मंगलवार, अप्रैल 29, 2008

काशी में शवों का हिसाब हो रहा है

हिंदी के बेहद संवेदनशील (यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि उनकी मौत ब्रेन हैमरेज से हुई थी।) और चर्चित कवि श्रीकांत वर्मा ने दार्शनिक अंदाज में अपने बेहद लोकप्रिय कविता-संग्रह मगध में लिखा था-

काशी में शवों का हिसाब हो रहा है
किसी को जीवितों के लिए फुर्सत नहीं
जिन्हें है,
उन्हें जीवित और मृत की पहचान नहीं।


मगर इन दिनों वहां जो स्थति है वह बेहद भयावह है। जिंदगी लील रही गर्मी के चलते मणिकर्णिका घाट व हरिश्चंद्र घाट पर दाह संस्कार के लिए आने वाले शवों की तादाद में बढ़ोतरी हो गई है। मणिकर्णिका घाट पर पिछले कुछ दिनों से औसत से 15-20 फीसदी अधिक शवदाह संस्कार के लिए लाए जा रहे हैं। इसमें से कई लोगों की मौत की वजह गर्मी व लू ही बताई जा रही है। लू किन्हें लगती है, उन्हें जो ए.सी. कमरों में बैठकर देश को चलाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभाते हैं? या उन्हें जो दो जून की रोटी के लिए सड़क रिक्शा खींचते हैं, ईंट ढोते हैं?


फिलवक्त मुद्दा वहां मौत क्यों हो रही है से छिटककर इस पर केंद्रित हो रहा है कि इन घाटों पर बिकनेवाली कच्ची लकड़ी के दाम में 30 रुपये प्रति मन और पक्की लकड़ी के दाम में 80 रुपये प्रति मन की बढ़ोतरी हो चुकी है। हरिश्चंद्रघाट पर भी रोजाना पांच से दस शव अधिक लाए जा रहे हैं। संख्या में बढ़ोतरी की वजह गर्मी ही बताई जा रही है। हरिश्चंद्र घाट पर सप्ताहभर पहले 170 रुपये मन बिकने वाली लकड़ी का भाव 205-210 पहुंच चुका है। इन मुद्दों के बीच असली सवाल दबाये जा रहे हैं और अवांतर प्रसंगों के सहारे अखबार निकाले जा रहे हैं, राजनीति की जा रही है। दुख यही है कि शवों का हिसाब रखनेवाले लोगों के पास जीवितों के लिए बिल्कुल फुर्सत नहीं। जीवित जब कुछ नहीं बोलते तब-

जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्‍न कर हस्‍तक्षेप करता है-
मनुष्‍य क्‍यों मरता है?

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सहमत हूँ आपकी बात से.

Udan Tashtari ने कहा…

सही कह रहे हैं.