मंगलवार, अक्तूबर 20, 2009

ऐसे पैदा होती हैं सनसनीखेज खबरें

ये मामला जरा पुराना है, पर प्रासंगिक है.

दिल्ली के हाई प्रोफाइल लोगों के क्लब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भारत और पाकिस्तान के नामचीन पत्रकारों के लिए द फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने एक सेमिनार आयोजित किया था। जिसमें पाकिस्तान की पत्रकारिता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर पहचान दिलाने वाले कई पत्रकार उपस्थित थे। पेशावर स्थित जंग समूह के द न्यूज के संस्थापक और कार्यकारी संपादक सहित बीबीसी की पश्तो और उर्दू सेवा के लिए रिर्पोटिंग, टाइम मैगजीन आदि के लिए रिर्पोटिंग करने वाले पत्रकार रहीमुल्ला युसुफजई, कराची में रहने वाली स्वतंत्र पत्रकार और फिल्म निर्माता बीना सरवर, डेली आजकल के संपादक सईद मिन्हास, बीबीसी बड़े पत्रकार वुसतुल्लाह खान और द न्यूज के मुनीबा कमाल सहित नामचीन पाकिस्तानी पत्रकारों की अच्छी-खासी संख्या थी। इधर भारत की ओर से प्रख्यात बुद्धिजीवियों की भी अच्छी-खासी संख्या थी, जिनमें जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय, हिंदुस्तान टाइम्स के अमित बरुआ सहित तकरीबन ढाई सौ भारतीय और पाकिस्तानी पत्रकार भाग ले रहे थे।
भारत-पाकिस्तान में अंध-राष्ट्रभक्ति बढ़ाने में मीडिया की खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी प्रवृत्ति को लेकर सेमिनार में अच्छे व्याख्यान हुए, बेहतर स्तर के सवाल-जवाब हुए और पूरा कार्यक्रम तकरीबन तीन घंटे तक चला, जिसमें कथित श्रीराम सैनिकों (जिनकी संख्या महच तीन थी) के उत्पात को छोड़ दें, तो पूरा कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से तकरीबन तीन घंटे तक चलता रहा। लोगों के बीच अच्छी बातचीत हुई, हँसी-मजाक हुए। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जहां कुछ पाकिस्तानी पत्रकार भारतीय चुनाव पर बात करने लगे, वहींकुछ पत्रकार दिल्ली में मिलने वाली उम्दा क्वालिटी की शराब की जानकारी इसके विशेषज्ञ भारतीय मित्रों से लेने लगे। क्योंकि मयनोशी के शौकीन बेचारे पाकिस्तानी पत्रकारों को अपने इस्लामिक देश में यही एक चीज है जो मयस्सर नहीं। वहां शराब की दुकानों से हिंदू, ईसाई और सिख तो शराब खरीद सकते हैं, लेकिन पाकिस्तानी मुसलमान नहीं। खैर..सेमिनार के बाद भारत-पाक के पत्रकार यूं मिल रहे थे, जैसे अपने बेहद खास दोस्तों-रिश्तेदारों से मिल रहे हों-अलग-अलग टोलियों में शाम की दावत और सुकून भरे पल बिताने के बारे में लोग योजनाएं बना रहे थे।
अजीब और दुखद बात यह है कि जिस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए भारत-पाक के ये नामचीन सहाफी इकट्ठे हुए थे, दरअसल वही इस सेमिनार से बाहर की दुनिया में उसी दिन और उसी वक्त घटित हो रहा था। हुआ ये था कि बीबीसी के पेशावर स्थित संवाददाता रहीमुल्ला युसुफजई, जिन्होंने ओसामा बिन लादेन का इंटरव्यू करके दुनिया को सीधे उसके विचारों से रू-ब-रू करवाया था-उस दिन सेमिनार में अपने मौलिक अंदाज में थे। वे जब पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी मीडिया के गैर जिम्मेदाराना रवैये का उदाहरण दे-देकर ब्यौरा पेश करते हुए तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर रहे थे, उसी वक्त कथित तीन श्रीराम सैनिकों ने पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी शुरु कर दी। तब आईआईसी के प्रबंधकों और आयोजकों ने भद्र तरीके से उन्हें हॉल से बाहर निकाल दिया। बस फिर क्या था-ततैये के झुंड पर तो पत्थर लग चुका था। जो मीडिया वाले सेमिनार सुन रहे थे, जो टीवी चैनल वाले वक्ताओं की बातों को फिल्मा रहे थे, उनका कैमरा उन्हीं तीन श्रीराम सैनिकों पर केंद्रित हो गए। गरमा-गरम बाइट मिला, गरमा-गरम हाट सीन मिला और गरमा-गरम टापिक भी मिल गया। फिर वहां कौन वक्त खराब करने के लिए रुकता? दौड़े वे लोग खबर चलाने के लिए। क्योंकि छप रहे अखबार और पक रहे मांस को चाहिए गरम मसाला। ..और जनाब मामला जब दुश्मन देश पाकिस्तान से जुड़ा हो, मियां मुशर्रफ के देश से जुड़ा हो तो इससे ज्यादा हॉट न्यूज भला और क्या हो सकता था?
इधर कार्यक्रम चल रहा था और उधर टीवी के टिकर्स (पर्दे के नीचे चलनेवाली खबरों की पट्टी) से मुख्य खबरों की जगह आन विराजा था यह महत्वपूर्ण समाचार-नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पाकिस्तानी पत्रकारों पर श्रीराम सेना का हमला, हालात को काबू में करने के लिए भारी संख्या में पुलिस बल तैनात आदि-आदि। पाकिस्तानी पत्रकारों ने जो बातें कहीं, सेमिनार में जो कुछ हुआ वह सब गया भाड़ में, खबर ये पैदा हुई कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। तीन ही लोग यदि सैनिकों जैसे बहुवचन के साथ न्याय करते हों, तो धन्य हैं हमारे खबर बनाने वाले सूरमा। यदि वे तीन श्रीराम सैनिक लिखते तो क्या तथ्य गलत हो जाता? मगर अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो की तर्ज पर उन्होंने तीन सैनिकों शब्द का इस्तेमाल करना बिल्कुल मुनासिब नहीं समझा। व्याकरण के नियमों का अच्छा उदाहरण पेश किया कि श्रीराम सैनिकों का पाकिस्तानी पत्रकारों पर हमला। अब पाठक समझते रहें कि सैनिकों का मतलब तीन है या तेरह हजार।
निष्पक्षता और तटस्थता का ठेका तो उन्होंने तभी लेना बंद कर दिया, जब से अनुबंध की नौकरी पर आए। इसलिए सैनिकों तो भई सैनिकों हैं और मार्केटिंग की पालिसी कहती है कि यदि आपने संख्या सही-सही बता दी, तब तो बिक गया प्रोडक्ट और मिल गई टीआरपी और विज्ञापन। तो ये है खबर बनाने का तरीका और इस तरीके से बनती है असली खबर। ..इस खेल में भला पाकिस्तानी मीडिया भी कैसे पीछे रहती। सो यह खबर जैसे ही भारतीय मीडिया में आई तो पाकिस्तानी मीडिया ने भी इस खबर को लपक लिया। उसके बाद तो पाकिस्तानी पत्रकारों की शामत आ गई। सबकी बीवी यहां फोन खड़काने लगी और शौहर की खैरियत पूछने लगी। बताया कि जी, यहां तो पाकिस्तान में खबर चल रही है कि आप लोगों पर श्रीराम सेना के चरमपंथियों ने जानलेवा हमले किए हैं। क्या हुआ जल्दी बताइए? अब वे लोग इस तमाशा के बारे में कहें तो क्या कहें? सबने इस खबर को बेबुनियाद बताया, तो बीवियों ने सोचा शौहर हमारा दिल रखने के लिए ऐसा बोल रहे हैं-ताकि वे कोई चिंता न करें। तमाशा भले न हुआ, लेकिन पुर्जे तो उड़ चुके थे और उड़कर पाकिस्तान तक पहुंच चुके थे। सो यहां आईआईसी में भले तमाशा न हुआ हो, मीडिया में तो तमाशा हो गया था।
अब जरा यह भी जान लीजिए कि इस सेमिनार में जो मुद्दे उठे क्या वे गैर जरूरी थे? आतंकवाद और तालिबानी खतरे को लेकर भारतीय रवैये को लेकर उनका कहना था कि भारत कहता है कि ये तो पाकिस्तान की ही लगाई हुई आग है..अब वो भुगते, इससे हमें क्या? अस्सी और नब्बे के दशक में यही रवैया पाकिस्तान का भी अफगानिस्तान को लेकर था-ये अफगानिस्तान की आग है, हमें क्या? मुजाहिदीन जानें, रुसी जानें या खुदा जाने। उस वक्त पाकिस्तानियों को यह अहसास नहीं था कि ये वो तीर है जो वापिस लौटकर भी आता है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि दो-तिहाई पाकिस्तान किसी-न-ृकिसी किस्म के आतंकवादी हमले, धार्मिक हमलों को बेहद उग्र रूप में झेल रहा है। जिससे देश का वजूद ही संकट के दायरे में आ गया है। पाकिस्तान एक ऐसा मरीज बन गया है जिसे इस वक्त उसकी संगीन गलतियां याद दिलाने, धमकियां और डांट-डपट करने से ज्यादा जरूरी है उसकी मदद और प्यार। पाकिस्तान और प्यार? वह भी भारत उसे प्यार करे, जिसे उसने हमेशा ही घावों और मौतों का उपहार दिया है? यह बात भला कथित श्रीराम सैनिक कैसे सह लेते? और वे यदि सह भी लेते तो जिंगोइज्म यानी अंध-राष्ट्रभक्ति से लबरेज हमारी मीडिया कैसे नजरअंदाज कर देती इसे? आखिर उनकी बाजारोन्मुखी राष्ट्रभक्ति और इश्तहार पैदा करने वाले प्रोडक्ट का सवाल था।
मुंबई हमले के बाद भारतीय मीडिया की इसी जिंगोइज्म की चर्चा हो रही थी कि कैसे दोनों देश की सरकारों से ज्यादा मीडिया ने युद्ध लड़ना शुरू कर दिया। हर कोई अपने तोप का मुंह पाकिस्तान की ओर घुमाकर गोला भरने लगा है। क्या यही काम कभी पहले इराक युद्ध के समय सीनियर बुश के मिसाइलों के प्रहार की बेहतर कवरेज के लिए नहीं हुआ था? याद करिए कि उस समय बेहतर कवरेज के लिए नए सिरे से हमले की तारीख और वक्त तय किया गया था। मगर अफसोस कि भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया को मुंबई हमले के बाद अग्नि, पृथ्वी और हत्फ मिसाइलों की कवरेज का सौभाग्य(?) नहीं मिला। कितनी गलत बात है ये कि कमबख्त सरकारों ने मीडिया की भावनाओं का जरा भी खयाल ही नहीं रखा। लानत है मनमोहन सिंह और आसिफ अली जरदारी पर। सो इन दिनों भारत में इन भावनाओं का पेट भरता है प्रतिदिन तालिबान पर गलत-सलत फुटेज दिखाते हुए आधारहीन खबरें ब्रेक करने से, श्रीराम सैनिकों के विरोध को बड़ी खबर बनाने से। ऐसे में आखिर क्यों नहीं दोनों देशों की पत्रकारिता की विश्वसनीयता का क्षय होगा। रहीमुल्ला युसुफजई ने व्यंग्य बातचीत में व्यंग्य किया था-जय हो..। अब ये मत पूछिएगा कि किसकी? ओके?

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