बुधवार, दिसंबर 31, 2008

अतीत होते साल का विदागीत


समय बीतता चला जाता है और पता ही नहीं चलता कि कब साल पूरा हो गया। पिछले एक साल के घटनाचक्रों पर नजर डालें, तो अहसास होता है कि बीतते हुए वक्त के दरम्यान लम्हा-लम्हा दुनिया बदलती रही और एक नई शक्ल अख्तियार करती गई। 2008 का आज आखिरी दिन है और इस दिन जब हम पूरे साल पर नजर डालते हैं, तो इस साल कई ऐसी घटनाएं हुई, जिनकी अनुगूंज अगले साल तक सुनाई देगी। 2008 का आगाज बेहद उत्साह और उम्मीदों भरा रहा और सेंसेक्स जिस ऊंचाई पर था, डॉलर की तुलना में रुपये की स्थिति मजूबत थी। निजी क्षेत्र में काबिल लोगों के लिए रोजगार के अवसरों की कोई कमी नहीं थी और प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्रों को कैंपस सलेक्शन में लाखों रुपये की नौकरी का ऑफर आराम से मिल रहा था। इक्के-दुक्के घटनाओं को छोड़कर साल के शुरुआती छह महीनों में संयोग से दिल दहला देनेवाली बड़ी आतंकवादी घटनाएं कम हुई।

यह भी एक अजीब संयोग है कि इस साल के आखिरी छह महीने बेहद त्रासद, हौलनाक और वैश्विक स्तर पर हर काफी झटके वाला साबित हुआ। लीमैन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के बाद बड़ी सरकारी मदद की घोषणा के बाद भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार हो गई और उसके दुष्प्रभाव का असर पूरी दुनिया के बाजारों और अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ा। नवंबर के आखिरी सप्ताह में हुए मुंबई हमले ने देश को झकझोर कर रख दिया और इस हमले के बाद पाकिस्तान के साथ रिश्तों में बेहद तनाव तल्खी पैदा हो गई। मिले-जुले प्रभावों का असर हालांकि साल के आखिरी छह महीनों में भी रहा और इसी कड़ी में इस वर्ष पहला मानवरहित चंद्रयान-1 शुरुआत के साथ ही भारत अंतरिक्ष अनुसंधान की नई पीढ़ी में प्रवेश कर गया। ऐसे कम ही देश हैं जो अंतरिक्ष कार्यक्रम को लेकर ऐसी उपलब्धि हासिल कर सके हैं। काफी उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार भारत-अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु करार परवान चढ़ा। साल के उत्तराद्र्ध में ही बिहार में आई बाढ़ की भयंकर विनाशलीला से सोलह जिले बुरी तरह प्रभावित हुए और इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया गया। जबकि जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को चालीस हेक्टेयर जमीन देने के मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि घाटी और जम्मू में कई हफ्तों तक पक्ष-विपक्ष में विरोध प्रदर्शन होते रहे। अगले वर्ष की जीवन-यात्रा में हमारे साथ भूतपूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह, माक्र्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत और भारत के लिए कई युद्धों में निर्णायक भूमिका निभाने वाले फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ भी नहीं रहे। यह वर्ष कल से अतीत हो जाएगा और अतीत की सीख हमेशा वर्तमान को बेहतर बनाने में मददगार साबित होती हैं।

मंगलवार, दिसंबर 30, 2008

सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान प्रतिबंधित होने का साल


वर्ष 2008 तंबाकू उत्पादों के खिलाफ जारी मुहिम को मिली सफलता के लिए भी याद किया जाएगा। दो अक्तूबर से देश भर में सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान रोकने संबंधी अधिनियम लागू हो गया। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान को प्रतिबंधित करने संबंधी केंद्र सरकार के इस अधिनियम के विरोध में तंबाकू कंपनियों की ओर से कई याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में दाखिल की गई थीं, जिन पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार की अधिसूचना पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। इस वजह से संशोधित सिगरेट और अन्य उत्पाद अधिनियम-2008 के तहत सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान पर पूर्ण प्रतिबंध लागू कर पाना संभव हुआ। इसके तहत सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करते हुए पकड़े जाने पर दो सौ रुपये जुर्माने का प्रावधान है। इस अधिनियम की सफलता के बाद और आगे आते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा कि भविष्य में पुलिस अधिकारियों के अलावा गैर सरकारी संगठनों तथा रेलों में चल टिकट परीक्षकों को भी धूम्रपान करने वालों को जुर्माना करने का अधिकार दे दिया जाएगा.



तंबाकू उत्पादों से होनेवाली बीमारियों के मामले में वैधानिक चेतावनी के साथ खतरे का निशान प्रकाशित करने को लेकर हालांकि अभी तक सफलता नहीं मिली पाई है। तस्वीर के रूप में वैधानिक चेतावनी छपने के बाद धूम्रपान के खतरों से अनजान उन गरीब और अशिक्षित लोगों को फायदा होगा जो तंबाकू उत्पादों पर लिखी चेतावनी नहीं पढ़ सकते। इसके लिए किए जा रहे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के प्रयासों की तारीफ विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी की। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करने वालों की वजह से उन लोगों को बहुत परेशानी उठानी पड़ती है, जो धूम्रपान नहीं करते और अकारण धूम्रपान संबंधी बीमारियों की गिरफ्त में आ जाते हैं। इसलिए तमाम लोगों के बीच केंद्र सरकार का यह अधिनियम इस साल चर्चा के केंद्र में रहा। धूम्रपान भारत में किस तरह एक महामारी का रूप लेता जा रहा है, इसको लेकर जारी एक आकंड़े में बताया गया है कि धूम्रपान की वजह से 2010 तक हर साल लगभग 10 लाख लोगों की मौत होने लगेगी और इसमें आधे गरीब और अशिक्षित लोग होंगे। इस अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि बीमार पड़ने से पहले केवल दो फीसदी लोग ही धूम्रपान छोड़ते हैं। धूम्रपान के विरुद्ध अधिनियम पारित हो जाने की सफलता के बाद इसको लागू करने को लेकर सरकार को अभियान चलाना चाहिए, क्योंकि नियम जब व्यवहारिक स्तर पर लागू नहीं होते तो धीरे-धीरे निरर्थक होने लगते हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदॉस की सक्रियता की वजह से पारित अधिनियम के बाद आगामी समय में अब कार्यपालिका की सक्रियता ही इस अधिनियम को सार्थकता प्रदान कर पाएंगी।

सोमवार, दिसंबर 29, 2008

अलग-अलग रहने वाले अभिशप्त

जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के खंडित जनादेश ने स्पष्ट कर दिया है कि सरकार बनाने के लिए मतदाताओं ने किसी एक पार्टी को स्पष्ट जनादेश नहीं दिया है। नेशनल कांफ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई है, जबकि दूसरे नंबर पर पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी यानी पीडीपी रही। नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उससे इन्हीं दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन सरकार बनने के आसार नजर आ रहे हैं। एनडीए का हिस्सा रही नेशनल कांफ्रेंस, भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाने से पहले ही इनकार कर चुकी है। दस सीटें अन्य दलों को मिलने के बाद निर्दलीय विधायक जिस तरह उभरकर आए हैं, उससे सरकार बनाने में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।


अमरनाथ जमीन विवाद को लेकर चले लंबे संघर्ष को हालांकि भाजपा ने जनता का स्व:स्फूर्त संघर्ष बताया था। मगर जम्मू के चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट हो गया कि अमरनाथ कार्ड खेलने से भाजपा को फायदा हुआ। वहीं घाटी में पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने जिस नीयत से भावनात्मक मुद्दों को उछाला उसमें काफी हद तक उन्हें सफलता मिली। जम्मू-कश्मीर की जनता नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी तीनों को सत्ता सौंपकर आजमा चुकी है। खंडित जनादेश के बाद राज्य में जो गठबंधन सरकार बनेगी, वह निश्चय ही अपने दम पर सरकार बनाने वाली पार्टी की तरह निरंकुश रवैया अख्तियार नहीं कर पाएंगी। दूसरी ओर अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान के बावजूद रिकॉर्ड संख्या में लगभग 62 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग करके उन्हें कड़ा संदेश दिया है कि व्यापक जनमत की आस्था लोकतांत्रिक राजनीति में है। प्रतिकूल मौसम और अब तक के इतिहास में सबसे लंबी चुनाव प्रक्रिया में सात चरणों में मतदान के कारण इतने बड़े पैमाने पर मतदान की उम्मीद कम थी, लेकिन राज्य की जनता तमाम आशंकाओं को ध्वस्त कर दिया। मुजफ्फराबाद चलो और हमारी मंडी रावलपिंडी का नारा देने वाले अलगाववादियों को जनता ने स्पष्ट संदेश दिया है कि यदि उनकी आस्था लोकतांत्रिक राजनीति में नहीं है, तो मुख्य धारा की राजनीति से बाहर रहने के लिए अभिशप्त होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के मतदाताओंने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में जैसा उत्साह और विश्वास व्यक्त किया है, राज्य की गठबंधन सरकार उस पर खरे उतरने का पूरा प्रयत्न करेगी।

शुक्रवार, दिसंबर 26, 2008

आटा के लिए युद्ध लड़ते लोगों की ओर नहीं देखते पाक हुक्काम

मुंबई आतंकी हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आतंकवाद से हटाने के लिए पाकिस्तान कूटनीतिक स्तर पर भारत के आक्रामक रुख के बाद अपनी सीमाओं पर फौज की तैनाती करके युद्ध का उन्माद पैदा करने की कोशिशों में जुट गया है। एक तरफ पाक प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी कहते हैं कि हम भारत के साथ शानदार रिश्ते चाहते हैं, तो दूसरी तरफ सीमा के अहम मोर्चों पर पाक सैनिकों ने मोर्चा जमाना शुरू कर दिया है। लाहौर सेक्टर में पाकिस्तानी सेना की 10 वीं ब्रिगेड का पहुंचना और आमतौर पर रिजर्व में रखी जाने वाली तीसरी आर्म्स ब्रिगेड को झेलम की ओर रवाना करना पाकिस्तान की मंशा और तैयारियों को काफी हद तक स्पष्ट करता है। पाकिस्तानी मीडिया में आई खबरों में कहा गया है कि पाकिस्तान एयर फोर्स लगातार रावलपिंडी, लाहौर और कराची के ऊपर लड़ाकू विमानों के जरिए एयर स्ट्राइक का अभ्यास कर रही है। इसके अलावा सीमा से सटे तीन एयर फील्डों और जंगी जहाजों को बिल्कुल तैयार रहने को कहा गया है।


9/11 के बाद आतंकवाद के खात्मा के मुद्दे पर अमेरिका का सहयोगी बना पाकिस्तान आतंकियों पर ठोस कार्रवाई करने के बजाए तमाम समस्याओं से पाकिस्तानी जनता सहित पूरे विश्व समुदाय का ध्यान युद्ध पर केंद्रित करने की रणनीति पर अमल कर रहा है। इसलिए अंतराराष्ट्रीय समुदाय को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की चिंता सताने लगी है। क्योंकि कहने को तो परमाणु हथियारों की कमान पाकिस्तानी राष्ट्रपति के हाथों में है, लेकिन वास्तविक तौर इसकी कमान पाकिस्तानी थल सेना के हाथों में है। सामरिक विशेषज्ञ यह आशंका जाहिर कर रहे हैं कि भारत पर युद्ध थोपने के बाद पाकिस्तानी सेना का कोई कट्टरपंथी तत्व उन्माद में आकर परमाणु मिसाइल चलाने का फैसला कर ले। हैरत की बात यह है कि अमेरिका सहित पूरे विश्व समुदाय ने आतंकवादी घटनाओं में पाकिस्तान की संलिप्तता के बारे में भारत के सबूतों से इत्तफाक जाहिर किया है, लेकिन बयान बहादुर पाकिस्तानी नेता जले पर नमक छिड़कने की तरह लगातार सबूत-राग अलापते हुए भारत से ठोस सबूतों की मांग कर रहे हैं। इसके बावजूद भारत को दबाव बनाने के सभी कूटनीतिक और राजनैतिक उपायों को टटोलने के बाद ही हमले के विकल्प पर विचार करना चाहिए। क्योंकि पिछले छह दशकों का इतिहास इस बात का गवाह है कि अंतत: युद्ध से समस्याएं हल नहीं होती हैं। अपनी पाकिस्तान यात्रा में मैंने देखा था कि आटे-दाल की भारी किल्लत रावलपिंडी शहर में थी और जनता दुकानों पर दंगे-फसाद पर उतारू थी। क्वेटा, पेशावर, बहावलपुर, हैदराबाद आदि शहरों में शाम ढलते ही लोग घरों में दुबक जाते थे। इसकी चिंता करने की जगह पाकिस्तानी हुक्मरान भारत से लड़ने के लिए ताल ठोंक रहे हैं।

इस मर्ज की दवा क्या है?

उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में लोक निर्माण विभाग के इंजीनियर मनोज कुमार गुप्ता की जिस निर्ममता से की गई, वह बेहद लोमहर्षक है। मृत इंजीनियर के परिजनों ने सत्ताधारी विधायक शेखर तिवारी और उनके समर्थकों पर आरोप लगाया है कि काफी दिनों से उनसे चंदे के रूप में एक मोटी रकम की मांग की जा रही थी, जो पूरी न किए जाने के कारण उनकी जघन्य हत्या की गई। उत्तर प्रदेश के इंजीनियर एसोसिएशन ने सत्ता से जुड़े विधायकों पर डराने-धमकाने और जबरन वसूली करने का जो आरोप लगया है, उसको विपक्षी दल मुखर होकर कह रहे हैं। हालांकि विधायक की गिरफ्तारी और कुछ पुलिसकर्मियों के निलंबन से रा’य सरकार अपनी सक्रियता दिखाने की कोशिश कर रही है, लेकिन ऊपर से नीचे तक चंदे के नाम पर राजनीतिक निरंकुशता का जो भयावह तांडव चल रहा है, उस पर फिलहाल कोई बात नहीं हो रही है।


बेहद क्षोभ की बात है कि सत्ता के नशे में चूर नेताओं की निरंकुश राजनीति की यह शैली कोई नई नहीं है। पिछले ही साल बसपा के एक सांसद ने अपने क्षेत्र में रातोरात कई दुकानों पर बुलडोजर चलवा दिया था और विरोध कर रहे दुकानदारों पर फायरिंग करवाई थी। मुलायम राज में एक पुलिस अधिकारी को राजधानी लखनऊ में कुछ नेता पुत्रों ने जीप के बोनट पर शहर भर में घुमाया था। लगभग डेढ़ दशक पूर्व बिहार के गोपालगंज जिले के तत्कालीन जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या इसी तरह पीट-पीटकर आनंद मोहन के नेतृत्व में की गई थी। दुर्भाग्य से कई-कई हत्याओं का मुकदमा झेल रहे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों के राजनीति में आने के बाद से ऐसी ढेरों मिसालें कायम हुई हैं। जो विधायिका कानून बनाने का अधिकार रखती है, उसमें कानून को हाथ में लेने वाले लोगों की बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखकर डेढ़ दशक पहले वोहरा कमिटी की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गई थी, लेकिन वह रिपोर्ट आज तक ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है।


दिक्कततलब बात यह है कि आज कमोबेश हर दल में आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसद और विधायक हैं। इसलिए वोहरा कमिटी की रिपोर्ट पर दोबारा विचार करने की जरूरत किसी राजनीतिक दल ने आज तक महसूस नहीं की। औरैया की इस घटना के बाद भी यदि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की बढ़ती संख्या पर विचार नहीं करते हैं, तो लोकतंत्र के लिए यह बेहद अशुभ संकेत है।

गुरुवार, दिसंबर 25, 2008

बुर्जुआ की तरह जनता और प्रेस का गला न दबाएं

लगभग डेढ़ दशक तक चली राजनीतिक उथल-पुथल के बाद नेपाल में लोकतांत्रिक सरकार से यह उम्मीद की जा रही थी कि अब वहां मीडिया और नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बेहतर रूप में हासिल होगी। मगर आलोचना को स्वस्थ रूप में लेने और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने की जगह माओवादी सक्रियताविदयों ने अपनी सरकार की आलोचना करने वाली कुछ खबरें छापने की वजह से वहां के एक प्रमुख अखबार के पत्रकारों और दफ्तर पर हमले किए। जिसके विरोधस्वरूप नेपाल के सैकड़ों पत्रकारों ने राजधानी काठमांडू में हमले के विरोध में रैलियां निकालीं और अंग्रेजी और नेपाली के तमाम अखबारों ने संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी। नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दल, संयुक्त राष्ट्र संघ और मीडिया की स्वतंत्रता के हिमायती दलों ने इन हमलों के लिए माओवादियों की तीव्र भर्त्सना की है। अपनी आलोचना से चिढ़कर पहले भी माओवादियों ने प्रकाशन कार्यालयों को आग लगाई थी और वितरण को अवरुद्ध करके अपना गुस्सा जाहिर किया था।


हालांकि माओवादी पार्टी के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड ने इन हमलों में अपनी पार्टी की भूमिका से इनकार किया है और उन लोगों को दोषी बताया है, जो अपने आपको माओवादी बता कर पार्टी को बदनाम कर रहे हैं। इन हमलों की जांच कराने का आश्वासन देते हुए उन्होंने वचन दिया है कि अपराधियों को दंडित किया जाएगा। प्रचंड सरकार बनने से पहले ही नेपाली मीडिया में यह एक गंभीर मुद्दा था कि सैकड़ों माओवादी गुरिल्लों को सेना में शामिल किया जाए या नहीं? दूसरा यह कि यदि उन्हें सेना में शामिल किया गया तो क्या वे अपनी पार्टी लाइन से अलग हटकर निष्पक्ष तरीके से कामकाज कर पाएंगे? अपने निरंकुश कार्यकर्ताओं से माओवादी सरकार क्या निष्पक्ष तरीके से निपटेगी? क्योंकि आंदोलन चलाना उसका नेतृत्व करना एक बात है, जबकि सरकार चलाना बिल्कुल दूसरी बात। इनका एहसास स्वयं प्रधानमंत्री प्रचंड को है और हाल ही में उन्होंने कहा था कि सरकार चलाना आसान काम नहीं है। लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता में आई माओवादी सरकार यदि अपने कार्यकर्ताओं की ऐसी हरकतों से सख्ती से निपटेगी तो यह नेपाल की स्थिरता और नवजात गणतांत्रिक व्यवस्था, दोनों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है।

सोमवार, दिसंबर 22, 2008

मृत्यु के बारे में अख्तरुल ईमान के कुछ शब्द-


बड़े भाई यादवेंद्र जी, जिनसे मुलाकात कब घनिष्ठता में बदल गई यह याद भी नहीं. प्रतिष्ठित संस्थान सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, में उप निदेशक के पद पर कार्य करते हैं, कविता को पढ़ते-गुनते और जीते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि किसी भी तरह के अहंकार की यह हिम्मत नहीं कि उन्हें जरा भी छू ले. बेहद सहज, सरल और मित्रवत्सल हैं. कुछ दिनों पहले उन्होंने यह नज्म मुझे एसएमएस किया था, चाहता हूं कि आप भी इसे पढ़ें।



कौन आया है जरा एक नजर देख तो लो,

क्या खबर वक्त दबे पांव चला आया हो

जलजला, उफ ये धमाका, ये मुसलसल दस्तक

खटखटाता कोई देर से दरवाजे को

उफ ये मजमून फजाओं का अलमनाक सुबूत

कौन आया है जरा एक नजर देख तो लो

तोड़ डालेगा ये कमबख्त मकान की दीवार

और मैं दब के इसी ढेर में रह जाऊंगा.


चयन एवं सौजन्यः यादवेंद्र

रविवार, दिसंबर 21, 2008

क्रिकेट खेल लेने से मुर्दे जी उठेंगे क्या?

मुंबई में हुए आतंकी हमले की आंच के कारण आठ जनवरी से उन्नीस फरवरी तक खेले जाने वाले क्रिकेट सीरीज के लिए टीम इंडिया का पाकिस्तान दौरा रद्द होने से कूटनयिकों को शायद हैरत नहीं हुई होगी। क्योंकि इसकी उम्मीद तभी से धूमिल नजर आने लगी थी, जब खेल मंत्री एमएस गिल ने साफ शब्दों में कहा था कि पाकिस्तान की जमीन का उपयोग जब भारत में आतंक फैलाने के लिए किया जा रहा हो, तब उनके साथ क्रिकेट मैच खेलने का यह सही वक्त नहीं है। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि क्या यह मुमकिन है कि आतंकियों की एक टीम बहुत सारे लोगों को भारत में मारने आए और उसके तुरंत बाद भारतीय क्रिकेट टीम खेलने के लिए वहां का दौरा करे?


भारत सरकार के कड़े रुख के बाद पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड यानी पीसीबी ने इस दौरे को बचाने के लिए पूरा प्रयत्न किया और किसी तीसरे स्थान पर मैच कराने तक का प्रस्ताव रखा, मगर भारत सरकार के बेहद कड़े रुख के बाद बीसीसीआई पाकिस्तान के साथ फिलहाल क्रिकेट संबंध जारी रखने के पक्ष में नहीं है। गौरतलब है कि इस दौरे में भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के बीच तीन टेस्ट मैच, पांच एकदिवसीय मैच और एक ट्वेंटी-20 मैच खेलना था।


आतंकवाद के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ सहित पूरी दुनिया में भारत जिस सक्रियता से पाकिस्तान की करतूतों को लेकर कूटनयिक स्तर पर अभियान चला रहा है, उसके बाद वैसे भी सामान्य संबंध की गुंजाइश नहीं बचती है। क्योंकि यदि भारत खुद पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंध बनाकर रखता है, तो बाकी देशों को वह आखिर किस नजरिये से पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कह पाएगा? इस बीच पीसीबी की पाबंदी झेल रहे इंजमाम-उल-हक ने बीसीसीआई से दौरे रद्द नहीं करने को लेकर आग्रह किया था। बकौल इंजमाम-उल-हक, भारतीय टीम के पाकिस्तान दौरा रद्द होने से इस उप महाद्वीप में क्रिकेट को बहुत बड़ा झटका लगा है। दूसरी ओर बेहद खस्ताहाल पीसीबी को टीम इंडिया का दौरा रद्द होने के कारण लगभग दो करोड़ डॉलर की संभावित आय से हाथ धोना पड़ सकता है।


2004 में 15 साल बाद जब टीम इंडिया ने पाकिस्तान का दौरा किया था, तो पीसीबी को लगभग दो करोड़ डॉलर की आमदनी हुई थी। हैरत की बात है कि पीसीबी और पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी महज अपने लाभ को ध्यान में रखकर तब भी टीम इंडिया से दौरे की बात कर रहे हैं, जब शुरू से ही पाकिस्तान की तमाम सरकारें भारत के साथ सौहार्द और सौजन्य के तमाम दरवाजे बंद करती आई है। आतंकवाद को लेकर भारत सरकार की अपनी चिंताएं हैं और उन चिंताओं में देश का हर नागरिक सरकार के साथ है, चाहे वह जिस भी पेशे से जुड़ा व्यक्ति हो। ऐसे माहौल में टीम इंडिया से दौरे के लिए पीसीबी प्रमुख के इसरार का इसलिए भी कोई मतलब नहीं है, क्योंकि बाकी तमाम मामलों में जब संबंध खराब हों, तो महज क्रिकेट खेलने से देशों के संबंधों में सुधार नहीं आता। अर्थव्यवस्था के स्तर पर बेहद बुरे दौर से गुजर रहे पाकिस्तान के लिए टीम इंडिया का दौरा रद्द होना चिंता का विषय हो सकता है, लेकिन भारत की नहीं। आतंकियों पर कार्रवाई को लेकर जब तक भारत सरकार मुतमईन नहीं होती, पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह के संबंध का कोई खास मतलब नहीं होगा।

शुक्रवार, दिसंबर 19, 2008

बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति

यह दुखद है कि जब विपक्ष आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई को लेकर समवेत स्वर में सरकार के साथ होने की बात कर रहा हो, तब सरकार में ही शामिल अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एआर अंतुले ने महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख शहीद हेमंत करकरे की मौत पर ऐसा बयान दिया है, जो राजनीति से बहुत अधिक दुष्प्रेरित प्रतीत होता है। उनका कहना है कि शहीद हेमंत करकरे आतंकवादी घटना के समय होटल ताज या ओबेरॉय न जाकर कामा अस्पताल के पास क्यों गए, जबकि इन होटलों में बड़ी कार्रवाई हुई और कामा अस्पताल का नाम भी किसी ने नहीं सुना था? उन्होंने शहीद करकरे की मौत पर सवालिया निशान लगाते हुए यहां तक कहा कि इसमें संदेह है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने ही उन्हें मारा हो, हो सकता है मालेगांव धमाकों की जांच के मामले में उन्हें मारा गया हो? गौरतलब है कि मालेगांव जांच मामले में कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर शक जाहिर होने और पूछताछ के लिए उन्हें हिरासत में लिए जाने के बाद राजनेताओं ने उनके ऊपर भेदभाव के आरोप लगाए थे। इससे दुखी उनके परिजनों ने मुंबई हमले के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा घोषित एक करोड़ रुपये अनुग्रह राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हालांकि एआर अंतुले के इस बयान से कांग्रेस ने खुद को अलग करने की बात की है और कहा है कि पार्टी उनसे सहमत नहीं है।


आतंकवादी घटनाओं के दौरान और उसके बाद पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों को लेकर की जाने वाली वोट बैंक की राजनीति भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोई नई घटना नहीं है। 13 सितंबर को हुए दिल्ली बम विस्फोट के सिलसिले में बाटला हाउस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा की मौत को लेकर इसी तरह के विवाद और बयानबाजी के बाद शहीद शर्मा के परिजनों ने समाजवादी पार्टी नेता अमर सिंह की सहायता राशि ठुकरा दी थी। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में या किसी भी कानूनी मामले में जब किसी राजनेता की गर्दन फंसती है, तो वे कहते हैं कि जब तक न्यायालय किसी को दोषी नहीं ठहराता, तब तक उसे दोषी कैसे माना जा सकता है? इसलिए किसी मुठभेड़ के बाद जब तक सब कुछ पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो जाता, तब तक संदेह और दोषारोपण की राजनीति को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है? क्षोभ की बात यह है कि आतंकवादी को सिर्फ आतंकवादी मानकर मुकाबला करने के बजाए हमारे राजनेता आतंकवादियों को धर्म और धड़ों में बांटकर वर्गीकरण की राजनीति करने लगते हैं।


आतंकवाद का दृढ़ता से मुकाबला करने वाले अमेरिका, ब्रिटेन, इजरायल या किसी भी पश्चिमी देश के राजनीतिज्ञ इस तरह के संवेदनशील मुद्दे पर वर्गीकरणवादी राजनीति नहीं करते, जबकि भारतीय नेताओं को शायद इस तरह की जिम्मेदारी की जरूरत महसूस नहीं होती। अब भी अगर हमारे नेता वगीüकृत मानसिकता से आतंकवाद का मुकाबला करने की बात करते हैं, तो यह न सिर्फ बेहद अक्षम्य और गैर जिम्मेदाराना राजनीति का परिचायक है, बल्कि अक्षम्य भी।

मंगलवार, दिसंबर 16, 2008

क्यों अमेरिकी जनता दुनिया के नफरत की शिकार होती है?

राष्ट्रपति पद से हटने के बाद अपने आखिरी इराकी दौरे में जॉर्ज बुश के सामने तब विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई, जब अति विशिष्ट सुरक्षा व्यवस्था के बीच एक इराकी पत्रकार ने उन पर दो जूते फेंके। इराक के अल बगदादिया टीवी के पत्रकार मुंतजर-अल-जैदी ने पहला जूता फेंकते समय जार्ज बुश से कहा कि यह इराकी लोगों की ओर से आपको आखिरी सलाम है और दूसरा जूता फेंकते समय कहा कि इराक की विधवाओं, अनाथों और मारे गए लोगों की ओर से है। इससे जाहिर होता है कि इराक के लोगों में बुश प्रशासन की नीतियों को लेकर किस हद तक नाराजगी है और लोग अपनी खराब हालात के लिए वे सीधे तौर पर उन्हें जिम्मेवार मानते हैं। इससे पहले भी जार्ज बुश की इराक नीति को लेकर दुनिया भर के लोग विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं, मगर उन्होंने इसकी बहुत अधिक परवाह नहीं की। नतीजतन तकरीबन छह लाख से अधिक मासूम इराकी नागरिक अब तक वहां मारे जा चुके हैं। झड़पों और आए दिन होने वाले बम विस्फोट में रोज लोग मारे जा रहे हैं और इस परिस्थिति के कारण अमेरिका चाहकर भी अपने सैनिकों को वापस नहीं बुला पाया। लंबे समय से घर न लौट पाने के कारण इराक में तैनात अमेरिकी सैनिकों के बीच गहरी निराशा है और जार्ज बुश उनके परेशान परिजनों को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए। इराक मामले में बुश प्रशासन कई मोर्चे के साथ-साथ इस मोर्चे पर भी विफल रहा कि दूसरे देशों को वे वहां अपनी सेना भेजने के लिए राजी नहीं कर पाए, जिससे अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता साफ नहीं हो पाया। दूसरी ओर इराक पर हमले के लिए पेंटागन ने जो-जो कारण गिनवाए, वे एक-एक करके तथ्यहीन साबित होते चले गए। इराक पहुंचकर जार्ज बुश ने बयान दिया है कि इराक में युद्ध अभी भी खत्म नहीं हुआ है और संघर्ष अभी भी जारी रहेगा। अहम बात यह है कि जार्ज बुश की यात्रा और ताजा बयान ऐसे समय में आया है जब उनकी इराक यात्रा से एक दिन पहले अमेरिका के रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स, जो नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा के मंत्रिमंडल में भी रक्षा मंत्री बने रहेंगे, ने कहा था कि अमेरिकी सैनिकों का इराकी मिशन अपने आखिरी चरण में है। इससे अमेरिका की इराक नीति को लेकर बदलाव के संकेत मिले थे, मगर बुश के बयानों से स्पष्ट हुआ कि वे अपने पुराने रुख पर ही अड़े हुए हैं। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री की इस राय से असहमत होना असंभव है कि जार्ज डब्ल्यू. बुश के शासन में दुनिया में अमेरिका की छवि जितनी धूमिल हुई, उतनी किसी भी दौर में नहीं हुई और इतिहास के किसी दौर में शायद ही कभी लोगों ने अमेरिका को इतना इतना नापसंद किया हो। याद रहे कि 2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण के समय जब ज्यादातर अमेरिकी नेता लोगों का सामना करने से बच रहे थे, तब बराक ओबामा ने सार्वजनिक मंचों पर जोरदार तरीके से इसकी निंदा की थी। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि बराक ओबामा, बुश प्रशासन की इराक नीति की समीक्षा करेगा, जिससे दुनिया के सामने अमेरिकी की अलग छवि जाएगी।

सोमवार, दिसंबर 15, 2008

शहीदों के प्रति संवदेनहीनता की हद

दो दिन पहले इस जन गण के भाग्य विधाता आतंक के खिलाफ संसद में एकजुटता की बात कर रहे थे, मगर अगली सुबह संसद पर आतंकवादी हमले में शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए उंगलियों पर गिनने लायक सांसद भी नहीं पहुंचे। हैरानी की बात यह है कि इस मौके पर प्रधानमंत्री, सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, सोमनाथ चटर्जी-जैसे कुछ बड़े नेता ही मौजूद थे, बाकी सरकार के तमाम मंत्री, सांसद और विपक्ष के बड़े नेता नदारद थे। बड़े राष्ट्रीय दलों में से एक ने इसे अक्षम्य माना और दूसरे इसका कारण सप्ताहांत के अवकाश को माना। इस वक्त पूरे देश में शहीदों के प्रति लोग भावुक हैं और उनके बलिदान के कारण नत हैं, मगर जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले मंत्रियों-सांसदों ने इस जन भावना का आदर नहीं किया। संसद की बैठकों, बहसों में बेहद कम भागीदारी सांसदों के लिए अब आम बात हो चुकी है, लेकिन मुंबई हमले के बाद शहीदों के प्रति राजनेताओं की ऐसी संवेदहीनता बेहद क्षोभ का विषय है। आतंकवादियों ने जितनी तैयारी के साथ संसद पर हमला किया था, वे अगर मुंबई के ताज और ओबेरॉय होटल की तरह संसद के भीतर जाने में कामयाब हो जाते, तो उस भयंकर तबाही का शायद हम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि क्या हो जाता! अपर्याप्त और निम्न स्तरीय संसाधनों के बावजूद लोकतंत्र की अस्मिता की रक्षा करने वाले बहादुर जवानों के प्रति जन प्रतिनिधियों की गैर मौजूदगी से लोगों के बीच ऐसा संदेश गया कि उनके मन में शायद उन जाबांज जवानों के प्रति आदर की कमी है। दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में हुई मुठभेड़ को बहुत अरसा नहीं बीता है, मगर उस मुठभेड़ में शहीद दिल्ली पुलिस के बहादुर इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के परिवार वालों की मानें, तो उनके विभाग और सरकार दोनों के मन में वैसी भावना का अभाव अब साफ झलकती है, जो उसने शुरू में िदिखाई थी। शायद इन्हीं वजहों से आतंकवादी हमलों के तत्काल बाद शहीद जवानों के घरवालों के लिए अनेक तरह की घोषणाएं करने वाले नेताओं पर से आम जनता का भरोसा कम हो रहा है। मुंबई हमले के बाद देश भर के लोगों ने जिस तरह अपना दुख और आक्रोश जाहिर किया, उसके बाद क्या हमारे नेताओं के मन में शहीद जवानों के प्रति जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ है? ऐसा लगता है कि राजनेताओं ने देश के वीर जवानों को बेहद अपर्याप्त संसाधनों और विषम परिस्थितियों के बीच अपने कत्र्तव्य का निर्वहन के लिए छोड़ दिया है। यदि ऐसा न होता तो सियाचिन की जानलेवा ठंड में सीमा पर तैनात जवानों को पुराने और फटे-चिथड़े कपड़े की जगह नये और बेहतर कपड़े दिये जाते, मुंबई हमले में शहीद होने वाले जवानों को बेहतर बुलेटप्रूफ जैकेट और हथियार दिये जाते। बेहतर होता कि सरकार आतंक से लड़ने के उपायों की घोषणा करते समय इन बातों पर भी गौर करती कि यदि कोई जवान आतंकी हमलों में शहीद हुआ, तो कृतज्ञ राष्ट्र उनके परिवार को किसी भी तरह से असहाय नहीं महसूस करने देगी।

रविवार, दिसंबर 14, 2008

दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम बनाने के उस्ताद


जमात-उद-दावा पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध से साफ है कि दुनिया ने भारत के इस तर्क पर अपनी मुहर लगा दी है कि इस संगठन और लश्कर-ए-तय्यबा की जड़ एक ही है। इससे पहले इन आतंकियों सहित जमात-उद-दावा को आंतकवादी संगठनों की सूची में शामिल कराने की तीन बार कोशिश की गई, लेकिन चीन ने विरोध किया था। अहम बात यह है कि इस बार भारत और अमेरिका ने इस संगठन के खिलाफ जो ठोस सबूत पेश किए उसके बाद चीन को अपना तेवर और रणनीति दोनों बदलने को मजबूर होना पड़ा। पाकिस्तान सरकार इन संगठनों पर कार्रवाई के मामले में अब तक कैसी और कितनी गंभीरता बरतती रही है, इसका पता इस बात से लग जाता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध लगाए जाने के बाद जमात-उद-दावा के प्रमुख ने इसे पाकिस्तान को बदनाम करने की साजिश बताकर अपनी गतिविधियां पूर्ववत जारी रखने का ऐलान किया। गौरतलब है कि इससे पहले भी पाकिस्तान में आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध की नूरा-कुश्ती की वजह से थोड़े समय के बाद ही उनके नेता नजरबंद से बाहर आ जाते रहे हैं और प्रतिबंध बिल्कुल अर्थहीन हो जाता है। क्योंकि अनुभव बताता है कि कंधार विमान अपहरण और भारतीय संसद पर हमले के बाद पाकिस्तानी हुकूमत ने çदखावटी कारüवाई करके अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी साख बचाई थी। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की पाबंदियों के बाद इन लोगों और संगठनों पर जो पाबंदियां लागू होंगी उनमें यात्रा करने पर पाबंदी, वित्तीय मदद इकट्ठा करने पर रोक, संपçत्तयों की कुर्की जैसे प्रावधान हैं। मगर इसमें पेच यह है कि प्रतिबंधों और पाकिस्तान सरकार की सख्ती के बाद इस तरह के संगठन नाम और जगह बदलकर फिर अपनी गतिविधियां शुरू कर देते हैं, जिससे थोड़े समय के लिए मामला ठंडा पड़ जाता है। जमात-उद-दावा लगातार दावा कर रहा है कि उसका संगठन लश्कर-ए-तय्यबा से अलग है और यह बात बात पाकिस्तान में न्यायालय भी मान चुका है। पाकिस्तान सरकार भले आतंकी संगठनों की इन दलीलों को मान ले, लेकिन दुनिया अब यह मानने को तैयार नहीं है। अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने कहा है कि मुंबई हमलों के बाद हालात बेहद खतरनाक हैं और पाकिस्तान को कड़े कदम उठाने की जरूरत है। यह सच है कि इस पूरे मामले में बुश प्रशासन की सक्रियता के कारण भी अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत के पक्षों और तथ्यों को गंभीरता से लिया गया। प्रतिबंधों के बाद अब जरूरत इस बात की है कि वहां आतंकियों को प्रशिक्षित करने के लिए जो शिविर चलाए जाते हैं और चैरिटी के नाम पर मदरसों में पूरी दुनिया को दारुल-हर्ब से दारुल-इस्लाम बनाने जो शिक्षा दी जाती है उसको असलियत में रोकने की कार्रवाई की जाए।

शुक्रवार, दिसंबर 12, 2008

कफन बेचने वाले से जिंदा छोड़ देने की अपील

कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) ने विश्व भर में व्याप्त भुखमरी के बारे में जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों के कारण दुनिया में करीब एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं। दुनिया इस वक्त एक तरफ आर्थिक मंदी से जूझ रही है, तो दूसरी तरफ घटती आमदनी और खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों के कारण विकासशील देशों की एक बड़ी आबादी भुखमरी की समस्या से जूझ रही है। चावल और दालों की कीमतों में हुई बढ़ोत्तरी की वजह से इसी साल 11 करोड़, 90 लाख लोग भुखमरी की स्थिति में आ गए हैं। हेती, फिलीपींस और इथियोपिया जैसे देशों में खाने-पीने की चीजों की आसमान छूती कीमतों की वजह से दंगे हुए हैं। भारत ने बढ़ती कीमतों की मार से गरीब जनता को बचाने के लिए निर्यातों पर कुछ हद तक प्रतिबंध लगाए, इसके कारण आयातक देशों में कीमतें बढ़ने लगीं। ये सच है कि संकट की मुख्य वजह मांग और आपूर्ति में बढ़ता फासला है, लेकिन सवाल यह है कि पिछले तीस सालों में खाने-पीने की चीजों के दाम इतनी ऊंचाई पर कभी क्यों नहीं पहुंचे? जब आर्थिक उन्नति के दिन थे, तब तो सहायता जुटाना कठिन होता था, लेकिन अब तो दुनिया बेहद कठिन दौर से गुजर रही है। गरीबों की अब कौन सुने, जब अमीरों की हालत खुद ही खराब है. स्थिति यह है कि दानदाता देश आर्थिक संकट का हवाला देकर अब गरीब देशों को आगे सहायता देने में असमर्थता जाहिर कर सकते हैं। जिससे गरीबी और भुखमरी से पहले से ही काफी परेशान लोगों के आगे और अधिक उपेक्षित होने की आशंका गहराती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी पर गौर करें, तो वर्तमान आर्थिक संकट से गरीब देश सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं और लगभग 50 ऐसे देशों के लिए खतरा सबसे अधिक है, जो केवल कुछ उत्पादों के निर्यात पर निर्भर रहते हैं। गौरतलब है कि अभी दुनिया में दो किस्म के गरीब देश हैं-एक वे जिनके पास तेल और गैस है और एक वैसे देश जिनके पास तेल-गैस नहीं है। गरीब देशों में इधर विकास भी हुआ, लेकिन ये विकास लगभग पूरी तरह केंद्रित रही केवल तेल और खनिज के निर्यात करने वाले देशों के लिए जिनमें अंगोला, सूडान और इक्वेटोरियल गिनी जैसे देश आते हैं। मगर दूसरे कमजोर देशों में इस बात का खतरा अधिक है कि अगर ऊर्जा के स्रोत और खाद्यान्न महंगे होत चले गए तो और संकट में घिर जाएंगे। गरीब देशों की स्थिति में व्यापक सुधार न होने की एक अहम वजह यह भी है कि विदेशों से जो सहायता दी जाती है, वह सहायता मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तनों के लिए दी जा रही है, न कि गरीब देशों के संरचनात्मक बदलावों के लिए या ऐसे कामों के लिए जिससे उनकी उत्पादन क्षमता और आमदनी बढ़ सके। इसलिए दुनिया इस वक्त जिस भयंकर मंदी के दौर से गुजर रही है उसमें भुखमरी जैसी समस्या से निपटने के लिए व्यापक मानवीय दृष्टि के साथ-साथ धैर्य से वैकल्पिक विकास नीति की ओर अग्रसर होने की जरूरत अब पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है।बकौल साहिर लुधियानवी, कफन बेचने वालों से हम जान की भीख मांग रहे हैं, जिन्होंने दुनिया में यह हालत पैदा की है।

रविवार, दिसंबर 07, 2008

इंसानियत के बौने पड़ते जाने का बराबर डर बना रहा

छह दिसंबर एक उदास और नजरअंदाज कर दिये जाने लायक आम तारीख की तरह बीत गया, जो एक बड़ी राहत की बात है। देश-विदेश के अधिकांश आम जनों के लिए हर तारीख की तरह महज एक आम तारीख, मगर इतिहास की स्मृतियों और अस्मिता के घावों को बार-बार खरोंचने की सियासत करने वालों के लिए खास तारीख। आतंकवाद के बढ़ते संजाल के कारण देश इस वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर एक गंभीर मंथन के दौर से गुजर रहा है, मगर ऐसे दौर में भी क्षेत्रीय, जातीय और धार्मिक संरचनाओं को तार-तार करने वाली वाचाल राजनीति लिहाजों से बिल्कुल परे जाकर निजी स्वार्थों को तरजीह दे रही है। अयोध्या के पूरे घटनाक्रम को लेकर सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं, अपना-अपना पक्ष है और उनके पक्ष-विपक्ष के बीच फंसा हुआ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र निरुपाय-सा लगता है।


नारों, जुलूसों और अतिवादी-अस्मितावादी राजनीति के कारण जब भी दंगे-फसाद होते हैं, आतंकी हमले होते हैं, तो सियासत से मजहब से कोसों दूर देश के दिहाड़ी मजदूर, गरीब कामकाजी वर्ग के लोग ही इसकी बलि चढ़ते हैं। पिछले कुछ समय से विजय और दुख व्यक्त करने वालों के पाटन में पिछले एक-डेढ़ दशक से पिसने वाली गरीब जनता कल भी रोटी के लिए जीवन-संघर्ष करने निकलेगी, मगर मजहब की सियासत के कारण इंसानियत के बौने पड़ते जाने का बराबर डर बना रहा। ताजा जनगणना रिपोर्ट को देखें तो इस देश में स्कूल और अस्पतालों की संख्या से ज्यादा धार्मिक स्थल हैं, मगर और-और धार्मिक स्थलों के निर्माण की अनंत कड़ी अनवरत जारी है। वह सामाजिक ताना-बाना, जिसमें एक के बगैर दूसरे का बिल्कुल काम नहीं चलता था, अब इतिहास बनता जा रहा है। वर्तमान राजनीति का यह सबसे डरावना पक्ष है कि जब अदालतों में लाखों मुकदमे लंबित हैं और सालों से लोग न्याय की बाट जोहते रहते हैं, तब अदालतों और संवैधानिक प्रक्रिया से बाहर सियासत के खुदमुख्तार काजी अपनी शैली में इंसाफ करने में मुब्तिला हैं। छह दिसबंर, 1992 के बाद से आज तक देश के अनेक भागों में, अनेक तरीकों से वे अपने-अपने हिसाब से इंसाफ कर रहे हैं। उनके इंसाफों से घायल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र डिगते आत्मविश्वास और हिलती हुई बुनियाद के कारण संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।


विभाजनकारी राजनीति के कारण पहले देश टुकड़ों में बंटा, पांच लाख लोग तब सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुए थे और तकरीबन दस लाख लोग बेघरबार हुए थे। जिसका घाव अब भी बुजुर्गों के सीने में हरा हो जाता है। वक्त का तकाजा यह है कि विजय और दुख व्यक्त करने वालों और उनसे अलग अपनी कथित प्रतिबद्धताओं के कारण उनकी आलोचनाओं में मुब्तिला लोगों को अब भी उस देश के बारे में सोचना चाहिए, जिसमें प्रत्येक नागरिक को निर्भीक, स्वतंत्र और लोकतांत्रिक तरीके से जीने का हक हो. पता नहीं यह सपना कब सपना से हकीकत में बदलेगा?

बुधवार, दिसंबर 03, 2008

वे हक्का-बक्का कर देना चाहते हैं सबको


ब्रिटेन में रहनेवाली नाईजीरियन मूल के अश्वेत कवि बेन ओकरी 1959 नाईजीरिया में पैदा हुए। बचपन लंदन में बीता, फिर नाईजीरिया लौट गए। थोड़े समय बाद ही स्कालरशिप लेकर ब्रिटेन पढ़ने के लिए आ गए...और फिर यहीं बस गए। ब्रिटेन के अनेक विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि, एक उपन्यास के लिए 1991 में बुकर पुरस्कार, 2001 ब्रिटिश सरकार के ओबीई से सम्मानित। इनके अलावा और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार।
अंग्रेजी में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध लेखन। अनेक पुस्तकें प्रकाशित। नाईजीरिया के गृहयुद्ध को विषय बनाकर कई उपन्यास लिखे। हाल में उनके लिखे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव संबंधी संस्मरण (संदर्भ-बराक ओबामा) खास चर्चित रहे। इन दिनों ब्रिटेन में रहते हैं।
हमारे अग्रज आदरणीय यादवेंद्र जी ने इसे उपलब्ध कराया है और ख्वाब का दर के लिए हिंदी में अनूदित किया है।

स्वप्न की संतानें

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बेन ओकरी
(अगस्त, २००३ में द गार्जियन में प्रकाशित यह कविता मार्टिन लूथर किंग के प्रसिद्ध भाषण आइ हैव ड्रीम की चालीसवीं सालगिरह पर लिखी यह कविता उन्हें ही समर्पित है। )

उन्हें होगा नहीं अब सब्र

जब तक और ज्यादा न दिया जाए उन्हें

क्योंकि ये संतानें हैं स्वप्न की


ये स्वप्नदर्शी बच्चे

सूरज के सभी रंगों के पहने हैं परिधान

श्वेत और अश्वेत

और वर्णक्रम के सभी रंगों के बच्चे

और स्वप्न के सभी रंगों के बच्चेउ

न्हें होगा नहीं अब सब्र

जब तक और ज्यादा न दिया जाए उन्हें


पर और ज्यादा आखिर चाहते क्या हैं वे?

वे चाहते हैं यह धरती और सितारे

और लुभावना स्वर्ग भी
वे चाहते हैं आजाद होना

और वे तमाम संभावनाएं भी

जिसे जिसे आजादी देती है जन्म

और साथ ही आजादी की रौब

और अंधेरे खतरे भी


वे चाहते हैं उन्मादी ढंग से प्यार करना
वे नहीं चाहते बंध जाना किसी परिभाषा की गिरफ्त में

वे नहीं चाहते खींच दी जाए कोई सीमा रेखा उनके सामने

वे नहीं चाहते याचना करें

मानवीय विस्तार के रास्ते
वे चाहते हैं पूरा-पूरा हक सर्जना का

पृथक दिखने का अप्रत्याशित, उद्दाम या असाधारण होने का

और सीमाओं को जब चाहें लांघ आने का
वे नहीं चाहते अनुकंपा या बंधना सोच के किसी चौखट में

वे मुखालफत करना चाहते हैं

खुद अपने खिलाफ भी

वे चाहते हैं खुशी से झूमें, नाचें-गाएं

उन सबके लिए जो खुश नहीं हुए कभी

इस धरती पर आगमन से उनके


वे चाहते हैं सृष्टि के सर्वोत्तम धनों को प्यार करना

संगीत में, कला में और स्वप्न में भी
वे आजादी से हासिल

सबसे ऊंची मंजिल प्राप्त करना चाहते हैं

बगैर किसी बहस-मुबाहिसे के

वे अचानक प्रकट होकर विस्मित कर देना चाहते हैं

जैसे कर देता है कोई देवदूत


वे हक्का-बक्का कर देना चाहते हैं सबको

चुटकी बजाते ही जैसे कर देते कई बार असाधारण जन
वे चाहते हैं पराजित हो जाना हिम्मत हारे बगैर

जैसे खोजियों को स्वीकार करनी पड़ती है कई बार नियति


वे चाहते हैं तलाश करना कुछ नया

पूरी सदाशयता से जैसे करते हैं धुनी तीर्थयात्री


उनके लिए होता है न तो बहुत ज्यादा कुछ

और न ही बहुत कम-

सपने देखना यदि यह संभव हो सके मनुष्य से

और पूरा करना उस निस्सीम जीवन के अथाह जादू वाले स्वप्न

इसीलिए तो वे छोड़ देते हैं निर्बिंध आजादी को

कि गाए हर दिन अपने बदलाव का गीत


वे ही हैं इस सृष्टि के नए योद्धा और अधिपति

अब तक के समय की पीड़ा से

और इतिहास के प्रणय से उद्भूत सर्वश्रेष्ठ उत्साह हैं वे-
वे संतानें हैं स्वप्न की

और मन या फौलाद की नहीं है बनी ऐसी कोई कारा

जो थामकर नियंत्रित कर सके

अब उन सबके वेग को


धक्के मार कर धराशायी कर दिए हैं उन्होंने लौह कपाट

वे सब के सब

संतानें हैं स्वप्न की।

-हिंदी अनुवाद - यादवेंद्र

सोमवार, दिसंबर 01, 2008

सरकार इस जनता को भंग करके दूसरी जनता चुन ले


मुंबई में देश के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद वहां की आम लोग जहां एनएसजी कमांडो और सुरक्षा बलों की हर कामयाबी पर भारत माता के नारा लगा रहे थे, वहीं जन गण के भाग्य विधाता बने हुए अधिनायकों के प्रति बेहद गम-ओ-गुस्से का इजहार कर रहे थे। देश के जिन पहरुओं पर आतंककारी ताकतों के खिलाफ हरसंभव कड़ी कार्रवाई करने की महती जिम्मेदारी है, वे इसकी जगह प्रत्येक आतंकी हमले के बाद अनुग्रह राशियों की राजनीति करने शहीदों के घर पहुंचकर किसी भी स्थिति को वोट बैंक बनाने के लिए पहुंच जाते हैं। बेहद क्षोभ की बात यह है कि पिछले कुछ सालों से ऐसी राजनीति से तंग आ चुकी जनता में इन दिनों नेताओं को लेकर जितना गुस्सा और आक्रोश है, वह इससे पहले शायद कभी नहीं देखा गया। इस वजह से देश की राजनीति में हड़कंप ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं आई। जब सैकड़ों लोगों की जान चली गई, हजारों अनाथ हो गए, तब जाकर भारत के भाग्य विधाताओं की अंतरात्मा ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए उत्प्रेरित किया। वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकारों ने जिस तरह जनता के आक्रोश पर प्रतिक्रिया जाहिर की है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।


राजनीति के इस विकृत रूप का ही परिणाम है कि मुंबई की घटना में अपने इकलौते पुत्र को खो चुके शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने केरल और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों से मिलने से इनकार कर दिया और शहीद हेमंत करकरे की विधवा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सहायता राशि की पेशकश को ठुकरा दिया। हर उम्र और हर वर्ग के लोगों में नेताओं के प्रति इतना अधिक गुस्सा है कि कई और नेता जनता के गुस्से का शिकार हो चुके हैं। मगर धैर्यपूर्वक जनता की भावनाओं को समझने की जगह नेतागण बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया में इसे कुछ मुट्ठी भर लोगों की पश्चिमपरस्ती और अराजकतावादी कदम ठहरा रहे हैं। जबकि मीडिया में आम लोगों की प्रतिक्रियाएं जिस तादाद में आ रही हैं, उससे स्पष्ट है कि देशभर की जनता सीधे-सीधे कड़ी और गंभीर कार्रवाई चाहती है, न कि अनंत काल तक इसके लिए सिर्फ आश्वासन। इस वक्त देश की जो स्थिति है, उसको बेहद अहम तरीके से जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की यह कविता अभिव्यक्त करती है :


अखबार का हॉकर सड़क पर चिल्ला रहा था
कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है
अब कड़े परिश्रम, अनुशासन और दूरदर्शिता के अलावा
और कोई रास्ता नहीं बचा है


एक रास्ता और है
कि सरकार इस जनता को भंग कर दे
और अपने लिए दूसरी जनता चुन ले।

रविवार, नवंबर 30, 2008

आतंकवाद की राजनीति के बाद अब राजनीतिक आतंकवाद


यह बेहद हैरतअंगेज है कि देश पर हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले से लहूलुहान मुंबई की मुक्ति के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने इसे छोटी-मोटी घटना बताया, वहीं वस्त्र पुरुष रूप में सरकार की किरकिरी करवा चुके केंद्रीय गृहमंत्री को आखिरकार इस्तीफा देना पड़ा। दूसरी ओर ऑपरेशन के समय राजनीति के बजाए एकजुटता की बात करने वाली भाजपा ने मुंबई हमले के दौरान दिल्ली चुनाव को ध्यान में रखकर अपने इश्तहारों में राजनीति की और बाद में तो खैर राजनीतिक बयानबाजी करते हुए वह प्रधानमंत्री के इस्तीफे पर उतर आई। दिल्ली में हुई आतंकी घटना के बाद कांग्रेस पार्टी के अंदर भी केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल की भूमिका को लेकर जबर्दस्त आलोचना शुरू हो गई थी और मुंबई हमले के बाद इसकी जिम्मेवारी से बचना उनके लिए संभव भी नहीं रह गया था। दूसरी ओर जिन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के.नारायणन ने दो साल पहले ही यह कहकर सबको चौंका दिया था कि आतंकवादी समुद्र के रास्ते देश पर बड़े हमले की योजना बना रहे हैं, के बावजूद खुफिया स्तर पर आखिर क्यों नहीं कोई कारगर कदम उठाया गया?


आतंकवाद से निपटने के मामले में सरकार की नीति को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि एक ऐसे नरम देश की बनने लगी है, जिसमें आतंकवाद से लड़ने का वह जज्बा और जुनून नहीं है जो अमेरिका और ब्रिटेन ने दिखाया है। दूसरी ओर बार-बार गृहमंत्री के नीरस और रटे-रटाए बयानों की वजह से लोगों में जो भयंकर जन आक्रोश पैदा हुआ है, उसने तमाम राजनीतिक दलों को इस वक्त सुरक्षात्मक मुद्रा में ला खड़ा किया है। इसलिए सत्ताधारी यूपीए सरकार में जब सहयोगी दलों ने भी शिवराज पार्टी की कार्यशैली को लेकर ऊंगली उठाना शुरू कर दिया, तो शायद कांग्रेस के पास दृढ़ता और राजनीतिक दूरदर्शिता दिखाने के लिए इस्तीफे की राजनीति के अलावा कोई और कारगर विकल्प नहीं बचा था। शिवराज पाटिल के इस्तीफे को कांग्रेस अपनी जिन परंपरा में देखने का प्रस्ताव कर रही है, दरअसल वह जिस महान परंपरा की बात कर रही है उतनी नैतिकता की बात करना शायद आज की राजनीति में बेमानी है। एक मामूली रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेकर जिस कांग्रेस पार्टी के निवर्तमान रेल मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया था, उसको इतने आतंकवादी हमलों के बाद जाकर इस्तीफे की परंपरा याद आई?


आदेश मिलने के पंद्रह मिनट बाद ही ऑपरेशन के लिए तैयार एनएसजी के कमांडो अफसरशाही की लेटलतीफी के कारण सुबह पांच बजे मुंबई पहुंच पाए और जब पहुंचे तो वहां उन्हें ऑपरेशन स्थल तक पहुंचाने के लिए न तो कोई वाहन था और न जरूरी चीजें। आपदा प्रबंधन के लिए बढ़-चढ़कर बात करने वाली सरकार की लचर व्यवस्था बार-बार उजागर होती रही है, मगर इसको पहले से क्यों नहीं दुरुस्त किया जाता है? आतंक के सदमे से निस्तब्ध जनता के मन में अनेक सवाल हैं और आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर हर राजनीतिक दल उन सवालों को भुनाने की कोशिश में है। नये गृहमंत्री पी.चिदंबरम को हालांकि पहले से गृह मंत्रालय का थोड़ा अनुभव है, लेकिन आतंक के विरुद्ध सरकार क्या रणनीति अपनाती है, लोगों के आत्मविश्वास को कैसे वापस लाती है इसके लेकर नये गृह मंत्री की कार्य-कुशलता को लेकर तमाम लोगों की निगाह उन पर लगी रहेगी।

शुक्रवार, नवंबर 28, 2008

मुंबई की नृशंस घटना पर कराची, पाकिस्तान से हफ़ीज़ चाचड़

पाकिस्तान के कराची शहर में बीबीसी हिंदी सेवा के रिपोर्टर हैं जनाब हफ़ीज़ चाचड़. उन्होंने आज दोपहर हमारे लिए यह लेख लिखकर भेजा है.
इटली से मेरे दोस्त अहमद रज़ा ने फोन कर कहा कि मुंबई में होने वाली अप्रिय घटना नहीं होनी चाहिए थी और जो कुछ हो रहा है, काफ़ी बुरा हो रहा है. उन्होंने मुझे बताया कि पूरी दुनिया के लोग यह सोच रहे हैं कि इसमें पाकिस्तान का हाथ है और इटली सहेत पूरे योरोप में रहने वाले पाकिस्तानी मूल के या पाकिस्तानी नागरिक अपने आप को दोषी महसूस कर रहे हैं. वे अपना परिचय देते समय पाकिस्तानी कहते हुए डर रहे हैं. उन्होंने यह कह कर फोन बंद कर दिया कि पाकिस्तान और भारत के बीच संबंधों पर मुंबई घटनाक्रम का नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
अहमद रज़ा-जैसे बहुत से पाक-भारत दोस्ती की भावना से प्रेरित पाकिस्तानी मुंबई में होनेवाली गोलीबारी और धमाकों से दुखी हैं और सब का यही विचार है कि आतंकवादी और अतिवादी ताक़तें दोनों देशों की दोस्ती पर आघात है. भारतीय समाचार पत्रों को पढ़ते समय लग रहा है कि मुंबई में हुए हमलों के बाद भारत में गुस्सा, दुख और हताशा दिख रही है और साथ ही झलक रही है सभी भारतीयों की आंखों से बेबसी कि कब तक वो ऐसे हमलों का सामना करते रहेंगे? जब वो 90 के दशक में हुए विस्फोटों को बुरी याद की तरह भुला चुके थे तो 2006 में रेल में हुए विस्फोटों ने मुंबई को एक बार फिर घायल कर दिया. वो ज़ख्म अभी भरे नहीं थे कि मुंबई में सबसे बड़ा 'सुनियोजित आतंकी हमला' हो गया.
इस हमले से व्यापक जन-धन के नुक़सान के साथ एक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा पर इतनी तगड़ी चोट हुई है कि भारतीयों का आक्रोश में हो जाना स्वाभाविक है. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मुझे आज एक निर्बल और शक्तिहीन लग रहा है. कुछ मुठ्ठी भर आतंकियों ने भारत के ख़ुफिया तंत्र को चकमा देकर मुंबई में डर और भ्य का माहौल पैदा कर दिया. स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा खौफनाक हमला तो आजादी के तुरंत बाद कश्मीर में कबायली आक्रमण के रूप में हुआ था. मुंबई में घंटों तक जिस तरह दहशत तारी रही उसकी तुलना बगदाद, काबुल या बेरूत आदि से की जाए तो ग़लत नहीं होगा.
दक्षिण एशिया में पाकिस्तानी जनता आतंकवाद और चरमपंथ से सब से अधिक प्रभावित हुई है और पाकिस्तानियों को आतंक की ओर धकेलने में उन की सरकार का ही हाथ रहा है. पाकिस्तान के अधिकतर बड़े शहर आत्मघाती हमलों, बम धमाकों और आतंकवादी गत्तिविधियों के साक्षी रहे हैं. सरकार ने अमेरिका की ओर से शुरु की गई आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अच्छी भूमिका तो निभाई है लेकिन देश के भीतर अपनी छवि को और ख़राब कर दिया है. मुंबई हमलों में पाकिस्तानी आतंकवादी लिप्त हैं यह केवल भारतीय नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लोग कह रहे हैं.
कुछ महीने पहले जब सैन्य शासक परवेज़ मुशर्रफ़ ने सत्ता को त्याग किया तो उस के तुंरत बाद पाकिस्तान प्रशासित कशमीर में जिहादी गुट फिर से सक्रीय हो गए जिन पर परवेज़ मुशर्रफ ने पांच साल पहले प्रतिबंध लगाया था. सरकार की ओर से इन जेहादी गुटों पर अभी भी प्रतिबंध है लेकिन पाकिस्तान प्रशसित कशमीर सहेत पूरे देश में सक्रीय हो रहे हैं. यही गुट राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी की इसेलिए तीखी आलोचना कर रहे हैं क्योंकि उन्हों ने भारत के साथ बहतर संबंध स्थापित करने की कोशिश की है.
पाकिस्तान में जब भी अवामी सरकार का गठन होता है तो भारत एक दम से दुशमन के रुप में सामने आता है और कशमीर मुद्दा गर्माता है. आप को याद हो गा कि 2006 में जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ की सरकार थी तो विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ती जारी कर कहा था कि पाकिस्तान ने कभी भी नहीं कहा कि कशमीर उस का अटूट अंग है. लेकिन अब जबकि यहाँ पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार है तो कुछ तत्व यह कह रहे हैं कि कशमीर तो पाकिस्तान का ही अटूट अंग है. आसिफ़ ज़रदारी के नेतृत्व वाली सरकार ने कई बार कहा है कि वह भारत के साथ अपने संबंधों को और मज़बूत करने के हर संभव प्रयास कर रही है.
पिछले कुछ महीनों से पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार और ख़ुफिया एजेंसी ईएसई के बीच घमासान युद्ध चल रहा है. ईएसई पीपुल्स पार्टी की सरकार से इसलिए भी नराज़ है कि उस ने भारत के साथ बहतर संबंध स्थापित करने की बात कही है. कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने जब ईएसई को गृह मंत्रालय के मातहत करने केलिए एक अधिसूचना जारी की थी तो उस ने सरकार को गिराने की धमकी दी थी. प्रधानमंत्री ने 24 घंटों के भीतर अधिसूचना वापस ले ली थी.
कुछ दिन पहले विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने ख़ुफिया एजेंसी ईएसई के राजनीतिक पाथ (Political Wing) को ख़त्म करने की घोषणा की थी जो चुनाव में धांधली और राजनेताओँ को ब्लैकमेल करने में लिप्त रहा है. विदेश मंत्री की घोषणा के थोड़े समय बाद एक वरिष्ट सैन्य अधिकारी ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है.
राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी देश के ख़ुफिया तंत्र पर अपना नियंत्रण चाहते हैं जो कि अभी सेना के पास है, इसलिए ईएसई और सरकार के बीच तनाव है. आसिफ ज़रदारी ने हिंदुस्तान टाईम्ज़ की शिखर सम्मेलन में सेना को उस समय करारा झटका दिया जब उन्हों ने कहा कि पाकिस्तान अपने प्रमाणु हथ्यारों का प्रयोग पहले नहीं करेगा. कुछ वरिष्ट सैन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति के इस ब्यान की कड़ी शब्दों में भर्त्सना की और एक ने यह भी कह दिया कि राष्ट्रपति ज़रदारी को इस विषय पर कोई जानकारी नहीं है. सेना को दूसरा झटका तब लग जब उन्हों अपनी पत्नी बेनज़ीर भुट्टो के शब्द दोहराए “There is a little bit of India in every Pakistani and a little bit of Pakistan in every Indian.” और फिर कहा था कि “I do not know whether it is the Indian or the Pakistani in me that is talking to you today.” अहमद रज़ा सहेत बहुत से पाकिस्तानियों ने भारत पाकिस्तान के संबंधों के इस नए युग का स्वागत किया और यदि कोई नराज़ हुए तो वह हैं जेहादी गुट.
मुंबई में आतंकियों ने भारत और पाकिस्तान की दोस्ती पर हमला किया है और राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी को संदेश दिया है कि वह भारत और पाकिस्तान की दोस्ती को किर्चुं में भिखेरने की शक्ति रखते हैं. मुंबई में आतंक का कब्जा हो जाने के बाद भले ही दोनों देशों के नेतृत्व आतंकवाद के खिलाफ कुछ कड़े शब्द कहे हों, लेकिन यथार्थ यह है कि पिछले साढ़े चार साल में दोनों देशों के मान-सम्मान से खिलवाड़ करने वाले आतंकी संगठनों का दमन करने से जानबूझकर बचा गया. एक सच्चाई यह भी है कि दोनों देशों ने कभी भी मन, वचन और कर्म से आतंकवाद से मिलजुलकर लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं प्रदर्शित की.
जब तक आतंकवाद का एक जुट हो कर मुक़ाबला न किया गया तो मुंबई जैसी घटनाएँ फिर होनी के संभावना है. आतंकवाद और चरमपंथ का एक जुट हो कर मुक़ाबला करने में ही दोनों देशों केलिए भलाई है. यही वह उपाय है जिससे दोनों जनताओँ के स्वाभिमान की रक्षा हो सकती है.

गुरुवार, नवंबर 27, 2008

भारत की छवि एक लुंजपुंज देश की बनती जा रही है

आतंकी हमले ने देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को एक बार फिर दहलाकर रख दिया है। संसद पर हुए हमले को छोड़ दें तो आतंकवादियों ने इतने व्यापक हमले अब तक नहीं किए थे। अब तक आतंकवादी सिलसिलेवार बम धमाके करते रहे हैं, लेकिन पहली बार उन्होंने होटलों और अस्पतालों में घुसकर स्वचालित हथियारों से गोलीबारी की है और लोगों को बंधक बनाया है। मुंबई में आतंकियों ने हमले भी कुछ अलग तरीके से किए हैं। बम धमाके करने के बाद उन्होंने कई जगहों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश की है। जिसके बाद कभी न थमने वाली मुंबई की रफ्तार दहशत के मारे थम-सा गया है। पिछले कई महीनों से देश ने जितने आतंकवादी हमले झेले हैं, उसके बाद सुरक्षा व्यवस्था को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि एक लुंजपुंज देश की बनती जा रही है। इसकी तस्दीक इस बात से भी होती है कि मुंबई की इन आतंकवादी घटनाओं के फौरन बाद इंग्लैंड की क्रिकेट टीम बीच में ही दौरा बीच में छोड़कर स्वदेश लौट रही है और भारत भ्रमण पर आने वाले विदेशी पर्यटक अपने कार्यक्रम को मुल्तवी करने लगे हैं।


मुंबई के पूरे घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो आतंकवादी होटलों में विदेशी मेहमानों के पासपोर्ट की तलाशी ले रहे थे और ब्रिटिश तथा अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना रहे थे। जिससे साबित होता है कि इन देशों की सुरक्षा व्यवस्था अब इतनी पुख्ता और सख्त है कि वहां किसी भी तरीके से आतंकी नृशंस घटनाओं को अंजाम देने में बेहद कठिनाई महसूस कर रहे हैं। इसलिए इन देशों के आम नागरिकों को आतंकवादी अब दूसरे देशों में निशाना बनाने लगे हैं। आतंकवादियों ने ताज और ओबेरॉय होटल को काफी सोच-समझकर निशाना बनाया है, क्योंकि इन होटलों में सैकड़ों विदेशी पर्यटक ठहरते हैं। इसलिए सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञों को यह कहना बिल्कुल सही है कि आतंकवादियों ने अनायास इन होटलों को निशाना नहीं बनाया। यह सब जान-बूझकर और काफी सोच-समझकर किया गया है। कुछ टीवी चैनलों को ईमेल भेजकर डेकन मुजाहिदीन नामक संगठन ने इन घटनाओं की जिम्मेदारी ली है, जिसका नाम इससे पहले कभी नहीं सुना गया। इसलिए आतंकवादियों की यह एक रणनीति भी हो सकती है, ताकि सही दिशा में चलने वाली जांच को गुमराह किया जा सके। आतंकी हमलों के बाद सरकार के रटे-रटाए जुमले सुन-सुनकर आम जनता यह मानने लगी है कि हुक्मरानों की नजर में आम लोगों की जान की कीमत कुछ खास नहीं है। इसलिए लगातार हो रही आतंकवादी घटनाओं के कारण देश के भीतर जन-आक्रोश बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आतंकवादी घटनाओं के बाद इससे निपटने के लिए जितने भी तरीकों पर चर्चा होती है, उसके बारे में अब तक के अनुभवों से यही दिख रहा है कि सारी कवायद शायद चर्चाओं तक ही सिमटकर रह जाता है। वक्त का यही तकाजा है कि आतंकवाद पर किसी भी तरह के सियासत को परे रखकर पूरा ध्यान गंभीरता से ठोस कार्रवाई पर केंद्रित किया जाए।

शुक्रवार, नवंबर 21, 2008

पूरे पाकिस्तान में 'निराला' की मिठाई और रामापीर का मेला...































कराची के बनारस चौक, सहारनपुर कालोनी, यू.पी. कालोनी-वहां की बोली-बानी, पहनावा और खान-पान से जरा भी नहीं लगता कि आप बनारस में नहीं हैं. विभाजन के इतने बरस के बाद भी सब कुछ जस के तस है. अपने यहां निराला कहते ही कवि महाप्राण निराला की याद आती है, मगर जिस तरह दिल्ली में नाथू स्वीट्स और अग्रवाल स्वीट्स की पूरी चेन है उसी तरह निराला नामक मिठाई की दुकान की पूरी चेन है-पूरे पाकिस्तान में. वहां के लोगों के मन में अंधविश्वास की हद तक यह बात पैठी हुई है कि बेहतर मिठाई तो सिर्फ हिंदू ही बना सकता है। इसलिए वहां मिठाई की दुकानों में सिंध के हिंदू कारीगरों की मांग बहुत रहती है। बहरहाल, यहां यह बताते चलें कि इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान में इस वक्त तकरीबन पच्चीस लाख से ऊपर हिंदुओं की संख्या है और रामापीर का जो मेला सिंध में लगता है, उसमें बढ़-चढ़कर हिंदू भाग लेते हैं. रामापीर के मेले में असल में दलित वर्ग के हिंदुओं की भागीदारी ज्यादा रहती है. उच्च और धनी तबके के लोग वहां से पहले ही भाग आए या दंगों में मारे गए या मार दिए गए. बचे हैं दलित वर्ग के अधिकांश लोग. उनकी कहानियां हम विस्तार से आपको बताते रहेंगे. फिलहाल आपको दिखा रहे हैं रामापीर मेले की कुछ तस्वीरें....

बुधवार, नवंबर 12, 2008

कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?


14 दिसंबर, 1980 के दिनमान के अंक में एक बड़े अश्वेत कवि लैग्सटन ह्यूज की कविता छपी थी, सपना। यह महत्वपूर्ण कविता हमें बेहद संवेदनशील और खुद्दार इनसान, कवि हृदय भाई यादवेन्द्र जी के सौजन्य से मिली हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहूं, तो ऐसे कामों के लिए धन्यवाद देने को वे एक बदमाशी समझते हैं, इसलिए इस कविता को पेश करते हुए उन्हें धन्यवाद देने की गुस्ताखी से बचना चाहता हूं!



सपना

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लैग्सटन ह्यूज



एक सपने को टालते जाने से क्या होता है?

क्या वह मुरझा जाता है तेज धूप में?

या पक जाता है जख्म-सा

और फिर रिसा करता है नासूर-सा?

या गंधाने लगता है सड़े हुए गोश्त-सा?

या कि पगी हुई मिठाई की तरह

उस पर जम जाता है चाशनी की पपड़ी?


मुमकिन है वह सिर्फ झुक जाता हो

भारी बोझे जैसा

कहीं वह फट तो नहीं पड़ता बिन बताए बारूद-सा?

सोमवार, नवंबर 10, 2008

अश्वेत लोगों की राष्ट्रीय तरक्की


बराक ओबामा की विक्ट्री स्पीच सुनने के बाद अपने अखबार दैनिक भास्कर के लिए इस कविता के एक अंश का अनुवाद करने को जब कहा गया, तो मैं पूरी कविता ही अनूदित करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. पेश है ब्लाग की दुनिया के पाठकों के लिए यह कविता-



साठ के दशक के दौरान हमने हल्ला मचाया हमें न्याय दो
हमारे हाथों में तख्तियां थी और होठों पर सवाल
सवाल ऐसे कि आखिर कब तक अमेरिकी सपने से बाहर रहेंगे हम?

बसों और व्यवसायों का बॉयकाट करते हुए हम
धरनों और प्रदर्शनों की हद तक गए
दुश्मनों के दुश्मन और दोस्तों के दोस्त
नीग्रो जाति अचानक अपने जेहनी उनींदेपन से जगी
देश भी साथ ही आगे बढ़ा और जनता ने गाया-
हम होंगे कामयाब लेकिन...कब?
तबसे क्या कुछ बदला है?


अभी कौन हमारा विरोध कर रहा है?
हमारे तमाम लोग तकलीफों में जीते हैं
ताउम्रअगर आप उन्हें कहें कि यीशु प्यार करते हैं
तुम्हें तो वे नाराज होकर कहेंगे कि मत लो उनका नाम
हमारे नौजवान अपनी मांओं के बटुए छीनते हैं
बलात्कार, लूट और गोलीबारी में बच्चों को मारते,
भाइयों को मारते हुए कौन हमें रोक रहा है अब?
अपनी मानवीय गरिमा से हमें कौन गिरा रहा है?


हजारों योग्य लोग सड़कों के उदास किनारों पर पड़े हैं
पेड़ों से लटकने की बजाय...और राष्ट्र आगे बढ़ता रहता है
लोग गाना गाते रहते हैं-
हम होंगे कामयाब-लेकिन कब?


पढ़े-लिखों और अभिजनों के पास समय नहीं है
इतने व्यस्त हैं वे अपनी निजी योजनाओं में
कि वे मदद का हाथ नहीं बढ़ा सकते


हममें से ज्यादातर को कैसी जिंदगी मिली?
क्या कुछ मूल्यवान छूटा हमसे?
क्या ढेरों पैसे और अच्छा वक्त हो तो
आप और मैं बेहतर व्यक्ति हो जाते हैं?
या यह हमारा अपना नकचढ़ा शासक वर्ग है
क्या हम तेजी से अपनी जमीन खोते जा रहे हैं?


माना हमने तरक्की की है और यह निश्चय ही महज संयोग नहीं
लेकिन कुछ अर्थों में वह भी हमारी दुखती रग हो गई है
असली तरक्की, मतलबपरस्ती और सनक से बाधित
हम उनकी तरह होने की कोशिश करते हैं


आततायी जब हमारी कसौटियां तय करता है
तो हम सिर्फ नकलची बनकर रह जाते हैं
लिहाजा देश को आगे बढ़ने दें और लोगों को गीत गाने दें


आर्थिक ताकत का मतलब तभी है
जब हम अपने ही भाइयों के चेहरे पर न थूकें
आततायी की पूजा करने का मतलब है
अंतत: उसकी नकल करना


अगर यह रवैया अभी नहीं बदलता है
मेरे भाइयो, मेरी बहनो
तो मुझे बताइये आखिर कब बदलेगा यह?

-लेडी डी26

शुक्रवार, अक्टूबर 10, 2008

तो क्या यही जिंदगी है?


दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिसमें ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है.

(विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी 'लस्ट फ़ॉर लाइफ़' से)



ठीक यही बात मेरे दिमाग में कौंध रही है कि जीने के लिए एक आदमी को आखिर कितना पैसा चाहिए? हां, जीवन हर आदमी के जीने का तरीका अलग होगा, जीवन-शैली अलग होगी और सोचने-समझने का तरीका अलग-अलग होगा। संभव है कि कोई बेहद कम साधनों में ही खुशी-खुशी जीवन जी रहा हो, परिवार के साथ, दोस्तों के साथ मजे में हो, तो कोई अरबों रूपये पाकर भी लगातार नाखुश हो. दिन-रात हाय पैसा...हाय पैसा में लगा हुआ हो कमाने के लिए पचास तिकड़में भिड़ा रहा हो...जीवन से, अपने आप से असंतुष्ट. ऐसे में फिर वही सवाल आदिम सवाल कि बुनियादी जरूरतें जब बेहतर तरीके से पूरी हो जाती हों तब और...और कितना सही है?

अपनी चाहत के लिए वक्त न हो, अपने तरीके से जीवन नहीं जी पा रहे हों, इच्छा और दिलचस्पी के विरूद्ध की चाकरी में दिन-रात लगे हों और काम के बाद का वक्त नींद के अलावा परिवार तक को न दे पा रहे हों तो फिर अपनी ही लाश का खुद सवार आदमी ही तो है.

युधिष्ठिर ने सुख के सात कारक तत्व बताए हैं वह एक भी तो नहीं है जीवन के इस ढर्रे में. बकौल एक शायर-

न मरने पर ही काबू न जीने का ही इम्कां है
हकीकत में इन्हीं मजबूरियों का नाम इंसां है.

तो क्या यही जिंदगी है? इसी तरह गीली लकड़ी की तरह चिट-चिट करके खतम हो जाना ही हमारी नियति है??

गुरुवार, अक्टूबर 09, 2008

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम

अहमद फराज साहब से इस्लाम-आबाद (हमलोग इस्लामाबाद कहते हैं, लेकिन पाकिस्तान में इस शहर का उच्चारण इसी तरह किया जाता है, इस्लाम-आबाद, एबट-आबाद आदि) में अंतिम बार इसी साल मई में मिला था. इस्लामाबाद बेहद शांत शहर है. पिछले आतंकवादी घटनाओं को छोड़ दें तो उस शहर में पत्ते खड़कने की आवाज भी सुनाई देती है. रोड जाम तो खैर वहां कभी लग ही नहीं सकता. तो साहिबो, इसी शांत शहर में फराज साहब ने अपना घर बनवाया और एक पांव हमेशा दुनिया के लिए उठाए रखने वाले फराज साहब का इंतकाल इसी शहर में हुआ. बीबीसी पंजाब के मेरे दोस्त अली सलमान जाफरी का मानना है कि अब पाकिस्तान में फराज साहब की कद का एक भी शायर नहीं है.


रावल डैम पर बहुत सुकून से मैं फराज साहब की बेहद मशहूर गजल मेंहदी हसन साहब की आवाज में सुन रहा था. कई बार सुन चुका हूं...पर दिल है कि कभी भरता ही नहीं....तो लीजिए आपके लिए लयबद्ध तो नहीं, शब्दबद्ध गजल पेश कर रहा हूं.....


रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ए-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फा है तो ज़माने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिंदार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

इक उम्र से हूं लज्जत-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुशफहम को है तुझसे उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ

बुधवार, अक्टूबर 08, 2008

महमूद दरवेश की डायरी के अंश की अगली कड़ी...

नीरो
जब लेबनान जल रहा था तब नीरो के मन में क्या उथल-पुथल चल रही थी? नशे से उसकी आंखें मचल रही थी...और चाल उसकी थी जैसे नर्तक कोई नशे में धुत आया हो बारात में.
ये पागलपन...मेरा पागलपन...ये सब बड़ा है किसी ज्ञान से...आग लगा फूंक दूं उन सब को जो न माने मेरा हुक्म...और बच्चे, उन पर भी वैसी ही लागू होगा मेरा अनुशासन...उन्हें भी मानने होंगे हमारे तौर-तरीके...जैसे, उन्हें जब्त करनी पड़ेंगी अपनी चीखें जब मैं गुनगुना रहा हूं अपने पसंद का कोई गीत...मेरे तान के सामने कोई कैसे चीखने की जुर्रत कर सकता है?

और क्या चल रही थी उथल-पुथल नीरो के नाम में-इस बार जब धू-धू कर जल रहा है इराक? इतिहास के वन में वह चाहता है स्थापित कर देना अपनी स्मृतियों के शिलालेख...एक से एक दमकते...जन नायकों के संहारक के तौर पर।

मेरे फरमान माने जाएंगे आज से सीधे खुदा के फरमान...अमरत्व की तमाम जड़ी-बूटियां..यही तो उगती हैं मेरे पिछबाड़े....और इस माहौल में तुम बात करते हो कविता की? आखिर ये कविता है कौन सी बला?

और क्या-क्या उथल-पुथल चल रही है नीरो के मन में-फिलिस्तीन को धधकते हुए देखकर? वे अभिभूत हैं कि करते रहें लोग सुनकर दांतों तले उंगली...पर पैंगंबरों की फेहरिस्त में शामिल कर लिया गया है उसका नाम भी। खुदा ने उसे खुद ही नियुक्त किया है कत्ल-ए-आम का महकमा देखनेवाला पैंगंबर, जिसे यह भी अधिकार दिया गया है कि पवित्र ग्रंथों में पाई जानेवाली गलतियों को करे, चाहे जिस भी तरह.

खुदा मुझसे भी करता है अक्सर बातें...कई-कई बार

और नीरो के मन में क्या-क्या चलती रहती है उथल-पुथल जब खूंखार लपटों से घिर जाती है पूरी सृष्टि?

मैं एक दिन..जब चाहूंगा...पुनर्विजित यह सृष्टि.
कैमरों को वह हुक्म देता है हुक्म कि अब बंद कर दे वह एक भी फोटो खींचना...इस बेहद लंबी अमेरिकी फिल्म के खतम होते-होते कहीं किसी को पता न चल जाए कि उसकी उंगलियों से ही सही
संचित हो रही है महाविनाश की महाविनाशकारी जलवा.
(शेष आगामी अंकों में जारी....)

अनुवाद एवं चयन-यादवेन्द्र

बुधवार, अक्टूबर 01, 2008

महान कवि महमूद दरवेश की डायरी के कुछ दिलचस्प अंश

दुश्मन
एक महीना पुरानी बात है...या शायद एक बरस पुरानी हो. लगता है ये हमेशा कि बात हो और मैं वहां से कहीं और गया ही न हूं. पिछली सदी के बयासीवें साल सब कुछ वैसा ही घटा जैसे हू-ब-हू आज हमारी आंखों के सामने घट रहा है. हमें चारों ओर से घेर लिया गया था, हमारा कत्ल-ए-आम किया जा रहा था और हम थे कि इस झुलसते नर्क में भी प्रतिरोध करने से बाज नहीं आ रहे थे. शहीद और मारे गए लोग एकदम अलहदा दिखते हैं, एक-दूसरे में कोई समानता नहीं होती. हर किसी का अलग होता है धड़, चेहरा, आंखें, नाम और उम्र. पर हत्यारे तो सबके सब एक से होते हैं...बिल्कुल हमशक्ल. वे धातु की बनी मशीनों के आसपास पसर जाते हैं...उन्हें बस दबाना होता है एक बटन ही तो. कत्ल होते ही वे फौरन छिटक लेते हैं वहां से -वे सब हमें देख लेते हैं, पर हम उन्हें कहां देख पाते हैं. ऐसा इसलिए नहीं कि वे कोई अदृश्य भूत-प्रेत होते हैं, न आंखें और न ही कोई खास उम्र...नाम भी नहीं कोई. वे सब...उन सभी ने अपने लिए बस एक ही नाम रखा हुआ है-दुश्मन.
शेष आगामी पोस्ट्स में जारी...
अनुवाद और चयन- यादवेंद्र

सोमवार, सितंबर 29, 2008

असफल राष्ट्रों के बीच भारत

पिछले कुछ सालों में जिस अनुपात में दक्षिण एशियाई देशों में राजनीतिक अस्थिरता, आतंकवाद और विध्वंसक गतिविधियां बढ़ी हैं, उसकी तह में जाने पर जो तात्कालिक और स्थानीय किस्म के कारण दिखाई देते हैं, दरअसल उसके पीछे ग्लोबल दुनिया की बड़ी-बड़ी वजहें हैं। अफगानिस्तान से खदेड़े जाने के बाद तालिबान और अल कायदा के लड़ाके जिस तरह पाकिस्तान के कई हिस्सों में अपने आप को मजबूत करके कट्टरपंथी फरमान जारी करना शुरू कर दिया है, वह एक दिन में मुमकिन नहीं हुआ है। उसकी पृष्ठभूमि शीतयुद्ध के जमाने से ही बननी शुरू हुई थी और अब वह अपना वहशी रूप उसी महाशक्ति को दिखाने लगा है, जिसने उसको कभी पैदा किया था। वह चाहे आतंक का पर्याय बन चुका अल कायदा सरगना ओसाम बिन लादेन हो या तालिबान के कई खुदमुख्तार नेता। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पहले तो इन्हें एक से एक आधुनिक हथियार और बेपहनाह डालर बांटे गए, फिर जब काम निकल गया तब इन्हें इनके हाल पर छोड़कर यह मान लिया गया कि खेल अब खत्म हो चुका है। दूसरी ओर राजनीतिक स्तर पर आर्थिक और सैनिक मदद के बहाने अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसी सरकारों को बढ़ावा दिया गया, जो अपने देश की जनता के प्रति जिम्मेदार होने के बजाए इन ताकतों के प्रति ज्यादा वफादारी दिखाए। इस वजह से जिन देशों में यह सब लोकतंत्र के आवरण में संभव नहीं था, वहां-वहां सैनिक तानाशाहों को आगे बढ़ाया गया और वे सैनिक तानाशाह अपनी जनता की जान की कीमत पर इन ताकतों के प्रति वफादारी दिखाने में तत्पर रही। यह स्थिति सिर्फ दक्षिण एशिया के ही कुछ देशों की नहीं हुई, कई अफ्रीकी देशों में भी बिल्कुल यही तरीका अपनाया गया, जिसके विरोध की कीमत नाईजीरियाई कवि केन सारो वीवा को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी और साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुके कवि वोले शोयिंका को हथियार उठाने पर मजबूर होना पड़ा। बर्मा में सैनिक तानाशाही का वर्षों से कोपभाजन बनी हुई आंग सांग सू ची के लंबे संघर्षों के बावजूद वहां लोकतंत्र की बहाली न होना, सिर्फ सेना की मजबूती नहीं है, बल्कि ऐसी सरकारों को अंतरराष्ट्रीय मदद और मान्यता देनेवाली ताकतों का इसमें बड़ा भारी योगदान है।
यह महज संयोग भर नहीं हैं कि जानी-मानी पत्रिका फॉरेन पालिसी तथा फंड फॉर पीस नामक संगठन ने दुनिया भर के असफल राष्ट्रों की जो सूची जारी की है, उसमें वही देश सबसे ऊपर हैं जिनके ऊपर हमेशा अमेरिका का आशीर्वादी हाथ सबसे ऊपर रहता था। जिन सद्दाम हुसैन और उनकी बाथ पार्टी को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक समय अमेरिका ने हर तरह से मदद की, उसने जब बढ़े हुए मनोबल की वजह से कुवैत पर चढ़ाई करने की गलती की, तो अमेरिका उसी इराक और सद्दाम हुसैन का सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा। कथित विध्वंसक हथियार रखने (जो पूरी रिपोर्ट ही बाद में फर्जी निकली) की रिपोर्ट को आधार बनाकर और लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर इराक को नेस्तनाबूद कर दिया गया। अमेरिका की तमाम कोशिशों और कथित पुननिर्माण की योजना के बाद भी आज इराक प्रतिदिन बम विस्फोट, गरीबी, अशांति झेलने के लिए अभिशप्त है और सूडान के बाद असफल राष्ट्रों की सूची में दूसरे नंबर पर है। 9/11 के तुरंत बाद जार्ज बुश ने हुंकार भरी थी कि मुझे जिंदा या मुर्दा ओसामा चाहिए। फिर ओसामा को ढूंढने के नाम पर जिस तरह अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई की गई, हालांकि वह लड़ाई वहां अभी तक जारी है, लेकिन अफगानिस्तान की स्थिति मध्य युग के किसी देश जैसी हो गई है। पाकिस्तान ने आतंकवाद से लड़ने के नाम पर जिस तरह अमेरिका के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर चल रहा था, वह पाकिस्तान आज खुद आतंकवाद से सबसे ज्यादा पीडि़त है। अल्लाह, आर्मी और अमेरिका का पूरा समर्थन होने का दावा करने वाले सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ कट्टरपंथियों को धार्मिक नेताओं की आंख की किरकिरी इन वजहों से भी बने कि उन्होंने आतंकवाद की जड़ को नष्ट करने के लिए काफी प्रयास किया। वह कितना हो पाया और कितना नहीं हो पाया, इस पर बहस की जा सकती है, मगर मुशरüफ ने प्रगतिशील ताकतों को बढ़ावा देने और कट्टरपंथियों को दबाने की काफी कोशिश की। इसी कड़ी में इस्लामाबाद की लाल मस्जिद की घटना भी है, जिसमें कट्टरपंथियों के खिलाफ कमांडो कार्रवाई करने के बाद से उनका बुरा वक्त शुरू हो गया। आज पाकिस्तान में राष्ट्रपति की कुर्सी पर मुशर्रफ नहीं हैं और लाल मस्जिद को भी अब सफेद रंग से रंगकर उसकी पहचान ही मिटा दी गई है। असफल राष्ट्रों की जारी सूची का महत्व भारत के लिए न सिर्फ कूटनीतिक और रणनीतिक कारणों से बल्कि यह चिंताजनक भी है। क्योंकि पड़ोसियों की स्थिति में सुधार होने के बावजूद भारत एक-एक करके असफल राष्ट्रों से घिरता जा रहा है। पड़ोस में जब आग लगी हो और अपने देश के अंदर भी राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण भड़कती हुई चिंगारियों को बुझाने और उसके कारणों को मिटाने की जरूरत हो, तब इस पर गंभीरता से विचार करना और भी जरूरी हो जाता है। असफल राष्ट्रों की सूची दरअसल विभिन्न राष्ट्रों राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य और सामाजिक मानदंडों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। इस सूची का ये अर्थ लगाया जाता है कि इन राष्ट्रों की स्थिति बदतर है और किसी भी दिन बिल्कुल असफल हो सकते हैं। इस सूची के अनुसार पहले नंबर पर सूडान है जहां पिछले दो दशक से गृहयुद्ध जैसी स्थिति है और हजारों लोग वहां मारे जा चुके हैं, जबकि दूसरे नंबर पर इराक है, जहां नील नदी खून और लाश नदी के रूप में बदल चुकी है। यह सूची भारत के लिए गंभीर चिंतन का विषय इस वजह से भी है कि अफगानिस्तान इस सूची में आठवें स्थान पर है और पाकिस्तान बारहवें पर। जबकि भारत का एकदम पड़ोसी देश बांग्लादेश इस सूची में सोलहवें स्थान पर है और बर्मा चौदहवें स्थान पर। असफल राष्ट्रों की सूची में नेपाल और श्रीलंका भी है, लेकिन नेपाल में फिलहाल स्थिति सामान्य है और वहां निर्वाचित सरकार अब कामकाज देख रही है, वहीं श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों का संघर्ष आज भी लगातार जारी है।
अल कायदा के संजाल को ध्वस्त करने के लिए अमेरिका ने जो अभियान शुरू किया था, वह अभी खत्म नहीं हुआ है और अल कायदा लगातार अपना केंद्र बदल रहा है। ऐसे में इसके मजबूत संजाल से निपटने के लिए इन असफल राष्ट्रों के कथित सरकारों के पास न कोई उपाय है और न कारगर योजना। इसलिए साउथ ब्लाक में बैठे भारतीय विदेश नीति के नियंताओं को पड़ोसी देशों से संबंधों के मामले में बेहद सतर्क और संवेदनशील रुख अख्तियार करना पड़ेगा।

रविवार, सितंबर 28, 2008

वह क्या सब देख पाते हैं?

यह आवाज अब हमें कैसेट या सी.डी. में कैद म्यूजिक सिस्टम सुनाएगी. जिनकी आवाज में यह गीत यादगार बना, वह आवाज अब हमारे बीच नहीं है. महेंद्र कपूर नहीं रहे. नहीं रहीं प्रभा खेतान. इसी हफ्ते वे भी चली गईं. उनके लेखन के मुरीदों में से एक मैं भी हूं. लोग चुपचाप चले जा रहे हैं, कभी लौटकर न आने वाले सफर पर. हम जो देखते हैं, वह क्या सब देख पाते हैं?

शुक्रवार, अगस्त 29, 2008

क्या यही तो नहीं वह घड़ी?


बिहार में आई भीषण बाढ़ में बहुत कुछ बह गया...गरीबों का घर-द्वार, अन्न-धन सब कोसी की भेंट चढ़ गया और अमीरों का दीन-ओ-ईमान पूरी तरह बह गया है. मल्लाह सूखे और महफूज जगह तक पहुंचाने की फीस छह हजार रुपये मांग रहे हैं...दूध वाले एक लीटर दूध की कीमत डेढ़ सौ रूपये मांगते हैं...तीन रूपये के बिस्कुट की कीमत पच्चीस से तीस रूपये मांगी जा रही है...गुड़ सौ रूपये किलो में भी नदारद है...भूख से बिलबिलाते बच्चे भूख मिटाने के लिए बाढ़ का पानी पीकर गुजारा कर रहे हैं...कुछ मर गए, बहुत मरणासन्न हैं...ऊपर के लोग ऊपर से आए और बाढ़-दर्शन करके चले गए...हेलीकॉप्टर आकर न जाने किस ब्लैक होल में पैकेट गिरा जाते हैं कि वह किसी को नहीं मिल पा रहा है...सुना है गिद्ध धीरे-धीरे खतम हो रहे हैं...पर अब कुछ बिहार के इन इलाकों में अचानक उतर आए हैं...अफसर और बाहरी लोग पीड़ित महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं, रोटी के बदले देह मांग रहे हैं और जो देह बचा हुआ है उस देह को पिछले एक सप्ताह से भोजन और पानी नहीं मिला है...नींद तो खैर बहुत बड़ी नेमत है....लोगों ने कथावाचकों से महाप्रलय की कहानी सुनी है और उन्हें इस वक्त पता चल रहा है कि क्या यही तो नहीं वह घड़ी?


लोग तुलसीदास की काव्य-पंक्ति की तरह लोगों से पूछते हैं-कहे लोग एक-एकन सौं कहां जाई का करी- सवाल सबके पास है, पर इस बाढ़ में जवाब भी किसके पास है? सब कुछ बह गया...गया सभी कुछ गया...!

गुरुवार, अगस्त 28, 2008

भारत सरकार का रवैया और बिहार में महाप्रलय


इतने दिनों से जब बिहार के लोग भारत सरकार पर यह आरोप लगाते थे कि केन्द्र सरकार ने सब दिन बिहार को एक कालोनी की तरह सिर्फ इस्तेमाल किया है, तो मुझे इसमें तात्कालिक आवेश और राजनीति नजर आती थी, लेकिन अब जब बिहार बाढ़ के रूप में महाप्रलय को झेल रहा तो भारत सरकार और इस देश के ब्यूरोक्रेसी के बर्ताव से इसकी साफ-साफ पुष्टि हो रही है। संभवतः सच्चिदानंद सिन्हा की किताब है-'इंटरनल कोलोनी'-जिसमें तमाम आंकड़े और सरकारी आदेशों को आधार बनाकर उन्होंने साबित किया है कि भारत सरकार शुरु से ही बिहार को भारतीय गणराज्य का एक अवैध संतान मानती आ रही है। एकीकृत बिहार की धरती के गर्भ से भारत सरकार खनिज पदार्थ निकालती रही, सस्ते श्रम का इस्तेमाल करती रही और बिहारियों को एक 'टूल' से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा। कोयला निकलता था धनबाद में और हेड क्वार्टर बनाया गया कोलकाता में। क्यों भई मुख्यालय बिहार में नहीं बन सकता था? कोलकाता में रेलवे का दो-दो क्षेत्रीय कार्यालय है, एक कार्यालय हाजीपुर में बना तो उसके लिए बंगाल के हर राजनीतिक दल ने आसमान सिर पर उठा लिया। बी.बी. मिश्रा ने अपनी किताब- इंडियन मिडिल क्लास में लिखा है कि 1828 में बिहार के 40 न्यायिक मजिस्ट्रेट में से 36 बंगाली थे और वे अपने को किसी अंग्रेज अफसर से कम नहीं समझते थे। इसलिए बंगाल से बिहार को अलग करो की मांग 1880 में पूरे जोर-शोर से उठी। 'बिहार बंधु' नाम की पत्रिका निकली और यही बिहार का नवजागरण था।

खैर, यह तो हुई इतिहास की बातें। अभी जब पूरा उत्तरी बिहार बाढ़ के महाप्रलय का सामना कर रहा है, तब भारत सरकार जम्मू काश्मीर के मसले पर विचार करने में मगन है, बाकी कामों में व्यस्त है, लेकिन इस देश के प्रधानमंत्री को 30 लाख लोगों की जान-माल की कोई चिंता नहीं है। अभी एक हफ्ते पहले जब पंजाब में बाढ़ आई तो फौरन तमाम राज्य में सेना को लगा दिया गया। हजारों करोड़ की सहायता दी गई, लेकिन बिहार के लोग जिससे भी अपनी गुहार लगाते हैं वह तमाम आकुल पुकार किसी ब्लैक होल में जाकर खो जाती है। यूँ तो बिहार के 15 ज़िलों में बाढ़ है लेकिन सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा ज़िलों में बाढ़ की स्थिति बहुत गंभीर है.इस बाढ़ से 20 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोग बेघरबार हो गए हैं. नौ और मौतों की ख़बर के बाद वहाँ बाढ़ से मरने वालों की संख्या 55 तक पहुँच गई है. धर्मभीरू लोग कोसी नदी से ही प्रार्थना कर रहे हैं कि वह गरीबों पर रहम करे। जो ईश्वर को मानते हैं वे और जो नहीं मानते उनको भी फिलहाल इससे बेहतर राजनीति का और कोई अवसर दिखाई नहीं दे रहा है।

शुक्रवार, अगस्त 22, 2008

क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?-महमूद दरवेश

फिलिस्तीन की मुक्ति का संदेश पूरी दुनिया में कविताओं के माध्यम से पहुंचानेवाले प्रसिद्ध कवि महमूद दरवेश, पाब्लो नेरुदा और नाजिम हिकमत की तरह संघर्षशील जनता के प्रतीक बन गए थे। 9 अगस्त, 2008 को उनका निधन हो गया। यहां प्रस्तुत है उनकी एक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण कविता जो 1967 के अरब-इजरायल युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई थी-इजरायली सेना में लड़े एक मित्र से कवि का यह संवाद इस राजनैतिक समस्या के बारे में बेबाकी से बहुत कह देती है। इस कविता की प्रस्तुति व अनुवाद हमारे लिए किया है, बेहद संवेदनशील इनसान, कवि हृदय श्री यादवेन्द्र जी ने।

एक सैनिक देखता है सपने में सफेद ट्यूलिप

वह सपने में देखता है सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली
और शाम को खिले-खिले प्रेमिका के वक्ष
उड़ती हुई आती है चिड़िया उसके सपने में
और बताती है वह नींबू के फूलों के बारे में


बौद्धिकों-सा गंभीर नहीं होता वह कभी
सपनों की बातें करते हुए जैसी भी उसे दिखती है चीजें
और लगती है गंध
वह समझ लेता है उन्हें उसी सरलता से

बताया उसने
मातृभूमि उसके लिए है
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस लौट आने की तलब

और यह जमीन है?
कहा उसने-मैं क्या जानूं इस जमीन को...
क्या करूं जब मेरी धमनियों और शरीर में इसकी वैसी अनुभूति नहीं आती
बताई जाती है कविताओं में जैसी
अनायास लगा मुझे जैसे मैं देखता रहा हूं जमीन को वैसे ही
जैसे कोई देखे किराने की दुकान
कोई सड़क
या फिर कोई अखबार

पूछा मैंने
पर क्या इस जमीन को तुम प्यार नहीं करते?
मेरे लिए जमीन तो है एक पिकनिक
शराब का एक गिलास
एक प्रेम-संबंध....

क्या इस जमीन के लिए कुर्बान कर सकते हो अपनी जान?
हरगिज नहीं
इस जमीन से मेरा जुड़ाव आसमान में संक्षिप्त उड़ान भर लेने
या जोशीला भाषण दे देने भर जैसा है बस
बाकी और कुछ नहीं

मुझे पढ़ाया गया कि इससे प्यार करो
पर दिल का नाता जुड़ नहीं पाया
मुझे तो मालूम ही नहीं कहां हैं इसकी जड़े और शाखाएं
या कैसी होती है इस पर उगी हुई दूब की गंध?
और इसके लिए कितना है तुम्हारा प्यार?
क्या वह भी वैसे ही दहकता है
जैसे दहकता है सूरज
और प्रज्ज्वलित होती हैं आकांक्षाएं?

उसने मेरी आंखों में आंखें डालकर देखा और बोलाः
मैं इसे प्यार करता हूं अपनी बंदूक की मार्फत
वैसे ही जैसे मिल जाए अतीत के कचरे के ढेर में कोई असबाब
और प्रकट हो जाए गूंगी-बहरी प्रतिमा उसमें से
पता ही न चल पाए क्या है इसका अभिप्राय और काल?

फिर बताने लगा वह
विदा के पलों के बारे में कि कैसे मुंह बंद किए हुए ही बिलख पड़ी उसकी मां युद्ध में भेजते हुए
कैसे उनकी कातर आवाज ने फिर से जगा दी

उसके तन-बदन में उम्मीद की एक नई किरण
लगा कि युद्ध मंत्रालय के ऊपर
शांति कपोतों के उड़ने के दिन फिर से लौट आएंगे जल्द ही अब

उसे तलब हुई सिगरेट की
कहा जैसे रक्त के कुंड से बचकर निकल आया हो-
मैंने सपने देखे थे सफेद ट्यूलिप के
जैतून की डालियों के
नींबू के पौधे पर भोर को आगोश में लेने को
आतुर बैठी चिड़िया के
बताओ, पर तुमने सचमुच देखा क्या?

क्या देखता? वही तो, जो किया मैंने....
खून से सनी गठरियां रेत में लुढ़कती जाती देखीं
और उन पर दाग दीं दनादन गोलियां-सीने में...पेट में....
कितनों को मारा?

मुश्किल है बताना...पर मेडल मुझे एक ही मिला
सुनकर पीड़ा हुई....पूछा
मैंनेः जिन्हें मारा उनमें से किसी के बारे में बताओ

अपनी सीट से वह थोड़ा हिला-डुला
तहाकर रखे गए अखबार को उलटा-पलटा
फिर बोला....जैसे सुना रहा हो कोई गीतः चट्टानों पर वह धराशायी हो गया था
बिल्कुल जैसे ढह जाता है कोई तंबू

सीने पर न तो था उसके कोई मेडल
न ही लगता था वह कोई प्रशिक्षित योद्धा
संभव है किसान रहा हो या मजदूर
या फिर फेरीवाला ही

बिल्कुल तंबू की तरह वह गिरा जमीन पर
और वहीं हो गया ढेर....
बांहें फैलाए जैसे हो नदी का कोई सूखा पड़ा पाट
मैंने उसकी जेब खंगाली
शायद मिल जाए कहीं नामोनिशान
वहां मिले महज दो फोटो-
एक उसकी बीवी लगती थी
दूसरी बेटी हो शायद

दुःख हुआ तुम्हें?
मैंने जानना चाहा
बीच में ही रोककर वह बोल पड़ाः
महमूद, मेरे दोस्त दुःख तो वैसा ही सफेद कबूतर है जो
लड़ाई के मैदान के आसपास फटकता भी नहीं
सैनिकों के लिए तो पाप है
दुःख की अनुभूति भी...पाप

मेरी मौजूदगी वहां थी
विध्वंस और मौत उगलने वाली मशीन बनकर
जिससे सारे आकाश को घेर लें
काले खौफनाक परिंदे ही परिंदे
फिर उसने बताया अपने पहले प्रेम के बारे में
और फिर सुदूर गलियों के बारे में इस युद्ध पर रेडियो और प्रेस में आती
प्रतिक्रियाओं के बारे में

उसे खांसी आई तो रूमाल से ढांप लिया उसने मुंह-
मैंने फिर पूछाः
क्या फिर हम कभी मिल पाएंगे दोबारा?
क्यों नहीं, पर यहां नहीं
कहीं दूर, किसी और शहर में दोस्त

चौथी बार उसको गिलाल भरते हुए मैंने पूछ लिया मजाक में-
क्या कहीं और खो गए?
अपनी मातृभूमि के बारे में कुछ तो कहो-
मुझे थोड़ी मोहलत दो यार, उसका जवाब आया

मेरे सपने हैं सफेद ट्यूलिप के गीतों से गूंजती
सड़कों के रोशनी से सराबोर घर के....मुझे गोलियां नहीं चाहिए
बल्कि चाहिए निस्सीम करुणा से लबालब एक दिल
मुझे चाहिए एक प्रकाशमान दिन....
बिल्कुल नहीं चाहिए उन्मादी फासिस्ट विजय

मैं ढूंढ रहा हूं कोई बच्चा
जिसके ठहाकों से भर डालूं अपना पूरा दिन
मुझे युद्ध का कोई हथियार नहीं चाहिए
मैं आया था यहां
सूरज का उगना देखने
पर क्या यहां सूरज का उगना देखने पर क्या देख रहा हूं-
महज इसका अवसान

उसने कहा अलविदा
और निकल पड़ा ढूंढने सफेद ट्यूलिप
जैतून की डाली पर बैठकर भोर को स्वागत करने को आतुर पंछी
समझ लेता है वह सभी बातें
बस उन्हें देखकर और सूंघकर

फिर कहा...मातृभूमि है उसके लिए
जैसे मां की बनाई हुई कॉफी
और रात घिरने पर वापस सुरक्षित लौट आने की तलब।

(अनुवादः यादवेन्द्र)

सोमवार, अगस्त 18, 2008

मृत्यु से दस मिनट पहले मैंने डाक्टर को बुलाया-महमूद दरवेश


"जीवन से मैंने कहा-

धीरे चलो, मुझे साथ आने दो

और मेरे ग्लास की प्यास बुझने दो"
9 अगस्त, 2008 को दिल के आपरेशन के दो दिन बाद विश्व प्रसिद्ध फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश चल बसे। उपर्युक्त पंक्तियां कुछ ही दिनों पहले लिखी उनकी कविता से उद्धृत की गई हैं। पहले भी कई बार मृत्यु के करीब पहुंचकर लौट आनेवाले इस विश्व कवि को उम्मीद और जिजीविषा का कवि माना जाता है।

इसी कविता में आगे लिखते हैं -


"मृत्यु से दस मिनट पहले मैंने डाक्टर को बुलाया

इत्तफाक से मिल जाए तो जीने के लिए

दस मिनट से ज्यादा क्या चाहिए?"
13 मार्च, 1942 को तत्कालीन फिलिस्तीन के एक किसान परिवार में पैदा हुए जीवनभर विस्थापन और युद्ध का दंश झेलते रहे। 1948 में इजरायल के गठन के बाद उनका पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ। विद्यार्थी जीवन से ही वे वामपंथी राजनीति से जुड़े रहे और 1970 में मास्को चले गए। इजरायल द्वारा फिलिस्तीन के हिस्से पर कब्जा कर लेने के बाद वे इसका निरंतर विरोध करते रहे, इसलिए इजरायल ने उनकी घर वापसी पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद वे यासिर यराफात के फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन के प्रमुख सिद्धांतकार बनकर उभरे, पर 1993 के ओस्लो समझौते का विरोध करते हुए उससे अलग हो गए। 1995 में वे अपने इलाके में लौट आए और रामल्ला में रहने लगे। कहने को उन्होंने दो-दो शादियां कीं, पर जीवन का अधिकांश हिस्सा अकेलेपन में ही गुजारा। उन्हें दुनियाभर साहित्यिक पुरस्कार मिले और बीस से ज्यादा भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए। यहां प्रस्तुत है यादवेंद्र जी द्वारा किये हुए महमूद दरवेश की दो कविताओं का अनुवाद-
वे मेरी मौत से खुश होंगे
वे मेरी मौत से खुश होंगे जिससे सबको बता सकें
यह हममें से एक था, हमारा अपना था
बीस सालों से रात की दीवारों पर सुनता रहा हूं यही पदचाप-
दरवाजा खुलता नहीं
पर वे अंदर जाते हैं-तीनों एक साथ
एक कवि, एक हत्यारे और किताबों से घिरा रहनेवाला एक पाठक।


आप थोड़ी-सी शराब पियेंगे, मैं पूछता हूं
हां-उनका जवाब
आप मुझे गोली कब मारनेवाले हैं?
तुम इत्मीनान से अपना काम करते रहो
एक पंक्ति से वे अपने ग्लास रखकर गाने लगते हैं
जनता के लिए एक गीत

मैं फिर पूछता हूं-कब शुरू करेंगे मेरी हत्या?
बस अभी शुरू करते हैं-पर अपनी आत्मा से पहले
तुमने अपने जूते क्यों उतार रख दिए?
मैंने जवाब दिया- जिससे वे घूम लें सारी धरती पर
पर धरती तो इतनी अंधकारमय है
फिर तुम्हारी कविता प्रकाशमान क्यों रहती हैं?
क्योंकि मेरे हृदय में तीस समंदरों का पानी समाया हुआ है
अब भला तुम्हें फ्रेंच शराब इतनी क्यों भाती है?
क्योंकि मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत स्त्रियों से प्रेम करना था
अच्छा, तुम कैसी मौत चाहते हो?
नीली-जैसे खिड़की से झर रहे हों तारे-

आप और शराब लेंगे क्या?हां, हम और पियेंगे।
आप इत्मीनान से अपना काम करें-
मैं चाहूंगा कि आप हौले-हौले करें मेरा कत्ल
जिससे मैं रच सकूं अपनी आखिरी कविता
अपने दिल की पत्नी के नाम

अट्टहास करते हुए उन्होंने छीन लिया
खास तौर पर लिखे हुए कुछ शब्द!

पहचान-पत्र

दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
और मेरे पहचान-पत्र का नंबर है पचास हजार
आठ बच्चों का बाप हूं और नौवां गर्मियों के बाद आनेवाला है
आपको यह जानकर गुस्सा आया?

दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
एक खदान पर अन्य मजदूरों के साथ मजदूरी करता हूं
आठ बच्चों का बाप हूं
इन्हीं पत्थरों से मैं उनके लिए रोटी कपड़े और किताबें कमाता हूं....
आपके दरवाजे पर दान की याचना नहीं करता
न ही अपने आपको
आपकी सीढ़ियों पर धूल चाटने तक गिराता हूं
अब आप बताइये आपको गुस्सा आया?

दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
मेरा नाम तो है पर इसके साथ उपनाम नहीं
ऐसे देश में बीमार की तरह पड़ा हूं
जहां लोग-बाग उजाड़े जा रहे हैं
और मेरी जड़ें तो खोद डाली गई थीं
समय की उत्पत्ति से और युगों के प्रारंभ से भी पहले
चीड़ व जैतून के पेड़ों
और घास के उगने से भी पहले
मेरे पिता किसी मशहूर ऊंचे खानदान से नहीं
बल्कि हलवाहों के खानदान के थे
और मेरे दादा...थे एक किसान
न ही उनका खानदान ऊंचा था, न ही परवरिश...
उन्होंने मुझे सिखाया सूरज का स्वाभिमान
पढ़ाने-लिखाने से भी पहले
मेरा घरकिसी चौकीदार की मचान जैसा है
घास-फूस और डंठल से बना हुआ-
आप मेरे रहन-सहन से संतुष्ट हैं क्या?

मेरा नाम तो है इसके साथ पर उपनाम नहीं है
दर्ज करें!
मैं एक अरब हूं
आपने मेरे पुरखों के बाग-बगीचे पर कब्जा कर लिया है
और वह जमीन भी जिसे मैं जोतता था
बच्चों के साथ मिलकर
हमारे लिए तो कुछ छोड़ा ही नहीं
सिवा इन चट्टानों के....
तो क्या सरकार उनको भी अपने कब्जे में ले लेगी?
बार-बार जैसी कि घोषणा की जाती रही है?

इसलिए इसे पहले पन्ने पर ही दर्ज करें
मैं किसी से घृणा नहीं करता
न ही किसी का कुछ हथियाता हूं
पर जब भूख लगेगी मुझे
कब्जा करनेवालों का मांस ही होगा मेरा आहार
सावधान हो जाएं....
सावधान....
मेरी भूख से
और मेरे क्रोध से भी!

(अनुवाद- यादवेंद्र)

शुक्रवार, अगस्त 01, 2008

क्या पाकिस्तान के सारे लोग आतंकवादी या आई.एस.आई. के एजेंट होते हैं?

कुछ दिनों पहले मैं पाकिस्तान गया था तो वहां की ब्यूरोक्रेसी को नजदीक से देखने और उनकी कार्यशैली को महसूस करने का अवसर मिला था. उससे पहले भारतीय ब्यूरोक्रेसी से भी बोर्डर पर पाला पड़ा था. दोनों देशों के अफसर कितने काबिल हैं यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि दोनों देशों में आतंक फैलाने वाले आतंकवादियों को कोई दिक्कत नहीं होती. वे आते हैं और आराम से मासूम लोगों का कत्ल करके चलते बनते हैं. मगर कोई मासूम अगर उनके खूंखार पकड़ मे आ जाए तो भारत में वह आई.एस.आई. का एजेंट मान लिया जाता है और पाकिस्तान में भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का एजेंट. दुखद यह है कि हमारे यहां कोई अंसार बर्नी नहीं है, पाकिस्तान में भारतीयों की मदद के लिए भारत का एजेंट कहलाने का कलंक लेकर भी अंसार बर्नी भारतीय लोगों की मदद करते हैं. देखिये एक और मासूम की हालत.


6 साल पहले बेहतर कमाई का सपना लिए महज 40 दिन की एकमात्र बेटी को पाकिस्तान छोड़ मोहम्मद सलीम हिंदुस्तान तो आया, लेकिन उसे अंदाजा नहीं था कि उसके लौटने की राह उतनी आसान नहीं होगी। संसद पर हुए हमले के बाद खुफिया एजंसियों की सक्रियता के चलते वह हिंदुस्तान में ही फंस गया। आईएसआई एजंट के रूप में भारत में जासूसी के आरोप में उसे नोएडा से गिरफ्तार कर लिया गया। गुनाह कबूल कर 6 साल जेल काटने के बाद उसे पाकिस्तान भेजने का कोर्ट ऑर्डर हो गया। पूरे परिवार समेत उसकी वापसी की राह देख रही बेटी अब 8 साल की हो गई है। हालांकि घर वापसी की राह अब भी उसे हवालात की सलाखों के पीछे से उतनी की कठिन दिख रही है, जितनी पहले थी।


पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में रहीमयार खां कस्बे का रहने वाला मोहम्मद सलीम हिंदुस्तानी सरबजीत की तरह यूं ही शराब पीकर सीमा पार नहीं कर गया था। अक्टूबर 2001 में अटारी बॉर्डर से होकर ड्राई फ्रूट बेचने वह दिल्ली आया था। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर आतंकवादी हमला हो गया। खुफिया एजंसियों की धरपकड़ अभियान के चलते सलीम पुरानी दिल्ली का होटल छोड़ नोएडा आ गया। यहां वह सेक्टर-37 में एक ढाबे पर काम करने लगा। हालांकि वह ज्यादा दिन तक स्थानीय खुफिया इकाई की नजर से बच नहीं पाया। पुलिस की मदद से टीम ने उसे 22 जून 2002 को गिरफ्तार कर लिया। उस पर अवैध तरीके से भारत में रहने व जासूसी करने का आरोप लगाया गया। कोर्ट की तरफ से सलीम को मुहैया करवाए गए ऐडवोकेट इजलाल अहमद बर्नी ने बताया कि जिस समय उसे गिरफ्तार किया गया था, उस समय उसका वीसा समाप्त होने में एक दिन का समय बाकी था। उसे फंसाने के लिए फर्जी तरीके से दस्तावेज़ तैयार किए गए। बर्नी ने बताया कि अदालती कार्रवाई लंबी खिंचने के कारण जल्द रिहाई के लिए सलीम ने सभी आरोप स्वीकार कर लिए। अदालत ने उसे 6 साल की कैद व 20 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। 2 जुलाई 2008 को सज़ा पूरी होने से पहले 1 जुलाई को उसने जुर्माने की रकम जमा करवा दी। बावजूद इसके पुलिस उसे 7 जुलाई को जेल से रिहा करवा कर बाढ़मेर चेक पोस्ट पर लेकर गई। वहां चेक पोस्ट बंद हो जाने के कारण उसे बाघा बॉर्डर ले जाया गया, लेकिन वहां उनके दस्तावेज स्वीकार नहीं किए गए। पाकिस्तानी चेक पोस्ट ने सलीम को वापस भेजने के दस्तावेज़ लाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिए कहा।


(सौजन्य - नवभारत टाइम्स)