बुधवार, नवंबर 12, 2008

कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?


14 दिसंबर, 1980 के दिनमान के अंक में एक बड़े अश्वेत कवि लैग्सटन ह्यूज की कविता छपी थी, सपना। यह महत्वपूर्ण कविता हमें बेहद संवेदनशील और खुद्दार इनसान, कवि हृदय भाई यादवेन्द्र जी के सौजन्य से मिली हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहूं, तो ऐसे कामों के लिए धन्यवाद देने को वे एक बदमाशी समझते हैं, इसलिए इस कविता को पेश करते हुए उन्हें धन्यवाद देने की गुस्ताखी से बचना चाहता हूं!



सपना

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लैग्सटन ह्यूज



एक सपने को टालते जाने से क्या होता है?

क्या वह मुरझा जाता है तेज धूप में?

या पक जाता है जख्म-सा

और फिर रिसा करता है नासूर-सा?

या गंधाने लगता है सड़े हुए गोश्त-सा?

या कि पगी हुई मिठाई की तरह

उस पर जम जाता है चाशनी की पपड़ी?


मुमकिन है वह सिर्फ झुक जाता हो

भारी बोझे जैसा

कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

bhaut khub

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा ने कहा…

प्रणाम पंकज जी,
कविता कभ-कभी मुझे दिल के करीब लगती है तो कभी दूर भी, लेकिन इस कविता में कुछ है जिसे फलहाल मैं तो ना नहीं कह सकता है।
मैं तो बस यहीं कहूंगा कि मैं फट पड़ता हूं कभी बिन बताए बारुद सा.................