सोमवार, अप्रैल 02, 2007

जे.एन.यू. के भूतपूर्व विद्यार्थी रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताएँ

दोस्तो,
विद्रोही जी जे.एन.यू.परिसर में अक्सर शाम को गंगा ढाबा पर बैठे हुए मिल जाते हैं. सुबह पुस्तकालय के पास, दोपहर को पूर्वांचल होस्टल के पास उन्हें अक्सर देखा जा सकता है. वे अपनी पोशाक से तो फटेहाल हैं लेकिन अध्ययन और संवेदना के स्तर पर वे बेहद सुलझे हुए और नेक इनसान हैं. वे भी कभी जे.एन.यू. के विद्यार्थी थे लेकिन अपनी राजनीति रूझानों के कारण उन्हें निष्काषन का दंश झेलना पड़ा. मैं जब वहां विद्यार्थी था तब से लेकर आज तक उन्हें उसी रूप में देखता आ रहा हूँ लेकिन उनके विचार अप-टू-डेट रहते हैं. वे कविताएं कागज पर नहीं, मन-ही-मन लिखते रहते हैं. मैंने उनकी कुछ कविताएं रिकार्ड करके कागज पर उतारा औऱ उसे लोगों के सामने पेश करना आवश्यक समझा. यहां पेश हैं उनकी वह कविताएं जिसे आप चाहें तो बी.बी.सी. की साइट पर भी देख सकते हैं.-डॉ.पंकज पराशर

नई खेती

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता

मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
* * * * * *

औरतें
कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है

मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं

मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.

मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर
और चिता में जलकर मरी हैं
उन्हें फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?

क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह

औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है
थानों से लेकर अदालतों तक

मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही
महाराज की जय बोल रहे हैं.

वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.

मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं

कितना ख़राब लगता है
एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता

औरतें रोती जाती हैं,
मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.
* * * * * *

कवि से संपर्क का पता है-
द्वारा-पंकज पराशर
सी-208, पांडव नगरदिल्ली-110092
e.mail-pkjppster@gmai.com

6 टिप्‍पणियां:

Avinash Das ने कहा…

विद्रोहीजी सचमुच अलग किस्‍म के शायर हैं। जेएनयू में हमारे एक साथी हैं उदयजी। एमए में पढ़ते हैं। पटना में राजनीतिक गतिविधियों में हम साथ थे। उन्‍होंने ही एक बार गंगा ढाबा के पत्‍थर पर विद्रोही जी से मिलवाया था। तब ये सारी कविताएं उन्‍होंने सुनायी थी। राजनीतिक-सामाजिक समझ की ऐसी मार्मिक अभिव्‍यक्ति बहुत कम देखने को मिलती है। बेमिसाल हैं ये पंक्तियां...
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.

विक्षिप्‍तों की तरह लगने वाला ये कवि दिमागी तौर पर सचेत है। गोरख ऐसे ही रहे होंगे। लेकिन वे ज्‍यादा जनप्रिय हुए, क्‍योंकि जनता की राजनीति में रम गये। पंकज जी, आपको विद्रोही जी को जेएनयू को कपोल गल्‍प विमर्श की दुनिया से निकाल कर सामाजिक आंदोलनों से जुड़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। वैसे आपने ये कविताएं लाकर सचमुच ब्‍लॉग जगत में एक सार्थक पहल की है। हमारी शुभकामनाएं।

Srijan Shilpi ने कहा…

विद्रोही जी पर केन्द्रित एक अत्यंत चर्चित कहानी वागर्थ के नवम्बर, 2005 अंक में छपी थी जो मेरे सहकर्मी मित्र और जेएनयू के पूर्व छात्र अनुज की पहली कहानी थी। कैरियर, गर्लफ्रेंड और विद्रोह शीर्षक से छपी इस कहानी में विद्रोहीजी की उस कविता की पंक्तियों का खूबसूरत इस्तेमाल किया गया है, जिसे आपने यहां पोस्ट किया है। हालांकि कहानी में कल्पनाशीलता का भी कुछ हद तक सहारा लिया गया है, लेकिन विद्रोही के चरित्र और व्यक्तित्व को यह कहानी बहुत शिद्दत से उभारने में सफल रही है।
जेएनयू में अध्ययन काल में तो लगभग रोजाना ही विद्रोही से मुलाकात हो जाती थी और कभी-कभी हमलोग चाय के दौर के साथ उनकी कविताओं का आस्वादन भी लेते थे। विद्रोही के दिल में और जुबान पर कविता इस कदर बसी हुई है कि वह आपको घंटों स्वरचित कविताएँ सुना सकते हैं।
प्रतिभा और संवेदना के धनी विद्रोही से जब कभी मुलाकात होती है तो उनकी हालत को देखकर मन कचोटने-सा लगता है। हमलोग चाहकर भी उनकी यथेष्ट सहायता नहीं कर पाते।

अनूप शुक्ल ने कहा…

आज विद्रोहीजी की कविता दोबारा पढ़ी। आसमान में धान। महिलाओं के बारे में इतनी सटीक कवितायें मैंने बहुत कम पढ़ीं। कभी उनके बारे में फिर लिखें!

सुभाष मौर्य ने कहा…

पंकज भाई, हम सभी विद्रोही जी को जेएनयू में अक्सर देखते हॆ। उनकी कविताए भी सुनी हॆ। लेकिन आपने जॆसे उन्हे पेश किया हम नही कर पाए। विद्रोही जी की कविताओ को ऒर शिद्द्त से सब के सामने लाने की जरूरत हॆ।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा ने कहा…

पंकज जी धन्यवाद एक अच्छी कविता के लिए

Vikash ने कहा…

अदभूत कविता।
पढ़ के हिल गया।
धन्यवाद ऐसी कविता के लिए।