से प्रकाशित दो पत्रिकाओं के माध्यम से विभिन्न भाषाओं की रचनाओं को हिन्दी और अंगरेजी में पेश करती है। अभी-अभी 'इंडियन लिटरेचर' के अंक-238 में मेरी पांच मैथिली कविताओं का अंगरेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. आप भी उन कविताओं का आनंद ले सकते हैं.

MAITHILI POEMS



ABBOT
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PANKAJ PARASHAR

Panting and panting
Short of breath
Speeding her way
Clutching closely her new born of six
At last stood she at the door
Of a Buddha-Vihar
Hopefully, Knocking

She stood knocking and knocking
Hoping and knocking in vain

How many doors
How many days
How many nights
How many times
Had She knocked, knocked, knocked
Only in vain

Stood a woman
Facing an inquisition
Answering questions
Fired by a battery of Bikshus
Scandalized, Scared tirelessly
Proving time and again
Her chastity her purity

In the endless cycle of life
Between life and death
Between murder and suicide
She passes through
Test numberless
Of ice and Fire
Like a Commodity
She is for sale
Sold from one hand to another
In the market place

From the slave trader Partul
To Bhudhar Sharma and the priest Chakradhar
Slave Divya
Like a mute animal
Is sold everyday
Passing from hand to hand


How ironic it does seem
What bitter constraints
Though a human, yet not considered so

To protect her child
Breathless and panting
She reaches for refuge
At the Buddha-Vihar
Only to be refused

Abbot
One who has lost her partner in life?
And her father too
With a babe of six
Who will she seek
For refuge
Or to Slave away
Her life

ABBOT oh Abbot
How funny it sounds
She thinks she is one of them
But the world think she is not
One of them
She is not part, but apart from them

* * *

Translated from Maithili by- Poet



MAHAPATRA
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PANKAJ PARAHAR


UNTOUCHABLE
WOMEN
DELIVERS
MASSAGES
V. I. P.
ALL SIX DAYS,

SEVENTH
DRIVEN OUT
UNTOUCHABLE
ONCE AGAIN.
***

Translated from Maithili by- Poet



BODH GAYA
----------------------------
PANKAJ PARASHAR

On his way from Sarnath
Lord Buddha crossed the Ganga
Whispered the boatman
No more ‘BODH’ in Bodhgaya

In Gaya passed away Gayasur
Ajatshatru in Magadh
His eternal foe
Surrounds him still
Doubt and suspicion
Suspicion and doubt,
Mock him still

Change a prefix or a suffix
The word change, world change
Read Him forward he is a ‘God’
Read Him backward makes Him a ‘Dog’
But the truth still Stares
The fact remains
No more Bodh in Bodhgaya.
***

Translated from Maithili by- Poet



TIME: The Denominator
-----------------------------------
PANKAJ PARASHAAR

Nothing is visible
In the darkness
I quietly scan
Again and again

Swarms of code words
Swarm around me
Keeping a vigil
A watch over me

One fine day
The words in my diary
Suddenly change, so
Do their meaning

Where stood the writing pad
Now stood the ‘phallus’-’Shaligram’

Later one day
Vanish my creations
My complete and incomplete
Poetic outpouring
The living witness of my innocent feeling

Since several nights
Come wafting a cry
RAM NAM SATYA HAI
RAM NAM SATYA HAI
God Alone is Truth
Truth alone is God
In the tone of a lullaby
A chorus is sung

The last rites mantras
Are called didactic ditties
In a chorus resounds
A Prey
A Prey

In the darkness
Masked men inn medieval wears
With modern weapon
Demolish the image of Buddha

I see
The earthquakes in horror
Deferent men of different ‘isms’
Hurl abuse in different tongues
Keep shouting
Democracy, Democracy

I see
I hear

How Strange
How amusing
In an age of blank verse
In an age of unheeding
Come slogans in
Rhymes and alliteration.
***

Translated from Maithili by- Poet


BAG ON THE PEG
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PANKAJ PARASHAR

Father
From wherever he came from
Hung his bag on the peg
Went to the well
To wash away
His thirst, hunger and fatigue
And dust

The bag on the peg
Disturbs him again and again
Makes him restless again and again
Gets him ready again and again
Forces him out again and again

The bag on the peg
Used as a napkin
To wipe away his sweat
Is turned into an air bag
To stuff his clothes
Towel and snacks
When he travels afar

The bag on the peg
When he holds in the hands
Radiates a festive gay
In the wrinkled face of my father
On the day mother is busy,
Grinding ‘masala’
Sister is busy cooking rice
Grandma with her laughter
Sounds sweet as the flower
A crowd of birds
Keep hoping in the yard.

The bag on the peg
Was a mystery unsolved?
We stood on tiptoes
On the narrow stairs
On each others shoulders
We stood
-To peep and pry
See and find
Inside the bag on the peg

The bag on the peg
Had a hundred wholes in it
Like the innumerable cracks on his feet
Things in the bag could be seen
In and out
Like father watching the time

The bag on the peg
Perhaps it reminded him
Of the birds that left their nests
For their little offspring’s
To return in the evenings
Of going to bed early
Rising and leaving
Before day break

Bag on the peg
Denoted father’s presence
Which made children silent
Women talk in Whispers
And sister humming
Only Vidyapati instead of film
Thus in this beg democracy or ours
The beg gentrified the big boss

The bag on the peg
Still is on the peg
In the same place
In the same room
But the’ Nehru’s and ‘Jinnah’s of the house
Did not pay need
To the father (of the nation)
As was expected
The houses stood divided

Father was shaken like Gandhi

The bag on the peg
Still hangs there
It is now treated
Not even as a ‘Saint in Letters’
Nor even as Gods of the ‘Pariahs’

My wife put her foot down
I’ll use the bag
To dry the dishes my wife said
To dust the cycle my son said
To make a soft bed my daughter said
For my doll
But I stood firm never allowed the bag
To leave its peg

The bag in the peg
And me on the bed
Cried and Cried
All nightlong
Like a new bride
Leaving her home

Thank God no one
Raises the issue of the bag now
The bag is on the peg
Reminding of father
Swinging and reminding
Of his presence everywhere.
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Translated from Maithili by- Poet




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