कुमार मुकुल की कविता एक तरह से मजबूरी में "नया ज्ञानोदय" को छापनी पड़ी. कविता छापने के बाद भी चूंकि मुद्दा गंभीर था इसलिए उन्होंने लिखकर विरोध जताने के लिए "हंस" को यह लेख दिया लेकिन इस लेख के मुआमले में असहमति के सारे साहस चूक गए. "हंस" ने नहीं छापा. मुकुल जी हर हाल में यह बताना चाहते थे कि वे भी मुंह में जबान रखते हैं और उन्हीं की जुबानी पेश है यह लेख.
कुमार मुकुल
2005 के वागर्थ के युवा पीढ़ी विशेषांक में रवींद्र कालिया ने स्वगत में लिखा था- बगैर तोड़फोड़ के किसी भी विधा का विकास संभव नहीं होता... वह (कुणाल सिंह) शब्दों से फुटबाल की तरह खेलते हुए कहानी खड़ी कर लेता है... अब जाकर 2007 में आये नया ज्ञानोदय के मई-जून विशेषांकों में संपादन के स्तर पर घोषित तोड़फोड़ और शब्दों का खेल सामने आया है।शब्दों के जादूगर संपादकद्वय द्वारा नवोदितों के दिये गये परिचय के नमूने देखें- 'दुबली-पतली और सुंदर कथाकार', 'अविवाहित कथाकार... बट गर्ल्स फादर मस्ट हैव हिज ओन बार', 'हर मंगलवार को मंदिर और शनिवार को हंस के कार्यालय में जाती हैं', 'बैलों की खरीदफरोख्त का अच्छा अनुभव', 'बालिवुडिय शब्दावली में कहें तो राजुला शाह स्टार घराने से हैं', '...आग्रह करने पर नहीं लिखते... धमकाने पर भी नहीं... दो कहानियां और अब तक दो बार अस्पताल की हवा खा चुके हैं। हाल में ही तीसरी बार अस्पताल से बाहर आये और यहां यह तीसरी कहानी...', 'करीब आधा दर्जन प्रेम और इतनी ही कहानियां। अभी तक न कोई किताब, न ही कोई पुरस्कार', 'सात-आठ कहानियां। छह-सात भाषाओं में अनुवाद। तीन-चार पुरस्कार... प्रेम संबंध एक ही और एक ही किताब। शादी अभी एक भी नहीं', 'जी खोलकर हंसती हैं और धुंआधार लिखती हैं... युवा लेखिकाओं से फोन पर बात करने का चस्का। यह चित्र 10 अप्रैल की सुबह का', 'सैंतीस साल की उम्र में 'सत्ताइस साल की लड़की' लिखी, जो हिट रही', 'पेशेवर अध्यापक... प्रेमिका से ही शादी कर ली... यह कहानी संपादक के उकसाने पर लिखी', 'बहुत गुजारिश के बाद यह छोटी कहानी', 'बीबी-बच्चों के साथ ताजमहल में फोटो खिंचवा चुके हैं', 'इन दिनों ताजमहल के साये में गुजर-बसर कर रही हैं', 'पच्चीस पृष्ठीय पहली कहानी संपादकों की क्रूरता का शिकार होते-होते अब छह-सात पृष्ठ की रह गयी। उम्मीद है, भविष्य में लंबी कहानी लिखने से कतराएंगे। एक ताजी सचमुच की छुटकी कहानी का इंतजार', 'कंधों से नीचे जाते खुले-लंबे सीधे बाल- गोल चेहरा- चमकती हुई आंखें- चेहरे से टपकता बौद्धिक उजास और विश्वास- सारिका (1977-78-79 का कोई अंक रहा होगा) में छपा चित्र। नाम- नासिरा शर्मा (इस अंक में नासिरा शर्मा की पांच तस्वीरें और एक स्केच छपे हैं।)', 'अंजली काजल की... अंतिम कहानी। इसके बाद वे अंजली गौतम के नाम से लिखेंगी... दो तीन महीने पहले ही शादी हुई और शादी के बाद यह पहली कहानी'।'सनातन बाबू का दाम्पत्य' कहानी में कहानी के झूठ होने की घोषणा करता कहानीकार (कुणाल सिंह) कहता है- 'क्या हम सच से उकता कर थोड़ी देर के लिए जान-बूझ कर झूठ नहीं जीने लगते? उदाहरण के लिए 'माना सूरज पश्चिम से उगता है... कितना भोला और जिंदादिल झूठ जिस पर सौ सच्चाइयां कुर्बान।'उपरोक्त संदर्भों में देखें तो 'विधा के विकास के नाम पर तोड़फोड़, एक झूठ पर सौ सच कुर्बान करने की कातिलाना अदा, बालिवुडीय हिट-फ्लॉप शब्दावली का घोषित तौर पर प्रयोग संपादकद्वय के निजी फितूरों को ज्यादा सार्वजनिक कर रहे हैं। युवा रचनाकारों की बाबत वे कुछ खास नहीं बता पा रहे हैं, सिवा उनकी अक्षमताएं उजागर करने के। जैसे पच्चीस पृष्ठ की कहानी को घोषित संपादकीय क्रूरता में कतर कर छह पेज का कर देने का क्या तर्क है? ऐसी कहानियों में संपादकद्वय अपना नाम जोड़ देते तो बेहतर होता। बजाय अपनी क्रूरता के उद्-घाटन के। इस क्रूरता के शिकार युवा कथाकार उमाशंकर चौधरी से जब उनकी पच्चीस पेज की कहानी को कतर कर छह पेज की कर देने के बारे में मैसेज कर पूछा तो उनका एसएमएस आया- 'ये कहानी दो पेज एडिट हुई है, वो भी मेरे द्वारा, परिचय में जो लिखा गया है, वो अगर मजाक है तो बहुत ही खराब मजाक है, मैं एक पत्र लिखूंगा।'इसी तरह नासिरा जी की आधा दर्जन तस्वीरें छापने और नख-शिख वर्णन का कोई अलग से मानी नहीं निकलता। सिवा सुमुखियों के प्रति अपने गुप्त अनुराग के प्राकट्य के। किसी रचनाकार की तस्वीर किस दिन और कितने बजे खींची गयी, यह तक बताया गया है परिचय में।कुणाल शब्दों के फुटबालर हैं और खूब खेल किया है उन्होंने। सैकड़ों सच्चाइयां कुर्बान कर दी हैं एक-एक झूठ को स्थापित करने में। बालिवुडीय शब्दावली का प्रयोग जो आरंभ कर चुके हैं वो- तो आगे क्या युवा रचनाशीलता का जासूसी अंक या मॉडलिंग अंक निकालने की योजना है। होली पर अश्लील मसखरेबाजी से पूर्ण अंक निकालने की पुरानी सामंती परंपरा को पुनर्जीवित करने का इरादा तो नहीं।परिचय में 'दुबली-पतली सुंदर कहानीकार' लिख कर क्या बताना चाहते हैं संपादक? इस 'नयनसुख' संपादकीय के नमूने वागर्थ 2004 के अक्टूबर अंक में भी देखे जा सकते हैं, जिसमें पाठकीय कॉलम में छपे पचास पत्रों में मात्र एक आरती झा की तस्वीर छपी है, जबकि उसी अंक में आरती की एक लघुकथा भी प्रकाशित है। तस्वीर वहां लग सकती थी, पर कृपा प्रदर्शन फिर कैसे होता! छुपाछुपी का यह खेल वागर्थ के उस अंक में कुणाल के परिचय में भी देखा जा सकता है, लिखा है- 'एक राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिका में सहायक संपादक, जबकि इसी अंक में सहायक संपादक में उनका नाम छपा है। सहायक संपादक के युवकोचित राग-द्वेष की झलक तमाम परिचयों में मिल जाती है। राकेश मिश्र के परिचय के साथ कुणाल का परिचय का मिलान करें, पता चल जाएगा। राकेश के बारे में बताया गया है कि आधी दर्जन कहानियां, पर कोई पुरस्कार नहीं। जबकि कुणाल के परिचय में राकेश को मुंह चिढ़ाते हुए लिखा गया है- सात-आठ कहानियां, तीन-चार पुरस्कार। यहां प्रेम संबंधों की गिनती और उससे उपजी कुंठा के दर्शन भी होते हैं। राकेश मिश्र के आधा दर्जन प्रेम हैं, पर कुणाल का एक प्रेम संबंध है और शादी तो बेचारे की एक भी नहीं है, लगता है शादी का ठेका देने का इरादा है।कहानीकार कविता के पति राकेश बिहारी मिले, तो उन्होंने परिचय पर आपत्ति जताते कहा- मेरी मां दुखी रहती हैं कि कैसी बहू है कि पूजा-पाठ नहीं करती। शशिभूषण के परिचय पर विस्फारित आंखों से देखतीं कवयित्री अनामिका ने कहा- यह तो चरित्र हनन है। वरिष्ठ कवि विष्णु नागर ने कहा कि पहले एक हंस ही चर्चा में आने के लिए तमाशा करता था, ज्ञानोदय उससे आगे निकलने को है। राजीव रंजन गिरी ने भी परिचय को बीभत्स बताया।2005 के वागर्थ के संपादकीय में रवींद्र कालिया ने दलित विमर्श और नारी विमर्श को तथाकथित बताते हुए कुछ संभ्रांत नागरिकों द्वारा दैहिकता और यौनाचार करने का आरोप लगाया था। उपरोक्त परिचय आखिर इससे भिन्न किस दूसरी मानसिकता का खुलासा करते हैं?कई परिचयों में उकसा कर, आग्रह कर, धमका कर कहानियां लिखवाने की बात की गयी है। रचनाकार न हुए गाय-भैंस हुए। दूध नहीं उतर रहा तो इंजेक्शन से दूध उतार दिया। अपनी समझदारी थोपने का दुराग्रह ऐसा कि इस रौ में वे कई ग़लतियां कर जा रहे हैं। जैसे, राजीव कुमार के परिचय में पहली पंक्ति में लिखते हैं- 'अब तक दो बार अस्पताल की हवा खा चुके हैं, लगे हाथ दूसरी पंक्ति में लिखते हैं- तीसरी बार अस्पताल से बाहर आए...'। सारा ध्यान सुमुखियों पर लगा देने पर ऐसी ग़लतियां होंगी ही। अंजली काजल ने शादी के बाद जब उसी नाम से कहानी लिखी और छपवायी, तो अंजली गौतम हो जाने का स्त्री-अस्मिता विरोधी मत उन पर थोपने के क्या मानी? हमारे युवा मित्र व जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने जब अंजली काजल से इस बाबत पूछा तो उनका मैसेज आया कि मैं अंजली गौतम हूं या अंजली काजल- कुछ समझ नहीं आ रहा। सुधीर सुमन ने ही बताया कि ज्ञानोदय में छपे इस अंक के एक रचनाकार के परिचय के दौरान स्टिंग आपरेशन के तर्ज पर छद्म नाम से रचनाएं करने के राज़ का पर्दाफाश कर उनके लिए वैधानिक संकट खड़ा कर दिया गया है। संपादकीय नैतिकता के लिहाज़ से इसे एक भद्दा और क्रूर खेल माना जाएगा। अब तो यही बाकी रह गया है कि वह रचनाकार इसके विरुद्ध किसी कोर्ट में जाए और कहे कि वह छद्म नाम उसका नहीं है और साहित्यिक स्टिंग पत्रकारिता के ज्ञानोदयी संपादक वहां सबूत पेश करें कि नहीं यह नाम उसी का है। यह तो अपना मत और अपनी आधी-अधूरी, सड़ी-गली सूचनाएं पाठकों पर थोपने कोशिश ही कही जाएगी। इस तरह की गॉसिप को क्या कहा जाए? क्या हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता में यह स्टारडस्ट इरा की शुरुआत है? क्या अब हिंदी साहित्य को ज्ञानोदय की इसी परंपरा पर चलाया जाएगा?नया ज्ञानोदय के मई अंक के संपादकीय में इसी तरह अपना मत जबरदस्ती विजयमोहन सिंह के मत्थे मढ़ने की कोशिश की गयी है। विजय कुमार की हजामत इस आधार पर बनायी गयी है कि वे कविता में युवा पीढ़ी को तवज्जो नहीं दे रहे और इसके लिए बचाव में खड़ा किया गया है विजयमोहन सिंह को, जबकि पत्रिका के 'प्रारंभ' में ही विजयमोहन सिंह लिखते हैं- '...कुछ चतुर और 'शॉप लिफ्टर' कविताएं अपनी असली पहचान छिपा कर पत्रिकाओं तथा अखबारों के साप्ताहिक संस्करणों में प्रवेश पा जाती हैं। इधर की कविताओं में असली रचना की पहचान इसीलिए थोड़ी धूमिल हुई है।' अलबत्ता कविताएं चतुर भी होती हैं, मेरी समझ में यह नहीं आया। हां, उनके निहितार्थ समझ में आये और वे विजय कुमार के कथन को पुष्ट ही करते हैं। मैनेजर पांडेय के अनुसार भी- 'हिंदी में कुछ कवि ऐसे हैं, जिनके लिए कविता लिखना शतरंज खेलने जैसा है... एक और जमात ऐसे कवियों की है, जो कविता का प्रयोग मदारी के बंदरिया की तरह करते हैं और उससे पैसा बटोरते हैं... कविता भले ही चेतन मनुष्य की मानस कृति हो, आज के अधिकांश स्वनामधन्य कवियों के लिए वो बुद्धिविलास है।'