गुरुवार, जनवरी 22, 2009


पाब्लो नेरुदा को कैंसर होने की जानकारी जब डॉक्टर ने दी (बाद में वे इसी बीमारी से मरे) , तो बताते हैं कि उन्होंने ये कविता लिखी. हालांकि नेरुदा के कुछ आधिकारिक विद्वानों का कहना है कि किसी ने उनके नाम से यह कविता लिखकर प्रचारित कर दी. बहरहाल जो भी हो-एक संबल की तरह ये कविता मुझे मित्र सरीखे बड़े भाई यादवेंद्र जी ने भेजी है- पेश है वह कविता....

इसकी यहां बिल्कुल मनाही है



इसकी यहां बिल्कुल मनाही है

कि विलाप करता जाए कोई और किए से कुछ भी न सीखे

कि कोई उठे सुबह एक दिन

और न हो उसकी आंखों में स्वप्न एक भी

कि कोई चिहुंक-चिहुंक जाए

अपनी ही स्मृतियों के डर से...

इसकी यहां बिल्कुल मनाही है


कि चेहरे से तिरोहित हो जाए मुस्कान मुश्किलों से जूझते हुए

कि उसमें जज्बा न जीवित हो उसके लिए लड़ने का

कि जैसे प्यार करने का दम वह भरे

कि सब कुछ बिसार दिया जाए बारी-बारी से

डर जब समेटने को फैलाने लगे अपनी विकराल बांहें...

या कि बीच में ही छूट जाए किसी का

अपने स्वप्नों के एक दिन साकार होने पर से भरोसा...

इसकी यहां बिल्कुल मनाही है


कि मान लें हम जरूरत क्या

कि समझें आसपास एक-दूसरे को

कि कम कर दें अपना दखल

साथियों के जीवन में

कि करने लगें अनदेखी

दूसरे के खुश होने के इतर ढंग की....

इसकी यहां बिल्कुल मनाही है


कि कोशिशें छोड़ दें हम खुशी की

कि मर जाने दें हम आशाएं

कि गुंजाइश विस्मृत कर दें बेहतरी की...

कि मान लें यही अंत में थक-हारकर

दुनिया बेहतर बन जाएगी

हम जैसों के बगैर भी....
इसकी यहां बिल्कुल मनाही है

बुधवार, जनवरी 21, 2009

कब तक रहेंगे हमारे तारे जमीं पर?


फिल्म-संगीत की दुनिया में एक ओर जहां भारत एआर रहमान को गोल्डन ग्लोब अवार्ड मिलने का जश्न मना रहा है, वहीं ऑस्कर अवार्ड के पहले ही दौर से तारे जमीं पर के बाहर हो जाने से भारतीय फिल्म जगत के साथ आम सिने प्रेमियों को भी निराशा हुई है। तारे जमीं पर को भारत की ओर से विदेशी भाषा की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नामांकित किया गया था और यह सौभाग्य भी इससे पहले केवल तीन फिल्मों की ही मिला था-मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान को। ऑस्कर अवार्ड्स के इतिहास में ये तीसरा मौका है जब भारत की फिल्म सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्मों की श्रेणी में नामांकित की गई, लेकिन ये दोनों भी ऑस्कर अवार्ड नहीं जीत पाईं। इससे पहले भारत के प्रख्यात फिल्म निर्देशक सत्यजित राय को सिनेमा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए विशेष ऑस्कर सम्मान दिया गया था। ध्यान देने लायक बात यह है कि सिनेमा के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान को मद्देनजर रखते हुए जिन ऑस्कर कमिटी ने उन्हें सम्मानित किया था, उन्हें यह विशिष्ट योगदान उनकी किसी फिल्म विशेष में नजर नहीं आया।

मुंबई फिल्म उद्योग हर साल लगभग 800 फिल्में बनाता है, जबकि हॉलीवुड में महज सौ के आसपास फिल्में बनती हैं। इस समय भारतीय फिल्म उद्योग की अंतरराष्ट्रीय फिल्म बाजार में भागीदारी 3.5 अरब डॉलर की है, जबकि अंतरराष्ट्रीय फिल्म बाजार 300 अरब डॉलर का है। इससे निश्चय ही पश्चिमी फिल्मों के बड़े बाजार का अनुमान लगाया जा सकता है, लेकिन ऑस्कर को लेकर भारतीय जनमानस में यह सवाल उठता है कि ऑस्कर के जो मानदंड हैं, उनके हिसाब से हमारी फिल्मों की गुणवत्ता में कहां कमी रह जाती है? उन कमियों को दूर करने और बेहतरीन फिल्म बनाने के लिए भारतीय फिल्मकार क्यों नहीं ईमानदारी से कोशिश करते हैं? सत्यजीत राय की फिल्म पथेर पांचाली, आगंतुक आदि पूर्वी भारत के लोकक्षेत्र की संवेदना को जिस भाषा और कला-कौशल से सामने लाती हैं, उसे विश्व सिनेमा के किसी भी प्रतिमान पर निर्भीकता से रखा जा सकता है। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी में बेहतरीन कॉस्ट्यूम डिजाइन के लिए अवश्य भानु अथैया को ऑस्कर अवार्ड मिल चुका है, मगर किसी भारतीय फिल्म को ऑस्कर अब तक हासिल नहीं हो सका है। तारे जमीं पर के ऑस्कर की दौर से बाहर हो जाने के बाद फूहड़ मसालेदार फिल्मों को आम जनता की मांग बताकर पल्ला झाड़ने में सिद्धहस्त भारतीय फिल्मकारों को निश्चय ही अब गुणवत्ता, बेहतर पटकथा, तकनीक और भाषा की संवेदनशीलता को लेकर आत्ममंथन करना चाहिए। फिर कोई कारण नहीं है कि हम इस क्षेत्र में बेहतर उपलब्धि हासिल न कर पाएं।

शुक्रवार, जनवरी 16, 2009

आईसीसी की रैंकिंग के अजूबे तो देखिये!


अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद यानी आईसीसी द्वारा जारी क्रिकेट इतिहास के शीर्ष टेस्ट और एकदिवसीय बल्लेबाजों की जो सूची सामने आई है, उनमें मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर का नाम शीर्ष बीस खिलाडि़यों के बीच भी नहीं है। इसमें इकलौता भारतीय नाम सुनील गावस्कर का है और वह भी बीस शीर्ष बल्लेबाजों की सूची में सबसे अंतिम यानी बीसवें नंबर पर। रिकार्डों और करिश्माई खेल के बेताज बादशाह होने के बावजूद आईसीसी की एकदिवसीय बल्लेबाजों की सूची में सचिन तेंदुलकर 12 वें नंबर पर हैं। इसी से आईसीसी की रैंकिंग प्रणाली के लिए बनाए गए मानदंडों की यांत्रिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। दूसरी ओर, आईसीसी की शीर्ष बीस खिलाडि़यों की दिलचस्प सूचियों में सचिन ही नहीं, बल्कि ब्रायन लारा और स्टीव वॉ सरीखे बल्लेबाजों के नाम नहीं हैं। आईसीसी की सूची में जिन खिलाडि़यों को जगह दी गई है, वे निश्चय ही अच्छे और बड़े खिलाड़ी हैं या रहे हैं, मगर सचिन तेंदुलकर सरीखे खिलाड़ी को आखिरकार कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है?
माना कि रेटिंग तय करने के जो तरीके अपनाए जाते हैं उसके हिसाब से सचिन तेंदुलकर के अंक कम हैं, लेकिन इससे रेटिंग तय करने के जो तरीके हैं वे बेहतर और न्यायसंगत तो नहीं हो जाते हैं? क्रिकेट के इतिहास में सिर्फ 25 बल्लेबाज टेस्ट क्रिकेट में 900 या अधिक रेटिंग अंक हासिल कर सके है, जबकि एकदिवसीय में 20 बल्लेबाजों ने 850 रेटिंग अंक का आंकड़ा पार किया है। आईसीसी की रेटिंग पर टीम इंडिया के वामहस्त ओपनर गौतम गंभीर की यह टिप्पणी आम भारतीय की प्रतिक्रियाओं का लगभग प्रतिनिधित्व करती है कि मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर को किसी रैंकिंग की कोई जरूरत नहीं है और अंकों की तकनीकी बारीकियों में जाने के बजाए लोग मानते हैं कि सचिन और लारा की किसी से तुलना नहीं की जा सकती है। गौरतलब है कि सचिन और ब्रायन लारा के मामले में स्वयं आईसीसी को इस बात का एहसास है कि रेटिंग तय करने के लिए जो तरीके अपनाए गए हैं, वह बेहतर और निर्दोष नहीं है। इससे स्पष्ट पता चलता है कि इस तरह की सूचियों को जारी करके जाने-अनजाने आईसीसी विश्व के बेहतरीन खिलाड़ियों के साथ-साथ अपनी गरिमा के साथ भी न्याय नहीं कर पाती है।

गुरुवार, जनवरी 15, 2009

पाक से आर्थिक संबंध का समीकरण


गृह मंत्री पी चिदंबरम की इस चेतावनी को मुंबई हमले के बाद बयानबाजियों की श्रृंखला में एक और बयान मानने की भूल नहीं करनी चाहिए कि यदि पाक हमें सहयोग नहीं करता है, तो हम उसके व्यापारियों को क्यों प्रोत्साहित करें? उनके पर्यटकों की आवभगत क्यों करें और अपने पर्यटकों को पाकिस्तान भेजकर किसी भी रूप में उसकी अर्थव्यवस्था में योगदान करें? क्योंकि आरोपियों को सौंपने और उन पर कारüवाई के लिए भारत द्वारा तमाम सबूत उपलब्ध करा देने के बाद पाकिस्तान अब तक सबूत का ही राग आलाप रहा है। जबकि वांछित अपराधियों और आतंकी सरगनाओं पर कार्रवाई के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देशों के अनुरोध पर पाकिस्तान ने कोई कार्रवाई नहीं की है। दुर्योग से अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी अब तक मुंबई आतंकी हमले के मुद्दे पर अपेक्षित दृढ़ता प्रदर्शित नहीं की है। पाक के साथ क्रिकेट मैच पर ऊहापोह को दूर करने के लिए कूटनीतिज्ञ इस बात पर सहमत हुए कि क्रिकेट ही नहीं, पाकिस्तान के साथ तमाम संबंधों की समीक्षा की जाए। जाहिर है, उस दायरे में क्रिकेट भी है। क्योंकि जमीनी स्तर पर युद्ध जीतने से पहले कूटनीतिक स्तर पर विजय के लिए प्रतिपक्षी को अलग-थलग करना बेहद जरूरी होता है।
गृह मंत्री का बयान इस लिहाज से और महत्वपूर्ण है कि भारत ने पाकिस्तान को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा दिया हुआ है, जबकि पाकिस्तान ने भारत को यह दर्जा तब भी देना जरूरी नहीं समझा, जब संबंध बिल्कुल सामान्य थे। जबकि भारत के साथ व्यापार के मामले में भारत के मुकाबले पाकिस्तान कहीं ज्यादा लाभ कमाता है। सांस्कृतिक मोर्चे पर भी भारत ने पाकिस्तान के कई कलाकारों-लेखकों को स्थायी वीजा दिया हुआ है, जिनमें मरहूम क्रांतिकारी शायर अहमद फराज और गुलाम अली का नाम उल्लेखनीय है। जबकि पाकिस्तान ने विश्व स्तर की सम्मानित गायिका लता मंगेशकर तक को वीजा देने की तकलीफ नहीं उठाई। इन सवालों के घेरे में यह बात भी आती है कि पाकिस्तान हो या कोई अन्य देश, सांस्कृतिक और आर्थिक मामलों में एकपक्षीय और असंतुलित स्थिति बहुत दिनों तक नहीं झेली जा सकती। मुंबई आतंकी हमले के पहले से पाकिस्तान के साथ यह असंतुलन कायम है और इसको दूर करने की दिशा में पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कभी ईमानदारी से कोशिश नहीं की। इसके बावजूद कूटनीतिक मोर्चे पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए भारत जो कर रहा है, उसी की एक कड़ी के रूप में गृह मंत्री के बयान को देखा जाना चाहिए।

बुधवार, जनवरी 14, 2009

गोल्डन ग्लोब की बात ही कुछ और है


भारतीय संगीत जगत के लिए बेहद खुशी का यह पहला मौका है, जब किसी भारतीय ने गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जीता है। रहमान पहले भारतीय हैं जिन्हें किसी भी वर्ग में गोल्डन ग्लोब अवार्ड मिला है। बेहतर संगीत रचना के साथ-साथ पुरस्कृत गीत जय हो...जय हो...को पार्श्व गायक सुखविंदर के साथ एआर रहमान ने अपनी आवाज भी दी है। गोल्डन ग्लोब अवार्ड फिल्मों के लिए दिए जाने वाले ऑस्कर पुरस्कारों के बाद सबसे प्रतिष्ठित माने जाते हैं और इस बार मुंबई की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर को चार वर्गों में नामांकित किया गया था और इसने चारों अवार्ड जीत लिए। इस फिल्म की कथा भी बेहद रोचक है, जिसमें कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रम के जरिए झुग्गियों में रहने वाले एक व्यक्ति के अमीर बनने की कहानी के पीछे मुंबई की तस्वीर दिखाती इस फिल्म में संघर्ष और इंसानियत की भावना को जिस तरीके से दिखाया गया है, उसे देखने के बाद सभी को अपना संघर्ष छोटा लगने लगता है। स्लमडॉग मिलियनेयर के गीत जय हो... में सुर और प्रेम का अद्भुत संगम है। यह एक सुखद संयोग है कि दिल से, साथिया, गुरु, युवराज, युवा-जैसी अनेक फिल्मों में गुलजार और रहमान की जुगलबंदी श्रोताओं को अपना कायल बना चुकी है। मुंबई की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म का संगीत अत्यंत लोकप्रिय हो चुका है।
एआर रहमान के लिए अवार्ड मिलना कोई नई बात नहीं है, लेकिन ख्याति, प्रतिष्ठा और मान्यता के लिहाज से गोल्डन ग्लोब की बात ही कुछ और है। स्लमडॉग के संगीत के लिए रहमान को कुछ ही दिन पहले क्रिटिक्स अवार्ड भी मिला है। पुरस्कृत गीत जय हो...के गीतकार स्वयं गुलजार मानते हैं कि एआर रहमान जादुई प्रतिभा के धनी हैं और वे संगीत को जिस वैश्विक ऊंचाई पर ले गए हैं, वहां तक अन्य कोई भारतीय संगीतकार पहुंचने में कामयाब नहीं हो पाया है। वंदे मातरम और मां तुझे सलाम जैसी संगीत रचना को अपनी पुरकशिश आवाज में गाकर उन्होंने संगीत के रसिक श्रोताओं के साथ-साथ-साथ आम जनों के बीच भी जनप्रिय बना दिया। सिंथेसाइजर वाद्य के लिए दंतकथा के नायक सरीखी लोकप्रियता हासिल करने वाले रहमान संगीत के जादूगर सहित अनेक विशेषणों से नवाजे गए हैं और अब तो उचित ही लोग उनके लिए ऑस्कर पुरस्कार की कामना करने लगे हैं।

मंगलवार, जनवरी 13, 2009

आखिर कैसे सब कुछ पाक-साफ दिखता रहा?


सत्यम के नए निदेशक की पहल अब तक के सबसे बड़े कारपोरेट घोटाले का शिकार बनी देश की चौथी बड़ी साफ्टवेयर कंपनी सत्यम कंप्यूटर्स सर्विसेज को गंभीर संकट से उबारने की कोशिशों के तहत सरकार ने नए निदेशक मंडल की जो घोषणा की है, उसका संपूर्ण कारपोरेट जगत ने स्वागत किया है। साफ्टवेयर के क्षेत्र में पूरी दुनिया में अपना खासा दबदबा रखने वाले सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग की साख बरकरार रखने के लिए यह सरकारी प्रयास जरूरी हो गया था। सरकार ने सत्यम का कामकाज अबाधित रखने के लिए एचडीएफसी के अध्यक्ष डॉ.दीपक पारेख, नैस्कॉम के पूर्व अध्यक्ष किरण कार्णिक और सेबी के पूर्व सदस्य एवं कानूनी मामलों के जानकार सी.अच्युतन की नियुक्ति करके काफी हद तक उद्देश्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शा दिया है।

हालांकि इन निदेशकों को सरकार ने नियुक्त किया है, लेकिन नवनियुक्त तीनों निदेशकों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होगा और वे स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगे। नए निदेशकों को इन चुनौतियों से सबसे पहले जूझना होगा कि आखिर कैसे इतने लंबे समय तक यह गड़बड़झाला चलता रहा और ऊपर से सब कुछ पाक-साफ दिखता रहा? कारपोरेट गवर्नेंस के लिए पुरस्कृत होने वाली इस कंपनी की साख को देखकर जिन निवेशकों ने इस कंपनी पर अपना भरोसा जताया, उनके भरोसे और धन दोनों की सुरक्षा कैसे बहाल होगी, इससे भी जूझना होगा। वैश्विक मंदी के इस दौर में जब हर तरफ से निराशाजनक खबरें आ रही हैं, उस माहौल में सत्यम के इस महाघोटाले के बाद इस कंपनी के पचास हजार कर्मचारियों का भविष्य भी अधर में लटक गया है। ऐसे में कंपनी मामलों के मंत्री प्रेमचंद गुप्ता का यह बयान कि नया बोर्ड संकट की इस घड़ी में कंपनी को जिम्मेदार नेतृत्व प्रदान करेगा, ताकि कर्मचारियों का मनोबल बना रहे और उपभोक्ताओं का विश्वास भी बहाल रहे, महत्वपूर्ण है। लेकिन इस घटनाक्रम से जाने-अनजाने सरकार भी सवालों के घेरे में तो आ ही गई है कि इतने लंबे समय से यह सब चलने के पीछे कहीं-न-कहीं से सिस्टम का सहयोग तो रहा होगा। बहरहाल, नए निदेशक मंडल पर कंपनी की साख, ग्राहकों का विश्वास और कर्मचारियों के मनोबल को बढ़ाने की जो महती जिम्मेदारी आई है, उम्मीद की जानी चाहिए इन उसे नए निदेशक मंडल के काबिल सदस्य बेहतर तरीके से पूरा कर पाएंगे।

रविवार, जनवरी 11, 2009

शिबू सोरेन का भयंकर कुर्सी मोह


तमाड़ विधानसभा सीट के उपचुनाव में मिली हार से मुश्किल में फंसे झारखंड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन के तमाम राजनीतिक हथियार जब नाकाम हो गए और संप्रग की बैठक में अपेक्षित समर्थन मिलने की आशा भी क्षीण हो गई, तब जाकर उन्होंने इस्तीफा देने का संकेत दिया है। चुनाव हारने के बावजूद वे यह दलील देते रहे कि वे दोबारा चुनाव लड़ेंगे और इत्तफाक से जामताड़ा के विधायक विष्णु भैया ने इस्तीफा देकर वहां से गुरुजी को चुनाव की पेशकश भी कर दी। मगर ऐसा लगता है कि संप्रग को सोरने का यह दांव ठीक नहीं लगा, जिसके बाद स्वाभाविक ही उनका सुर बदल गया। झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह कि राज्य ने पिछले तीन सालों में चार मुख्यमंत्री देखे हैं और निर्दलीय विधायकों का वहां ऐसा दबदबा रहा है कि निर्दलीय मधु कौड़ा लगभग दो सालों तक वहां मुख्यमंत्री रह चुके हैं। गौरतलब है कि 2005 में विधानसभा चुनाव के बाद राज्यपाल ने सबसे पहले शिबू सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन निर्दलीय विधायकों ने उनका समर्थन नहीं किया, जिसके बाद मजबूरन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था।

पिछले साल अगस्त में शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री का पद संभाला था और संविधान के तहत उन्हें छह महीने के अंदर विधानसभा का होना जरूरी है। अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर वामपंथी दलों के समर्थन वापसी के बाद केंद्र की संप्रग सरकार को बचाने के एवज में शिबू सोरेन को झारखंड की कुर्सी तोहफे के रूप में मिली थी। राजनीतिक उलटफेर और गुणा-गणित में माहिर गुरुजी के सामने उसी समय से यह बड़ी चुनौती थी कि वे अपने कुनबे को कैसे एकजुट रखते हैं। मगर जब चुनाव में जनता ने उनका सारा हिसाब-किताब बराबर कर दिया, तब भी वे जिस तरीके से कुर्सी बचाने की जुगत भिड़ा रहे हैं, वह लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए शर्मनाक है। यह एक असाधारण स्थिति है, जब राज्य की जनता ने उन्हें विधायक बनने की पात्रता देने से भी इनकार कर दिया है। दूसरी बात यह है कि केंद्र सरकार ने समर्थन देने के एवज में उन्हें मुख्यमंत्री पद का तोहफा देने के लिए तेईस माह पुरानी मधु कौड़ा सरकार को हटाने के लिए जिन तरीकों का अनुसरण किया किया था, उस पर भी राजनीतिक टिप्पणीकारों ने सवाल उठाए थे। जनता के इस फैसले के बाद उचित यही है कि वे पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए ससम्मान ढंग से पद त्याग दें और अगले चुनाव में जाने का धैर्य दिखाएं।

शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

अमानवीयता की तमाम हदें पार की इजराइल ने


गजा में इजराइल की कार्रवाई को दो सप्ताह से अधिक होने को आए हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद द्वारा युद्धविराम का प्रस्ताव पारित किये जाने के बावजूद इजराइल का अभियान जारी है। भारत-पाकिस्तान आपस में न भिड़ जाएं, इसके लिए कूटनीतिक स्तर पर बेहद सक्रिय अमेरिका ने गजा पर कहर बरपा रहे इजराइल के मसले पर सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का समर्थन तो किया, लेकिन मतदान में हिस्सा नहीं लिया। मिस्र और फ्रांस की मदद से तैयार इस प्रस्ताव में कहा गया है कि युद्धविराम तत्काल प्रभाव से लागू किया जाए, मगर युद्धविराम प्रस्ताव से ठीक पहले अमानवीयता की तमाम हदें पार करते हुए इजराइल ने गजा पर जबर्दस्त हवाई बमबारी की, जिसमें सैकड़ों निरपराध लोगों सहित जबालिया शरणार्थी शिविर के अल फकुरा स्कूल के कई बच्चे मारे गए। स्कूल में बच्चों सहित बड़ी संख्या में आम नागरिकों ने शरण ली हुई थी। गौरतलब है कि पिछले 14 दिनों से गजा में हमास और इजराइली सेना के बीच चल रही भीषण लड़ाई में साढ़े सात सौ से अधिक फलस्तीनी और 14 इजराइली नागरिक मारे जा चुके हैं। सुरक्षा परिषद द्वारा युद्धविराम प्रस्ताव पारित किये जाने के बाद भी आलम यह है कि गजा में कोई सुरक्षित नहीं है और हजारों लोगों का जीवन वहां खतरे में है। दूसरी त्रासद स्थिति यह है कि गजा से निष्पक्ष समाचारों का मिलना कठिन हो गया है, क्योंकि इजराइल ने विदेशी पत्रकारों के वहां जाने पर रोक लगा दी है। इस वजह से सही खबरें न आने के कारण वहां की वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा पाना कठिन है।

दुनिया के कई हिस्सों में इजराइल के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन इजराइल लंबे युद्ध की मुद्रा में नजर आ रहा है। फलस्तीनी स्वास्थ्य सेवा ने जानकारी दी है कि इजराइली हमलों में अब तक 600 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। टेलीविजन रिपोर्टों और अखबार में प्रकाशित तस्वीरें देखकर लगता है कि हमास और इजराइल के बीच जारी संघर्ष को लेकर युद्धविराम पर यदि तत्काल अमल न हुआ, तो कहना कठिन है कि कितनी बड़ी आबादी मौत के मुंह में चली जाएगी! गजा में हालात बहुत भयावह हैं और एक भीषण मानवीय त्रासदी को टालने के लिए वहां तत्काल कदम उठाए जाने की जरूरत है।

नेपाल तो बदलकर रहेगा, आप चाहे जो सोचें



क्या परंपरा के नाम पर किसी भी चीज को आंख मूंदकर स्वीकार किया जाना चाहिए? क्या हमेशा परंपरा की हर चीज बेहतर ही होती है और उसकी किसी चीज पर कभी वैकल्पिक तौर पर विचार नहीं किया जा सकता? दुर्भाग्य से इन्हीं सवालों से इन दिनों नेपाल को जूझना पड़ रहा है। नेपाल की राजधानी काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर में लगभग ढाई सौ सालों से पूजा-अर्चना संपन्न कराते आ रहे दक्षिण भारतीय पुजारियों की जगह स्थानीय पुजारियों की नियुक्ति का मामला अंतत: सुलझ गया है। दक्षिण भारतीय पुजारियों की जगह स्थानीय पुजारियों की नियुक्ति के मसले पर नेपाल के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद नेपाल सरकार इस नियुक्ति पर हर हाल में अमल करना चाहती थी। सरकार में आने के बाद से प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड नेपाल की संपूर्ण व्यवस्था को जिस तरीके से बदलना चाहते हैं, उसमें उन्हें सफलता हासिल नहीं हो पा रही है। जबकि नेपाल को गणतंत्र बनाने के बाद से उनका अगला कदम देश को धर्म निरपेक्ष बनाना भी है, जिसमें प्रतिगामी शक्तियों के कारण उन्हें समस्या आ रही है। दूसरी ओर सेना में माओवादी लड़ाकों की नियुक्ति के मसले को लेकर नेपाल के राजनीतिक दलों और सत्तारुढ़ माओवादी सरकार के बीच कायम गतिरोध को अब तक दूर नहीं किया जा सका है।

नेपाल बदल रहा है, इस हकीकत को वहां की तमाम शक्तियों को समझना चाहिए और इसका सबको एहसास भी होना चाहिए। यह बदलाव वहां व्यापक स्तर पर होना है, जिससे धार्मिक स्थल भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। नब्बे के दशक से लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था लागू होने के बावजदू नेपाल के राजतांत्रिक ढांचे में बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ा, जबकि यह परिवर्तन माओवादी सरकार के एजेंडा में प्रमुख है। पारंपरिक रूप से नेपाल नरेश ही देश के सर्वोच्च पुजारी की नियुक्ति करते थे, लेकिन राजशाही की समाप्ति के बाद माओवादियों के नेतृत्व में बनी सरकार स्थानीय पुजारियों को इस सम्मानित पद पर नियुक्त करना चाहती है। पशुपतिनाथ मंदिर में जिन राजनीतिक कारणों से नेपाली राजतंत्र ने दक्षिण भारतीय पुजारियों की नियुक्ति की थी, ऐसा लगता है कि उन्हीं राजनीतिक उद्देश्यों के तहत परंपरावादी मानसिकता के लोग नेपाल सरकार के फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। संयोग से नेपाल में अभी तक नया संविधान नहीं लिखा गया है, इसलिए इस मामले पर अभी यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि किसे पुजारियों को नियुक्त करने का अधिकार है? हालांकि देर-सबेर यह तो स्पष्ट हो ही जाएगा, लेकिन परंपरा के नाम पर विवाद पैदा करने की जगह यह भी देखा जाना चाहिए कि पशुपति एरिया डेवलपमेंट ट्रस्ट को नए पुजारियों की नियुक्ति प्रतिभा के आधार पर करने की जो सलाह दी गई है, उसे कैसे गलत कहा जा सकता है?

तेल की किल्लत से पूरे देश में त्राहिमाम


वेतन विसंगतियों को दूर करने को लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के तेरह तेल एवं गैस कंपनियों के पचास हजार अधिकारियों के हड़ताल पर चले जाने के कारण पूरे देश में पेट्रोलियम उत्पादों की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हुई है। न सिर्फ सड़क परिवहन बल्कि हवाई उड़ानें भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। एक तरफ तेल कंपनियों के अधिकारी अपनी मांगों को लेकर जहां अडिग नजर आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सरकार हड़ताली कर्मचारियों को बर्खास्त करने की धमकी देकर काम पर वापस बुलाना चाहती है। ये दोनों ही स्थितियां व्यापक जनहित के खिलाफ है और इससे साफ तौर पर ऐसा लगता है कि सरकार और हड़ताली कर्मचारी-दोनों ने इस मुद्दे पर दूरदर्शिता और धैर्य से काम नहीं लिया। जिसका खामियाजा अंतत: किसी भी अन्य हड़ताल की तरह अकारण आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। आलम ये है कि यदि दुर्भाग्य से यह हड़ताल और लंबी खिंच गई, तो पूरे देश में पेट्रोलियम पदार्थों को लेकर हाहाकार की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

सरकार का यह ऐलान निराशाजनक है कि वह हड़ताली कर्मचारियों के साथ हुई वार्ता विफल हो जाने के बाद कार्रवाई के तौर पर अब वह बर्खास्तगी का कदम उठा सकती है। जबकि आर्थिक मंदी के वैश्विक असर के कारण पहले ही निजी क्षेत्रों में कर्मचारियों की छंटनियों का दौर चल रहा है। ऐसे में सरकार से यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि वह सहानुभूतिपूर्वक हड़ताली कर्मचारियों की मांगों पर विचार करे और कर्मचारियों को भी मौजूदा परिस्थितियों के तमाम पहलुओं को अनदेखा करके अडि़यल रवैये की जगह संवाद की गुंजाइश को खत्म नहीं करना चाहिए। गौरतलब है कि शुरू से छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से कर्मचारियों के बीच प्रसन्नता की जगह भेदभाव और पारदर्शिता न बरते जाने के आरोप लगते रहे हैं। ट्रक ऑपरेटरों की हड़ताल के कारण जरूरी चीजों की कीमतें बढ़ने और कहीं-कहीं इसके बावजूद किल्लत पैदा होने होने के कारण पहले से ही परेशान आम जनता को पेट्रोलियम पदार्थों की दिक्कतों ने बेजार कर दिया है। तब भी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के तेल कंपनियों के अधिकारियों की हड़ताल की वजह से अस्त-व्यस्त परिवहन व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कोई सर्वस्वीकार हल ढूंढ़ने के लिए शायद संवेदनशीलता दिखाने में विलंब कर रही है।

गुरुवार, जनवरी 08, 2009

सवालों के घेरे में सेबी की भूमिका


वैश्विक मंदी की मार से पहले से ही त्रस्त शेयर बाजार और देश की अर्थव्यवस्था को सॉफ्टवेयर कंपनी सत्यम में हुए फर्जीवाड़े से गहरा धक्का लगा है। कंपनी के फर्जीवाड़े को स्वीकार करते हुए सत्यम के चेयरमैन रामलिंगा राजू ने अपने इस्तीफे की सूचना जैसे ही बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज को दी, तो खुलने के साथ ही वह गोते खाने लगा। शर्मनाक यह है कि कंपनी के चेयरमैन की इस स्वीकारोक्ति कि पिछले कई वर्षों से सत्यम के जो नतीजे दिए जा रहे थे, उनमें मुनाफे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा था और ये आंकड़ा लगभग पांच हजार चालीस करोड़ से ज्यादा का है, बहुत भयावह है। गौरतलब है कि इस कंपनी की साख को देखते हुए वर्ल्ड बैंक ने इसे अपने यहां सेवाएं मुहैया कराने को लेकर आठ साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया था। 2003 में जब सत्यम ने वर्ल्ड बैंक को अपनी सेवाएं देनी शुरू की थी, उसके दो साल के बाद रिश्वतखोरी का मामला सामने आया था कि बैंक के वाइस प्रेसिडेंट ने कम कीमतों में सत्यम के एडीआर के बदले दस करोड़ डॉलर का ऑर्डर दिया था। बेहद अफसोसजनक बात यह है कि इसके बाद भी कंपनी के लेखा-जोखा को लेकर आर्थिक नियामक एजेंसियों ने इस कंपनी पर गहरी नजर नहीं रखी और इतना सनसनीखेज मामला बन जाने तक कुछ नहीं किया!


पिछले वर्षों में हर्षद मेहता प्रकरण से लेकर एनरॉन तक के जो मामले सामने आए, उसके बाद वित्त, वाणि’य और कंपनी कानून मंत्रालय के स्तरों पर क्यों नहीं ऐसी फूलप्रूफ व्यवस्था बनाने लेकर कारगर कदम उठाए गए और जिम्मेदारियां तय की गईं? जब वल्र्ड बैंक ने सत्यम के खिलाफ कदम उठाया था तो न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध इस कंपनी की साख पर भारी बट्टा लगा था। हालांकि सत्यम द्वारा की गई वित्तीय हेराफेरी को दहलाने वाली बताते हुए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने कहा है कि वह इस मामले में सभी कानूनी कदम उठाएगी और सेबी ने इसके लिए सरकार और शेयर बाजारों से बातचीत शुरू कर दी है। यह कंपनी न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में भी सूचीबद्ध है इसलिए इसे अमेरिकी नियामक का सामना करना पड़ेगा। सेबी को चाहिए कि बेहद गहराई से इस मामले की जांच करे और भविष्य में सत्यम की सनसनीखेज सत्यकथा जैसी कोई दूसरी कथा किसी और कंपनी से निकलकर सामने न आए, इसको बेहद बनी व्यवस्था बेहद चुस्त-दुरुस्त होकर कार्य करे, यह सुनिश्चित करे।

बुधवार, जनवरी 07, 2009

पिछले अनुभवों से कोई सीख क्यों नहीं लेते?


ट्रक ऑपरेटरों की जारी हड़ताल की वजह से पूरे देश में जरूरी चीजों की उपलब्धता पर बुरा असर पड़ा है और कीमतें तेजी से बढ़नी शुरू हो गई हैं। अपनी मांगों को लेकर ट्रक ऑपरेटरों ने कोई पहली बार हड़ताल पर जाने का फैसला नहीं लिया है और न ही सरकार हड़ताल के बाद उत्पन्न होने वाली दिक्कतों से अनजान है।

निराशाजनक यह है कि इस रस्साकशी और बयानबाजी के बीच न ट्रक ऑपरेटर झुकने को तैयार हैं और न सरकार किसी बेहतर समाधान की ओर बढ़ने के लिए जरा भी नमनीयता दिखाना चाहती है। ट्रक मालिकों की मांगों पर गौर किया जाना चाहिए कि एक ट्रक कई राज्यों से गुजरता है और हर राज्य की सीमा पर कागजी कार्रवाई में न सिर्फ पैसे लगते हैं, बल्कि जगह-जगह टोल टैक्स और डीजल पर लगने वाले विशेष कर के कारण उन्हें एक बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। मिसाल के तौर पर यदि दिल्ली से एक ट्रक मुंबई जाता है तो वहां तक रास्ते में सिर्फ टोल टैक्स के रूप में उसे पांच-छह हजार रुपये खर्चने पड़ते हैं। दूसरी ओर तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में बढ़ोतरी के साथ-साथ सरकार ने घरेलू स्तर पर जिस तरह बढ़ोतरी की उसकी तुलना में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में भारी कमी होने के बावजूद घरेलू स्तर पर कोई खास कमी नहीं की गई है। सरकार और ट्रक ऑपरेटरों की बीच तीसरे दौर की बातचीत विफल होने के बाद सरकार ने चेतावनी दी है कि यदि हड़ताल जारी रही तो ट्रकों की परमिट रद्द की जा सकती है। दूसरी ओर ट्रक ऑपरेटरों ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हुए कहा है कि सरकार परमिट रद्द करती है, तो प्रतिक्रियास्वरूप यदि कुछ भी होता है तो इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं होंगे। तो सवाल यह है कि जिन समाधानों की ओर दोनों पक्ष बेहद खराब स्थिति उत्पन्न होने के बाद ही बढ़ने का फैसला लेते हैं, उन समाधानों की ओर जल्दी बढ़ने में पिछले अनुभवों से कोई सीख क्यों नहीं लेते? क्या हम इसके लिए अभिशप्त हैं कि जब तक त्राहिमाम की स्थिति न उत्पन्न हो जाए, तब तब दोनों पक्ष अपने-अपने रुख पर अडे़ रहेंगे? पिछले वर्षों की हड़तालों से सीख लेते हुए दोनों पक्ष कोई ऐसा विवेकसम्मत तरीका क्यों नहीं विकसित करते कि समय-समय पर सरकार और ट्रक ऑपरेटर अपने-अपने पक्षों पर विचार-विमर्श करके बीच का कोई रास्ता निकालें जिससे हड़ताल जैसे फैसले की नौबत ही न आए? मगर अब तक यही देखा गया है कि देश में किसी भी तरह की हड़ताल से आगामी स्थितियों को बेहतर बनाने के अनुभवों और तरीकों पर कोई विचार नहीं होता।

सोमवार, जनवरी 05, 2009

आखिरी सफर पर निकलने तक


पढ़ने के लिए गांव छोड़ते समय सोचा था
पढ़ाई पूरी करने के बाद गांव लौट जाऊंगा
मगर नौकरी लगी और गांव लौटना मुल्तवी हो गया
नौकरी लगती रही छूटती रही और हर बार नई नौकरी की चिंता में
गांव लौटने की बात मुल्तवी दर मुल्तवी होती रही
कई शहरों में भटकते-भटकते
नौकरी बचाए रखने की हुनर से अनजान
भटकता रहता हूं नींद में भी गांव की स्मृतियों में
जहां लौटना मुल्तवी ही होता रहा है आज तक

पिता ने कितने अरमान के साथ पढ़ा-लिखाया
कमाने-धमाने के लायक बनाया
और लायक बनकर उनके सुख-दुख से दूर
न कंधा बन सका न बुढा़पे की लाठी
जो अक्सर बेटे के जन्म पर सुनता था गांव में
बॉस को खुश रखने और नौकरी बचाए रखने के तनावों के बीच
मुल्तवी होती रहती हैं मनपसंद किताबें
मनपसंद काम और शहर की सड़कों पर घंटों आवारगी की इच्छा
किसी के काम आने की आदर्श इच्छा आत्मकेंद्रिकता में बदलती रही
और कभी दूसरों की चिंता में भी डूबने की आदत छूटती चली गई
क्या यही चाहा था हमने जेएनयू में पढ़ते हुए?
हर बार ब्यूरोक्रेट बनने के इम्तहान का फार्म भरने से इनकार करते हुए?

न पिता खुश हैं न मां खुश है
और बॉस की नाराजगी तो उनका स्थायी भाव बन गया है
जबकि अपनी खुशी की तलाश तक के लिए वक्त नहीं मिला कभी मुझे?

मुल्तवी करते-करते एक दिन सब कुछ मुल्तवी होता चला जाएगा
और शायद कहीं लौटना संभव न हो
गहरे अफसोस के साथ आखिरी सफर पर निकलने तक.

ठिठुरते गणतंत्र के बेखबर अधिनायक


घने कोहरे और हाड़ कंपाती ठंड ने संपूर्ण उत्तर भारत में जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया है। रेलगाडि़यां घंटों विलंब से चल रही हैं और हवाई यातायात पर भी इसका बुरा असर पड़ा है। कड़कड़ाती ठंड से सबसे ज्यादा जो वर्ग प्रभावित होता है, वे हैं दैनिक वेतनभोगी मजदूर, रिक्शाचालक और छोटे-मोटे धंधों में लगे हुए लोग। रोजी-रोटी की जुगाड़ में घर से निकलना वैसे तो तमाम लोगों की मजबूरी है, लेकिन ऐसे मौसम की वजह से उन लोगों की सामने दारुण स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिन्हें मौसम की वजह से काम नहीं मिलता। रोजी-रोजगार नहीं मिलता, सवारियां नहीं मिलतीं। इत्तफाक से पहले आर्थिक तरक्की की चकाचौंध और अब वैश्विक मंदी की वजह से लोक कल्याणकारी भूमिका को भूलती जा रही सरकार को शायद इसका अंदाजा भी नहीं है कि देश के अधिसंख्य आमजनों पर भयंकर ठंड की मार किस कदर कहर बनकर टूटी है। कंपकंपाती ठंड के कारण कई राज्यों में दर्जनों लोगों की मौत के बावजूद सरकारी स्तर पर इसको लेकर संवेदनशीलता और व्यवस्था की जगह दैनंदिन के कार्य निपटाने जैसा प्रशासनिक रवैया दुखद है। अपर्याप्त कपड़े और भूख की वजह से होनेवाली मौतों को बीमारी की वजह से होने वाली मौत बताकर सरकार संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार की रक्षा से पल्ला झाड़ लेती हैं।

इस कंपकंपाती ठंड का बुरा असर गेहूं, चना, सरसों और अन्य फसलों पर भी पड़ने की आशंका है, जिसके कारण पिछले दिनों पैदा हुआ खाद्यान्न संकट और गहरा सकता है। यह सच है कि प्रकृति पर सरकार का या हमारा कोई अख्तियार नहीं है, मगर किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय उससे निटपने की हमारी तैयारियां लचर और नाकाफी साबित होती रही हैं। चाहे गुजरात और कश्मीर में आए भयंकर भूकंप का मामला हो या हाल में आई बिहार में बाढ़ हो-अन्य देशों के मुकाबले हमारी एजेंसी बेहतर ढंग से प्रतिकूल स्थितियों से नहीं निपट पाती हैं। इन दिनों आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर चिंतित सरकार को आपदा से निपटने वाली एजेंसी और उसके लिए जरूरी संसाधनों के इंतजाम की ओर भी गहराई से सोचने की जरूरत है। दूसरे देशों की तरह सामाजिक सुरक्षा को लेकर अपने यहां बेहतर ढांचे और संसाधन जुटाने को लेकर सरकार को संवेदनशील और कारगर कदम उठाने की जरूरत है। ताकि प्रतिकूल मौसम का हो या भूख से होने वाली मौतें, सरकारी स्तर पर आम जनता के बीच यह भरोसा बहाल करना बेहद जरूरी है कि किसी भी तरह की असुरक्षा के समय उसे असहाय नहीं छोड़ा जाएगा।

कारगिल दोहराए जाने की आशंका


कश्मीर में पुंछ जिले के मेंढर के घने जंगलों में सेना और आतंकियों के बीच जारी मुठभेड़ से एक बार फिर वहां युद्ध जैसी स्थिति पैदा होने लगी है। आतंकी जिस तरीके से भारतीय सैनिकों पर चारों तरफ से हमले कर रहे हैं और अभी तक वहां गोलीबारी लगातार जारी है, उसे देखते हुए दूसरे कारगिल दोहराए जाने की आशंका बलवती होने लगी है। गौरतलब है कि कारगिल युद्ध की शुरुआत में पाकिस्तान आखिर तक कहता रहा था कि इसमें वहां की सेना की भागीदारी नहीं है, जबकि मारे गए कथित आतंकियों की जेब से बरामद होने वाले पहचान-पत्र से साफ तौर पर उनके पाकिस्तानी सैनिक होने की पुष्टि हो रही थी। मेंढर के मुठभेड़ में जिस तरह पक्के बंकर होने के खबरें मिल रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि कारगिल युद्ध के बाद भी हमारी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सीख नहीं ली और इन तैयारियों की भी उसे कोई खबर नहीं मिल पाई! इससे साफ तौर पर पता चलता है कि घटनाओं और इतिहास से सबक लेने की जगह हम ढिलाई बरतते हैं और जब युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो जाती है तो अंतिम समय में सैनिक कार्रवाई करने की सोचते हैं।

पाकिस्तान बनने के बाद से ही वहां की सत्ता पर निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार से ज्यादा पाकिस्तानी सेना काबिज रही है। वहां जब भी लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में आती है, तो सेना सरकार को अपदस्थ करने की तमाम रणनीतियां अपनाने लगती हैं। खुफिया एजेंसी आईएसआई पर वहां की लोकतांत्रिक सरकार से ज्यादा सेना का अख्तियार चलता है। सत्ता का स्वाद चख चुकी पाकिस्तानी सेना के बारे में वहां की मीडिया और कई नेता तक विरोध में बोलने लगे हैं और यह मानते हैं कि पाकिस्तानी अवाम की जहालत का एक बड़ा कारण सेना ही है। मगर आईएसआई, इस्लामिक संगठन और नौकरशाही में मौजूद भारत विरोधी तत्वों का इस्तेमाल करके पाकिस्तानी सेना अपनी सर्वोच्चता साबित करती रही है। मुंबई हमले के बाद सीमा पर सैनिकों की तैनाती के करने के साथ-साथ उकसाऊ बयान देते हुए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष अशफाक अहमद कियानी ने बयान दिया कि पाकिस्तानी सेना भारत को मुंहतोड़ जवाब देगी। यह संभव है कि मेंढर में जारी मुठभेड़ के पीछे वाकई आतंकियों का ही हाथ हो, लेकिन उनके तरीकों को देखते हुए इस आशंका को बल मिलता है कि इसमें पाकिस्तानी सेना के जवान भी शामिल हो सकते हैं। वक्त का तकाजा है कि सरकार इस मुठभेड़ का पूरी सख्ती से जबाव देकर देश को अस्थिर और असुरक्षित करने वाली ताकतों को पूरी दृढ़ता से जवाब दे और सुरक्षा व्यवस्था की तमाम खामियों को दूर करने के उपायों पर भी सख्ती से अमल करे।

रविवार, जनवरी 04, 2009

चारों तरफ से भारत को अशांत और असुरक्षित बनाने की रणनीति


नए वर्ष की शुरुआत में ही पूर्वोत्तर राज्य असम के गुवाहाटी शहर में सिलसिलेवार बम धमाके ने एक बार फिर इस शहर को दहलाकर रख दिया है। पिछले वर्ष अक्तूबर में गुवाहाटी और आसपास के इलाकों में हुए धमाके में लगभग अस्सी से ज्यादा मासूम नागरिक मारे गए थे। त्रिपुरा के अगरतला और मणिपुर के इंफाल में हुए बम विस्फोटों के बाद खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों की चिंता बढ़ गई है। पिछले साल अक्तूबर महीने में आतंकियों ने पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों को निशाना बनाकर सुरक्षा व्यवस्था की कलई खोलकर रख दी थी। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, अहमदाबाद, बंगलुरु के बाद पूर्वोत्तर राज्यों में बम धमाके के बाद ऐसा लगता है कि आतंकियों ने चारों तरफ से भारत को अशांत और असुरक्षित बनाने की रणनीति अपना ली है। असम में जातीय संघर्ष और उल्फा की उग्रवादी गतिविधियों के कारण वैसे तो पहले से ही वहां सेना तैनात है, मगर इधर हुए हमलों में हूजी, हरकत-उल-जेहादी-ए-इस्लामी नामक आतंकी संगठन की करतूतें उजागर हो रही हैं। उल्फा के आतंकी बांग्लादेश को ठिकाना बनाकर लगातार भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। इन आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में बांग्लादेश के असहयोग के कारण अब तक हमें सफलता नहीं मिल पा रही थी, मगर अब बांग्लादेश की नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद से अपेक्षित सहयोग मिलने की आशा की जा सकती है। यह उचित मौका है जब कूटनीतिक स्तर पर दबाव बनाकर भारत बांग्लादेश की नई प्रधानमंत्री को उल्फा समेत वहां शरण लेने वाले अन्य संगठनों के खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए राजी कर सकता है।


ताजा बम धमाके के संदर्भ में महत्वपूर्ण यह है कि ये धमाके गुवाहाटी के भीड़-भाड़ वाले इलाकों में केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की असम यात्रा से ठीक पहले हुए। गृहमंत्री ने खुफिया एजेंसियों के बीच जानकारियों के आदान-प्रदान के मामले में तालमेल और निगरानी एजेंसी की बेहतर कार्य-प्रणाली को लेकर एक महत्वपूर्ण पहल की है। दूसरी बात यह है कि खुफिया जानकारियां मिलने के बावजूद यदि आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने वाली एजेंसियां कारगर नहीं साबित हो रही हैं तो इसकी तमाम खामियों को दुरुस्त करना सबसे पहली और बड़ी जिम्मेदारी है। चिंताजनक बात यह है कि अलग-अलग मुद्दे और लक्ष्य के बावजूद पूर्वोत्तर में सक्रिय तमाम आतंकवादियों के बीच कहीं न कहीं एक तरह का तालमेल दिखाई देता है, जबकि सरकारी तंत्रों के बीच बेहतर समन्वय नहीं दिखता। पूर्वोत्तर में हुए बम धमाकों के बाद यह बेहद जरूरी हो गया है कि आतंकवाद से मुकाबले के लिए रणनीतिक स्तर सरकार कारगर तालमेल पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित करे।

शुक्रवार, जनवरी 02, 2009

पड़ोसी देशों की चुनौतियों के बीच भारत


नये वर्ष में आतंकवाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है और इससे निपटने के लिए भारत को सुरक्षा नीति के साथ-साथ पड़ोसी देशों की आंतरिक स्थितियों पर भी बारीकी से नजर रखने की जरूरत है। क्योंकि बाकी चीजें तो बदलना मुमकिन है, लेकिन पड़ोसी बदलना नहीं। बेनजीर की हत्या के बाद आतंकवादी हमलों और आईएसआई को लेकर पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में जारी उठापटक के कारण संभव है कि आईएसआई समेत अन्य भारत विरोधी तत्वों की मंशा देश को जंग की ओर धकेलने की हो। मुंबई हमले के बाद आनन-फानन में सरहद पर फौजों की तैनाती, आतंकी तत्वों पर कार्रवाई के मुद्दे पर बदलती नीति के कारण पाकिस्तान निश्चित रूप से एक गंभीर चुनौती है। संसद पर हमले के बाद ग्यारह महीने तक सीमा पर सैनिकों रखना बेनतीजा रहा। इसका दोहराव आगे न हो, यह हमारे कूटनीतिज्ञों और राजनीतिज्ञों के सामने एक बड़ी चुनौती है। जबकि अफगानिस्तान के हालात पहले से अधिक खराब हुए हैं और देश के तकरीबन सत्तर फीसदी इलाकों में तालिबान का प्रभाव बढ़ गया है।

पिछले साल नेपाल में राजशाही के अंत के बाद माओवादी नेता पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड के नेतृत्व में इस पड़ोसी देश ने भारत के साथ अपने संबंधों की समीक्षा को लेकर बेहद आग्रहशील है। ऐसे में नेपाल के साथ अपने दशकों पुराने संबंध को लेकर इस वर्ष कूटनीतिक स्तर पर भारत को रस्सी पर चलने जैसी सावधानी की दरकार है। पूर्वोत्तर में निरंतर फैलते आतंकवादी घटनाओं में जिन हूजी, उल्फा और अन्य आतंकी तत्वों का हाथ साबित हुआ, वे बांग्लादेश से संचालित हो रहे हैं। विगत वर्ष के अंत में संपन्न हुए चुनाव में शेख हसीना की जीत के बाद हमें इस बात की खुशी है कि वे भारत की मुश्किलों को समझने वाली नेता मानी जाती हैं। म्यांमार की सैन्य सरकार ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही नेता आंग सान सू ची की नजरबंदी की मियाद बढ़ा दी है। भारत के प्रति इस पड़ोसी देश का जो असहयोगी रवैया है, उसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों और श्रीलंकाई सेना के बीच दशकों से चल रही लड़ाई को लेकर तमिलनाडु की राजनीति में जो गतिविधियां पिछले वर्ष घटित हुईं, उसके बाद श्रीलंका की स्थिति से हम चाहकर भी निरपेक्ष नहीं रह सकते। हमारे पड़ोसी देशों में जैसा घटनाक्रम चल रहा है, उसे देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए सुरक्षा और विदेश नीति के मोर्चे पर हमारे नेता इस वर्ष बेहतर और परिपक्व रवैया अपनाएंगे।

गुरुवार, जनवरी 01, 2009

नये साल में लिखेंगे मिलकर नई कहानी


आज नये साल 2009 का पहला दिन है! नये उमंग और नये संकल्पों की राह पर पहला कदम आगे बढ़ाने का दिन! हर बड़ी यात्रा की शुरुआत चूंकि पहले कदम से ही होती है, इसलिए बाकी कदमों के मुकाबले पहले कदम की महत्ता जरा ज्यादा होती है। जीवन चलते रहने का नाम है और निरंतर चलते रहने से ही मंजिल की प्राप्ति संभव हो पाती है। चलने के हमारे उत्साह, चलने की कला, सोच और जीवन के प्रति दृष्टिकोण से भी यह पता चलता है कि परिवर्तन के प्रति दरअसल हमारा नजरिया क्या है? बकौल श्रीकांत वर्मा : यह कहने का कोई मतलब नहीं/ कि तुम समय के साथ चल रहे हो/ सवाल यह है कि समय तुम्हें बदल रहा है/ या तुम समय को बदल रहे हो? अधिकांश लोग समय के साथ चलने को ही बहुत बड़ी समझदारी और आधुनिकता के साथ कदमताल मान लेते हैं और इसी पर चलते हुए अंतत: इतिहास की सुरंग में खो जाते हैं। जबकि हर समय में ऐसे लोगों की संख्या कम होती है, जो समय को अपने मुताबिक चलाते हैं और लीक पर चलने के बजाए अपनी राह अलग बनाते हुए इतिहास को अपने नाम पर कर लेते हैं। इसके लिए जरूरी यह है कि हम यदि कोई संकल्प लें तो उस पर दृढ़तापूर्वक अमल करें। महज संकल्प लेने से संकल्प का उत्साह कुछ ही दिनों में ठंडा पड़ने लगता है और सब कुछ फिर से पुराने ढर्रे पर ही आने लगता है।



विगत वर्ष ने हमारे लिए नई चुनौतियों की विरासत छोड़ी है, जिसका मुकाबला हम सामूहिक ताकत, सामूहिक सोच और विचारों की सामूहिकता से ही कर सकते हैं। विगत वर्ष खेलों में हमने जितना बेहतर प्रदर्शन किया, उचित ही उसके बाद हमारी उम्मीदें अनेक स्वर्ण, रजत और कांस्य पदकों से जुड़ गई हैं। विज्ञान, कला-संस्कृति, वाणिज्य और जीवन के तमाम क्षेत्र में हमारा देश नई उपलब्धियां हासिल करे, इसके लिए आवश्यक है हम समाज के जिस भी मोर्चे पर कार्यरत हों, हमारा उद्देश्य सकारात्मक सोच के साथ सामाजिक उत्थान में सक्रिय और व्यापक सहभागिता हो। यह जरूरी है कि हम पुरानी घटनाओं के अनुभवों को ध्यान में रखें, क्योंकि आगत की नींव इन अनुभवों से मजबूत होती है और इससे हमें ताकत मिलती है। हवादिस से उलझकर मुस्कराना हमारे वतन की फितरत है, हमें दुश्वारियों पर अश्क बरसाना नहीं आता। नये साल में हर मोचेü पर यदि सामूहिकता कायम रहे, तो मुश्किल से मुश्किल वक्त को भी हम अपने पक्ष में कर सकते हैं। यह दृढ़ता और संकल्प ही देश को हर मोचेü पर नई सफलताओं के लिए उत्प्रेरित करेगी!