बुधवार, सितंबर 26, 2007

शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को नहीं दिख रहा है?


मैंने अपने गांव के जिस सरकारी स्कूले से पढ़ाई की, वहां पांचवीं तक अंगरेजी भाषा की ए.बी.सी.डी. हमें न तब पढ़ाई गई, न आज के बच्चों को भी पढ़ाई जाती है. छठीं जमात में जाने के बाद अचानक अंगरेजी एक विषय के रूप में हमारी पढ़ाई में शामिल हो गई. बस, अंगरेजी क्या आई कि अचानक हम इस विषय की पढ़ाई से जी चुराने लगे और धीरे-धीरे नकारा बच्चों के खिताब से हमें नवाजा जाने लगा. मैं जब हमें कह रहा हूं याद रखिये कि हम जैसे तमाम बच्चों की यही हालत थी.शायद ही कोई पास हो पाता था इस विषय में.परिणाम यह हुआ कि हमारे जैसे बच्चों की अंगरेजी कभी कान्वेंट एजुकेटेड बच्चों जैसी नहीं हो पाई.जबकि शहरी बच्चे बचपन से ही लगातार अंगरेजी पढ़ने के कारण हमसे अच्छे हो गए.बाकी विषयों में भले फिसड्डी रहे. बी.बी.सी. हिंदी में मेरे मित्र श्री राजेश प्रियदर्शी ने एक लेख लिखा है-वही सब मुद्दे इसमें शामिल हैं, जो बरसों से न केवल मैं सोच रहा था, बल्कि भुक्तभोगी भी हूं. पेश है बी.बी.सी. से साभार उनका वह लेख.



भारत में जो तेज़ रफ़्तार तरक्क़ी हो रही है उसका ज्यादातर श्रेय देश के शिक्षित मध्यवर्ग को जाता है, और जितनी समस्याएँ हैं उनका विश्लेषण करने पर हम अक्सर इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब तक लोग शिक्षित नहीं होंगे तब तक हालात नहीं बदलेंगे. सारा विकास दिल्ली, मुंबई, बंगलौर जैसे शहरों में हो रहा है जिसकी कमान थाम रखी है अँग्रेज़ीदाँ इंडिया ने, जबकि गोहाना, भागलपुर, नवादा, मुज़फ़्फ़रनगर में जो कुछ हो रहा है वह भारत की अशिक्षित जनता कर रही है जिसे शिक्षित बनाने की बहुत ज़रूरत है. इस तरह के निष्कर्ष तो सब बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं. क्या सब कुछ इतना सीधा-सरल है? शिक्षा का कुचक्र क्या सरकार को, पढ़े-लिखे समझदार लोगों को नहीं दिख रहा है?



दिल्ली में बीए पास करने वाला युवक कॉल सेंटर की नौकरी पा सकता है, बलिया, गोरखपुर, जौनपुर या सिवान जैसी जगह से बीए पास करने वाले युवक को सिक्यूरिटी गार्ड क्यों बनना पड़ता है, इस सवाल का जवाब हम कितनी मासूमियत से टाल जाते हैं. जवाब मुख़्तसर है--अँगरेज़ी. अँगरेज़ी की जो पूँजी दिल्ली वाले युवक के पास है वह आरा-गोरखपुर वाले के पास नहीं है. इसका भी एक मासूम सा जवाब है कि 'तो अँगरेज़ी क्यों नहीं सीखते'? गाँव-क़स्बों के बिना छत वाली स्कूलों की तस्वीरें भी अब छपनी बंद हो गईं हैं कि असली तस्वीर आँख के सामने रहे. क्या किसी ने कभी पूछा है कि अँगरेज़ी मीडियम स्कूलों में नाम लिखाने की आर्थिक-सामाजिक शर्तें देश की कितनी आबादी पूरी कर सकती है? अगर नहीं कर सकती तो क्या सबको चमकदार मॉल्स के बाहर सिक्यूरिटी गार्ड बन जाना चाहिए और जो बच जाएँ उन्हें उग्र भीड़ में तब्दील हो जाने से गुरेज़ करना चाहिए.



भारत और इंडिया नाम के जो दो अलग-अलग समाज एक ही देश में बन गए हैं अँगरेज़ी उसकी जड़ में है. यह दरार पहले भी थी लेकिन उदारीकरण के बाद जो रोज़गार के अवसर पैदा हुए हैं उन्हें लगभग पूरी तरह हड़प करके अँगरेज़ी ने इस खाई को और चौड़ा कर दिया है.
मुझे लगता है कि प्राथमिक स्तर पर पूरे देश में अँगरेज़ी शिक्षा को अनिवार्य कर देने का समय आ गया है, इसके बिना देश की बहुसंख्यक वंचित आबादी के साथ कोई सामाजिक-आर्थिक न्याय नहीं हो सकता.
अगर हम व्यवस्था को नहीं बदल सकते तो कम से कम ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने का उपाय तो करें. जब साफ दिख रहा है कि अँगरेज़ी जानने वाले कुछ लाख लोगों की बदौलत महानगरों में इतनी समृद्धि आ रही है तो क़स्बों-गाँवों को अँगरेज़ी से दूर रखने का क्या मतलब है?
हिंदीभाषी समाज के लिए भाषा एक भावनात्मक मुद्दा रहा है. हिंदी को स्थापित करने के लिए अँग्रेज़ी के वर्चस्व को समाप्त करना होगा. यह मानते हुए अलग-अलग राज्यों में हर स्तर पर आंदोलन-अभियान चलते रहे लेकिन परिणाम सबके सामने है. सत्ता की भाषा बदल देने की लड़ाई इतनी आसान नहीं होती.



बिहार,उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की सरकारें इस मामले में हमेशा भ्रमित रही हैं, कभी पहली कक्षा से अँगरेज़ी पढ़ाने की बात होती है तो कभी सातवीं से. हिंदी को लेकर दक्षिण भारत में जो राजनीति है उससे भी सब अच्छी तरह वाकिफ़ हैं.


आपको याद ही होगा, ग्लोबलाइज़ेशन, उदारीकरण, बाज़ारीकरण का कितना विरोध एक दौर में हुआ था. धीरे-धीरे सही-ग़लत की बहस ख़त्म हो गई और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार तक ने मान लिया कि जिधर दुनिया जा रही है, उधर ही जाना होगा.



हिंदी के लिए भावुक होकर आप बहुत कह सकते हैं जो अब तक कहते रहे हैं लेकिन सोचिए यह लड़ाई भावना की नहीं, अवसरों की है

2 टिप्‍पणियां:

PD ने कहा…

यहां मैं कुछ अपना संस्मरण आपसे बांटना चाहूंगा.

मैं भी कुछ ऐसे ही स्कूल से पढा हूं जहां छठी से अंग्रेजी की पढाई शुरू होती थी. पांचवीं कक्षा तक मैं कभी भी पहले स्थान से नीचे नहीं आया. पर जब मैं छठी में आया तो मुझे केंद्रिय विद्यालय में पढने के लिये भेज दिया गया जहां मुझे काफी परेशानी का सामना करना पड़ा. और मैं घिसट-घिसट कर उत्तीर्ण होने लगा.

आज मैं अंग्रेजी के भय से बाहर आ चुका हूं, पर उससे बाहर निकलने में मुझे 15 साल से ज्यादा का समय लगा. आज मेरा व्यवसाय भाषा अंग्रेजी ही है, और मैं भारत के ऐसे प्रांत में रह रहा हूं जहां मुझे हर चीज के लिये अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ता है. पर मैं अपने कई ऐसे दोस्तों को भी जानता हूं जो अभी भी इससे उबर नहीं पायें हैं. और कहीं ना कहीं इसके लिये जिम्मेदार हमारी शिक्षा नीती ही है..

बोधिसत्व ने कहा…

मुंबई के सिने संसार में लिखते हुए कभी - कभी तो लगता है कि मैं भारत में नहीं कहीं बाहर हूँ किसी पराए देश में । भाषा का सवाल अब पीछे चूट गया सा लगता है। आपने अच्छा लिखा है...