मंगलवार, अक्तूबर 20, 2009

जो गायब भी है हाजिर भी


गजल गायिकी के क्षेत्र में अपने अनूठे अंदाज के लिए मशहूर पाकिस्तानी गायिका इकबाल बानो नहीं रहीं। मंगलवार, 21 अप्रैल, 2009 को लाहौर के गार्डन टाउन इलाके में उनका इंतकाल हो गया।
फौजी जनरल याह्या खान के समय जब इस्लाम को लेकर बेहद सख्त और पाबंदी भरा रवैया अख्तियार किया गया था, तो उन्होंने जनता की आवाज बन जाने वाली इस नज्म के बहाने अवाम के मन की बातों को आवाज दी-

लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंग..
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे..

बगावत करने के लिए उकसाती यह नज्म पाकिस्तान में बेहद मशहूर हुई। इस गजल को उन्होंने करीब 50 हजार की भीड़ के सामने गाया था। बाद में तो ये हुआ कि इकबाल बानो जब भी किसी मंच पर इस नज्म को गाते हुए ये कहतीं, सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे तो दर्शकों के बीच से समवेत आवाजें आतीं-हम देखेंगे..। इसकी वजह ये थी कि फैज अहमद फैज की यह नज्म फौजी हुकूमत से परेशान जनता के दिल की सच्ची आवाज बन गई थी। इसके अलावा इकबाल बानो ने फैज अहमद फैज की दूसरी नज्मों और अहमद फराज की गजलों को अपने खास अंदाज में गाकर अमर कर दिया।
दिल्ली में 1935 में पैदा हुई इकबाल बानो को दिल्ली घराने के उस्ताद चांद ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी थी। बचपन में संगीत के प्रति उनके लगाव और पुरकशिश आवाज के कारण उनके पिता ने उन्हें संगीत सीखने की इजाजत दे दी। फिर वे आल इंडिया रेडियो, दिल्ली के लिए गाने लगीं। महज 17 साल की उम्र में लाहौर के एक बड़े जमींदार के साथ उनका निकाह हो गया। निकाह के बाद 1952 में वे पाकिस्तान चली गईं। शौहर ने उन्हें यह वचन दिया था कि वे इकबाल को कभी गाने-बजाने से नहीं रोकेंगे और उन्होंने अपना यह वचन 1980 में अपनी मृत्यु तक बखूबी निभाया। लाहौर में बेपनाह मुहब्बत करने वाले शौहर और अवाम के प्यार के बावजूद इकबाल के दिल में हमेशा दिल्ली के लिए खास प्यार बना रहा। वे बार-बार दिल्ली आना चाहतीं थी-यहां की शास्त्रीय संगीत की परंपरा, बचपन की गलियां-चौबारे उन्हें खींचती थी।
वहां जाने के बाद उन्हें लाहौर रेडियो ने गाने के लिए बुलाया। उन्होंने अपनी मधुर गायिकी का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन बाद लाहौर के आर्ट कौंसिल में किया था। पचास के दशक में इकबाल ने कुछ पाकिस्तानी फिल्मों में भी गाया, जिनमें गुमनाम, कातिल, इंतकाम, सरफरोश, इश्क-ए-लैला और नागिन प्रमुख हैं। संगीत के रसिक कई बार बेगम अख्तर और इकबाल बानो गायिकी के बीच कुछ चीजों को लेकर तुलना भी करते रहते हैं। मसलन इकबाल भी राग की शुद्धता और गजल की गुणवत्ता का खास ख्याल रखती थीं। उर्दू के साथ-साथ फारसी गजलें भी वे पूरे अधिकार के साथ गाती थीं। इसलिए 1979 से पहले तक अफगानिस्तान के बादशाह उन्हें हर साल जश्न-ए-काबुल के मौके पर गाने का दावत भेजते थे। हालांकि वे मशहूर हुईं अपनी गजल गायिकी की वजह से, लेकिन ठुमरी और दादरा भी इकबाल ने बिल्कुल अलहदा अंदाज में गाया है। तू लाख चले री गोरी थम थम के..भी उनकी मशहूर गजलों में से एक माना जाता है।
यूं तो 74 वर्ष की उम्र कुछ खास नहीं होती, लेकिन कुछ महीने पहले ही वे जब बीमार पड़ीं, तो फिर उठ न सकीं। शायद पति के देहांत के बाद की तन्हाई और वक्त के साथ बढ़ते फासले की वजह से वे थक गई थीं और चल पड़ी अंतिम यात्रा पर..लाजिम है कि हम भी देखेंगे..कि उत्कंठा मन में लिए हुए।

1 टिप्पणी:

kishore ghildiyal ने कहा…

ghazal ki duniya ka ek sitara doob gaya