सोमवार, जनवरी 05, 2009

आखिरी सफर पर निकलने तक


पढ़ने के लिए गांव छोड़ते समय सोचा था
पढ़ाई पूरी करने के बाद गांव लौट जाऊंगा
मगर नौकरी लगी और गांव लौटना मुल्तवी हो गया
नौकरी लगती रही छूटती रही और हर बार नई नौकरी की चिंता में
गांव लौटने की बात मुल्तवी दर मुल्तवी होती रही
कई शहरों में भटकते-भटकते
नौकरी बचाए रखने की हुनर से अनजान
भटकता रहता हूं नींद में भी गांव की स्मृतियों में
जहां लौटना मुल्तवी ही होता रहा है आज तक

पिता ने कितने अरमान के साथ पढ़ा-लिखाया
कमाने-धमाने के लायक बनाया
और लायक बनकर उनके सुख-दुख से दूर
न कंधा बन सका न बुढा़पे की लाठी
जो अक्सर बेटे के जन्म पर सुनता था गांव में
बॉस को खुश रखने और नौकरी बचाए रखने के तनावों के बीच
मुल्तवी होती रहती हैं मनपसंद किताबें
मनपसंद काम और शहर की सड़कों पर घंटों आवारगी की इच्छा
किसी के काम आने की आदर्श इच्छा आत्मकेंद्रिकता में बदलती रही
और कभी दूसरों की चिंता में भी डूबने की आदत छूटती चली गई
क्या यही चाहा था हमने जेएनयू में पढ़ते हुए?
हर बार ब्यूरोक्रेट बनने के इम्तहान का फार्म भरने से इनकार करते हुए?

न पिता खुश हैं न मां खुश है
और बॉस की नाराजगी तो उनका स्थायी भाव बन गया है
जबकि अपनी खुशी की तलाश तक के लिए वक्त नहीं मिला कभी मुझे?

मुल्तवी करते-करते एक दिन सब कुछ मुल्तवी होता चला जाएगा
और शायद कहीं लौटना संभव न हो
गहरे अफसोस के साथ आखिरी सफर पर निकलने तक.

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
batkahi ने कहा…

safar safar hi to hai dost...koi safar aakhiri nahi hota...aakhiri safar to bas......

kisi aur ki ummeedon par khara utarne se bhi jyada jaroori hai apni ummeedon par kahar utarna....aur jabtak aap uspar khare hain tabtak hatasha nahi honi chahiye...bade se bada parvat samne khada ho,jiske aage kuchh n dikhayee de...par parvat hi to hai jise langha ja sakta hai...ki iske aage sabkuchh hara bhara dikhne ki ummeed baki hai..

ek parvat...do parvat...inke aage to hara bhara mohak maidan jaroor ayega

yadvendra