मंगलवार, मई 13, 2008

दु:ख अब जीवन की कथा नहीं रही

राज्य सरकारों ने न्यायालय में शपथ-पत्र देकर मुक्ति पा ली कि अब उनके राज्य में सिर पर मैला ढोने जैसा काम नहीं करते लोग। लोग नहीं जानते थे कि उनके पीछे-पीछे, उनके बारे में अदालत में क्या-क्या कह आए हैं सरकारी लोग। जैसे कोलकाता में हाथ रिक्शा नहीं चलता अब, यह सरकार कहती है मगर लोग जब कुछ कहते हैं सरकार से हमेशा अलग ही क्यों कहते हैं? जवाब सरकारें नहीं देती, वह देती हैं कानून और गोपनीयता की दुहाई। मगर जनता का पेट इन चीजों से नहीं भरता है और न जीवन में कोई फर्क आता है। बहरहाल, यहां हम अलवर (राजस्थान) की उस सफाईकर्मी महिला का जिक्र करना चाहते हैं, जो अब अंग्रेजी में कह सकती है-माई नेम इज हेमलता चोमर एंड आइ एम लीविंग इन अलवर, राजस्थान, इंडिया। आज भले वह अंग्रेजी बोलने के लिए रोजना कक्षा में जाती है और अमेरिका के न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर अब प्रतीकात्मक ही सही, पर प्रिंसेस आफ राजस्थान बनने की प्रक्रिया से गुजर रही हैं, का अतीत न इतना सुनहरा था और न इतना बेहतर कि उसके ख्वाबों में भी कभी पांचसितारा होटल की तस्वीर आए। पर अब यह सब हकीकत है और इस ख्वाब को हकीकत में तब्दील करने का साहस और माद्दा उनके भीतर जिस शख्स ने भरा वे हैं सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक और हेमलता जैसी महिलाओं के सरजी डा. विंदेश्वर पाठक। डा. पाठक से कब मिलना हुआ और उनके बारे में कैसे पता चला, यह पूछने पर हेमलता अतीत में खो जाती हैं और याद करती हैं उन दिनों को जब यह सब सोचना भी उसके लिए मुमकिन न था, जो कुछ आज वे हैं। वे कहती हैं कि आज से तकरीबन साल भर पहले की बात है...हर के नगरपालिका में काम करनेवाले सफाई कामगारों से पता चला आज नगरपालिका ग्राउंड में एक कार्यक्रम है जिसमें सफाईकर्मी महिलाओं को बुलााया गया है। वहां जाना और फिर वहां पहुंचने से लेकर आज तक के सफर में जब मुझे साथ लेकर जलती हैं हेमलता तो हम उनकी यादों की नगरी में उनके बोल के चिराग के सहारे वह भी देखते हैं जो अक्सर मुख्य धारा का मीडिया नहीं देखता या यों कहें कि देखकर भी नजरअंदाज कर देता है। संक्षेप में उनकी कहानी का लब्बोलुआब यह कि हेमलता चोमर, पति-जगदीश चोमर ने सरकारों को, सामाजिक व्यवस्था और दुनिया को जिस नजरिये से देखा और समझा है-वही सच है। हाथ में झाड़ू और कभी थोड़ी-सी डिटर्जेंट पाउडर मिल जाये तो ठीक वरना हाथों की कलाकारी और जोर से शौचालयों को साफ करना पड़ता था उसे। अलवर के जिस मोहल्ले में वह रहती है, वहां से से दो-तीन किलोमीटर दूर रोज जाना और पांच-सात घरों में रोजी कमाना आज से दो-एक साल पहले उसे दिनचर्या थी, जो लगभग उसके जीवन की नियति बन चुकी थी। उसकी जेठानी और देवरानियों के हिस्से भी तकरीबन इतने ही घर आए और वे भी यही काम करती थीं। सबका इलाका बंटा होता है और जब घर में बंटवारा होता है तो इलाके के घरों का भी बंटवारा हो जाता है। सो सबके हिस्से चार-चार, पांच-पांच घर आए और महीने भर तक काम करने की कमाई आती हाथ में महज तीन से चार सौ रुपये। इतने रूपये में क्या हो सकता है यह अंदाजा लगा सकते हैं हम, मगर जब कुछ भी हाथ में न आता हो तो यह चंद रूपये भी सहारा देता है। मगर अब अपना दिन है, अपनी रात है और हाथों में है सेलफोनण्ण्ण्जो हर थोड़ी देर पर बज उठता है...यकीनन उनकी मुट्ठी में दुनिया नहीं है, मगर अपनी वह जिंदगी तो है... पिछले पांच हजार सालों से किसी और की अमानत हो जाती थी। वह जिंदगी जो दूसरे की गंदगी साफ करते हुए खुद एक गंदगी में तब्दील हो जाती थी। जिसके बारे में चचा गालिब ने कहा था कि बनाकर फकीरों का हम वेश गालिब, तमाशाए अहले करम देखते हैं गालिब ऊंचे खानदान से तआल्लुक रखते थे मगर हेमलता चोमर उन तमाशाए अहले करम को याद करते हुए कहती हैं कि लोग उन्हें रोटी भी अलग से फेंककर देते थे और पैसे भी। राजनीतिक आजादी के बाद भी देश में सामाजिक आजादी का आलम क्या है, अस्पृश्यता और अनटचेबिलिटी की हकीकत क्या है, यह हेमलता की कथन में साफ दिखाई देता है। मगर अब हेमलता की बनाई हुई बिड़यां, अचार, मुरब्बे आदि वही लोग बड़े शौक से खाते हैं जो कभी उन्हें फेंककर रोटी देते थे। हेमलता को सरकारों के शपथ-पत्र ने मैला ढोने से मुक्त नहीं किया, मुक्त किया डाण्पाठक की एक मुहिम ने जिसके तहत ऐसी महिलाएं आज तथाकथित पुश्तैनी काम छोड़कर अब अलवर में बिड़यां, अचार, मुरब्बे आदि बनाती हैं और कम-से-कम दो-तीन हजार रूपये कमा लेती हैं। मेहनतकश को मिल रहे मेहनताना की दृष्टि से देखें तो कहां उस घिनौने काम करने के बदले महज चार-पांच सौ रुपये की छोटी राशि और कहां मुख्य धारा में रहने और जीने का सुख और साथ में पहले के मुकाबले चार-पांच गुना ज्यादा कमाई। ...और अब हिंदुस्तान के प्रभु वर्ग की भाषा अंग्रेजी सीखती हुई हेमलता चोमर अपनी बातचीत में जब कई-कई वाक्य अंग्रेजी में ही धाराप्रवाह बोल जाती हैं तब जाकर कहीं समझ में आता है कि हकीकत में स्त्री सशक्तीकरण की बात कहां से शुरू की जानी चाहिए और इसकी मिसाल किसको कहां से मानना चाहिए? स्त्री सशक्तीकरण का शायद यह अर्थ नहीं है जो अंग्रेजी भाषी होने और खुद की कमाई से अपना घर-बार चलाने के बावजूद नताशा सिंह, नैना साहनी, कुंजुम बुद्धिराजा और जेसिका लाल जैसे संभ्रांत घरों से तआल्लुक रखनेवाली औरतों के साथ हुआ? शासन और कारपोरेट पूंजी से संचालित कथित मुख्य धारा की मीडिया के खांचे में फिट न होने के कारण वास्तव में स्त्री सशक्तीकरण के प्रतिमान ही दूसरे हैं, जिसे अलवर की राजकुमारियां बदलेंगी दुनिया के ताकतवर देश अमेरिका के न्यूयार्क शहर में। हेमलता चोमर के चेहरे पर वहां जाने का उत्साह और वहां के लोगों से मिलने, बड़े होटलों में ठहरने और खाने-पीने की चमक सही मायने में यह बताती है कि सशक्तीकरण का मतलब क्या होता है। रंज की बात यह जरूर है कि देश में आज भी बड़ी संख्या है हेमलताओं की और वे आज भी अपने सिर पर मैला ढोने का काम करती हैं। यह रोशनी उन तक भी पहुंचे तो अच्छा। हेमलता चोमर की आज की हकीकत और हेमलताओं की भी हकीकत बने तो अच्छा। बहरहाल, सामंतवाद, राजपूताना आन-बान-शान और जातिवादी ठसके के लिए पूरे देश में चर्चित राजस्थान से यह शुरुआत वहां और आसानी से हो सकती है, जो इलाका इन चीजों से मुक्त रहा है। हेमलता चोमर अब गाती हैं, नाचती हैं, ब्रेक डांस करना सीखती हैं और लजाते हुए भी दो पंक्ति हमें भी सुना ही देती हैं...होंगे काययाब...हम होंगे कामयाब, मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास हम होंगे कामयाब एक दिन...और हंसती हुई चुप हो जाती हैं। यह चुप्पी, जो हमें यकायक यह याद दिला देती हैं कि वी शैल ओवरकम से इसका अनुवाद करते हुए शायद गिरिजा कुमार माथुर साहब को भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि यह गीत इतना लोकिप्रय होगा और इसे एक दिन हेमलता चोमर जैसी महिला भी पूरे आत्म-गौरव के साथ गाएगी-देश से लेकर विदेश तक।

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