उर्दू शायरी में राहत इंदौरी एक बड़ा नाम है. उनकी शायरी में आम आदमी का दर्द जिस काव्यात्मक भाषा में अभिव्यक्त होता है वह आज की उर्दू शायरी में तकरीबन विरल है.
आज हिंदी दिवस है. सरकारी विभागों, उपक्रमों और बैंकों आदि में हिंदी को लेकर तमाम तरह की भाषणबाजियों का बाजार आज से हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा के नाम पर गर्म रहेगा. लोग हिंदी की बात करते-करते अक्सर उर्दू विरोध पर भी उतर आएंगे, जबकि उर्दू के नजदीक गए बिना हम शायद ही वास्तविक हिंदी को समझ सकें. मुझे हिंदी पोर्टल वेबदुनिया पर राहत साहब की तीन गज़लें मिल गई. उनके प्रति साभार. आप इन गज़लों को पढ़िये और बताइए कि कैसी लगी ये गजलें?
पेशानियों पे लिखे मुकद्दर नहीं मिले
दस्तर खान मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले
आवारगी को डूबते सूरज से रब्त है
मग़रिब के बाद हम भी तो घर पर नहीं मिले
कल आईनों का जश्न हुआ था तमाम रात
अंधे तमाशबीनों को पत्थर नहीं मिले
मैं चाहता था खुद से मुलाकात हो मगर
आईने मेरे कद के बराबर नहीं मिले
परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो
मुमकिन है वापस आओ तो वे घर नहीं मिले।
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था
अपने ही फैलाव के नशे में खोया था दरख्त
और हर मौसम टहनी पर फलों का बार था
देखते ही देखते शहरों की रौनक बन गया
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार था
सबके दु:ख-सुख उसके चेहरे पे लिखे पाए गए
आदमी क्या था हमारे शहर का अखबार था
अब मोहल्ले भर के दरवाजों पे दस्तक है नसीब
इक जमाना था के जब मैं भी बहुत खुद्दार था
कागज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई
हमने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था।
हर इक चेहरे को जख़्मों का आईना ना कहो
ये जिंदगी तो है रहमत इसे सजा न कहो
जाने कौन सी मजबूरियों का कैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफा न कहो
तमाम शहर ने नेज़ो पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफाक़ था इसे हादसा न कहो
ये और बात है के दुश्मन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो
हमारे ऐब हमें उँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो
मैं वाक़ियात की ज़ंजीर नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो
ये शहर वो है जहाँ रक्कास भी है 'राहत'
हर इक तराशे हुए बुत को खुदा न कहो।
1 टिप्पणी:
राहत इंदौरी साहब की गजलें पेश करने का आभार/
परदेस जा रहे हो तो सब देखते चलो
मुमकिन है वापस आओ तो वे घर नहीं मिले।
--कितना सच है. वाह!
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