कठिन है रहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो/बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो/तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है/मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो
मंगलवार, अक्तूबर 20, 2009
मां कहकर चीखते हुए..........
आजकल अखबार की नौकरी में कई तरह के काम की अपेक्षा की जाती, कई तरह की फरमाइशें की जाती हैं. मदर्स डे पर फरमाईश की गई कि कृपया मदर्स डे के अवसर पर एक लेखनुमा विज्ञापन लिख दीजिए. सो यह लेखनुमा विज्ञापन लिखा और यह छपा था.
रुई के फाहे जैसा नाजुक, कोमलता और रंग में गुलाब के फूल जैसे शिशु को देखते ही मां निहाल हो जाती है। नन्हा शिशु कुछ नहीं जानता, मगर अपनी मां को पहचान लेता है। मां की आंचल को अपनी मुट्ठी में बांधने की कोशिश करने लगता है और मां अपने नवजात की इस हरकत को देखते ही सब कुछ भूल जाती है। शिशु की एक-एक गतिविधि मां को अपार सुख देती है। इस सुख के लिए मां अपनी रातों की नींद से लेकर सब न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहती हैं। ..और यह चीज शिशु काल से ही बच्चे के मन में यह एहसास पैदा कर देती है कि मां के रहते उसे कुछ नहीं हो सकता। मां को सब कुछ पता है। मां आएगी तभी बच्चा खाएगा, मां साथ में सोएगी तभी सोएगा यानी कोई भी काम बगैर मां के पूरा होना लगभग नामुमकिन। इसलिए स्वाभाविक रूप से जन्म से ही बच्चा हर बात में मां-मां कहने का अभ्यस्त हो जाता है। मां के बगैर जीवन की कोई आकुल पुकार तक नहीं निकलती। राह चलते यदि कहीं ठोकर लग जाए, कोई भयानक चीज दिख जाए, कोई हौलनाक मंजर नजर के सामने से गुजर जाए तो बुजुर्गो के मुंह से भी बरबस मां शब्द ही निकलता है।
हमारे शास्त्रों में भी मां का दर्जा पिता से ऊपर होता है। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास राम से पहले सीता माता का नाम लेना आवश्यक जानकर कहते हैं-सीताराम। यहां तक कि दुनिया को भी कहते हैं सियाराम मय सब जग जानी। राम से पहले सिया। कृष्ण से पहले राधा- राधाकृष्ण कहने का चलन इस बात को दिखलाने के लिए पर्याप्त है कि राम और कृष्ण वाकई ईश्वर हैं पर आम जनमानस में पहले सीता माता और राधा का स्थान है। तभी तो बंगाल में रिश्ते की हर स्त्री को मां कहने का रिवाज है। मसलन पिता की बहन को पिसी मा, बहू को बऊमा, बहन को दीदीमा, सास को ठाकुरमा, नानीमा, दादीमा यानी हर स्त्री को मां कहने का चलन है। बंगाल में हर स्त्री यानी मां। भारतीय परंपरा में मां के रूप में स्त्री को सर्वश्रेष्ठ दर्जा दिया गया है।
धार्मिक गाथाओं में भी तमाम देवता जब आसुरी शक्तियों से नहीं जीत पाते हैं तो मातृ शक्ति का आह्वान करते हैं। यह मातृ शक्ति देवी दुर्गा, काली, छिन्नमस्ता, चंडी आदि अनेक रूपों में राक्षसों का विनाश करती हैं। जिस तरह हमारे देवताओं को मातृ शक्ति पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है उसी तरह छात्रावासों में रह रहे बच्चे को लगता है-तुझे सब है पता है न मां? रात को डरावना सपना देखता है और मां कहकर चीखते हुए उठकर बैठ जाता है। शर्ट के टूटे हुए बटन को देखता है और याद आती है मां। मेस के खाने से जब-जब ऊबता है तो याद आता रहता है मां के हाथ की दाल। मां के हाथ की खीर। मां के हाथ की सब्जी। इसलिए अकारण नहीं कि जवान होने पर भी आदमी पत्नी में अपनी मां छवि ढूंढने की असफल कोशिश करता रहता है। पत्नी की अधिकतर चीजों की तुलना अपनी मां से करता है। यह स्वाभाविक भी है। क्योंकि पैदा होने के साथ ही बच्चा जीवन भर अपनी मां से ज्यादा निकट नहीं किसी को नहीं पाता। वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सद्य:प्रसूता स्त्री के देह से एक खास किस्म की गंध निकलती है, जो घर की अन्य महिलाओं के देह से नहीं निकलती। उस गंध के सहारे किसी को नहीं पहचानने वाला बच्चा भीड़ में भी अपनी मां को पहचान लेता है।
आप बड़े हो जाते हैं, कमाने लगते हैं, घर-परिवार बसा लेते हैं। मां से दूर अलग शहर में रहते हुए हम शायद अपनी मां की चिंता उतनी नहीं करते, जितनी वह दूर रहते हुए भी हमारी करती है। क्या मां की ममता का मोल चुकाया जा सकता है? यादों की बहुत छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पिटारी को जरा खोलिए और याद करिए कि कितनी बार नन्हीं लातें आपने उस पर चलाई होंगी, कितनी बार आपने घर में क्या-क्या तोड़ा-बिखेरा होगा और मां ने सब कुछ मुस्कुराते हुए समेटा। कितनी मिन्नतों के बाद रोटी का एक टुकड़ा, चावल के चार दाने आप चुगते थे और आपसे ज्यादा आपकी भूख से वह अकुलाती रहती थी। सुहानी शाम को जब दीया-बाती करते, श्लोक या मंत्र बुदबुदाते हुए अनायास ही जब उसने आपके भीतर घर की परंपरा और संस्कार के बीज डाले थे। बात-बात पर अपनी फरमाईशें और उसे पूरा करने के लिए खुशी-खुशी तत्पर मां की याद आप भूले न होंगे। दाल-चावल से लेकर मटर-पुलाव, अजवाइन डली नमकीन पूरियों की याद, कुरकुरी भिंडी, घी-जीरे में बघारी दाल सहित ऐसी कितनी ही सब्जियों की यादें आपके जेहन में होंगी जो मां के अलावा और किसी की याद दिला ही नहीं सकते।
जब 102-103 डिग्री बुखार में आप तप रहे होते थे तो आपकी सुखद नींद के लिए सारी रात कौन जागती थी? बेशक मां। सो जा बेटा, बीमारी हाथी की चाल से आती है और चींटी की चाल से जाती है..यह दिलासा आपको आज भी मां की याद दिला ही देता होगा। बड़े होने पर हम अपनी कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ मां की सलाहों पर, समझदारी पर भरोसा नहीं करते हैं। तभी तो मां कहती है कि जब मेरे बेटे को कुछ भी बोलना नहीं आता था तो यह क्या चाहता है-मैं जान जाती थी। अब जबकि यह सब कुछ बोलना जानता है, बहुत कुछ बोलता रहता है तो इसकी मैं एक भी बात नहीं समझ पाती हूं। कल जिसने हमें बोलना सिखाया, हमें भाषा दी, आज हम उसी को बोलने नहीं देते हैं। मां पुरानी, उसके मूल्य पुराने, उसकी बातें पुरानी। हम बर्दाश्त ही नहीं कर पाते हैं कि किसी भी नए चीज में मां आपका हित-अहित देखती-परखती रहती है। आपके लिए क्या अच्छा होगा, क्या बुरा हो सकता है इसको आंकती रहती है। आपकी झुंझलाहट के बावजूद हिदायत देना नहीं भूलतीं? हमें एकांत में कभी मां की इस आदत पर सोचना चाहिए और जब आप सोचेंगे तो पाएंगे कि आप खुद एक गहरे ममत्व के गिरफ्त में हैं। कितनी ही प्रार्थनाओं के बाद आप भगवान की सूरत नहीं देख सकते, मगर मां को ईश्वर के प्रतिरूप के रूप में देख ही सकते हैं।
जो गायब भी है हाजिर भी
गजल गायिकी के क्षेत्र में अपने अनूठे अंदाज के लिए मशहूर पाकिस्तानी गायिका इकबाल बानो नहीं रहीं। मंगलवार, 21 अप्रैल, 2009 को लाहौर के गार्डन टाउन इलाके में उनका इंतकाल हो गया।
फौजी जनरल याह्या खान के समय जब इस्लाम को लेकर बेहद सख्त और पाबंदी भरा रवैया अख्तियार किया गया था, तो उन्होंने जनता की आवाज बन जाने वाली इस नज्म के बहाने अवाम के मन की बातों को आवाज दी-
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंग..
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे..
बगावत करने के लिए उकसाती यह नज्म पाकिस्तान में बेहद मशहूर हुई। इस गजल को उन्होंने करीब 50 हजार की भीड़ के सामने गाया था। बाद में तो ये हुआ कि इकबाल बानो जब भी किसी मंच पर इस नज्म को गाते हुए ये कहतीं, सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे तो दर्शकों के बीच से समवेत आवाजें आतीं-हम देखेंगे..। इसकी वजह ये थी कि फैज अहमद फैज की यह नज्म फौजी हुकूमत से परेशान जनता के दिल की सच्ची आवाज बन गई थी। इसके अलावा इकबाल बानो ने फैज अहमद फैज की दूसरी नज्मों और अहमद फराज की गजलों को अपने खास अंदाज में गाकर अमर कर दिया।
दिल्ली में 1935 में पैदा हुई इकबाल बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी थी। बचपन में संगीत के प्रति उनके लगाव और पुरकशिश आवाज के कारण उनके पिता ने उन्हें संगीत सीखने की इजाजत दे दी। फिर वे आल इंडिया रेडियो, दिल्ली के लिए गाने लगीं। महज 17 साल की उम्र में लाहौर के एक बड़े जमींदार के साथ उनका निकाह हो गया। निकाह के बाद 1952 में वे पाकिस्तान चली गईं। शौहर ने उन्हें यह वचन दिया था कि वे इकबाल को कभी गाने-बजाने से नहीं रोकेंगे और उन्होंने अपना यह वचन 1980 में अपनी मृत्यु तक बखूबी निभाया। लाहौर में बेपनाह मुहब्बत करने वाले शौहर और अवाम के प्यार के बावजूद इकबाल के दिल में हमेशा दिल्ली के लिए खास प्यार बना रहा। वे बार-बार दिल्ली आना चाहतीं थी-यहां की शास्त्रीय संगीत की परंपरा, बचपन की गलियां-चौबारे उन्हें खींचती थी।
वहां जाने के बाद उन्हें लाहौर रेडियो ने गाने के लिए बुलाया। उन्होंने अपनी मधुर गायिकी का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन बाद लाहौर के आर्ट कौंसिल में किया था। पचास के दशक में इकबाल ने कुछ पाकिस्तानी फिल्मों में भी गाया, जिनमें गुमनाम, कातिल, इंतकाम, सरफरोश, इश्क-ए-लैला और नागिन प्रमुख हैं। संगीत के रसिक कई बार बेगम अख्तर और इकबाल बानो गायिकी के बीच कुछ चीजों को लेकर तुलना भी करते रहते हैं। मसलन इकबाल भी राग की शुद्धता और गजल की गुणवत्ता का खास ख्याल रखती थीं। उर्दू के साथ-साथ फारसी गजलें भी वे पूरे अधिकार के साथ गाती थीं। इसलिए 1979 से पहले तक अफगानिस्तान के बादशाह उन्हें हर साल जश्न-ए-काबुल के मौके पर गाने का दावत भेजते थे। हालांकि वे मशहूर हुईं अपनी गजल गायिकी की वजह से, लेकिन ठुमरी और दादरा भी इकबाल ने बिल्कुल अलहदा अंदाज में गाया है। तू लाख चले री गोरी थम थम के..भी उनकी मशहूर गजलों में से एक माना जाता है।
यूं तो 74 वर्ष की उम्र कुछ खास नहीं होती, लेकिन कुछ महीने पहले ही वे जब बीमार पड़ीं, तो फिर उठ न सकीं। शायद पति के देहांत के बाद की तन्हाई और वक्त के साथ बढ़ते फासले की वजह से वे थक गई थीं और चल पड़ी अंतिम यात्रा पर..लाजिम है कि हम भी देखेंगे..कि उत्कंठा मन में लिए हुए।
महिलाएं निर्णायक और शक्तिशाली पदों पर आसीन
भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से अलग दुनिया के नक्शे पर औसतन 35 वर्ष की युवा नेत्रियां अपने देश की सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं। अफगानिस्तान जैसे कट्टर धार्मिक मुल्क की चर्चित युवा सांसद मलालाई जॉय महज 31 साल की उम्र में कई सरकारी और गैर सरकारी पदों पर काम कर रही हैं। उन्होंने अफगानिस्तान की महिला-समस्याओं को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा है। स्वीडन की 33 वर्षीय नताली रिकेल, आस्ट्रेलिया की 32 वर्षीय केट इली, फिनलैंड की 33 वर्षीय पिया नूरा काऊप, जर्मनी की 34 वर्षीय सबाइन बैटजीन जैसी लगभग 50 जवान और खूबसूरत महिलाओं की लंबी फेहरिस्त है, जो अपने-अपने देश की सरकार में बेहद महत्वपूर्ण पदों पर हैं। गौरतलब यह है कि इन देशों के राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए टिकट बांटते समय इस बात का खास ख्याल रखते हैं कि किसी लिंग विशेष के प्रति पार्टी का कोई दुराग्रह या पूर्वग्रह आम मतदाताओं को न दिखे। अमेरिका में मेडलीन अलब्राइट, कोंडोलीजा राइस से लेकर वर्तमान बराक ओबामा सरकार में हिलेरी क्लिंटन सहित अनेक महिलाएं निर्णायक और शक्तिशाली पदों पर आसीन हैं। उल्लेखनीय यह है कि इन ताकतवर महिलाओं के साथ वहां की सरकार में युवा नेत्रियों की भी अच्छी-खासी संख्या है। मगर भारतीय राजनीति में जब कभी युवा नेताओं की बात आती है, तो चर्चा केवल कुछ ही चर्चित युवा नेता-पुत्रों तक सिमट कर रह जाती है। इन चर्चाओं के बीच भारतीय राजनीति में दो तिहाई युवा मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए युवा नेत्रियों की अपर्याप्त भागीदारी की बात अनसुनी ही रह जाती है।
पाकिस्तान में निराला की निराली मिठाईयां
खाने-पीने के शौकीनों के लिए पाकिस्तान का लाहौर शहर वाकई स्वर्ग है, जहां विभाजन से पहले ग्वालमंडी के नाम से मशहूर बाजार पिछले कई दशकों से फूड स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है। फूड स्ट्रीट में सड़क के दोनों ओर सिर्फ खाने-पीने की ही दुकानें हैं। शाम के छह बजे के बाद इस मार्केट में सुरक्षा बेहद कड़ी कर दी जाती है और खाने-पीने के कद्रदानों को सिर्फ पैदल ही जाने के इजाजत होती है। दिलचस्प यह है कि यदि आपको अलग-अलग तरह के पकवान खाने का दिल कर रहा है, तो इसके लिए अलग-अलग दुकानों में जाने की जरूरत नहीं है। किसी भी एक मनपसंद दुकान पर आप बैठ जाएं, वहां जो पसंद हो वह खाएं और वहीं बैठे-बैठे जो दिल करे उस पकवान के लिए आप वेटर को आर्डर करें। वह हर दुकान से चीजें ला-लाकर आपके सामने परोसता जाएगा। फिर आप उसी को बिल दे दें। वह जिस दुकान से जो लाया होगा, वहां जाकर पैसा चुका आएगा।
तो साहब, हम युसुफ की खीर की दुकान पर खीर खाने के लिए बैठे। दुकान के मालिक युसुफ खान बड़े कड़ाह में दूध खौला रहे थे और बीच-बीच में पाउडरनुमा कुछ डालते जा रहे थे। मैंने पूछा कि ये पाउडर क्या है, तो उन्होंने कहा, जनाब काजू-बादाम-पिस्ता और इलाइची का पाउडर है। सूखे मेवे पहले ही डाल दिए हैं। जिसको आप पाउडर कह रहे हैं, वही तो असली चीज है हुजूर..यह कहकर वे पान चबाते हुए खीर बनाने लगे। मेरे सामने ही पूर्व पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान पूरे लाव-लश्कर के साथ खीर खाने आ पहुंचे। युसुफ साहब ने जैसी खीर खिलाई, वैसी खीर बनारस, आगरा और मथुरा में भी नहीं खाई। खीर खाकर जब मैं चलने लगा तो युसुफ भाई ने कहा, जनाब यदि आपने निराला की मिठाई नहीं खाई तो समझ लीजिए लाहौर में आपने कुछ नहीं खाया। आप हिंदुस्तान लौटकर पछताएंगे कि लाहौर जाकर भी निराला की मिठाई खाए बगैर लौट आया। निराला नाम सुनते ही मेरे जेहन में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का नाम निराला..निराला..गूंजने लगा। भारत में रहते हुए मैंने ऐसे नामों की कल्पना भी नहीं की थी-लक्ष्मी चौक, सुंदर दास रोड, लाला छतरमल रोड, दयाल सिंह कालेज, गुलाब देवी अस्पताल, सर गंगाराम अस्पताल, पटेल अस्पताल और अब निराला स्वीट्स?
तकरीबन पचास साल पहले 1948 में अमृतसर से पाकिस्तान आकर मरहूम ताज दीन ने पुराने लाहौर के फ्लेमिंग रोड में मिठाई और नाश्ते की दुकान खोली। थोड़े ही समय में उनके मिठाई के चर्चे होने लगे। उनके बाद उनके पुत्र फारुक अहमद ने लाहौर के जेल रोड में दूसरी दुकान खोली। उन्होंने पैकेजिंग और गुणवत्ता को लगातार बरकरार रखने पर पूरा जोर लगाया। जिसका बड़ा असर यह हुआ कि आज पाकिस्तान में निराला एक बड़ा ब्रांड नाम बन गया है। जिसका फायदा उन्हें दूसरे व्यवसायों में मिल रहा है। फारुक अहमद के दो बेटे एम.बी.ए. पास हैं और उन्होंने इस बिजनेस का आधुनिकता के मेल करके दुकान की सुंदरता के मामले में मैकडोनाल्ड को भी मात दे दिया है। इस वजह से आज निराला की प्रसिद्धि का आलम ये है कि कराची, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, सियालकोट, पेशावर, क्वेटा, सरगोधा, फैसलाबाद यानी पूरे पाकिस्तान में निराला स्वीट्स की एक बहुत बड़ी श्रृंखला है। कुछ-कुछ उसी तरह जैसे दिल्ली में अग्रवाल स्वीट्स और नाथू स्वीट्स की शहर भर में पूरी चेन है। मगर इनकी मौजूदगी पूरे देश तो क्या पूरे एनसीआर क्षेत्र में भी बहुत बड़े पैमाने पर नहीं दिखाई देती है। मगर निराला और पाकिस्तानी अवाम जैसे एक-दूसरे के पूरक हैं। हर शहर में निराला, हर जुबान पर निराला-ये स्लोगन वाकई पाकिस्तान में सच लगता है।
कराची में निराला स्वीट्स के नब्बे फीसदी से ज्यादा कारीगर हिंदू हैं। यह धारणा लगभग अंधविश्वास की तरह पाकिस्तानियों के मन में है कि हिंदू बेहतर मिठाई बनाते हैं। इस वजह से निराला के अलावा और दूसरी मिठाई की दुकानों में भी हिंदू कारीगर ही आम तौर पर होते हैं। पूरे पाकिस्तान में 25 लाख से ज्यादा हिंदू आबादी है, लेकिन दुखद यह है कि वहां भी भारत की ही तरह जातिवाद है। इसलिए सवर्ण पाकिस्तानी हिंदू नीची जाति के कारीगरों के हाथों की बनी हुई मिठाई लेना पसंद नहीं करते। मगर मुसलमान इस तरह का कोई भेदभाव नहीं बरतते। हालांकि शाकाहारी होने के कारण पाकिस्तानी मुसलमान वहां के हिंदुओं को दालखोर यानी दाल खानेवाला कहकर चिढ़ाते हैं, मगर ये भी स्वीकार करना नहीं भूलते कि जनाब हिंदू से बेहतर शाकाहारी खाना और कोई नहीं बना सकता। मैंने जिज्ञासावश पूछा क्यों? तो निराला स्वीट्स के मालिक ने कहा कि मुसलमान कारीगर सब्जी भी बनाएंगे तो मटन-चिकन की तरह बनाकर रख देंगे। बगैर अधिक तेल-मसाला डाले हमारे हिंदू कारीगर क्या लाजवाब दाल-सब्जी बनाते हैं। खाना सादा, मगर जायका निराला।
निराला की मिठाईयों की एक लंबी सूची है-सौ से भी ज्यादा किस्म की। रेगुलर स्वीट्स, स्पेशल स्वीट्स और शुगर फ्री स्वीट्स की लंबी सूची है। बालूशाही, बर्फी बादाम, बर्फी रुस्तम, हलवा टिक्की, हलवा हब्शी, हलवा कराची, पतीसा गोल, फीकी जलेबी, इमिरती, समोसा गोंडवी, शाही तोश जैसी रेगुलर स्वीट्स की लंबी सूची है। वहीं मधुमेह रोगी मिठाई के शौकीनों के लिए शुगर फ्री रसगुल्ले, काला जामन, लाल जामन, पेठे, मोतीपाक, मोतीचूर की कई प्रकार उपलब्ध रहते हैं। मिठाई जब खा लें तो निराला का राबड़ी मिल्क जरूर ट्राई कीजिए और तब तक पेट यदि पूरी तरह भर चुका हो तो निराला-पानी ब्रांड का मिनरल वाटर तो पी ही सकते हैं। यदि दोनों न पीना चाहें तो निराला स्वीट्स में एक अद्भुत किस्म का जूस मिलता है जिसका नाम है-बाउंसर। जीभ से स्पर्श होते ही वाकई बाउंसर लगने का एहसास होता है। नमकीन के शौैकीनों के लिए भी बहुत बड़ी रेंज है -दाल मूंग, दाल मसूर, पोपट और अनेक तरह के दालमोट, नानखटाई और मैदे के विभिन्न बिस्कुट। ..और निराला के समोसे का तो भई जवाब नहीं। समोसा यहां वेज और नान वेज दोनों मिलता है। नान वेज के शौकीन चाहें तो चिकेन समोसा आजमा सकते हैं। नाश्ते में वहां एक स्पेशल चीज मिलती है-फीओनियन। यह सेवई जैसी एक चीज होती है जो बेहद गर्म दूध में मेवे वगैरह डालकर परोसते हैं। ऐसा लाहौर के लोग मानते हैं कि यदि आपने निराला में यह नाश्ता कर लिया तो आपको दिन भर और कुछ खाने की जरूरत नहीं होगी। रमजान के महीने में वहां यह खासा लोकप्रिय नाश्ता माना जाता है और विशुद्ध देशी घी में बनी निराला की इमरती और जलेबी का तो क्या कहना।
निराला स्वीट्स ने कई तरह की बेहतरीन पैकेजिंग के लिए एक अलग विभाग ही बनाया हुआ है, जहां ग्राहकों के आर्डर पर अलग-अलग तरह से उपहार दिए जाने वाले मिठाई की मनपसंद पैकिंग बिल्कुल मुफ्त की जाती है। पाकिस्तान में और पाकिस्तान से बाहर अपनी मिठाई के शौकीनों के लिए निराला ऑनलाइन ऑर्डर लेता है और महज 72 घंटों में घर पहुंचा देता है। वक्त की पाबंदी का इतना खयाल रखा जाता है कि वक्त की पाबंदी के मामले में वहां निराला की मिसाल दी जाती है। अफसोस यह है कि इन दिनों दोनों देश के बीच जिस तरह के रिश्ते हैं, उस वजह से शायद हम भारतवासी निराला की मिठाई नहीं मंगवा सकते। फिलहाल हम यह प्रार्थना ही कर सकते हैं कि स्थिति सामान्य हो तो भारत के लोग भी निराला की मिठाई चख सकें।
इतिहास का एक अजनबी
ये तब की बात है जब मैं तब पांच-छह साल का था। मेरी मम्मी चूंकि पत्रकार थी, इसलिए काम के सिलसिले में अक्सर उनका शहर से बाहर आना-जाना लगा रहता था। मेरी मां सोचती थी कि कि चूंकि मेरी कोई बहन या भाई नहीं है इसलिए मेरे लिए बेहतर ये है कि मुझे वे नाना-नानी के पास छोड़ जाएं। वहां मेरे मामा और मौसियों के बच्चों के संग मेरा मन लगा रहेगा। नीम के पेड़ के पास हम खेल रहे थे। अचानक मेरे एक ममेरे भाई ने चिल्ला कर कहा-आतिश का सूसू नंगा है। मैं नंगा का मतलब जानता था-यह शब्द अक्सर मेरी नानी तब इस्तेमाल करती थी जब कोई बच्चा पैंट पहनने में आनाकानी करता था। थोड़ी देर बाद हमलोग घर आए, तो वहां भी मेरे कजिन ने वही वाक्य चिल्लाकर दोहराया। इस बार घर के तमाम लोग मेरी तरफ देखकर हंसने लगे। यह वाक्य मेरी स्मृत्तियों में खचित हो गया। तभी मुझे लगा कि मैं अपने दूसरे सिख भाईयों से अलग हूं। एक परिवार में होते हुए भी मैं सबसे अलग क्यों हूं? मैंने सोचा कि मम्मी के लौटते ही सबसे पहले इसका मतलब पूछूंगा कि मेरे कजिन ने मेरे सूसू को नंगा क्यों कहा? इसी अहसास ने मुझे अपने मुसलमान पिता और उनके देश पाकिस्तान के बारे में जानने के बारे में जिज्ञासा पैदा की।
जुलाई 2002 की बात है। मैं पहली बार अपने पिता से मिलने पाकिस्तान जा रहा था। वीजा के सिलसिले में जब मैं पाकिस्तान हाई कमीशन गया था, तो पता चला वे लोग मेरे पिता को जानते हैं। चूंकि मेरा पासपोर्ट ब्रिटेन का था, इसलिए वीजा में यह विकल्प था कि मैं कहीं से भी पाकिस्तान में प्रवेश कर सकता हूं। अटारी बोर्डर से उस पार जाने पर पता चला कि पासपोर्ट-वीजा की जांच कर रहे हाकिम भी मेरे पिता को जानते हैं। वहां एक साहब ने मुझसे पूछा कि मैं किस सिलसिले में यहां आया हूं, तो मैंने बताया कि मेरे एक दोस्त का जन्म दिन है। थोड़ी दूर से मुझे सही करती हुई एक आवाज आई-सालगिरह। तभी एक सज्जन ने आकर पूछा कि ओह, आप इंडिया से आए हैं। मैंने कहा, हां। उन्होंने फिर पूछा, मगर आपके वालिद तो सलमान तासीर साहिब हैं? पर खैर वह प्रसंग वहीं समाप्त हुआ।
लाहौर के सबसे पाश इलाके में मेरे पिता का फार्म हाउस है, जहां वे रहते थे। अब तो खैर वे पंजाब के गवर्नर हैं, सो जाहिर है अब वे गवर्नर हाउस के वासी हैं। इसके साथ ही वे पाकिस्तान के बड़े उद्योगपतियों में से एक हैं। एक में उन्होंने ठान लिया था कि वे पूरी तरह से अपने बिजनेस में रमे रहेंगे, पर बाद में वे फिर राजनीति में आए। मैंने पाया कि मेरे पिता हालांकि बहुत कट्टर अर्थों में मजहबी नहीं हैं। वे शराब के शौकीन हैं और कोई भी शाम उनकी शराब के बगैर नहीं शुरू होती है। फिर भी वो खुद को बहुत गहरे अर्थों में सांस्कृतिक मुसलमान मानते हैं। यह बात मेरे समझ में नहीं आई कि उनका रहन-सहन, उनका खान-पान, उनका आचरण कहीं से भी मजहब की कोई बू नहीं तो फिर ये सांस्कृतिक मुसलमान होना क्या है? हर चीज में इस्लाम की उच्चता साबित करने की कोशिश करने वाले अपने पिता के इस्लाम को जानने के लिए मैंने एक संकल्प ले लिया।
सांस्कृतिक मुसलमान होने का मतलब तलाश करने के लिए आतिश ने सीरिया और सऊदी अरब से लेकर तुर्की, ईरान, पाकिस्तान आदि देशों की यात्रा करने की सोची। ताकि इन देशों के विभिन्न वर्गों के लोगों से मिलकर उनके मनोविज्ञान और उस मनोविज्ञान को बनाने में उनके मजहब के योगदान के बारे में जाना जा सके। ..और आतिश का यह सफर सवालों के जवाब तलाश करने का एक बड़ा सफर साबित हुआ। अगर इस्लामी उम्मा सिर्फ एक खयाल नहींयथार्थ है तो फिर इस्लामी देश अलग-अलग सीमाओं में क्यों बंधे हैं? और बाकी देशों की तरह एक धर्म होने के बावजूद आपस में युद्ध क्यों करते हैं? दुनिया भर के दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम में बदल डालने के लिए लड़ रहे मुजाहिदीनों के संदर्भ में सहज ही उनका सवाल है कि मुस्लिम देशों के बीच भाईचारे की जगह क्यों तनातनी पैदा होती है? संयोग से इन सवालों के जवाब उस आतिश ने तलाशने की कोशिश की है जिसे डेढ़ साल की उम्र में उसके पिता ने त्याग दिया था और दोबारा पलटकर फिर कोई खैरियत न पूछी।
व्यापक अर्थ में सांस्कृतिक मुसलमान होने के मतलब को जानने-समझने के लिए आतिश ने सीरिया, सऊदी अरब, तुर्की, ईरान और पाकिस्तान की यात्रा की। हर देश में जाकर वे हर वर्ग के लोग से मिले। हर तरीके से उनमें घुल-मिलकर उनके भीतर के इस्लाम को जानने की कोशिश की। जिसके बाद जवाब की खोज में निकले आतिश को जवाब बेहद कम और सवाल ही अधिक मिले। तुर्की में उदारवादी व्यवस्था की जगह वहां के लोग कट्टर इस्लामिक व्यवस्था का ख्वाब देखते हैं। आतिश की इंस्तांबुल में मुलाकात ऐसे इस्लामपरस्तों से हुई जो धर्मनिरपेक्ष सत्ता से तकरीबन नफरत करते हैं और उनका बस चले तो वे तुरंत वहां शरिया कानून लागू कर दें। मगर यह चीज आतिश को ईरान को में परेशान करती है कि जैसी शरिया आधारित व्यवस्था तुर्की के लोग चाहते हैं वह तो पहले से ईरान में कायम है। धार्मिक कड़ाई और बंदिश का असर यह है कि ईरानी इस व्यवस्था से बगावत पर उतारू हैं। तेहरान में आतिश को ऐसे लोग भी अच्छी-खासी तादाद में मिले जो गुप्त रूप से हरे राम-हरे कृष्ण संप्रदाय को मानते हैं। कान्हा की मूर्ति के सामने भजन-कीर्तन करते हैं, नाचते-गाते हैं। ईरान में उनकी मुलाकात एक ऐसे चित्रकार से होती है, जो इस्लाम में बहुत आस्था रखता है और हर दम अपनी कार में कुरआन रखता है। एक दिन उसका एक मित्र कुरआन उठाकर फेंक देता है और कहता है-इसमें कुछ नहीं रखा है। उस चित्रकार का विरोध इस्लाम से ज्यादा उस सरकार का विरोध था जो जनता पर जबर्दस्ती मजहब को लादती है। आतिश लिखते हैं कि, ईरान जाने के बाद मुझे यह पता लगा सीरिया में उसका इलहाम हुआ कि मजहबी विचार को आधुनिक दुनिया के खिलाफ एक नकारात्मक विचार से जब तक सकारात्मक प्रयोग में बदला जाता है, तो वह किस तरह हिंसक और आत्मघाती बन जाता है। तुर्की के लोग उस इस्लामिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं जो मोहम्मद साहिब के समय में रही होगी। क्योंकि उन्हें लगता है कि आधुनिकता दरअसल इस्लाम के खिलाफ एक साजिश है। ..और तुर्की वालों की यह कल्पना जब ईरान में पहले से साकार है तो वहां इस व्यवस्था से बगावत की दबी हुई चिंगारी दिखती है। लब्बोलुआब यह कि बलपूर्वक मानने को बाध्य की गई किसी भी व्यवस्था से सहज की प्रतिकार की आशंका बलवती होने लगती है।
आतिश ने मुस्लिम दुनिया की मानसिकताओं, प्राथमिकताओं और विसंगतियों को बहुत गहराई में जाकर देखने की कोशिश की है। हालांकि यहां इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि इन तथ्यों की व्याख्या के समय आतिश के मन में पिता से मिली तल्खी भी कहीं न कहीं बनी रही है। लेखक ने अपने निजी जीवन में मौजूद तल्खी और गुस्से को बेहद बड़े कैनवास पर देखने की कोशिश की है इसलिए कई जगह ऐसा लगता है कि उनके निष्कर्षो से तत्काल मुतमइन होना सहज नहीं है। बावजूद इसके आतिश की भाषा, निजी अनुभव और अंदाजे-बयां बेहद मोहक है। जिसकी तस्दीक उनका परिपक्वता की ओर बढ़ता हुआ निजी कंठ-स्वर है।
ऐसे पैदा होती हैं सनसनीखेज खबरें
ये मामला जरा पुराना है, पर प्रासंगिक है.
दिल्ली के हाई प्रोफाइल लोगों के क्लब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारत और पाकिस्तान के नामचीन पत्रकारों के लिए द फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक सेमिनार आयोजित किया था। जिसमें पाकिस्तान की पत्रकारिता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर पहचान दिलाने वाले कई पत्रकार उपस्थित थे। पेशावर स्थित जंग समूह के द न्यूज के संस्थापक और कार्यकारी संपादक सहित बीबीसी की पश्तो और उर्दू सेवा के लिए रिर्पोटिंग, टाइम मैगजीन आदि के लिए रिर्पोटिंग करने वाले पत्रकार रहीमुल्ला युसुफजई, कराची में रहने वाली स्वतंत्र पत्रकार और फिल्म निर्माता बीना सरवर, डेली आजकल के संपादक सईद मिन्हास, बीबीसी बड़े पत्रकार वुसतुल्लाह खान और द न्यूज के मुनीबा कमाल सहित नामचीन पाकिस्तानी पत्रकारों की अच्छी-खासी संख्या थी। इधर भारत की ओर से प्रख्यात बुद्धिजीवियों की भी अच्छी-खासी संख्या थी, जिनमें जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय, हिंदुस्तान टाइम्स के अमित बरुआ सहित तकरीबन ढाई सौ भारतीय और पाकिस्तानी पत्रकार भाग ले रहे थे।
भारत-पाकिस्तान में अंध-राष्ट्रभक्ति बढ़ाने में मीडिया की खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी प्रवृत्ति को लेकर सेमिनार में अच्छे व्याख्यान हुए, बेहतर स्तर के सवाल-जवाब हुए और पूरा कार्यक्रम तकरीबन तीन घंटे तक चला, जिसमें कथित श्रीराम सैनिकों (जिनकी संख्या महच तीन थी) के उत्पात को छोड़ दें, तो पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से तकरीबन तीन घंटे तक चलता रहा। लोगों के बीच अच्छी बातचीत हुई, हँसी-मजाक हुए। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जहां कुछ पाकिस्तानी पत्रकार भारतीय चुनाव पर बात करने लगे, वहींकुछ पत्रकार दिल्ली में मिलने वाली उम्दा क्वालिटी की शराब की जानकारी इसके विशेषज्ञ भारतीय मित्रों से लेने लगे। क्योंकि मयनोशी के शौकीन बेचारे पाकिस्तानी पत्रकारों को अपने इस्लामिक देश में यही एक चीज है जो मयस्सर नहीं। वहां शराब की दुकानों से हिंदू, ईसाई और सिख तो शराब खरीद सकते हैं, लेकिन पाकिस्तानी मुसलमान नहीं। खैर..सेमिनार के बाद भारत-पाक के पत्रकार यूं मिल रहे थे, जैसे अपने बेहद खास दोस्तों-रिश्तेदारों से मिल रहे हों-अलग-अलग टोलियों में शाम की दावत और सुकून भरे पल बिताने के बारे में लोग योजनाएं बना रहे थे।
अजीब और दुखद बात यह है कि जिस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए भारत-पाक के ये नामचीन सहाफी इकट्ठे हुए थे, दरअसल वही इस सेमिनार से बाहर की दुनिया में उसी दिन और उसी वक्त घटित हो रहा था। हुआ ये था कि बीबीसी के पेशावर स्थित संवाददाता रहीमुल्ला युसुफजई, जिन्होंने ओसामा बिन लादेन का इंटरव्यू करके दुनिया को सीधे उसके विचारों से रू-ब-रू करवाया था-उस दिन सेमिनार में अपने मौलिक अंदाज में थे। वे जब पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी मीडिया के गैर जिम्मेदाराना रवैये का उदाहरण दे-देकर ब्यौरा पेश करते हुए तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे थे, उसी वक्त कथित तीन श्रीराम सैनिकों ने पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी शुरु कर दी। तब आईआईसी के प्रबंधकों और आयोजकों ने भद्र तरीके से उन्हें हॉल से बाहर निकाल दिया। बस फिर क्या था-ततैये के झुंड पर तो पत्थर लग चुका था। जो मीडिया वाले सेमिनार सुन रहे थे, जो टीवी चैनल वाले वक्ताओं की बातों को फिल्मा रहे थे, उनका कैमरा उन्हीं तीन श्रीराम सैनिकों पर केंद्रित हो गए। गरमा-गरम बाइट मिला, गरमा-गरम हाट सीन मिला और गरमा-गरम टापिक भी मिल गया। फिर वहां कौन वक्त खराब करने के लिए रुकता? दौड़े वे लोग खबर चलाने के लिए। क्योंकि छप रहे अखबार और पक रहे मांस को चाहिए गरम मसाला। ..और जनाब मामला जब दुश्मन देश पाकिस्तान से जुड़ा हो, मियां मुशर्रफ के देश से जुड़ा हो तो इससे ज्यादा हॉट न्यूज भला और क्या हो सकता था?
इधर कार्यक्रम चल रहा था और उधर टीवी के टिकर्स (पर्दे के नीचे चलनेवाली खबरों की पट्टी) से मुख्य खबरों की जगह आन विराजा था यह महत्वपूर्ण समाचार-नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पाकिस्तानी पत्रकारों पर श्रीराम सेना का हमला, हालात को काबू में करने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल तैनात आदि-आदि। पाकिस्तानी पत्रकारों ने जो बातें कहीं, सेमिनार में जो कुछ हुआ वह सब गया भाड़ में, खबर ये पैदा हुई कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। तीन ही लोग यदि सैनिकों जैसे बहुवचन के साथ न्याय करते हों, तो धन्य हैं हमारे खबर बनाने वाले सूरमा। यदि वे तीन श्रीराम सैनिक लिखते तो क्या तथ्य गलत हो जाता? मगर अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो की तर्ज पर उन्होंने तीन सैनिकों शब्द का इस्तेमाल करना बिल्कुल मुनासिब नहीं समझा। व्याकरण के नियमों का अच्छा उदाहरण पेश किया कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। अब पाठक समझते रहें कि सैनिकों का मतलब तीन है या तेरह हजार।
निष्पक्षता और तटस्थता का ठेका तो उन्होंने तभी लेना बंद कर दिया, जब से अनुबंध की नौकरी पर आए। इसलिए सैनिकों तो भई सैनिकों हैं और मार्केटिंग की पालिसी कहती है कि यदि आपने संख्या सही-सही बता दी, तब तो बिक गया प्रोडक्ट और मिल गई टीआरपी और विज्ञापन। तो ये है खबर बनाने का तरीका और इस तरीके से बनती है असली खबर। ..इस खेल में भला पाकिस्तानी मीडिया भी कैसे पीछे रहती। सो यह खबर जैसे ही भारतीय मीडिया में आई तो पाकिस्तानी मीडिया ने भी इस खबर को लपक लिया। उसके बाद तो पाकिस्तानी पत्रकारों की शामत आ गई। सबकी बीवी यहां फोन खड़काने लगी और शौहर की खैरियत पूछने लगी। बताया कि जी, यहां तो पाकिस्तान में खबर चल रही है कि आप लोगों पर श्रीराम सेना के चरमपंथियों ने जानलेवा हमले किए हैं। क्या हुआ जल्दी बताइए? अब वे लोग इस तमाशा के बारे में कहें तो क्या कहें? सबने इस खबर को बेबुनियाद बताया, तो बीवियों ने सोचा शौहर हमारा दिल रखने के लिए ऐसा बोल रहे हैं-ताकि वे कोई चिंता न करें। तमाशा भले न हुआ, लेकिन पुर्जे तो उड़ चुके थे और उड़कर पाकिस्तान तक पहुंच चुके थे। सो यहां आईआईसी में भले तमाशा न हुआ हो, मीडिया में तो तमाशा हो गया था।
अब जरा यह भी जान लीजिए कि इस सेमिनार में जो मुद्दे उठे क्या वे गैर जरूरी थे? आतंकवाद और तालिबानी खतरे को लेकर भारतीय रवैये को लेकर उनका कहना था कि भारत कहता है कि ये तो पाकिस्तान की ही लगाई हुई आग है..अब वो भुगते, इससे हमें क्या? अस्सी और नब्बे के दशक में यही रवैया पाकिस्तान का भी अफगानिस्तान को लेकर था-ये अफगानिस्तान की आग है, हमें क्या? मुजाहिदीन जानें, रुसी जानें या खुदा जाने। उस वक्त पाकिस्तानियों को यह अहसास नहीं था कि ये वो तीर है जो वापिस लौटकर भी आता है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि दो-तिहाई पाकिस्तान किसी-न-ृकिसी किस्म के आतंकवादी हमले, धार्मिक हमलों को बेहद उग्र रूप में झेल रहा है। जिससे देश का वजूद ही संकट के दायरे में आ गया है। पाकिस्तान एक ऐसा मरीज बन गया है जिसे इस वक्त उसकी संगीन गलतियां याद दिलाने, धमकियां और डांट-डपट करने से ज्यादा जरूरी है उसकी मदद और प्यार। पाकिस्तान और प्यार? वह भी भारत उसे प्यार करे, जिसे उसने हमेशा ही घावों और मौतों का उपहार दिया है? यह बात भला कथित श्रीराम सैनिक कैसे सह लेते? और वे यदि सह भी लेते तो जिंगोइज्म यानी अंध-राष्ट्रभक्ति से लबरेज हमारी मीडिया कैसे नजरअंदाज कर देती इसे? आखिर उनकी बाजारोन्मुखी राष्ट्रभक्ति और इश्तहार पैदा करने वाले प्रोडक्ट का सवाल था।
मुंबई हमले के बाद भारतीय मीडिया की इसी जिंगोइज्म की चर्चा हो रही थी कि कैसे दोनों देश की सरकारों से ज्यादा मीडिया ने युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। हर कोई अपने तोप का मुंह पाकिस्तान की ओर घुमाकर गोला भरने लगा है। क्या यही काम कभी पहले इराक युद्ध के समय सीनियर बुश के मिसाइलों के प्रहार की बेहतर कवरेज के लिए नहीं हुआ था? याद करिए कि उस समय बेहतर कवरेज के लिए नए सिरे से हमले की तारीख और वक्त तय किया गया था। मगर अफसोस कि भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया को मुंबई हमले के बाद अग्नि, पृथ्वी और हत्फ मिसाइलों की कवरेज का सौभाग्य(?) नहीं मिला। कितनी गलत बात है ये कि कमबख्त सरकारों ने मीडिया की भावनाओं का जरा भी खयाल ही नहीं रखा। लानत है मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी पर। सो इन दिनों भारत में इन भावनाओं का पेट भरता है प्रतिदिन तालिबान पर गलत-सलत फुटेज दिखाते हुए आधारहीन खबरें ब्रेक करने से, श्रीराम सैनिकों के विरोध को बड़ी खबर बनाने से। ऐसे में आखिर क्यों नहीं दोनों देशों की पत्रकारिता की विश्वसनीयता का क्षय होगा। रहीमुल्ला युसुफजई ने व्यंग्य बातचीत में व्यंग्य किया था-जय हो..। अब ये मत पूछिएगा कि किसकी? ओके?
दिल्ली के हाई प्रोफाइल लोगों के क्लब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारत और पाकिस्तान के नामचीन पत्रकारों के लिए द फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक सेमिनार आयोजित किया था। जिसमें पाकिस्तान की पत्रकारिता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर पहचान दिलाने वाले कई पत्रकार उपस्थित थे। पेशावर स्थित जंग समूह के द न्यूज के संस्थापक और कार्यकारी संपादक सहित बीबीसी की पश्तो और उर्दू सेवा के लिए रिर्पोटिंग, टाइम मैगजीन आदि के लिए रिर्पोटिंग करने वाले पत्रकार रहीमुल्ला युसुफजई, कराची में रहने वाली स्वतंत्र पत्रकार और फिल्म निर्माता बीना सरवर, डेली आजकल के संपादक सईद मिन्हास, बीबीसी बड़े पत्रकार वुसतुल्लाह खान और द न्यूज के मुनीबा कमाल सहित नामचीन पाकिस्तानी पत्रकारों की अच्छी-खासी संख्या थी। इधर भारत की ओर से प्रख्यात बुद्धिजीवियों की भी अच्छी-खासी संख्या थी, जिनमें जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय, हिंदुस्तान टाइम्स के अमित बरुआ सहित तकरीबन ढाई सौ भारतीय और पाकिस्तानी पत्रकार भाग ले रहे थे।
भारत-पाकिस्तान में अंध-राष्ट्रभक्ति बढ़ाने में मीडिया की खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी प्रवृत्ति को लेकर सेमिनार में अच्छे व्याख्यान हुए, बेहतर स्तर के सवाल-जवाब हुए और पूरा कार्यक्रम तकरीबन तीन घंटे तक चला, जिसमें कथित श्रीराम सैनिकों (जिनकी संख्या महच तीन थी) के उत्पात को छोड़ दें, तो पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से तकरीबन तीन घंटे तक चलता रहा। लोगों के बीच अच्छी बातचीत हुई, हँसी-मजाक हुए। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जहां कुछ पाकिस्तानी पत्रकार भारतीय चुनाव पर बात करने लगे, वहींकुछ पत्रकार दिल्ली में मिलने वाली उम्दा क्वालिटी की शराब की जानकारी इसके विशेषज्ञ भारतीय मित्रों से लेने लगे। क्योंकि मयनोशी के शौकीन बेचारे पाकिस्तानी पत्रकारों को अपने इस्लामिक देश में यही एक चीज है जो मयस्सर नहीं। वहां शराब की दुकानों से हिंदू, ईसाई और सिख तो शराब खरीद सकते हैं, लेकिन पाकिस्तानी मुसलमान नहीं। खैर..सेमिनार के बाद भारत-पाक के पत्रकार यूं मिल रहे थे, जैसे अपने बेहद खास दोस्तों-रिश्तेदारों से मिल रहे हों-अलग-अलग टोलियों में शाम की दावत और सुकून भरे पल बिताने के बारे में लोग योजनाएं बना रहे थे।
अजीब और दुखद बात यह है कि जिस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए भारत-पाक के ये नामचीन सहाफी इकट्ठे हुए थे, दरअसल वही इस सेमिनार से बाहर की दुनिया में उसी दिन और उसी वक्त घटित हो रहा था। हुआ ये था कि बीबीसी के पेशावर स्थित संवाददाता रहीमुल्ला युसुफजई, जिन्होंने ओसामा बिन लादेन का इंटरव्यू करके दुनिया को सीधे उसके विचारों से रू-ब-रू करवाया था-उस दिन सेमिनार में अपने मौलिक अंदाज में थे। वे जब पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी मीडिया के गैर जिम्मेदाराना रवैये का उदाहरण दे-देकर ब्यौरा पेश करते हुए तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे थे, उसी वक्त कथित तीन श्रीराम सैनिकों ने पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी शुरु कर दी। तब आईआईसी के प्रबंधकों और आयोजकों ने भद्र तरीके से उन्हें हॉल से बाहर निकाल दिया। बस फिर क्या था-ततैये के झुंड पर तो पत्थर लग चुका था। जो मीडिया वाले सेमिनार सुन रहे थे, जो टीवी चैनल वाले वक्ताओं की बातों को फिल्मा रहे थे, उनका कैमरा उन्हीं तीन श्रीराम सैनिकों पर केंद्रित हो गए। गरमा-गरम बाइट मिला, गरमा-गरम हाट सीन मिला और गरमा-गरम टापिक भी मिल गया। फिर वहां कौन वक्त खराब करने के लिए रुकता? दौड़े वे लोग खबर चलाने के लिए। क्योंकि छप रहे अखबार और पक रहे मांस को चाहिए गरम मसाला। ..और जनाब मामला जब दुश्मन देश पाकिस्तान से जुड़ा हो, मियां मुशर्रफ के देश से जुड़ा हो तो इससे ज्यादा हॉट न्यूज भला और क्या हो सकता था?
इधर कार्यक्रम चल रहा था और उधर टीवी के टिकर्स (पर्दे के नीचे चलनेवाली खबरों की पट्टी) से मुख्य खबरों की जगह आन विराजा था यह महत्वपूर्ण समाचार-नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पाकिस्तानी पत्रकारों पर श्रीराम सेना का हमला, हालात को काबू में करने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल तैनात आदि-आदि। पाकिस्तानी पत्रकारों ने जो बातें कहीं, सेमिनार में जो कुछ हुआ वह सब गया भाड़ में, खबर ये पैदा हुई कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। तीन ही लोग यदि सैनिकों जैसे बहुवचन के साथ न्याय करते हों, तो धन्य हैं हमारे खबर बनाने वाले सूरमा। यदि वे तीन श्रीराम सैनिक लिखते तो क्या तथ्य गलत हो जाता? मगर अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो की तर्ज पर उन्होंने तीन सैनिकों शब्द का इस्तेमाल करना बिल्कुल मुनासिब नहीं समझा। व्याकरण के नियमों का अच्छा उदाहरण पेश किया कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। अब पाठक समझते रहें कि सैनिकों का मतलब तीन है या तेरह हजार।
निष्पक्षता और तटस्थता का ठेका तो उन्होंने तभी लेना बंद कर दिया, जब से अनुबंध की नौकरी पर आए। इसलिए सैनिकों तो भई सैनिकों हैं और मार्केटिंग की पालिसी कहती है कि यदि आपने संख्या सही-सही बता दी, तब तो बिक गया प्रोडक्ट और मिल गई टीआरपी और विज्ञापन। तो ये है खबर बनाने का तरीका और इस तरीके से बनती है असली खबर। ..इस खेल में भला पाकिस्तानी मीडिया भी कैसे पीछे रहती। सो यह खबर जैसे ही भारतीय मीडिया में आई तो पाकिस्तानी मीडिया ने भी इस खबर को लपक लिया। उसके बाद तो पाकिस्तानी पत्रकारों की शामत आ गई। सबकी बीवी यहां फोन खड़काने लगी और शौहर की खैरियत पूछने लगी। बताया कि जी, यहां तो पाकिस्तान में खबर चल रही है कि आप लोगों पर श्रीराम सेना के चरमपंथियों ने जानलेवा हमले किए हैं। क्या हुआ जल्दी बताइए? अब वे लोग इस तमाशा के बारे में कहें तो क्या कहें? सबने इस खबर को बेबुनियाद बताया, तो बीवियों ने सोचा शौहर हमारा दिल रखने के लिए ऐसा बोल रहे हैं-ताकि वे कोई चिंता न करें। तमाशा भले न हुआ, लेकिन पुर्जे तो उड़ चुके थे और उड़कर पाकिस्तान तक पहुंच चुके थे। सो यहां आईआईसी में भले तमाशा न हुआ हो, मीडिया में तो तमाशा हो गया था।
अब जरा यह भी जान लीजिए कि इस सेमिनार में जो मुद्दे उठे क्या वे गैर जरूरी थे? आतंकवाद और तालिबानी खतरे को लेकर भारतीय रवैये को लेकर उनका कहना था कि भारत कहता है कि ये तो पाकिस्तान की ही लगाई हुई आग है..अब वो भुगते, इससे हमें क्या? अस्सी और नब्बे के दशक में यही रवैया पाकिस्तान का भी अफगानिस्तान को लेकर था-ये अफगानिस्तान की आग है, हमें क्या? मुजाहिदीन जानें, रुसी जानें या खुदा जाने। उस वक्त पाकिस्तानियों को यह अहसास नहीं था कि ये वो तीर है जो वापिस लौटकर भी आता है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि दो-तिहाई पाकिस्तान किसी-न-ृकिसी किस्म के आतंकवादी हमले, धार्मिक हमलों को बेहद उग्र रूप में झेल रहा है। जिससे देश का वजूद ही संकट के दायरे में आ गया है। पाकिस्तान एक ऐसा मरीज बन गया है जिसे इस वक्त उसकी संगीन गलतियां याद दिलाने, धमकियां और डांट-डपट करने से ज्यादा जरूरी है उसकी मदद और प्यार। पाकिस्तान और प्यार? वह भी भारत उसे प्यार करे, जिसे उसने हमेशा ही घावों और मौतों का उपहार दिया है? यह बात भला कथित श्रीराम सैनिक कैसे सह लेते? और वे यदि सह भी लेते तो जिंगोइज्म यानी अंध-राष्ट्रभक्ति से लबरेज हमारी मीडिया कैसे नजरअंदाज कर देती इसे? आखिर उनकी बाजारोन्मुखी राष्ट्रभक्ति और इश्तहार पैदा करने वाले प्रोडक्ट का सवाल था।
मुंबई हमले के बाद भारतीय मीडिया की इसी जिंगोइज्म की चर्चा हो रही थी कि कैसे दोनों देश की सरकारों से ज्यादा मीडिया ने युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। हर कोई अपने तोप का मुंह पाकिस्तान की ओर घुमाकर गोला भरने लगा है। क्या यही काम कभी पहले इराक युद्ध के समय सीनियर बुश के मिसाइलों के प्रहार की बेहतर कवरेज के लिए नहीं हुआ था? याद करिए कि उस समय बेहतर कवरेज के लिए नए सिरे से हमले की तारीख और वक्त तय किया गया था। मगर अफसोस कि भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया को मुंबई हमले के बाद अग्नि, पृथ्वी और हत्फ मिसाइलों की कवरेज का सौभाग्य(?) नहीं मिला। कितनी गलत बात है ये कि कमबख्त सरकारों ने मीडिया की भावनाओं का जरा भी खयाल ही नहीं रखा। लानत है मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी पर। सो इन दिनों भारत में इन भावनाओं का पेट भरता है प्रतिदिन तालिबान पर गलत-सलत फुटेज दिखाते हुए आधारहीन खबरें ब्रेक करने से, श्रीराम सैनिकों के विरोध को बड़ी खबर बनाने से। ऐसे में आखिर क्यों नहीं दोनों देशों की पत्रकारिता की विश्वसनीयता का क्षय होगा। रहीमुल्ला युसुफजई ने व्यंग्य बातचीत में व्यंग्य किया था-जय हो..। अब ये मत पूछिएगा कि किसकी? ओके?
क्या सोचते हैं पाकिस्तानी युवा?
पाकिस्तान का नाम सुनते ही आम भारतीय के दिमाग में मुंबई हमले में पकड़े गए एकमात्र जीवित आतंकवादी अजमल अमीन कसाब का चेहरा आता है या जम्मू-कश्मीर में प्रतिदिन सुरक्षा-बलों के साथ मुठभेड़ में मारे जाने वाले आतंकवादियों का। दुर्भाग्य से पाकिस्तान हमेशा गलत कारणों से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया रहता है। जबकि आतंकवाद और कानून-व्यवस्था से अलग पाकिस्तान की जो समस्याएं हैं, उस पर चर्चा कम होती है। हाल में आई पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए में जेहादियों, मदरसा वालों और कट्टर धार्मिक संगठनों में शिक्षित लोगों से अलग आम पाकिस्तानी युवाओं की क्या सोच है, यह दिखाने की कोशिश की गई है। अपनी सोच, रहन-सहन, और आम व्यवहार में पाकिस्तानी मध्यवर्ग कैसा है, इसके बारे में एक सामान्य जानकारी इस फिल्म से मिलती है।
पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों और आतंकवादी संगठनों के आकाओं का बयान अक्सर कट्टरतापूर्ण और भारत विरोधी होता है, इसलिए हमें लगता है कि ऐसा ही पूरा पाकिस्तानी समाज है और वहां के युवा वर्ग की यही सचाई है। जबकि हकीकत यह है कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित लोग काफी हद तक उदार, खुले दिमाग और चीजों को निष्पक्षता और तटस्थता से देखने वाले हैं। पाकिस्तान की ब्यूरोक्रेसी, उच्च शिक्षा, राजनीति, मीडिया और व्यापार में ज्यादातर ऐसे लोगों का दखल है। वहां की किसी भी नामचीन शिक्षण संस्थान में छात्राएं और अध्यापिकाएं बुर्के में नहीं रहती हैं। अफगानिस्तान से लगी सीमाओं और जनजाति बहुल इलाके फाटा को यदि छोड़ दिया जाए, तो पाकिस्तान में नकाब पहनने की प्रथा लगभग नहीं है। यहां तक कि आधी रात को भी ग्वाल मंडी (जो अब फूड स्ट्रीट के नाम से जाना जाता है) में अकेली औरतों को, रोमांटिक मुद्रा में खाना खाती नई दुल्हनों या प्रेमी-प्रेमिकाओं के जोड़ों को आसानी से देखा जा सकता है।
हिंदी फिल्मों का यहां के युवाओं पर इतना अधिक असर है कि वे जो भी नया हेयर स्टाइल देखते हैं, नया ड्रेस देखते हैं, तो वैसा ही दिखने का जुनून सवार हो जाता है। लाहौर के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान गवर्नमेंट कालेज के कुछ छात्रों ने शिकायती लहजे में मुझसे पूछा कि जनाब, ये बताएं कि आपके यहां पाकिस्तान को लेकर फिल्में बनती हैं, उसमें एक्ट्रेस हमेशा पाकिस्तान की क्यों दिखाई जाती हैं? हिना, गदर सब में में ऐसा ही है। क्या ये महज इत्तफाक भर है या इसके पीछे कोई खेल है? यह जानना दिलचस्प होगा कि हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का पाकिस्तानी युवाओं पर इतना अधिक असर है कि वे संस्कृतनिष्ठ शब्द लोकप्रियता, आचरण, व्यवहार, परिश्रम, आनंद, पिता, निर्देशक इत्यादि धड़ल्ले से बोलते हैं। चूंकि पूरे पाकिस्तान में हिंदी फिल्में ही चलती हैं, इसलिए यदि मदरसा में शिक्षित फारसी के आग्रही विद्वानों को छोड़ दें, तो वहां की जनता की आम जुबान में फारसी के शब्द बहुत कम इस्तेमाल होते हैं।
पाकिस्तानी पंजाब की हृदयस्थली लाहौर में लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज यानी लम्स की प्रतिष्ठा हमारे यहां के आई.आई.एम. की तरह है। यहां से पास हुए बच्चों को लाखों रुपये महीने की नौकरी आसानी से मिल जाती है। जिन छात्रों से मेरी बात हुई, उनके मन में भारत के प्रति विरोध और नफरत की जगह भारत देखने की हसरत दिखाई दी। वे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था, खुलेपन, और उदारता से बेहद प्रभावित हैं। पाकिस्तान के आम युवाओं की शिकायत है कि भारत आर्थिक क्षेत्र में हमसे काफी आगे निकल गया और हम हैं कि आज तक भारत से मुकाबले की ही जुगत में सिर खपाते रहते हैं। सॉप्टवेयर, कंप्यूटर और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में भारत की प्रगति से वहां के युवा बेहद प्रभावित हैं। वे खीजकर कहते हैं कि हमारे नेताओं ने तकसीम के बाद साठ साल का वक्त लड़ने-भिड़ने और हथियारों की खरीद-फरोख्त में बिता दिया, जबकि इंडिया हमसे हर मामले में आगे चला गया। हम भारत की चाहे लाख आलोचना करें, वहां कभी फौज सत्ता में नहीं आ सकती है। मगर हमारे यहां देखिए कि जम्हूरी निजाम से ज्यादा फौजी निजाम रहता है। लाहौर, कराची, इस्लामाबाद, पेशावर, फैसलाबाद, क्वेटा आदि शहरों में मीडिया, मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट आदि की पढ़ाई कर रहे शायद ही कोई ऐसा छात्र होगा, जो एक बार भारत न आना चाहता हो।
मुंबई को लेकर पाकिस्तानी युवाओं के मन में भी वही हसरत और आंखों में चमक दिखती है, जो किसी भी आम ग्रामीण और कस्बाई भारतीय युवा के मन में होती है। कराची के युवक हैरत से पूछते हैं कि क्या ऐसी ही है मुंबई? वहां तो आसानी से अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण, विद्या बालन सड़कों पर दिख जाती होंगी? एक टीवी कार्यक्रम कैंपस-रंपस में शिरकत कर रहे सैकड़ों छात्रों ने साफगोई से कहा कि उनका धर्म-कर्म में कोई विश्वास नहीं है। उन्हें मस्जिद जाने या धार्मिक क्रिया-कलापों में शामिल होने की जरूरत महसूस नहीं होती। वे नहीं चाहते कि किसी फार्म वगैरह में धर्म के खाने में कुछ भरा जाए। यहां एक बार फिर यह याद करना मुनासिब होगा कि खुदा के लिए में नायक जब तक कट्टरपंथी मुल्ला के संपर्क में नहीं आता है, तब तक नमाज वगैरह नहीं पढ़ता है। वहां के मध्यवर्गीय लोगों की यही सचाई है। वैसे शुक्रवार को छोड़कर बाकी दिनों में नमाज पढ़ने वाले लोग वहां उस अनुपात में नहीं हैं, जिसकी हम यहां बैठकर कल्पना कर लेते हैं।
क्रिकेट के प्रशंसक युवाओं का कहना है कि जनाब जब भारत के साथ हमारी टीम खेलती है तो जाहिर है हम हर कीमत पर जीतना चाहते हैं, लेकिन जब किसी पश्चिमी देश के साथ मैच हो तो हम चाहते हैं कि मैच भारत जीते। सचिन और सहवाग सेंचुरी ठोंक कर ही पवेलियन लौटें। जश्न के मौकों पर पाकिस्तान के सिंध सूबे के युवा अपने हिंदू दोस्तों की चिरौरी करते हैं कि वे किसी तरह उन्हें शराब ख्ररीद कर ला दें, फिर वे चोरी-चोरी, चुपके-चुपके जश्न मनाते हैं। पाकिस्तान चूंकि एक इस्लामिक गणराज्य है इसलिए वहां कोई मुसलमान शराब नहीं खरीद सकता। मुसलमानों के लिए पाबंदी है। दुकानदार शराब खरीदने वाले के पहचान से संतुष्ट होने के बाद ही हिंदू, सिख या ईसाई को शराब बेचते हैं। वैसे वहां पंजाब राज्य में शराब के शौकीन पुलिस और लोगों से छिपाकर किसी तरह इसका जुगाड़ कर ही लेते हैं। लाहौर के अधिकांश युवा शराब के विरोधी हैं, लेकिन इस प्रकार के प्रतिबंध को वे उचित नहीं मानते। उनको लगता है कि प्रतिबंध की वजह से अंदर ही अंदर ये लत ज्यादा भयानक स्तर पर फैल रही है।
लाहौर मेडिकल एंड डेंटल कालेज में एम.बी.बी.एस. अंतिम वर्ष की छात्रा रुखसाना जमाल ने बताया कि इस सचाई से हम इनकार नहीं कर सकते कि शराब, व्यक्तिगत संबंध या अन्य मामलों में अधिक आजादी के बावजूद पश्चिमी देशों के युवा हमसे कहीं आगे हैं। अगर उतनी आजादी मुमकिन न हो, तो कम-से-कम इंडिया के बराबर तो होनी ही चाहिए। देख लीजिए कि जिस चीज का इलाज हम नहीं कर पाते हैं, उन मरीजों को हम भारत भेजते हैं। हम भारत में जाकर नौकरी करना चाहते हैं और मजा आए तो बस जाना चाहते हैं। मगर हम अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या कनाडा में जाकर तो नौकरी कर सकते हैं, बस सकते हैं मगर भारत जाकर न नौकरी कर सकते हैं, न बसने की सोच सकते हैं। क्या यह कभी मुमकिन हो सकेगा?
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